Published on Jun 07, 2019 Updated 0 Hours ago

आतंकवादी संगठनों के पास टेलिग्राम को छोड़कर फौरन दूसरे ऐप का इस्तेमाल करने की आज़ादी है. वे डार्क वेब, वीपीएन और द एम्नेसिक इनकॉग्निटो लाइव सिस्टम-टेल्स का भी इस्तेमाल कर सकते हैं.

इंटरनेट पर फैलते आतंकवाद को मुंहतोड़ जवाब देने की सख़्त ज़रूरत है

तकनीक और आतंकवाद के ख़तरनाक गठजोड़ पर हमें गंभीरता से तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है. तभी हम ज़मीनी लड़ाई में इस्लामिक स्टेट पर मिली जीत का फ़ायदा उठा सकेंगे. ईस्टर रविवार के मौके पर श्रीलंका में हुए भयंकर सीरियल बम धमाकों ने इस्लामिक स्टेट को लेकर जो सोच है उस पर मुहर लगा दी है. इस्लामिक स्टेट ऐसा संगठन है, जो दुनिया भर में अपने जैसी विचारधारा रखने वाले लोगों के साथ गठजोड़ कर के उनके स्थानीय हितों को बढ़ाने के लिए अपना नाम इस्तेमाल करने देता है. वो दुनिया के अलग-अलग इलाक़ों के लोगों की नाराज़गी को बढ़ावा देते हुए आतंकवाद फैलाने के मौक़ों का फ़ायदा उठा रहा है. इराक़ और सीरिया में तो इस्लामिक स्टेट ने अपने क़ब्ज़े वाले इलाक़े गंवा दिए हैं. ये बात ख़ुद अबू-बकर अल बग़दादी ने पांच साल बाद जारी अपने वीडियो में मानी है. ये वीडियो उसने श्रीलंका में हुए धमाकों के बाद जारी किया था. इराक़ और सीरिया में हार के बाद इस्लामिक स्टेट के हज़ारों लड़ाके या तो अपने वतन लौट रहे हैं या फिर ऐसे देशों में पनाह ले रहे हैं, जो उनसे हमदर्दी रखते हैं, उन्हें शरण देने को राज़ी हैं. ज़मीनी लड़ाई हारने का ये भी मतलब है कि अब इस्लामिक स्टेट को अपनी आतंकवादी गतिविधियां चलाते रहने के लिए नए तौर-तरीक़े अपनाने होंगे. इनमें से एक हथियार इंटरनेट का तो इस्लामिक स्टेट पहले से इस्तेमाल करता आया है. श्रीलंका में हुए धमाकों की साज़िश रचने और उन्हें अंजाम देने के लिए भी इंटरनेट का प्रयोग किया गया था. इस लेख के माध्यम से हम आप को आतंकवाद और तकनीक के बीच इस ख़तरनाक गठजोड़ के बारे में बताएंगे. इस पर तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है — क्योंकि अगर दुनिया ने इराक़ और सीरिया में इस्लामिक स्टेट को ज़मीनी लड़ाई में हराया है, तो अब उसे साइबर दुनिया में भी परास्त करना होगा. इसके लिए इंटरनेट पर फैलते आतंकवाद की चुनौती से निपटने पर ज़ोर देने की ज़रूरत है. अभी श्रीलंका में जांच अधिकारी ये पता लगा रहे हैं कि वहां ईस्टर रविवार को हुए बम धमाकों में इस्लामिक स्टेट के उन लड़ाकों का हाथ था, जो इराक़ और सीरिया में इस्लामिक स्टेट के लिए लड़े थे और अब स्वदेश लौट आए हैं. हालांकि, अब तक इस बात के कोई पक्के सबूत नहीं मिले हैं कि उन्होंने ही इसे अंजाम दिया. इन सीरियल धमाकों के मास्टरमाइंड ज़ाहरान हशीम की सोशल मीडिया पर बहुत सक्रियता थी. इससे ये साफ़ है कि धमाकों में शामिल सारे आतंकवादी या उनमें से कुछ लोग इस्लामिक स्टेट से या तो प्रभावित थे या फिर सोशल मीडिया के ज़रिए उससे जुड़े थे. ख़बरों के मुताबिक़, ज़ाहरान हशीम फ़ेसबुक के ज़रिए लोगों को ग़ैर-मुसलमानों की हत्या करने के लिए उकसाता था. वो निजी चैटिंग के ज़रिए उन युवाओं को अपने साथ जोड़ता था, जो उसके लिए अपनी ज़िंदगी क़ुर्बान करने को तैयार थे. आरोप ये भी है कि ज़ाहरान ने सोशल मीडिया के ज़रिए श्रीलंका के एक अमीर कारोबारी परिवार के दो भाइयों को अपने संगठन में शामिल किया था. ये परिवार मसालों का कारोबार करता है. इन भाईयों ने कारोबार से हुई कमाई के पैसो से ज़ाहरान हशीम को सीरियल धमाके करने के लिए आर्थिक मदद दी थी. पिछले काफ़ी समय से इंटरनेट इस्लामिक स्टेट का पसंदीदा और अहम हथियार बन गया है. वो इसका बड़े अच्छे तरीक़े से भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं. इसके ज़रिए वो अपना दुष्प्रचार कर रहे हैं और भर्ती अभियान भी चला रहे हैं. इसके अलावा इस्लामिक स्टेट ने आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने की साज़िश रचने, उसके लिए पैसे जुटाने और इन साज़िशों को अंजाम देने के लिए भी इंटरनेट को बड़ा ज़रिया बना लिया है. दुनिया भर में सरकारें अब इंटरनेट पर फैलते आतंकवाद की निगरानी कर रही हैं, उसे रोकने के लिए क़दम उठा रही हैं. इसके लिए वो बड़ी तकनीकी कंपनियों से भी सहयोग ले रही हैं, ताकि उनके पास मौजूद तकनीकी विकल्पों का फ़ायदा उठाकर इंटरनेट पर फैलते आतंकवाद को क़ाबू कर सकें. लेकिन, इस्लामिक स्टेट इन क़दमों को भी धता बताकर इंटरनेट को अपने विस्तार का बड़ा माध्यम बनाए हुए है. अगर हम श्रीलंका में हुए सीरियल धमाकों को ही देखें, तो ऐसा लगता है कि धमाकों के पीछे जो लोग थे वो पहले सोशल मीडिया पर ज़ाहरान हशीम और इस्लामिक स्टेट की आतंकवादी विचारधारा से प्रभावित हुए. फिर वो सोशल मीडिया के माध्यम से ही एक-दूसरे के संपर्क में आए. हालांकि, इन धमाकों के लिए पैसे जुटाने के लिए तो सीधे तौर पर तकनीक का इस्तेमाल नहीं हुआ. लेकिन, धमाकों के लिए पैसे जुटाने वालों को सोशल मीडिया जैसे फ़ेसबुक के ज़रिए ही ज़ाहरान हशीम ने अपने साथ जोड़ा था. जितने बड़े पैमाने पर ये धमाके हुए, उनसे साफ़ है कि नेशनल तौहीद जमात ने अकेले अपने बूते पर तो इन धमाकों को नहीं दिया होगा. इसमें उसे बाहरी संगठनों से मदद ज़रूर मिली होगी. शायद उन्हें इस्लामिक स्टेट के आतंकवादियों से सहयोग मिला. श्रीलंका और पूरी दुनिया के आतंकवाद के विशेषज्ञ ये बात मानते हैं. हालांकि इन धमाकों में इस्लामिक स्टेट ने किस तरह से और कितने बड़े पैमाने पर मदद की, ये बात अभी साफ़ नहीं है. फिर भी तकनीक और आतंकवाद के बीच इस ख़तरनाक गठजोड़ ने एक ऐसे ख़तरे से हमें आगाह किया है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. क्योंकि आज आईएसआईएस को भी ऐसे विकल्पों की तलाश है, जिनके ज़रिए वो सोशल मीडिया पर अपने पहले की कामयाबी को भुना सके और अपना विस्तार कर सके. सरकार की निगरानी को गच्चा देने और तकनीकी कंपनियों के सख़्त नियमों से पार पाने में आतंकवादी संगठनों को कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई. हममें ये समझना होगा कि कोई भी आतंकवादी संगठन किस तरह अपनी ज़मीनी पकड़ भी बनाए रखता है और तकनीक की मदद से अपना विस्तार भी करता है. किस तरह से ये आतंकवादी संगठन सरकार की निगरानी व्यवस्था को धोखा देते हैं. आतंकवादी संगठन ट्विटर, इंस्टाग्राम और फ़ेसबुक जैसे सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर के दूर बैठे हुए भी आपस में संवाद करते हैं. इससे बहुत कम वक़्त में वो एक-दूसरे से जुड़ कर बात कर लेते हैं. इसकी वजह ये है कि आज सरकारों के दबाव में तकनीकी कंपनियां अपने प्लेटफॉर्म से आतंकवादी प्रचार सामग्री को हटा रही हैं. लेकिन, ये क़दम बहुत असरदार नहीं रहा है. हर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर नक़ली एकाउंट्स की भरमार है. एक खाता बंद होता है, तो दस नए खोल दिए जाते हैं. आपस में बड़े पैमाने पर बात करने और लोगों को जोड़ने के लिए आतंकवादी संगठन दुनिया भर में और स्थानीय स्तर पर लोकप्रिय हैशटैग का प्रयोग करते हैं. उनके ज़रिए अपनी प्रचार सामग्री लोगों तक पहुंचाते हैं. ऐसे प्रोपेगैंडा के शिकार वो लोग भी हो जाते हैं, जो आतंकवादी सामग्री नहीं तलाश रहे होते. इन आतंकी पोस्ट में आम तौर पर एक लिंक होता है, जो सुरक्षित वेबसाइट पर ले जाता है. वहां पर कोई भी विस्तार से आतंकवादी विचारधारा वाली सामग्री देख, सुन और पढ़ सकता है. इसमें इन आतंकवादी संगठनों से जुड़ने का तरीक़ा भी बताया जाता है. जो इंसान इन संगठनों के संपर्क में आना चाहता है, वो सुरक्षित ग्रुप चैट या कोडेड निजी मैसेजिंग ऐप्स जैसे टेलीग्राम, किक, सिग्नल या व्हाट्सऐप के माध्यम से इन संगठनों से जुड़ता है. ये सभी ऐप एनक्रिप्शन की सुविधा देते हैं. जिसका मतलब है कि किन्हीं दो लोगों के बीच बातचीत को कोई और देख-सुन नहीं सकता. इसका फ़ायदा आतंकवादी संगठन उठाते हैं. वो ऐसे सुरक्षित माध्यमों पर बेफ़िक्र होकर अपनी प्रचार सामग्री डालते हैं और लोगों को अपने साथ जोड़ते हैं. अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने टेलीग्राम मैसेजिंग ऐप के ख़िलाफ़ सख़्त रुख़ अपनाया है. ये इस्लामिक स्टेट का पसंदीदा मैसेजिंग ऐप है. इसके माध्यम से उन्होंने कई आतंकवादी घटनाओं की साज़िश रचकर उन्हें अंजाम दिया है. वो इसके माध्यम से विदेश में बैठे लोगों और सरकारों से संवाद कर लेते हैं. टेलीग्राम पर ही इस्लामिक स्टेट ने श्रीलंका में धमाकों की ज़िम्मेदारी ली थी. कई सरकारों ने टेलीग्राम से मांग की है कि वो उन्हें इसकी निगरानी की सुविधा दे. रूस जैसे देशों ने तो टेलीग्राम पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी है. लेकिन, टेलीग्राम ही नहीं, बाज़ार में कई ऐप हैं, जो ख़ुफ़िया संदेश के लेन-देन की सुविधा देते है. इससे आतंकवादी संगठनों के पास एक ऐप को छोड़कर फौरन दूसरे ऐप का इस्तेमाल करने की आज़ादी है. इसके अलावा डार्क वेब, वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क यानी वीपीएन (VPN) और द एम्नेसिक इनकॉग्निटो लाइव सिस्टम-टेल्स (TAILS एक ऐसा ऑपरेटिंग सिस्टम जिसमें कोई भी अनाम रह इसका इस्तेमाल कर सकता है.) जैसी तकनीकी सुविधाएं आतंकी संगठनों को बिना किसी बाधा के अपनी गतिविधियां चलाने की आज़ादी देते हैं. इन्हें सरकार की पकड़ में आने का डर नहीं होता. उन्हें अपनी लोकेशन पता चल जाने की भी फ़िक्र नहीं होती. इस्लामिक स्टेट को ज़मीनी लड़ाई में हराने का जश्न मना रहे अंतरराष्ट्रीय समुदाय को श्रीलंका में हुए धमाकों को इंटरनेट पर फैलते आतंकवाद के ख़तरे की आख़िरी घंटी मानना चाहिए. आज तमाम देशों के पास असरदार साइबर सुरक्षा क़ानून होने चाहिए, तभी इंटरनेट पर फैलते आतंकवाद को रोका जा सकेगा. अब तक इस मामले में कोई ख़ास कामयाबी नहीं मिली है. हालांकि, तमाम देशों की सरकारें और तकनीकी कंपनियो ने मिलकर, इंटरनेट पर फैलते आतंकवाद का मुक़ाबला करने के लिए कई क़दम उठाए हैं. लेकिन, ज़्यादातर नीतियां प्रतिक्रिया में आधे-अधूरे मन से बनाई गई हैं. इसका नतीजा ये हुआ है कि ये नीतियां न केवल नाकाम रही हैं, बल्कि इनसे आतंकवादी गतिविधियां कम होने के बजाय इंटरनेट पर और बढ़ गई हैं. अब हमें अगर इस्लामिक स्टेट को ज़मीनी जंग में शिकस्त देने का पक्का फ़ायदा उठाना है, उन्हें विश्व स्तर का आतंकवादी संगठन बनने से रोकना है, तो ये ज़रूरी है कि तमाम देश ऐसे क़दम उठाएं, जो इंटरनेट पर उसकी गतिविधियां रोक सकें. सिर्फ़ डिजिटल दुनिया से आतंकवादी सामग्री हटा देने से काम नहीं चलने वाला है. इंटरनेट से आतंकवादी प्रचार सामग्री हटाना आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई के लिए ज़रूरी तो है. पर, तमाम देशों की सरकारों और तकनीकी कंपनियों के बीच सहयोग का संबंध होना भी ज़रूरी है. इसके लिए संसाधन विकसित करने होंगे. ऐसी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेस वाली मशीनें विकसित करनी होंगी, जो ख़ुद ब ख़ुद इंटरनेट पर मौजूद आतंकवादी सामग्री को पोस्ट करने से पहले ही हटा दें. जैसा कि हाल ही में ब्रिटेन की सरकार ने शुरू किया है. इसके लिए ऐसा आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस वाला हथियार विकसित करना होगा जो किसी आतंकी प्रचार सामग्री को भी समझे और इसकी वजह को भी समझने की शक्ति रखता हो. तब तक तकनीकी कंपनियां अपने पास अभी मौजूद मशीनी माध्यमों से उन पोस्ट को फिल्टर कर सकती हैं, जो आतंकवाद के प्रचार के काम आती हैं. इस काम में विश्लेषक भी मशीनों की मदद करें. वो किसी भी आतंकवादी प्रचार सामग्री को देख कर उन्हें पोस्ट होने से रोकें. हालांकि सबसे ज़रूरी है कि ऐसे माध्यमों में सरकार की दख़लंदाज़ी न हो, ताकि निजता का अधिकार भी सुरक्षित रहे. इसके अलावा किसी भी ख़ुफ़िया संदेश वाले ऐप के संदेश छुपकर पढ़ने की इजाज़त मांगने पर अनगिनत यूज़र्स की सुरक्षा ख़तरे में पड़ सकती है. इसके बजाय सरकारों को चाहिए कि वो ऐसे क़ानूनी तरीक़े अपनाएं, ताकि जनता की भलाई के लिए हैकिंग करने वाले ये काम कर सकें. ऐसे क़दम आतंकवाद को इंटरनेट पर फैलने से रोकने में बहुत कारगर होंगे. इससे इंटरनेट जो अभी आतंकवाद के प्रचार का पसंदीदा ज़रिया बन गया है, वो आतंकी संगठनों के लिए मुश्किल मोर्चा बन जाएगा. वो आपस में संवाद नहीं कर पाएंगे. लेखक ORF नई दिल्ली में रिसर्च इंटर्न हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.