Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

रूस की नज़र में चूंकि यूरोप भर में सैनिक मोर्चेबंदी बढ़ रही है, तो यूक्रेन को ‘निरपेक्ष’ रखना काफ़ी सामरिक अहमियत वाला है.

यूक्रेन के हालात: एक नज़र रूस की तरफ़ से…!
यूक्रेन के हालात: एक नज़र रूस की तरफ़ से…!

ये लेख हमारी सीरीज़, द यूक्रेन क्राइसिस: कॉज़ ऐंड कोर्स ऑफ़ कॉनफ्लिक्ट का एक हिस्सा है.


24 फ़रवरी को यूक्रेन पर रूस के हमले को दस दिन से ज़्यादा का वक़्त बीत चुका था और तब तक की जंग से कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते थे. जिसका ब्यौरा हम यहां दे रहे हैं.

यूक्रेन का संघर्ष, उस वैश्विक टकराव का हिस्सा है, जिसमें एक तरफ़ रूस है तो दूसरी तरफ़ अमेरिका और दूसरे नेटो देश हैं. दोनों पक्षों के बीच टकराव के इस दौर का आग़ाज़, साल 2021 की सर्दियों की शुरुआत के साथ उस वक़्त हुआ था, जब रूस के नेतृत्व ने अमेरिका और उसके नेटो सहयोगी देशों से मांग की कि वो पूरब की तरफ़ अपने गठबंधन का विस्तार रोकें. रूस की इस मांग का मतलब था कि यूक्रेन और जॉर्जिया को नेटो का सदस्य न बनाया जाए; इन देशों में सैनिक अड्डे न बनाए जाएं; रूस और नेटो देशों के बीच की सीमा पर सैनिक मोर्चेबंदी को मिलकर ख़त्म किया जाए और अमेरिका व नेटो देश बड़े बमवर्षक विमान और जंगी जहाज़ उन इलाक़ों में न भेजें, जहां से वो दूसरी तरफ़ के इलाक़ों को निशाना बनाकर बमबारी न कर सकें. असल में ये योजना नेटो और रूस के बीच रिश्तों  की नए सिरे से समीक्षा करने और यूरोप के लिए बिल्कुल नई सुरक्षा व्यवस्था बनाने की थी. इससे सभी भागीदारों को अपना सैन्य ख़र्च कम करने और अपनी कोशिशें दूसरी दिशा में करने का मौक़ा मिलता. मिसाल के तौर पर इससे सभी देश हिंद प्रशांत क्षेत्र और अपनी अर्थव्यवस्था के विकास पर ध्यान दे सकते थे.

दोनों पक्षों के बीच टकराव के इस दौर का आग़ाज़, साल 2021 की सर्दियों की शुरुआत के साथ उस वक़्त हुआ था, जब रूस के नेतृत्व ने अमेरिका और उसके नेटो सहयोगी देशों से मांग की कि वो पूरब की तरफ़ अपने गठबंधन का विस्तार रोकें. 

रूस के प्रस्तावों को अमेरिका ने उसकी कोई चाल समझा और सिरे से ख़ारिज कर दिया. इसके जवाब में रूस ने ‘सैन्य तकनीकी क़दम’ उठाने की तैयारियां करने का ऐलान कर दिया और अपनी सीमा पर सैनिक और युद्ध का साज़-ओ-सामान जुटाना शुरू करके अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करा दिया. अमेरिका और उसके नेटो साझीदार, शक्ति प्रदर्शन के बावजूद रूस की मांगें मानने को तैयार नहीं हुए और हालात को भड़काते हुए यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति करने लगे. यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदीमीर ज़ेलेंस्की को इस बात का विश्वास था कि पश्चिमी देश उन्हें समर्थन देंगे. यूक्रेन के बड़े अधिकारियों ने भी कड़े तेवर दिखाते हुए ऐलान किया वो 2014-15 के उस मिंस्क समझौते की शर्तों का पालन नहीं करेंगे, जिस पर उन्होंने डोनबास क्षेत्र में हार के बाद शांति कायम करने के लिए दस्तख़त किए थे. इसके साथ साथ यूरोप के नेताओं के कीव और मॉस्को के कई दौरों और व्लादिमीर पुतिन की मुलाक़ातों का भी कोई नतीजा नहीं निकला. यूरोप के नेता पुतिन को अपनी सेनाएं वापस करने के लिए या फिर ज़ेलेंस्की को मिंस्क समझौतों की शर्तें मानने के लिए राज़ी नहीं कर पाए.

इन हालात में रूस के नेतृत्व ने एक विशेष अभियान चलाने का फ़ैसला किया, जिसका मक़सद यूक्रेन को ‘नाज़ियों से मुक्त कराना और उसकी सैन्य ताक़त ख़त्म करना’ था. इस तरह से यूक्रेन का मुद्दा जो रूस की तमाम मांगों का एक छोटा सा और दोयम दर्ज़े का हिस्सा था, वो सबसे प्रमुख एजेंडा बन गया. रूस ने अपनी कुछ मांगें मनवाने के लिए उस समय सैन्य ताक़त का इस्तेमाल करने का फ़ैसला किया, जब रूस के मुताबिक़ पश्चिमी देशों ने यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति करने के साथ साथ, ख़ुद को बनावटी बातचीत का हिस्सा बनाए रखा. रूस के आधिकारिक बयानों में यूक्रेन इस वक़्त पूरी तरह से संप्रभु शक्ति नहीं है; उसके नेतृत्व पर पश्चिमी देशों का नियंत्रण है और उसे पश्चिमी देशों से तमाम फ़ायदे मिलते हैं. इसीलिए, रूस के इस ऑपरेशन का मक़सद यूक्रेन पर इस बाहरी नियंत्रण का ख़ात्मा करना था. 

दोनों पक्षों की ग़लतियां

ऐसा लगता है कि रूस की सरकार ने आख़िरी मौक़े तक यूक्रेन की सीमा पर तैनात अपने सैनिकों को राजनीतिक दबाव के लिए ही इस्तेमाल करने के बारे में सोचा था. इसीलिए, सैन्य ऑपरेशन की योजना बड़ी तेज़ी से तैयार की गई और रूसी सैनिक रणनीतिकारों के पास साज़-ओ-सामान की आपूर्ति की उचित व्यवस्था के बारे में सोच पाने का पर्याप्त मौक़ा नहीं था. इसके साथ-साथ सोचा ये भी गया था कि यूक्रेन की सेना कोई गंभीर चुनौती नहीं देगी और उसके अधिकारी रूस की सेना के साथ अपनी इच्छा से सहयोग करेंगे. वहीं, यूक्रेन को ये भरोसा था कि उसकी जनता रूस का बड़े पैमाने पर विरोध करेगी. इसके अलावा जंग के लिए भी यूक्रेन ने रिज़र्व टुकड़ियां तैयार कर रखी थीं.

कुछ हद तक दोनों ही पक्षों ने अपने अपने आकलन में ग़लतियां की थीं. यूक्रेन की सेना का रवैया रूस की सोच के मुताबिक़ दोस्ताना और सहयोग करने वाला नहीं रहा. इससे रूसी सैना को सैनिकों की ग़ैरज़रूरी जान जाने का झटका झेलना पड़ा, क्योंकि वो बेवजह के ख़ून-ख़राबे से बच रही थी. इसके साथ साथ सैन्य अभियान की तेज़ रफ़्तार और जासूसी करने वाले समूहों के दिलेर हमलों ने कई मोर्चों पर यूक्रेन की सेना की रक्षा पंक्ति को बिखेरकर रख दिया. वहीं दूसरी तरफ़, यूक्रेन के नेतृत्व की बड़े पैमाने पर युद्ध छिड़ने की आशंकाएं भी सही नहीं साबित हुईं: यूक्रेन की बहुसंख्यक आबादी निरपेक्ष रहकर इंतज़ार करने को तरज़ीह दे रही है. लेकिन, अब जंग यूक्रेन के शहरों और ख़ास तौर से ख़ारकीव और कीव तक पहुंच गई है. यूक्रेन की सेना इन दोनों शहरों को मज़बूत किलेबंदी वाले मोर्चे में तब्दील करने की कोशिश कर रही है. जो भी लड़ना चाह रहे हैं उन्हें हथियार बांटे जा रहे हैं. अगर रूसी सेना ने यूक्रेन के शहरों पर क़ब्ज़ा करने का फ़ैसला किया, तो आगे चलकर इससे बड़ी संख्या में आम नागरिकों की जान जाने का ख़तरा है. अभी भी दोनों पक्ष अपनी अपनी रणनीति कामयाब होने की बात कहकर ख़ुद को विजेता मान रहे हैं.

यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदीमीर ज़ेलेंस्की को इस बात का विश्वास था कि पश्चिमी देश उन्हें समर्थन देंगे. यूक्रेन के बड़े अधिकारियों ने भी कड़े तेवर दिखाते हुए ऐलान किया वो 2014-15 के उस मिंस्क समझौते की शर्तों का पालन नहीं करेंगे, जिस पर उन्होंने डोनबास क्षेत्र में हार के बाद शांति कायम करने के लिए दस्तख़त किए थे.

रूस की बढ़त को रोकने के लिए, पश्चिमी देशों ने उस पर प्रतिबंधों की बाढ़ लगा दी है. ये प्रतिबंध असर दिखाते मालूम दे रहे हैं: पश्चिमी देश, लंबे समय से ये प्रतिबंध लगाने की धमकियां दे रहे थे, इसलिए रूस ने इनके असर से निपटने की तैयारी भी कर रखी थी. इसके अलावा, रूस की बढ़त के जवाब में प्रतिबंध लगाने जैसे क़दम, जज़्बाती तौर पर समझ में आते हैं, मगर इनसे कामयाबी हासिल कर पाना मुश्किल है: रूसी सेना का अभियान तब तक नहीं रुकने वाला है, जब तक ये अपने मक़सद में कामयाब न हो जाए या फिर जब रूसी ताक़त की हवा न निकल जाए.

अब आगे क्या होगा?

इस सवाल का जवाब इस बात पर निर्भर करेगा कि किसकी रणनीति सफल हो रही है. ये भी मुमकिन है कि शायद किसी भी पक्ष को निर्णायक जीत हासिल न हो और फिर वो बातचीत शुरू कर दें. ऐसा होने की सूरत में उसी का फ़ायदा होगा, जिसने जंग के मोर्चे पर ज़्यादा बढ़त हासिल कर रखी हो. अब तक किसी भी पक्ष ने अपनी पूरी शर्तें सामने नहीं रखी हैं. उन्हें जंग के मोर्चे पर स्थिरता आने का इंतज़ार है. लेकिन अगर हम व्लादिमीर पुतिन के शब्दों पर भरोसा करें, तो रूस को तभी तसल्ली होगी जब यूक्रेन की सैन्य ताक़त पूरी तरह से ख़त्म हो जाएगी और वो ख़ुद को निरपेक्ष घोषित कर देगा, जिसमें कट्टर दक्षिणपंथी पार्टियों पर प्रतिबंध लगा होगा. शायद, रूस आगे चलकर यूक्रेन को संघ या परिसंघ के रूप में देखना चाहता है.

लेकिन, रूस पर लगे प्रतिबंध एक बड़ी समस्या हैं. दूरगामी हितों को ध्यान में रखे बग़ैर अतार्किक तरीक़े से लगाई गई पाबंदियों का ये अंतहीन सिलसिला आने वाले भविष्य में यूरोपीय संघ और रूस, दोनों को ही बराबरी से कमज़ोर करेगा और उनके लंबे समय से चले आ रहे आर्थिक रिश्तों को चोट पहुंचाएगा. यूरोपीय संघ के लिए इसका मतलब ये होगा कि उन्हें अर्थव्यवस्था का रुख़ पूरी तरह से बदलना होगा और इससे आम नागरिकों को कई वर्षों तक मुश्किलें (जैसे कि खाने पीने के सामान की महंगाई और बिजली की समस्या) झेलनी पड़ेंगी, क्योंकि राजनेता अपने सिद्धांतों से समझौता करने को तैयार नहीं हैं. ऐसी परिस्थितियों से बचा जा सकता है अगर यूक्रेन के संघर्ष को ख़त्म करने में यूरोप को भी शामिल किया जाए और वो आख़िरी समझौते की गारंटी देने वालों में से एक हो.

अगर रूसी सेना ने यूक्रेन के शहरों पर क़ब्ज़ा करने का फ़ैसला किया, तो आगे चलकर इससे बड़ी संख्या में आम नागरिकों की जान जाने का ख़तरा है. अभी भी दोनों पक्ष अपनी अपनी रणनीति कामयाब होने की बात कहकर ख़ुद को विजेता मान रहे हैं.

ये बात पहले ही साफ़ है कि इस संकट से यूरोप में सैन्य शक्ति का विस्तार होगा और अब यूरोप एक आर्थिक महाशक्ति के बजाय सैनिक ताक़त बनेगा. नेटो का यूरोपीय मोर्चा भी मज़बूत हो रहा है: स्वीडन और फिनलैंड जो अब तक इस गठबंधन के साथ बहुत नज़दीकी से सहयोग कर रहे थे और हक़ीक़त में उसके सदस्य लग रहे थे वो अब क़ानूनी तौर पर भी ऐसा करने के लिए तैयार हैं. रूस की नज़र में यूक्रेन कि निष्पक्षता सुनिश्चित करने की ये कोई ख़ास क़ीमत नहीं है.

इस वक़्त सबसे बड़े विजेता तो अमेरिका और चीन हैं. अब कम से कम अमेरिका अपनी यूरोपीय मोर्चेबंदी को कम कर सकता है: अगर यूरोपीय देश सक्रियता से अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाते हैं, तो फिर अमेरिका, यूरोप और उत्तरी अटलांटिक में तैनात अपने सैनिकों को प्रशांत क्षेत्र की तरफ़ भेज सकता है. चीन जो रूस का सामरिक साझीदार है, वो रूस के और भी क़रीब हो जाएगा. पश्चिम से नाता टूटने से रूस को जो नुक़सान हो रहा है, उसकी भरपाई चीन से नज़दीकी बढ़ाकर की जा सकेगी. किसी भी सूरत में रूस, एशिया में अपनी मौजूदगी को बढ़ाएगा क्योंकि अब ये उसके विकास की इकलौती दिशा बच रही है.

इन परिस्थितियों में भारत भी अनूठी भूमिका निभा सकता है. भारत ऐसा इकलौता बड़ा देश है, जिसके पश्चिम और रूस दोनों से बहुत अच्छे संबंध हैं. अगर रूस पर प्रतिबंध लगे भी रहते हैं, तो भी भारत सामान और तकनीक के लेन-देन का केंद्र बन सकता है. इस तरह भारत अपनी अर्थव्यवस्था के विकास को भी बढ़ा सकेगा और जब तक दोनों युद्धरत पक्ष अपने रिश्ते सुधारते हैं, तब तक वो दोनों की मदद भी कर सकेगा. इसके अलावा, रूस की एशिया नीति में भारत, चीन के प्रति संतुलन बनाने का भी काम कर सकता है, क्योंकि रूस केवल चीन के भरोसे नहीं रहना चाहता है. ऐसा करने के लिए भारत को अपनी निरपेक्ष भूमिका बनाए रखनी होगी और उसे बाहर से किसी जज़्बाती और आर्थिक दबाव में आने से ख़ुद को बचाना होगा. भारत को केवल अपनी सामरिक चिंताओं और ख़ुद के विकास को ध्यान में रखकर क़दम उठाना होगा.

ओआरएफ हिन्दी के साथ अब आप FacebookTwitter के माध्यम से भी जुड़ सकते हैं. नए अपडेट के लिए ट्विटर और फेसबुक पर हमें फॉलो करें और हमारे YouTube चैनल को सब्सक्राइब करना न भूलें. हमारी आधिकारिक मेल आईडी [email protected] के माध्यम से आप संपर्क कर सकते हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.