Published on Jul 29, 2022 Updated 29 Days ago

अफ़ग़ानिस्तान में अपनी जगह बनाने के लिए भारत और ईरान अपनी साझा पहचान और हितों के इस्तेमाल से अपने वैश्विक नज़रिए को नया मुकाम दे सकते हैं.

अफ़ग़ानिस्तान का मुद्दा और उस संदर्भ में ईरान व भारत का वैश्विक नज़रिया!

2022 में सुरक्षा और भूराजनीति से जुड़े समीकरण तेज़ी से बदल रहे हैं. लिहाज़ा विश्लेषकों को उभरते रुझानों की पहचान और व्याख्या करने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. भू-राजनीति में अब पुराने की बजाए नए-नए जुमले सुनाई देने लगे हैं. ऐसे में दुनिया के तमाम मुल्कों की सरकारों के पास विदेश नीति के दायरे में अपने रुख़ को नए सिरे से परिभाषित करने का मौक़ा है. 

भू-राजनीति में अब पुराने की बजाए नए-नए जुमले सुनाई देने लगे हैं. ऐसे में दुनिया के तमाम मुल्कों की सरकारों के पास विदेश नीति के दायरे में अपने रुख़ को नए सिरे से परिभाषित करने का मौक़ा है. 

पिछले साल अफ़ग़ानिस्तान की सरकार के पतन और इस साल यूक्रेन पर रूसी आक्रमण से महाशक्तियों की रस्साकशी का अखाड़ा बदल गया है. अब पश्चिमी एशिया की बजाए पूर्वी यूरोप इन संघर्षों का केंद्र बन गया है. इन बदलावों से अफ़ग़ानिस्तान और उसके पड़ोसी मुल्कों में मजहबी चरमपंथ के उभार का ख़तरा पैदा हो गया है. इससे क्षेत्रीय सुरक्षा का संकट और गंभीर हो सकता है. अंतरराष्ट्रीय सैन्य शक्तियों की वापसी से अफ़ग़ानिस्तान में शक्ति शून्यता का वातावरण बन गया है. फ़िलहाल दुनिया का ध्यान यूक्रेन समेत यूरोप के दूसरे इलाक़ों पर केंद्रित है. ऐसे में ईरान और भारत के पास क्षेत्रीय और महादेशीय स्तर पर सक्रिय भूमिका निभाने का बेहतरीन मौक़ा है. 

क्षेत्रीय सहयोग की नई तस्वीर

बदलती विश्व व्यवस्था ने हालिया वक़्त में क्षेत्रीय संगठनों की नाक़ाबिलियत को बेपर्दा कर दिया है. ग़ौरतलब है कि 1990 के दशक की शुरुआत से “नई वैश्विक व्यवस्था” के हिसाब से क्षेत्रीय और महादेशीय सहयोग की प्रणालियां विकसित होना शुरू हुई थीं. पुरानी पड़ चुकी इन व्यवस्थाओं से “नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था” की भावी सुरक्षा ज़रूरतों की पूर्ति नहीं हो सकती. पिछले तीन दशकों में तैयार सहयोग के तमाम ढांचों में उनके लक्ष्यों के हिसाब से नए सिरे से सोच-विचार किए जाने की दरकार है. इनमें आर्थिक सहयोग संगठन (ECO), दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) और क्षेत्रीय सीमाओं से परे दूसरी व्यवस्थाएं, जैसे- शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शामिल हैं. इसके साथ ही, हमें मौजूदा परिस्थितियों को भी नए सिरे से परिभाषित करना होगा. दुनिया के देशों की ज़रूरतों को सटीक तरीक़े से समझना होगा और नए साझा हितों की समझ विकसित करनी होगी. इनके हिसाब से क्षेत्रीय और महादेशीय स्तर पर नई संस्थाएं, संगठन और तंत्र खड़े करने होंगे. 

नए क्षेत्रीयतावादी सिद्धांतों के मुताबिक कोई क्षेत्र उसको लेकर विकसित हमारी समझ पर आधारित होती है. ज़रूरी नहीं कि नक़्शे पर बताए गए भूखंड के हिसाब से ही क्षेत्र की परिभाषा गढ़ी जाए. क्षेत्रीयतावाद के पारंपरिक सिद्धांतों में इसी तरीक़े से किसी क्षेत्र-विशेष को दर्शाया जाता रहा है. नए क्षेत्रों में 2 प्रमुख तत्व शामिल हैं: विषयवस्तु को लेकर खुलापन और भौगोलिक रूप से लचीलापन. लिहाज़ा क्षेत्रीयतावाद के आधुनिक सिद्धांतों के मुताबिक दुनिया के देश नए क्षेत्र (भौतिक या आभासी रूप से) गठित कर सकते हैं. साथ ही दूसरे देशों के साथ तय किए गए साझा हितों के मुताबिक इन क्षेत्रों का विस्तार या इनको मज़बूत कर सकते हैं. हालांकि साझा हितों की परिभाषाएं साझा पहचानों पर आधारित होती हैं. रचनावादी भी इसी प्रक्रिया पर भरोसा करते हैं. पहचान तय करने वाले तत्वों पर नज़र डालने पर पता चलता है कि संस्कृति और उसके घटक तत्व ही अस्मिता के निर्माण के प्रमुख वाहक होते हैं. लिहाज़ा साझा सांस्कृतिक मानदंडों और मूल्यों पर ज़ोर देने वाले सहयोग के नए मॉडल सुरक्षा के लिए ज़रूरी पूर्व-शर्त हैं. इनसे साझा पहचान और हित तैयार हो सकते हैं. 

पारंपरिक क्षेत्रीयतावाद में क्षेत्रीय सहयोग को ‘ऊपर से नीचे’ संचालित किया जाता था. इसके तहत सहयोग की किसी भी क़वायद के लिए देशों के शीर्षस्थ राजनीतिक अधिकारियों के बीच क़रार की दरकार होती थी. इसके उलट क्षेत्रीयतावाद के नए स्वरूप में ‘नीचे से ऊपर’ की ओर संचालित प्रणाली का पक्ष लिया जाता है.

पारंपरिक क्षेत्रीयतावाद में क्षेत्रीय सहयोग को ‘ऊपर से नीचे’ संचालित किया जाता था. इसके तहत सहयोग की किसी भी क़वायद के लिए देशों के शीर्षस्थ राजनीतिक अधिकारियों के बीच क़रार की दरकार होती थी. इसके उलट क्षेत्रीयतावाद के नए स्वरूप में ‘नीचे से ऊपर’ की ओर संचालित प्रणाली का पक्ष लिया जाता है. इस प्रक्रिया में सत्ता से जुड़े ढांचे के निचले स्तरों पर तालमेल की अहमियत बढ़ गई है. इनमें नागरिक संस्थाओं (जैसे व्यक्तियों, संगठनों और वैज्ञानिक और सांस्कृतिक केंद्रों) के बीच के सहयोग शामिल हैं. व्यापक स्वरूप वाले और नीचे से ऊपर की ओर सक्रिय संबंधों के हिसाब से गढ़े गए क्षेत्रीय सहयोग से समुदायों के बीच ज्ञान और जुड़ावों को बढ़ाने में चरणबद्ध रूप से मदद मिल सकती है. शुरुआती दौर में इस प्रक्रिया से एक “क्षेत्रीय समाज” की स्थापना के लिए ज़मीन तैयार की जा सकती है. वैज्ञानिक, सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्रों में नागरिक संबंधों की बुनियाद पर इसकी स्थापना हो सकती है. इसी प्रक्रिया से आगे चलकर आर्थिक, राजनीतिक और सुरक्षा सहयोग का आग़ाज़ हो सकता है. 

ईरान और भारत के पास ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध आधार मौजूद है. साथ ही मध्य, दक्षिणी और पश्चिमी एशियाई क्षेत्रों में पड़ोसियों के साथ ये दोनों ही देश समान सांस्कृतिक मूल्य और मानदंड साझा करते हैं. दोनों देशों के पास इन्हीं सिद्धांतों की बुनियाद पर एक “क्षेत्रीय समाज” तैयार करने की ताक़त है. दोनों ही देश ऐसे आपसी सांस्कृतिक संचारों के ज़रिए 21वीं सदी में क्षेत्रीय सुरक्षा की एक नई परिभाषा पेश कर सकते हैं. इस तरह ईरान और भारत क्षेत्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सहयोग का एक नया मॉडल तैयार कर सकते हैं. 

अफ़ग़ानिस्तान: अंतरराष्ट्रीय सहयोग का केंद्र

हाल के दशकों में ईरान और भारत के बीच अंतरराष्ट्रीय सहयोग का एक प्रमुख घटक अफ़ग़ानिस्तान रहा है. मुख्य रूप से इस सहयोग की झलक 1990 के दशक के आख़िरी पांच वर्षों में दिखाई दी. उस वक़्त तालिबान की पहली हुकूमत ने काबुल पर नियंत्रण क़ायम किया हुआ था. तब ईरान और भारत ने नॉर्दर्न अलायंस और अफ़ग़ानिस्तान की नरमपंथी मजहबी पार्टियों का समर्थन किया था. लिहाज़ा इसमें कोई शक़ नहीं कि भारत और ईरान के साथ अपने ऐतिहासिक संबंधों की बदौलत अफ़ग़ानिस्तान दोनों देशों के बीच एक अच्छा संपर्क-सूत्र बन सकता है. इससे क्षेत्रीय एकीकरण के नए मॉडल को आकार देने में मदद मिलेगी. साथ ही समूचे एशिया में एक नया क्षेत्रीय सहयोग तंत्र खड़ा किया जा सकेगा. 

आज भारत और ईरान दोनों ही तालिबान से संपर्क स्थापित करने की कोशिशों में लगे हैं. क्षेत्रीय स्थिरता बरक़रार रखने के लिए दोनों ही देश साझा समाधान खोजने की क़वायद करने को तैयार हैं. इसका मक़सद मजहबी कट्टरपंथ के बढ़ते रुझानों पर क़ाबू पाना है. अतीत में लेवंट से ख़ुरासान तक ISIS की गतिविधियों के विस्तार के रूप में इसकी झलक मिल चुकी है. 

ईरान और हिंदुस्तान में अफ़गानिस्तान के सैकड़ों नागरिक कार्यकर्ता, पत्रकार, शिक्षाविद्, छात्र और बुद्धिजीवी रह रहे हैं. इससे ईरान और भारत में अभूतपूर्व क्षमता और सामाजिक पूंजी तैयार हो गई है. इस ताक़त के बूते दोनों ही देश एशिया के इस इलाक़े में क्षेत्रीयतावादी सांस्कृतिक कार्यक्रमों को आगे बढ़ा सकते हैं. 

ईरान और हिंदुस्तान में अफ़गानिस्तान के सैकड़ों नागरिक कार्यकर्ता, पत्रकार, शिक्षाविद्, छात्र और बुद्धिजीवी रह रहे हैं. इससे ईरान और भारत में अभूतपूर्व क्षमता और सामाजिक पूंजी तैयार हो गई है. इस ताक़त के बूते दोनों ही देश एशिया के इस इलाक़े में क्षेत्रीयतावादी सांस्कृतिक कार्यक्रमों को आगे बढ़ा सकते हैं. तीनों मुल्कों (ईरान, भारत और अफ़ग़ानिस्तान) के शिक्षा शास्त्रियों और बुद्धिजीवियों के बीच संवाद और विचारों के आदान-प्रदान के लिए एक मंच मुहैया कराया जा सकता है. इस तरह वैश्विक सांस्कृतिक नज़रियों के साझा तत्वों पर आधारित नए विमर्श खड़े किए जा सकते हैं. इन क़वायदों से सुरक्षा अध्ययन के क्षेत्र में एक नई विचार प्रणाली विकसित हो सकती है. 

अफ़ग़ानिस्तान और इलाक़े के दूसरे देशों के बुद्धिजीवियों की मदद से ईरान और भारत बहुसांस्कृतिक क्षेत्रीय सुरक्षा का नया मॉडल खड़ा करने के लिए भी ज़रूरी बुनियाद विकसित कर सकते हैं. इस क़वायद से दोनों ही देश इस क्षेत्र में बौद्धिक और सांस्कृतिक मोर्चे पर नेतृत्वकारी भूमिका ले सकते हैं. इस तरह दोनों मुल्क आयातित मॉडलों से अपना बचाव कर सकते हैं. इनमें पश्चिमी तौर-तरीक़े भी शामिल हैं, जो यूरोपीय और अमेरिकी समाजों में बेहतर रूप से अमल में आते दिखाई देते हैं. इस क़वायद से धार्मिक कट्टरतावाद पर आधारित मॉडलों से भी हिफ़ाजत हो सकेगी, जो  मजहबी चरमपंथियों को एकजुट करने के साथ-साथ असुरक्षा को हवा देते हैं. 

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