Author : Kabir Taneja

Published on Jul 07, 2021 Updated 0 Hours ago

अगर पश्चिम एशिया के लिहाज़ से देखें तो येरूशलम और तेह़रान में हुए इन बदलावों से इस क्षेत्र में अनिश्चितता और अवसरों के एक नए दौर की शुरुआत भी हुई है. 

इज़रायल और ईरान की राजनीतिक हवा में आ रहा बदलाव

इजरायल और ईरान में इधर राजनीतिक बदलाव हुए हैं. दोनों ही देशों में लंबे समय से जो राष्ट्राध्यक्ष थे, वे हटे हैं और उनकी जगह नए चेहरों ने ली है. इससे वहां नई राजनीति और नई शख्स़ियतें केंद्र में आईं हैं. अगर पश्चिम एशिया के लिहाज़ से देखें तो येरूशलम और तेह़रान में हुए इन बदलावों से इस क्षेत्र में अनिश्चितता और अवसरों के एक नए दौर की शुरुआत भी हुई है. साथ ही दोनों देशों में प्रच्छन (कोवर्ट यानी गुप्त) युद्ध, कूटनीति और घरेलू राजनीति सहित अमेरिका, रूस और चीन जैसी अंतरराष्ट्रीय ताकतों के साथ संबंधों का नया दौर शुरू हो गया है.

इज़रायल में बेंजमिन नेतन्याहू लगातार 12 साल और कुल मिलाकर 14 साल प्रधानमंत्री रहे. उनकी जगह नफ्ताली बेनेट ने ली है, जो इससे पहले कई मंत्रिपद संभाल चुके हैं. वह नेतन्याहू सरकार का हिस्सा भी रहे हैं. इसके बाद वह उससे अलग हुए और रूढ़िवादियों, वामपंथियों और अरबों की नुमाइंदगी करने वाली पार्टी के साथ मोर्चा बनाया, जो अपने अंतर्विरोधों के कारण कभी भी बिखर सकता है. खैर, इस मोर्चे ने अभी तो उन्हें सत्ता तक पहुंचा ही दिया है.

इस मुकाम तक पहुंचने से पहले की राह आसान नहीं रही. इससे पहले इजरायल में चार बार आम चुनाव हुए. इनमें हरेक चुनाव के बाद सरकार बनने को लेकर आशंकाएं पैदा हुईं, लेकिन नेतन्याहू ने हर बार अगले चुनाव तक सत्ता में बने रहने का रास्ता निकाल लिया.

इस मुकाम तक पहुंचने से पहले की राह आसान नहीं रही. इससे पहले इजरायल में चार बार आम चुनाव हुए. इनमें हरेक चुनाव के बाद सरकार बनने को लेकर आशंकाएं पैदा हुईं, लेकिन नेतन्याहू ने हर बार अगले चुनाव तक सत्ता में बने रहने का रास्ता निकाल लिया. इस दौरान इज़रायल में राजनीतिक हलचल भी तेज बनी रहीगाजा युद्ध हुआ, जिसने नेतन्याहू को अपने समर्थन में मतदाताओं को गोलबंद करने का एक और मौका दिया. यहां वह एक संयमी रणनीतिकार और राजनेता के रूप में नज़र आए. इसके बावजूद बेनेट लोगों के मन में यह डर बिठाने में सफ़ल रहे कि कहीं पांचवीं बार चुनाव की नौबत   जाए. यह भी कि ऐसा हुआ तो वह शर्मिंदगी का सबब बनेगी. इस तरह से उन्होंने चुनाव में अपने पुराने बॉस को हरा दिया.

इसी पश्चिम एशिया के दूसरे छोर पर स्थित ईरान में भी हाल में चुनाव हुआ. वहां हसन रूहानी की लंबे वक्त के बाद विदाई हुई है. रूहानी नरमपंथी राजनेता थे, जो 2013 में राष्ट्रपति बने थे. ईरान को आर्थिक बदहाली से निकालने, अंतरराष्ट्रीय पाबंदियों को खत्म कराने और वैश्विक राजनीति की मुख्यधारा में देश को लाने के वादे के साथ वह सत्ता में आए थे. इसके लिए ईरान और P5+1 समूह (इसमें P5 का मतलब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों से है, उनके साथ प्लस वन के रूप में जर्मनी शामिल था) के बीच समझौता हुआ. हालांकि, डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका 2018 में अचानक इससे बाहर निकल गया. इस परमाणु समझौते को जॉइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन (JCPOA) का नाम दिया गया था. इसका मकसद ईरान के परमाणु कार्यक्रम की निगरानी और उसे नियंत्रित करना था. परमाणु समझौते से अमेरिका के पीछे हटने से अंतरराष्ट्रीय कूटनीति पर तो असर पड़ा ही, इससे ईरान की घरेलू राजनीति में भी खलबली मची

दो खेमों में दरार

इससे ईरान के रूढ़िवादियों को यह कहने का मौका मिल गया कि हमने तो पहले ही अमेरिका के साथ समझौते को लेकर आगाह किया था और हमारी बात सही साबित हुई. ईरान की अर्थव्यवस्था मुश्किल में थी ही, समझौते के टूटने से वहां रूढ़िवादियों और दूसरे खेमे के बीच दरार बढ़ी और आख़िरकार रूढ़िवादियों के हाथ बाजी लगी. रूहानी जब सत्ता में आए थे तो ईरान के लोगों को उनमें एक उम्मीद दिखी थी. हालांकि, चारचार साल के उनके दो कार्यकाल खत्म होने के बाद भी लोगों ने उनसे जिन सुधारों की उम्मीद की थी, वह पूरी नहीं हुई. ख़ासतौर पर भ्रष्टाचार से निपटने में उनका रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा

सुधारों की खातिर रूहानी को अलगअलग समूहों के बीच संतुलन बनाने में भी काफी वक्त़ और ऊर्जा लगानी पड़ी. उदाहरण के लिए, एक ओर तो वह परमाणु समझौते के लिए अमेरिका से बात कर रहे थे तो दूसरी तरफ उसकी आलोचना. उन्हें ऐसा इसलिए करना पड़ा ताकि ताकतवर अयातुल्ला और देश की दूसरी रूढ़िवादी ताकतों को भी खुश रखा जा सके. इस जटिल ‘पावर प्ले’ का एक बेहतरीन उदाहरण दिल्ली में भी दिखा, जब फरवरी 2018 में रूहानी भारत दौरे पर आए. 

सुधारों की खातिर रूहानी को अलग-अलग समूहों के बीच संतुलन बनाने में भी काफी वक्त़ और ऊर्जा लगानी पड़ी. उदाहरण के लिए, एक ओर तो वह परमाणु समझौते के लिए अमेरिका से बात कर रहे थे तो दूसरी तरफ उसकी आलोचना

भारत की राजधानी में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में वह करीब घंटे भर अमेरिका और ख़ासतौर पर पश्चिम एशिया में उसकी नीतियों को कोसते रहे. इस दौरान शायद ही उन्होंने भारत या भारतईरान के द्विपक्षीय रिश्तों का ज़िक्र किया. असल में रूहानी का वह भाषण ईरान के रूढ़िवादी समूहों को ख़ुश करने के लिए था. यह तब की बात है, जब भारत अमेरिका की तत्कालीन ओबामा सरकार से ईरान के साथ कच्चे तेल के व्यापार को एक स्तर पर बनाए रखने के लिए रियायतें हासिल करने की कोशिश कर रहा था. ऐसे में दिल्ली आकर रूहानी का अमेरिका की आलोचना करना भारत के लिए भी अच्छा नहीं रहा. इससे यह संदेश गया कि भारत ने उन्हें अमेरिका को कोसने का मंच मुहैया कराया

इन्हीं वजहों से हालिया चुनाव में विवादास्पद और धुररूढ़िवादी और न्यायिक व्यवस्था के प्रमुख रह चुके इब्राहीम रईसी को जीत मिली. वह अगस्त में  सिर्फ़ ईरान के 8वें राष्ट्रपति बनेंगे बल्कि उन्हें ईरान के सर्वोच्च नेता और 82 साल के अयातुल्ला अली खामनेई का उत्तराधिकारी भी माना जा रहा है. एक और बात यह है कि रईसी अमेरिका की प्रतिबंधित सूची में हैं। इस सूची में शामिल किसी व्यक्ति ने इससे पहले ईरान का राष्ट्रपति पद नहीं संभाला हैइसलिए JCPOA समझौते को सफलतापूर्वक बहाल करना उनके लिए आसान नहीं होगा.

 यह भी तय माना जा रहा है कि रईसी पश्चिमी देशों के साथ परमाणु वार्ता करते रहेंगे, लेकिन उनकी सरकार अयातुल्ला के मत पर चलेगी और वह रूहानी सरकार के मुकाबले अधिक रूढ़िवादी होगी. रूहानी की खूबी यह थी कि उन्होंने इस मुद्दे पर अयातुल्ला से अलग राह चुनते हुए अमेरिका के साथ समझौते की ख़ातिर ईरान में समर्थन जुटाया था. यह दीगर बात है कि 2021 में ईरान चुनाव में 48.8 फीसदी लोगों ने ही मतदान कियाखबरों के मुताबिक देश के इतिहास में इससे कम मतदान पहले कभी नहीं हुआ था. यह बड़ा नुकसान है क्योंकि देश की आधी आबादी 30 साल से कम की है.

पश्चिम एशिया में क्या होगा

ईरान और इज़रायल के बीच वर्षों से एक अनौपचारिक युद्ध चल रहा है. नेतन्याहू के कार्यकाल में ईरान के साथ किसी भी तरह के परमाणु समझौते का इज़रायल ने भारी विरोध किया. असल में, इस तरह की किसी डील से ईरान में पश्चिमी देशों के निवेश का रास्ता भी खुल जाएगा. इज़रायल ने अंदरखाने बराक़ ओबामा सरकार को भी ईरान से परमाणु समझौता  करने के लिए मनाने की कोशिश की थी. उसका मानना था कि इससे ईरान वैश्विक समुदाय की मुख्यधारा में  जाएगा

 ईरान खुद भी पश्चिमी देशों के साथ सामान्य रिश्ते बहाल करने को लेकर संघर्ष करता दिखा. दूसरी ओर सीधे अयातुल्ला और उनके जनरलों के अंदर काम करने वाले इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) ने मिलिशिया के ज़रिये अपनी पहुंच सीरिया और इराक़ तक कर ली. उसने इसके लिए विद्रोहियों को पैसा दिया और ये लोग आतंकवादी संगठन ISIS के साथ मिलकर कथित इस्लाम विरोधियों से लड़ते रहे. इस्लामिक गार्ड्स की इस कारस्तानी पर अगर किसी को ज़रा भी शक रहा होगा तो वह ईरान के विदेश मंत्री जव्वाद ज़रीफ के एक लीक हुए इंटरव्यू से दूर हो गया. इसमें उन्होंने कूटनीति में दख़ल देने को लेकर इस्लामिक गार्ड्स की आलोचना की थी. उन्होंने यह आरोप भी लगाया था कि IRGC रूस के साथ मिलकर परमाणु समझौते को तोड़ने की ज़मीन तैयार कर रहा है. रूहानी के लिए इन लोगों को नियंत्रित करना मुश्किल था. वह पश्चिमी देशों के साथ मिलकर जो हासिल करने की कोशिश कर रहे थे, अक्सर उसमें ऐसी ताकतें अड़ंगा बनती रहीं

इज़रायल को गैरआधिकारिक परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता मिली है. ऐसे में अगर ईरान परमाणु शक्ति संपन्न देश बन जाता है तो येरूशलम के लिए उसे रोकना मुश्किल हो जाएगा. इसी वजह से जब पश्चिमी देशों के साथ ईरान परमाणु समझौते को लेकर बातचीत कर रहा था, तब इज़रायल उसके खिलाफ़ गुपचुप रूप से युद्ध छेड़े हुए था. करीब एक दशक से इज़रायल की गुप्तचर एजेंसियां ईरान में घुसकर उसके साइंटिस्टों को निशाना बनाती आई हैं. पिछले साल जानेमाने ईरानी परमाणु वैज्ञानिक मोहसेन फखरीजादे की तेहरान में हत्या के लिए भी इज़रायल की खुफ़िया एजेंसी को ही ज़िम्मेदार माना गया.

इज़रायल को गैर-आधिकारिक परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता मिली है. ऐसे में अगर ईरान परमाणु शक्ति संपन्न देश बन जाता है तो येरूशलम के लिए उसे रोकना मुश्किल हो जाएगा. इसी वजह से जब पश्चिमी देशों के साथ ईरान परमाणु समझौते को लेकर बातचीत कर रहा था, तब इज़रायल उसके खिलाफ़ गुपचुप रूप से युद्ध छेड़े हुए था.

इज़रायल और ईरान के बीच यह प्रच्छन युद्ध सिर्फ़ ईरान, सीरिया या इराक तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह सागर क्षेत्र तक फैल गया है. ईरान के कुछ जहाजों को जब निशाना बनाया गया तो उसके पीछे भी इज़रायल का ही हाथ माना गया. इज़रायल की खुफ़िया एजेंसी मोसाद के प्रमुख के पद से योसी कोहेन हाल ही में रिटायर हुए हैं. उन्होंने  तफसील से बताया कि 2018 में तेहरान में किस तरह से एक लूट को अंजाम दिया गया. उस लूट में सैकड़ों दस्तावेज हाथ लगे.

उनके मुताबिक, ये दस्तावेज़ बताते हैं कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम कहीं व्यापक है. उन्होंने दावा किया कि पश्चिमी देशों के साथ समझौते के बावजूद ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ा रहा था. इन दस्तावेजों को इज़रायल के तत्कालीन प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने अप्रैल 2018 में सार्वजनिक किया था. इसके कुछ ही दिन बाद ट्रंप ने ईरान के साथ परमाणु समझौता तोड़ दिया. इज़रायल में भले ही सत्ता परिवर्तन हो गया हो, लेकिन ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर उसकी ओर से दबाव बना रहेगा. इसमें किसी भी ढील की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए.

 ईरान और अरब देशों के बीच कूटनीति स्तर पर गर्मजोशी बढ़ने से भी इजरायल चिंतित है. यह हाल तब है, जबकि उसने संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन की अगुवाई में कुछ अरब देशों के साथ सामान्य रिश्तों की बहाली के लिए 2020 में अब्राहम समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों के साथ इजरायल के ताल्लुकात बेहतर हुए हैं. उधर सऊदी अरब भी ईरान के साथ अहम चैनलों के जरिये सीमित ही सही बातचीत कर रहा हैदोनों देशों के नए नेतृत्व का एक दूसरे के प्रति क्या रुख रहता हैयह जल्द ही स्पष्ट हो जाएगा. आने वाले महीनों में ईरान और अमेरिका JCPOA समझौते को बहाल करने की कोशिश करेंगे, इसमें कोई शक नहीं है. तब बेनेट और रईसी को अपनी विदेश और क्षेत्रीय नीति स्पष्ट करनी होगी, जिस पर अभी वे काम कर रहे हैं.

रईसी की चुनावी जीत के एक दिन बाद बाइडेन सरकार से विएना में ईरानी वार्ताकारों ने पक्की गारंटी मांगी कि अमेरिका JCPOA समझौते को नहीं तोड़ेगा या ना ही वह ईरान पर फिर से पाबंदियां थोपेगा. रईसी सत्ता में  रहे हैं, यह भाषा इसकी बानगी है. और परमाणु समझौते में जितनी देरी होगी, अमेरिका के लिए हालात उतने ही मुश्किल होते जाएंगे क्योंकि आने वाले वक्त में ईरान में निर्णय का अधिकार पूरी तरह से धुररूढ़िवादियों के हाथ में  जाएगा.

भारत पर क्या असर होगा

ईरान और इज़रायल में नेतृत्व परिवर्तन का असर पश्चिम एशिया से बाहर के इलाकों पर भी होगा. ख़ासतौर पर भारत जैसे देशों पर, जो इस क्षेत्र की तीन ताकतों सऊदी अरब, ईरान और इज़रायल के बीच महीन संतुलन बनाकर चलते आए हैं. इन देशों की नज़र भी नए नेतृत्व और उनकी आगामी नीतियों पर रहेगी. भारत ने इस क्षेत्र की सारी बड़ी ताकतों के साथ अच्छे ताल्लुक़ात बनाए हुए हैं. इसलिए अगर उसके नज़रिये से देखें तो मामूली संयोजन करना होगा और कूटनीति पर इसका बहुत असर नहीं होगा.

इज़रायल के साथ पिछले कुछ साल में भारतीय संबंधों पर नेतन्याहू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पर्सनैलिटी पॉलिटिक्स का असर रहा है. ये दोनों ही इस बात के प्रतीक थे कि वैश्विक स्तर पर राजनीतिक का झुकाव दक्षिणपंथ की ओर हुआ है. इज़रायल में आज गठबंधन की जो नाज़ुक और ‘सतरंगी’ सरकार है, भारत ऐसी सरकारों की मजबूरियों से भी अनजान नहीं है. वह अपने यहां ऐसी कई सरकारों का गवाह रहा है. यह बात और है कि इज़रायल के साथ रिश्ते में मोदीनेतन्याहू की दोस्ती वाली बात नहीं रह जाएगी. शायद भारत को एक कदम पीछे खींचना पड़े.

उधर, ईरान में रईसी के सत्ता में आने से भारत के साथ रिश्तों पर कोई बड़ा असर नहीं होगा. इसमें अवसर हैं तो चुनौतियां भी. आर्थिक और निवेश संबंधी ज्य़ादातर प्रस्ताव अभी रुके हुए हैं. दूसरी ओर, कागज़ पर आपसी रिश्ते मज़बूत हो रहे हैं. हालांकि, रणनीतिक तौर पर ईरान का सवाल भारत के लिए आने वाले महीनों में कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो जाएगा, जब अमेरिका अफ़गानिस्तान से सैनिकों को पूरी तरह से वापस बुलाने का वादा पूरा कर चुका होगा. दूसरी ओर, ईरान के साथ चीन 25 साल लंबी रणनीतिक साझेदारी पर अमल शुरू करेगा. यह करीब 400 अरब डॉलर का समझौता है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.