पाकिस्तान में आधी-अधूरी या पूरी फ़ौजी हुक़ूमत के बीच की छोटी सी दरमियानी मियाद ही लोकतंत्र है. पिछले 15 वर्षों से वहां अर्द्ध-लोकतांत्रिक व्यवस्था क़ायम है, जिसके तहत चुनी हुई सरकारों को कमज़ोर, नाकाम और अस्थिर किया जाता रहा है. राज्यसत्ता की ताक़तवर, मगर ग़ैर-निर्वाचित और ग़ैर-जवाबदेह संस्थाएं- ख़ासतौर से फ़ौज और न्यायपालिका की ओर से ऐसी क़वायदों को अंजाम दिया जाता रहा है. फ़िलहाल वक़्त न्यायपालिका और फ़ौज की जोड़ी ने सेना और अफ़सरशाही की पुरानी जुगलबंदी की जगह ले ली है. अजीब विडबंना है कि इस बदलाव ने सेना और न्यायपालिका की साझेदारी में फूट डालने का माद्दा रखने वाली ताक़तों (इमरान ख़ान) को ही बढ़ावा दे डाला है. इससे नागरिक और सैनिक सत्ता के बीच संतुलन बहाल होने की संभावना बन सकती है, जो आख़िरकार असैनिक सत्ता की सर्वोच्चता भी सुनिश्चित कर सकती है. दरअसल, अविश्वास प्रस्ताव के ज़रिए कुर्सी से हटाए जाने के बावजूद इमरान ख़ान चुपचाप रुख़सती को तैयार नहीं हैं. नतीजतन वहां सियासी संकट के ऐसे हालात बन गए हैं जिसमें सेना की ओर से सीधे दखलंदाज़ी की संभावना से पूरी तरह से इनकार नहीं किया जा सकता. इससे सियासी व्यवस्था में ठोस बदलाव आ सकते हैं. बारीक़ समझ रखने वाले कई पर्यवेक्षकों का विचार है कि सियासी और आर्थिक संकट का मौजूदा दौर बेमियादी वक़्त तक जारी नहीं रह सकता. लिहाज़ा वो ऊपर बताई गई संभावनाओं की चर्चा करने लगे हैं.
दरअसल, अविश्वास प्रस्ताव के ज़रिए कुर्सी से हटाए जाने के बावजूद इमरान ख़ान चुपचाप रुख़सती को तैयार नहीं हैं. नतीजतन वहां सियासी संकट के ऐसे हालात बन गए हैं जिसमें सेना की ओर से सीधे दखलंदाज़ी की संभावना से पूरी तरह से इनकार नहीं किया जा सकता.
अप्रैल 2022 से शहबाज़ शरीफ़ की अगुवाई वाली हुकूमत ने कामकाज संभाला रखा है. इस छोटी सी मियाद में ही नेतृत्व परिवर्तन के ज़रिए देश पर छाए संकट के बादलों के छंट जाने की उम्मीदें भी धराशायी हो गई हैं. देश की अर्थव्यवस्था डांवाडोल बनी हुई है. मुल्क के सियासत-दान आर्थिक मोर्चे पर आ रही गिरावट को थामने के लिए कोई भी कड़ा सुधार लागू करने से परहेज़ कर रहे हैं. उधर अड़ियल रुख़ अख़्तियार कर चुके इमरान ख़ान पाकिस्तान की सड़कों को लगातार सियासी अखाड़ा बनाए हुए हैं. इससे PML-N की अगुवाई वाले गठजोड़ के लिए राजकाज चलाना एक चुनौती बन गई है. बहरहाल इन तमाम मसलों से कहीं ज़्यादा संगीन सवाल अगले थल सेना प्रमुख की नियुक्ति को लेकर है. यही नियुक्ति देश की अन्य सभी संस्थाओं का जोड़-घटाव तय करती है. लिहाज़ा ये मसला न केवल सरकार बल्कि विपक्ष और (ज़ाहिर तौर पर) फ़ौज की स्थापित व्यवस्था के लिए भी चुनौती बना हुआ है. पाकिस्तानी फ़ौज के मौजूदा प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा नवंबर में रिटायर होने वाले हैं. ऐसे में अगले सेना प्रमुख की नियुक्ति से जुड़े सवाल को सियासी संकट को संचालित करने वाली ‘पटकथा के भीतर के क़िस्से’ के तौर पर देखा जा रहा है. हालांकि, सेना के अगले मुखिया का चयन करने की ज़िम्मेदारी संविधान ने सियासी नेतृत्व को सौंप रखी है, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त बिलकुल जुदा है. दरअसल- यही असलियत पाकिस्तान में लोकतंत्र का सूरत-ए-हाल बयां करती है. 2018 में जब इमरान ख़ान की अगुवाई वाली PTI आम चुनावों में विजेता बनकर उभरी थी तब चुनावों में धांधली किए जाने और सेना द्वारा इमरान का पक्ष लिए जाने के आरोप सियासी क़िस्सेबाज़ियों में छाए हुए थे. प्रधानमंत्री के तौर पर इमरान के पहले तीन साल, सरकार और सेना के बीच के रिश्तों के लिहाज़ से बेहद ख़ास रहे. इस दौरान दोनों के बीच ‘दुर्लभ मेलमिलाप’ यानी “दोनों के बीच एक राय” देखने को मिली. इसी बीच सत्ता संभालने के तीन साल बाद PTI की सरकार द्वारा अपना कार्यकाल पूरा करने की संभावना धूमिल पड़ने लगी. दरअसल ISI के तत्कालीन मुखिया ले. जन. फ़ैज़ अहमद के तबादले को लेकर सरकार और सेना में ज़बरदस्त टकराव छिड़ गया. नई नियुक्ति की अधिसूचना जारी करने में देरी के सरकारी फ़ैसले के चलते इमरान ख़ान और सेना प्रमुख के बीच की समझ कमज़ोर पड़ गई और उनसे सेना की सरपरस्ती छिन गई. दरअसल पाकिस्तान में सियासत-दानों और फ़ौजी व्यवस्था के बीच सत्ता को लेकर लगातार संघर्ष चलता रहता है. इस टकराव में फ़ौज को बढ़त हासिल रहती है. यही रस्साकशी पाकिस्तान में लोकतंत्र की दशादिशा तय करती है.
लोकतंत्र में अलोकतांत्रिक सरकारें
1947 में वजूद में आने के बाद से पाकिस्तान में अलग-अलग तरह की कई सरकारों का दौर रहा है. इस कड़ी में नागरिक प्रशासन से लेकर फ़ौजी तानाशाही और कई बार प्रशासन का मिला-जुला स्वरूप भी देखने को मिला है. बहरहाल 2008 के बाद से मुल्क में फ़ौजी तख़्तापलट की कोई वारदात नहीं हुई है. इसके बावजूद कोई भी प्रधानमंत्री- चाहे वो किसी भी पार्टी का क्यों ना हो- अपना कार्यकाल पूरा करने में नाकाम रहा है. इमरान ख़ान देश में स्थिरता लाने के लिए जल्द से जल्द चुनाव की मांग कर रहे हैं. ऐसे में कामयाब तरीक़े से चुनाव होने और उनसे सही मायनों में अवाम की नुमाइंदगी वाली जवाबदेह सरकार के गठन से जुड़े सवाल खड़े होना लाज़िमी है.
बहरहाल, पाकिस्तान में लोकतंत्र के मायने सिर्फ़ चुनाव नहीं हैं. वहां अक्सर चुनी हुई सरकारों का कामकाज भी बेहद अलोकतांत्रिक रहा है. अक्सर ऐसी सरकारें फ़ौजी व्यवस्था के आगे सिर झुकाने, अपने विरोधियों का दमन करने और मीडिया का मुंह बंद करने के लिए बदनाम रही हैं. 2013 तक पाकिस्तान में केवल 2 बड़ी राजनीतिक पार्टियां थीं- पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (PPP) और पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ (PML-N). दोनों ही पार्टियों का स्वरूप वंशवादी है और अक्सर सत्ता इन्हीं दोनों के पास आती-जाती रही है. आमतौर पर पाकिस्तान में सत्तारूढ़ पार्टी के ख़िलाफ़ जनता में गहरी नाराज़गी का भाव देखा गया है. अगले चुनाव में सत्ता गंवाने की आशंका के चलते सत्तारूढ़ सियासी दल बदलाव लाने और सुधारों की शुरुआत से कतराने लगते हैं. इससे सत्ता में उनका वक़्त ज़ाया होता रहता है. ऐसे में अपनी तरक़्क़ी के लिए निजी मुनाफ़े हासिल करना उनकी प्राथमिकता बन जाती है और वो कामकाज का टकराव भरा रुख़ अख़्तियार कर लेते हैं. इन पार्टियों में दरबारियों के एक ही समूह का दबदबा रहता है और दल के भीतर लोकतांत्रिक माहौल नदारद रहता है. इससे सरकार को नीति-निर्माण के लिए मिला जनादेश और कमज़ोर हो जाता है. नतीजतन असंतोष का माहौल गरमाने लगता है जिससे फ़ौज को अपने पैतरे आज़माने का मुनासिब मौक़ा मिल जाता है.
प्रधानमंत्री के तौर पर इमरान के पहले तीन साल, सरकार और सेना के बीच के रिश्तों के लिहाज़ से बेहद ख़ास रहे. इस दौरान दोनों के बीच ‘दुर्लभ मेलमिलाप’ यानी “दोनों के बीच एक राय” देखने को मिली. इसी बीच सत्ता संभालने के तीन साल बाद PTI की सरकार द्वारा अपना कार्यकाल पूरा करने की संभावना धूमिल पड़ने लगी.
किसी भी लोकतंत्र की अच्छी सेहत के लिए मज़बूत विपक्ष की मौजूदगी अनिवार्य होती है. हालांकि, पाकिस्तान में सियासी विपक्ष ने लोकतंत्र को आगे बढ़ाने की बजाए उसके ठीक उलट भूमिका निभाई है. वहां हर तरह की साज़िश रची जाती रही है और हर क़िस्म के पैतरे अंजाम दिए जाते रहे हैं. मुल्क में किसी भी तरह की चालबाज़ियों से परहेज़ नहीं किया जाता. हालांकि हर पक्ष पाक-साफ़ रुख़ अपनाने का दावा करते हुए यही दलील देता है कि वो संविधान में कही गई हर बात, हर भावना का पालन कर रहा है. लिहाज़ा अगर इमरान ख़ान ये दावा करते हैं कि 2014 में नवाज़ शरीफ़ की सरकार को गिराने के लिए उनके द्वारा दिया गया धरना संवैधानिक था और तब उन्होंने किसी भी क़ानून का उल्लंघन नहीं किया था, तो विपक्ष भी दो टूक शब्दों में कह रहा है कि अविश्वास प्रस्ताव के ज़रिए इमरान ख़ान को कुर्सी से हटाना पूरी तरह से क़ानूनी और संवैधानिक क़वायद है. आसान लब्ज़ों में कहें तो विपक्ष की हर सियासी पार्टी फ़ौजी व्यवस्था को अपने लिए सत्ता की सीढ़ी समझती है.
अगले चुनाव में सत्ता गंवाने की आशंका के चलते सत्तारूढ़ सियासी दल बदलाव लाने और सुधारों की शुरुआत से कतराने लगते हैं. इससे सत्ता में उनका वक़्त ज़ाया होता रहता है. ऐसे में अपनी तरक़्क़ी के लिए निजी मुनाफ़े हासिल करना उनकी प्राथमिकता बन जाती है और वो कामकाज का टकराव भरा रुख़ अख़्तियार कर लेते हैं.
पार्टियों के नये दांव-पेंच
सत्तारूढ़ पार्टियों के नित नए दांव-पेचों और पैतरों के साथ फ़ौजी व्यवस्था के बेरहम बर्तावों से चुनावी प्रक्रिया और वोट का अधिकार तमाशा बनकर रह जाते हैं. इससे जनता के अधिकार और ख़ुद को मुक्त रूप से अभिव्यक्त करने की आज़ादी पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. सियासी विरोधियों को पस्त करने की इस रस्साकशी में अक्सर मीडिया भी उलझ (कई बार जानबूझकर) जाता है. सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एक ताज़ा संवैधानिक अर्ज़ी में राज्यसत्ता की संस्थाओं और अधिकारियों की अवमानना की रोकथाम करने के लिए सरकार से कुछ दिशानिर्देश जारी करने की मांग की गई है. दरअसल कथित देशद्रोही सामग्री के प्रसारण और मौजूदा सरकार की आलोचना के इल्ज़ाम में ARY न्यूज़ चैनल को अयोग्य क़रार दिए जाने से उपजे विवाद के बीच ये घटनाक्रम सामने आया है. पिछले दिनों चैनल के सीनियर एक्ज़ीक्यूटिव समेत कई अन्य अधिकारियों को गिरफ़्तार कर लिया गया था, जबकि कई एंकर पकड़े जाने के डर से छिप गए थे. विडंबना ये है कि अतीत में दूसरे मीडिया चैनलों और संस्थानों के साथ इसी तरह का बर्ताव होते वक़्त ARY पूरे ज़ोर-शोर से फ़ौजी व्यवस्था का भागीदार बन जाता था. पत्रकारों की गुमशुदगी और क़त्लेआम से जुड़ी घटनाएं, मीडिया संस्थानों के लाइसेंस वापस लिए जाने और आलोचकों की लानत-मलानत करने के लिए ट्रोल्स का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है. साथ ही सड़क पर इंसाफ़ करने के रुझानों में भी तेज़ी आ रही है. ‘ईशनिंदा’ का आरोप लगाकर लोगों को परेशान किया जा रहा है और कई बार तो क़त्ल तक किए जा रहे हैं. इन तमाम हरकतों से लोकतांत्रिक उसूलों की धज्जियां उड़ती हैं. सरकारें बहस और ना-इत्तिफ़ाक़ी को दबाने के लिए विधायी रास्ते भी अख़्तियार करती रही हैं. इस सिलसिले में प्रिवेंशन ऑफ़ इलेक्ट्रॉनिक क्राइम्स एक्ट (2016) की मिसाल हमारे सामने है.
ज़बरदस्त आर्थिक संकट और मंदी की मार से जूझ रहे मुल्क में कोई भी ज़िम्मेदार सरकार लोगों की भलाई को अपनी प्राथमिकता में सबसे ऊपर रखती और मददगार नीतियां पेश करती! इसके उलट इस्लामाबाद की अंदरुनी सियासत ने शासन-प्रशासन को हाशिए पर डाल दिया है.
पाकिस्तान में तमाम बड़े संस्थानो पर ‘संभ्रांत वर्ग का क़ब्ज़ा’ है. इस तरह पाकिस्तानी राज्यसत्ता बहुसंख्यक लोगों की ज़रूरतों और उम्मीदों को पूरा कर पाने में नाकाम रही है. यही वो तबक़ा है जिसपर राज्य की नीतियों (या उनके अभाव) की मार सबसे ज़्यादा पड़ती है. अर्थव्यवस्था फ़िलहाल बेहद नाज़ुक दौर में है. ज़बरदस्त आर्थिक संकट और मंदी की मार से जूझ रहे मुल्क में कोई भी ज़िम्मेदार सरकार लोगों की भलाई को अपनी प्राथमिकता में सबसे ऊपर रखती और मददगार नीतियां पेश करती! इसके उलट इस्लामाबाद की अंदरुनी सियासत ने शासन-प्रशासन को हाशिए पर डाल दिया है. पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़े गहरी करने के लिए मुल्क की ढांचागत बनावट में भारी बदलाव लाना निहायत ज़रूरी है. पहले क़दम के तौर पर पुनर्निर्माण से जुड़ी इस क़वायद में सियासी नेतृत्व और फ़ौज- दोनों की ओर से इस प्रतिबद्धता का इज़हार लाज़िमी हो जाता है कि वो अपने अधिकारों का बेज़ा इस्तेमाल नहीं करते हुए सुधारों के लिए ज़रूरी अवसर तैयार करेंगे. बहरहाल एक मुल्क के तौर पर पाकिस्तान फ़िलवक़्त जिस दलदल में है उसे देखते हुए ऐसे आसार ना के बराबर दिखाई देते हैं.
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