एशिया, यूरोप और अफ्रीका को समुद्र एवं सड़कों के विशाल बुनियादी ढांचे के जरिए जोड़ने के लिए चीन द्वारा की गई ‘वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर)’ पहल को बड़ी तेजी से एक समावेशी अंतर्राष्ट्रीय क्षमता सहयोग पहल के रूप में अपनाया जा रहा है। इस पहल को एक ऐसे आर्थिक एजेंडे के रूप में प्रचारित किया जा रहा है जिसके तहत चीन की कुछ विनिर्माण क्षमता इसके भागीदार देशों को स्थानांतरित कर दी जाएगी और जो सभी के लिए फायदे का सौदा साबित होगा। दक्षिण एशिया में इसकी वर्तमान उपयुक्त बानगी चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपीईसी) है। इस परियोजना के बारे में चीन का दावा है कि इससे दक्षिण एशिया का तेजी से आधुनिकीकरण हो सकता है। हालांकि, बिजनेस से जुड़ी कनेक्टिविटी सुनिश्चित करना तो एक बहाना है। इसके पीछे असली महत्वाकांक्षा तो यूरेशिया पर अपना आधिपत्य स्थापित करने और एक नई विश्व व्यवस्था कायम करने की है। वैसे, चीन का यह दांव जोखिम भरा है क्योंकि इसमें अनगिनत विरोधाभास निहित हैं जिनमें आसानी से सामंजस्य स्थापित नहीं किया जा सकता है। चीन भले ही यह संदेश देने की कोशिश कर रहा हो कि इससे संबंधित भागीदारों का अहित नहीं होगा, लेकिन इससे बड़ी शक्तियों की राजनीति अथवा सत्ता की राजनीति के मंसूबे की पुष्टि नहीं होती है। यही नहीं, अंतर्निहित विरोधाभास इसके भविष्य के लिए सही नहीं हैं।
इनमें से खटकने वाली पहली लाइन कुछ और नहीं, बल्कि सत्ता की राजनीति को ही अभिव्यक्त करती है। चूंकि बड़ी शक्तियां अपना हित साधने के लिए चारों ओर अपना जाल फैलाती रहती हैं और उनके पास अकूत संसाधन भी होते हैं, इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि चीन अपनी महत्वाकांक्षा को केवल बुनियादी ढांचागत सुविधाएं और कनेक्टिविटी सुनिश्चित करने तक ही क्यों सीमित रखेगा। दरअसल, एशिया में आधिपत्य सुनिश्चित करने के लिए चीन आर्थिक और सैन्य दोनों ही ताकतों को काम में ला सकता है। कटु सच्चाई यही है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अपना सैन्य कौशल बढ़ाने के बजाय अर्थशास्त्र अथवा आर्थिक मसलों को सुलझाने पर ध्यान केंद्रित किए जाने के बावजूद दूसरे देशों को अपनी बढ़ी हुई ताकत का अहसास कराना पहले की ही तरह आज भी प्रासंगिक है।
यूरोप के पुनर्निर्माण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका की मार्शल योजना अर्थशास्त्र पर केंद्रित एक ऐसे दृष्टिकोण का विशिष्ट उदाहरण थी, जिसे सैन्य ताकत का सहारा भी प्राप्त था। निम्नलिखित दो कारक स्पष्ट तौर पर सुदृढ़ ताकत की प्रधानता को दर्शाते हैं।
- पहली बात, संबंधित देश खुद को एक निवेश जाल में फंसा हुआ पाते थे और ऐसे में अपने आर्थिक निवेश को सुरक्षित रखने के लिए सैन्य ताकत का सहारा लेना आवश्यक हो जाता था।
- दूसरी बात, बड़ी शक्तियों की असली प्रवृत्ति यही होती थी कि पहले अपना आर्थिक प्रभाव डालो और फिर उसके बल पर साझेदार देशों से सैन्य प्रतिबद्धताएं हासिल करो।
चाहे एशिया हो या लैटिन अमेरिका, हर जगह पहले डॉलर कमाने पर अपना ध्यान केंद्रित करने के बाद वहां हमेशा ही विशाल अमेरिकी सैन्य उपस्थिति या धमक दर्ज कराई गई है। यही कारण है कि यूरोप में पुनर्निर्माण कार्य शुरू करने के कुछ ही वर्षों के भीतर अमेरिका इस महाद्वीप में सैन्य दृष्टि से भी उतना ही लिप्त हो गया जितना वह आर्थिक दृष्टि से था।
ठीक यही स्थिति पूर्ववर्ती सोवियत संघ में भी देखने को मिली जहां उसके अनुयायीगण या ग्राहकगण, चाहे वे अफ्रीका में हों या लैटिन अमेरिका में, वे सैन्य दृष्टि से बेहद ज्यादा लिप्त हो गए थे। यदि ओबीओआर को चीन की 21वीं सदी की मार्शल योजना के रूप में देखा जाए, तो यह तय है कि बढ़ते आर्थिक प्रभाव को सुरक्षित रखने के लिए चीन की ओर से और ज्यादा गहरी सैन्य प्रतिबद्धताओं की आवश्यकता होगी। दरअसल, पेंटागन की एक हालिया रिपोर्ट में इन संभावनाओं की ओर इशारा किया गया है, क्योंकि इसने पाकिस्तान में चीनी सैन्य ठिकानों की संभावना पर प्रकाश डाला है। इससे साफ जाहिर है कि ओबीओआर का ‘विन-विन या सबके फायदे’ का फॉर्मूला बड़ी शक्तियों या ताकतों के आचरण के ऐतिहासिक साक्ष्य के ठीक विपरीत है।
पिछले दो दशकों में चीन का अपना जो रिकॉर्ड रहा है वह इस बात का सबूत है कि वह सत्ता की सरगर्म राजनीति की इस त्रासदी से बच नहीं सकता है। दरअसल, पिछले दो दशकों में चीन ने पहले तो विभिन्न क्षेत्रों में अपनी आर्थिक हिस्सेदारी बढ़ाई और फिर कुछ अर्से बाद उसे अपनी सैन्य प्राथमिकताओं में बदलाव करना पड़ा। उदाहरण के लिए, हांगकांग से मुख्यभूमि चीन में अपने औद्योगिक विनिर्माण गलियारों का स्थानांतरण करने के बाद उसे अपने व्यापारिक बेड़े की रक्षा करने के लिए लगभग उसी दौरान काफी तेजी से दक्षिण चीन सागर और अरब सागर में अपने सैन्य ठिकानों में वृद्धि करनी पड़ी।
वर्ष 2008 में आर्थिक मंदी के दस्तक देने के बाद जब बाकी दुनिया अपने अंतरराष्ट्रीय निवेश को कम कर रही थी, तो वहीं दूसरी ओर चीन ने कई देशों में अपना प्रति-चक्रीय रणनीतिक निवेश बढ़ा दिया था क्योंकि उसने विभिन्न देशों में अवस्थित अपनी बुनियादी ढांचागत परिसंपत्तियों में अपनी सैन्य क्षमताओं को भी चुपचाप अंतर्निहित या शामिल करना शुरू कर दिया था। वैसे तो चीन यह दावा करता रहा है कि वह महज आर्थिक और ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने की खातिर ही बुनियादी ढांचागत परिसंपत्तियों में निवेश कर रहा है, लेकिन अंतत: आगे चलकर बुनियादी ढांचागत निवेश वाले स्थलों पर सैन्य चौकी की स्थापना होना एक तरह से तय है। यह प्रक्रिया पहले से ही जारी है। उदाहरण के लिए, सेशल्स, श्रीलंका और ग्वादर में नौसेना की बर्थिंग एवं डॉकिंग सुविधाएं स्थापित की जा रही हैं।
अत: ओबीओआर जैसा विशुद्ध आर्थिक उद्यम अपने सैन्यीकरण से बच नहीं सकता है, जिससे यह सवाल उठता है कि क्या चीन के लिए ओबीओआर को सैन्य दृष्टि से निरंतर बनाए रखना संभव है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि सबसे प्रमुख वैश्विक ताकत के रूप में अमेरिका का पतन अभी उतना ज्यादा भी स्पष्ट या जगजाहिर नहीं है कि चीन इस पर एकदम झूम-झूमकर खुशियां मना सके। यही नहीं, बढ़ती वित्तीय समस्याओं और घरेलू उथल-पुथल के बावजूद अमेरिका में अब भी उतनी जबरदस्त नौसैनिक ताकत है जो चीन के पास कतई नहीं है।
इसके अलावा, ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि विशाल यूरेशियन समुद्र में चीन को समुद्री प्रभुत्व हासिल नहीं है। ऐतिहासिक रूप से, नौसेना के आधिपत्य के बलबूते ही आर्थिक वर्चस्व संभव होता रहा है। सबसे ताकतवर समुद्री ताकतों ने ही सदा वैश्विक व्यापार पर अपना वर्चस्व कायम किया है। औद्योगिक युग से पहले एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में ‘डच’ के पतन की मुख्य वजह वे सुरक्षा संबंधी चुनौतियां थी जिनका सामना उसके व्यापारिक पोत को करना पड़ा था। वहीं, दूसरी ओर ब्रिटेन अपनी श्रेष्ठ नौसेना के बल पर समुद्री-लेन का भरपूर फायदा उठाने में सफल रहा था। बाद में, ब्रिटेन इस मामले में अमेरिका का लोहा मानने पर विवश हो गया। एक और अहम बात। मौजूदा समय में चीन की केवल नौसैनिक ताकत ही अमेरिका की तुलना में बेहद कम नहीं है, बल्कि अमेरिका के हवाई पंख भी चीन के मुकाबले काफी ज्यादा सक्षम हैं।
हालांकि, इस तरह की समुद्री ताकतें दूसरों के ‘सह-विकल्प’ यानी ‘मजबूत समुद्री गठबंधन’ बना कर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लेती हैं, जैसा कि ग्रामसी का कहना है। वैसे, चीन इस मामले में भी काफी पीछे है। समुद्र तक अपेक्षाकृत सीमित पहुंच होने के कारण चीन भौगोलिक दृष्टि से अमेरिका के मुकाबले ‘अबढ़त या अलाभ’ की स्थिति में है। चीन मुख्यत: एक महाद्वीपीय शक्ति है। चीन के अधिकांश भाग जमीन से घिरे हुए हैं और यदि यूरेशिया को एक महाद्वीपीय विकल्प के तौर पर ध्यान में रखते हैं, तो इससे साफ जाहिर होता है कि इस क्षेत्र की अपनी ऐसी भौगोलिक सीमाएं हैं जो एक मजबूत नौसैनिक गठबंधन बनने के रास्ते में काफी बाधक हैं। यूरेशिया के दक्षिणी भागों यानी दक्षिण-पूर्व एशिया और मध्य पूर्व के देशों की भौगोलिक स्थितियां बिल्कुल भिन्न हैं क्योंकि पहाड़ों एवं रेगिस्तान ने इसे एक परिसीमा या हद में बांध दिया है। इतना ही नहीं, यहां जो जलमार्ग हैं उन पर जहाज बमुश्किल से ही चल पाते हैं।
भारत-पाकिस्तान गठबंधन निकट भविष्य में नजर नहीं आ रहा है और न ही गंगा बेसिन जहाजों के चलने योग्य है। ऐसे में केवल उत्तरी यूरोपीय मैदान, यूरेशियन मैदान और पीली नदी बेसिन के आसपास अवस्थित देश ही सार्थक गठबंधन के लिहाज से उपयुक्त हैं। वैसे तो उत्तरी यूरोपीय मैदान और यूरेशियाई मैदान निकट ही हैं, लेकिन वहां कोई ऐसा गर्म पानी वाला जलमार्ग नहीं है जो जहाजों के चलने योग्य हो और जो उन्हें आपस में या पीली नदी बेसिन से जोड़ सके और इस तरह हाल-फिलहाल में एक मजबूत नौसेना गठबंधन बनाना संभव हो सके।
चीन संभवत: जिस विकल्प पर काम कर रहा है उसके तहत वह शीत युद्ध के युग के दौरान अपनाए गए सोवियत मॉडल का अनुकरण कर रहा है। पीटर महान के समय से ही रूस गर्म पानी वाले बंदरगाहों की तलाश करने पर विशेष जोर देता रहा है, वह सिलसिला इसकी सुरक्षा नीति में अब भी जारी है। रूस के पूर्वी तट पर ‘व्लादिवोस्तोक’ का निर्माण किया गया था जिसका उद्देश्य प्रशांत महासागर में प्रमुख नौसैनिक उपस्थिति दर्ज करना और चीन, उत्तर कोरिया, जापान एवं सुदूर पूर्व के अन्य देशों में अपनी मौजूदगी तथा उनके साथ रिश्ते सुदढ़ करने में रूस की मदद करना था।
यह बंदरगाह एक बड़ा सैन्य अड्डा रहा है और ट्रांस-साइबेरियन रेलवे के जरिए इसे पश्चिमी देशों से जोड़ने के समय से ही एक कूटनीतिक एवं आर्थिक चौकी (आउटपोस्ट) होने के नाते इसे काफी अहमियत दी जाती रही है। इसके साथ ही इसने रूस के पूर्वी तट को यूरोप के मूल्यवान बाजारों के लिए खोल दिया था। यह ठीक कुछ वैसा ही है जो अब ओबीओआर का लक्ष्य चीन के लिए है। हालांकि, रूसी शक्ति के महाद्वीपीय स्वरूप ने उसे अपने इतिहास में कभी भी वैश्विक स्तर की नौसैनिक शक्ति नहीं बनने दी। ठीक इसी तरह का भौगोलिक अंकुश अब चीन की महत्वाकांक्षा के आड़े आ रहा है।
चीनी शक्ति के महाद्वीपीय स्वरूप और उससे जुड़ी मजबूरियां चाहे जो भी हों, इसके साथ ही यह भी सच है कि स्थापित बड़ी शक्तियां किसी भी वैश्विक प्रतिद्वंद्वी के अभ्युदय को रोकने के लिए निरंतर प्रयास करती रहती हैं। ठीक यही स्थिति ओबीओआर पहल के जरिए एक बड़ी ताकत के रूप में चीन के अभ्युदय के मामले में भी देखी जा रही है। दरअसल, चीन की महत्वाकांक्षी योजनाओं को ध्यान में रखते हुए इसके खिलाफ एक जवाबी गठबंधन बनाने का काम पहले ही शुरू हो चुका है। इसकी झलक अमेरिका-जापान-ऑस्ट्रेलिया-भारत का चतुष्कोणीय गठबंधन बनाने में नए सिरे से बढ़ रही दिलचस्पी में देखी जा सकती है। ओबीओआर की दिशा में तेजी से हो रही प्रगति और बढ़ते चीनी प्रभाव से बेहद आशंकित होकर अमेरिका अब दक्षिण चीन सागर में सैन्य सहयोग हेतु आपस में हाथ मिलाने के लिए भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ गठजोड़ कर रहा है, ताकि अंतर्राष्ट्रीय जल सीमा में चीन की बढ़ती सैन्य ताकत को संतुलित किया जा सके। अमेरिका ने इसके साथ ही एशिया में अपनी प्रमुख बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं में हाल ही में नई जान फूंकी है। इनमें दक्षिण एवं मध्य एशिया को आपस में जोड़ने के लिए प्रस्तावित न्यू सिल्क रोड (एनएसआर) और दक्षिण एशिया एवं दक्षिण-पूर्व एशिया को आपस में जोड़ने के लिए प्रस्तावित भारत-प्रशांत आर्थिक कॉरिडोर शामिल हैं। इस बीच, भारत और जापान ने अफ्रीका, ईरान, श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व एशिया में कई बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं पर काम शुरू करने के लिए आपस में हाथ मिलाया है।
चीन भले ही सभी बड़ी शक्तियों की भांति ही अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए एक नई विश्व व्यवस्था कायम करने की कोशिश कर रहा हो, लेकिन इस प्रक्रिया में वह सत्ता की सरगर्म राजनीति के अनपेक्षित परिणामों से नहीं बच सकता है। उदाहरण के लिए, अपने बढ़ते आर्थिक दायरे को ध्यान में रखते हुए उसे अपनी सैन्य मौजूदगी बढ़ानी होगी। अनायास ही सही, लेकिन यह तय है कि ओबीओआर का सैन्यीकरण आगे चलकर कई मुसीबतों का कारण बन जाएगा, जो चीन की अपेक्षाकृत मामूली नौसैनिक ताकत, उसकी मजबूरीवश भौगोलिक सीमाओं और वैश्विक शक्ति संतुलन की आवश्यकताओं के कारण विकट हो जाएगी। वैसे तो चीन इन खतरों को टालने की भरसक कोशिश कर सकता है, लेकिन इसमें सफलता मिलने के आसार अत्यंत कम हैं क्योंकि सत्ता की गहराती राजनीति से अपने-आप कुछ ऐसी हकीकतें और नतीजे उभर कर सामने आते हैं जिनका अक्सर अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है।
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