Published on May 14, 2021 Updated 0 Hours ago

12 दिसंबर को फ़ाइज़र की कोरोना वैक्सीन को अमेरिका के फूड ऐंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन से मान्यता मिल गई. इसके बाद से तो मानो आफ़त की बारिश ही शुरू हो गई.

फ़ाइज़र के बर्ताव ने पूरी दुनिया को ख़तरे में डाल दिया है

महामारियां, जंगल में लगी आग की तरह होती हैं. अगर इन पर जल्द क़ाबू नहीं पाया जाता, तो ये नियंत्रण के बाहर हो जाती हैं. कोविड-19 की वैक्सीन के आवंटन और इसकी क़ीमत को लेकर फ़ाइज़र ने जो नीतियां अपनाई हैं, उनसे विकासशील देश तो एक भयानक मानवीय आपदा के मुहाने पर आ खड़े हुए ही हैं, इसकी वजह से अमीर देशों को भी आने वाले समय में गंभीर ख़तरा पैदा हो सकता है.

कोवैक्स: सबके लिए कोरोना की वैक्सीन

2020 में पूरे साल पूरी दुनिया कोविड-19 की महामारी की तकलीफ़ का सामना करती रही थी. इससे एक बात एकदम साफ़ हो गई थी कि जब भी कोरोना की वैक्सीन उपलब्ध होगी, तो उसे हासिल करने के लिए भयंकर होड़ मचने वाली है. ये वैक्सीन हासिल करने की क़तार में पांच अरब से ज़्यादा लोग जो लगे होंगे.

कोवैक्स के तहत वैक्सीन की ख़ुराक की क़ीमत 1, 2, और 3 डॉलर तय की गई थी, जो वैक्सीन प्राप्त करने वाले देश की आमदनी के स्तर के हिसाब से तय की जानी थी.

इस चुनौती को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने वैक्सीन गठबंधन गावी (GAVI) के साथ मिलकर वर्ष 2020 में ही कोवैक्स की स्थापना की थी. इसका मक़सद, दुनिया के सभी देशों के बीच कोरोना की वैक्सीन का ‘निष्पक्ष और समान’ वितरण सुनिश्चित करना था. इस योजना की मुख्य बात ये थी कि कोवैक्स के तहत कोरोना वैक्सीन की क़रीब दो अरब ख़ुराक ख़रीदी जानी थी. इसके माध्यम से वर्ष 2021 में हर देश को कुल ज़रूरत के 20 प्रतिशत टीके उपलब्ध कराने थे, जिससे कि दुनिया के सबसे कमज़ोर देशों को भी कोरोना की वैक्सीन उपलब्ध कराई जा सके. कोवैक्स के तहत वैक्सीन की ख़ुराक की क़ीमत 1, 2, और 3 डॉलर तय की गई थी, जो वैक्सीन प्राप्त करने वाले देश की आमदनी के स्तर के हिसाब से तय की जानी थी.

जब फ़ाइज़र की वैक्सीन को मान्यता मिली

12 दिसंबर को फ़ाइज़र की कोरोना वैक्सीन को अमेरिका के फूड ऐंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन से मान्यता मिल गई. इसके बाद से तो मानो आफ़त की बारिश ही शुरू हो गई. जैसी कि आशंका थी, कोरोना वैक्सीन की मांग बेतहाशा हो रही थी और फ़ाइज़र ने इस मौक़े को फौरन भांपते हुए, ये अंदाज़ा लगा लिया कि वो जितनी चाहे उतनी कोरोना वैक्सीन, अपने मनचाहे मूल्य पर बेच सकती है.

फाइज़र ने अपनी वैक्सीन का दाम 20 डॉलर प्रति ख़ुराक तय किया. ये कोवैक्स द्वारा सुझाए गए कोरोना वैक्सीन के दाम के औसत से दस गुना अधिक था. इस क़ीमत पर भी ग्राहक, फ़ाइज़र से वैक्सीन के लिए गिड़गिड़ाने के लिए मजबूर किए गए. इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू ने दंभ भरते हुए कहा था कि उन्हें अपने देश के लिए वैक्सीन की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए फ़ाइज़र के सीईओ अल्बर्ट बोउर्ला को 17 बार फ़ोन करना पड़ा था. जबकि उन्हें इस बात की शिकायत करनी चाहिए थी.

फ़ाइज़र की वैक्सीन के ख़रीदार देशों की सूची में उन्हीं देशों के नाम थे, जिनका सकल घरेलू उत्पाद (GDP) दुनिया में सबसे ज़्यादा है. वहीं, 90 से अधिक विकासशील देशों को फ़ाइज़र की वैक्सीन की एक भी ख़ुराक नहीं नसीब हो सकी.

लगभग उसी समय बाज़ार में कोरोना की एक और वैक्सीन भी उतारी गई. इसे अमेरिकी कंपनी मॉडर्ना ने बनाया था. फ़ाइज़र जो कि एक ‘स्थापित बड़ी दवा कंपनी’ है, की तुलना में मॉडर्ना ज़्यादा नहीं बस दस बरस पहले अस्तित्व में आई है और इसकी स्थापना यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर्स ने मिलकर की है. फिर भी मॉडर्ना के प्रबंधक, बिना कोई सवाल किए हुए, फ़ाइज़र के दिखाए रास्ते पर चलने को तैयार हो गए थे. सच तो ये है कि फ़ाइज़र के टीके की न पूरी की जा सकने वाली मांग को देखते हुए ही, मॉडर्ना ने अपनी कोरोना वैक्सीन की क़ीमत 30 डॉलर प्रति डोज़ तय की, जो फ़ाइज़र के टीके से भी पचास प्रतिशत अधिक थी. इस वैक्सीन को भी ग्राहकों ने हाथों-हाथ लपक लिया. उन्नीसवीं सदी के ब्रिटिश अर्थशास्त्री डेविड रिकॉर्डो ने आपूर्ति से ज़्यादा मांग को लेकर ‘स्कार्सिटी रेंट’ नाम की थ्योरी पेश की थी, वो इतिहास में पहली बार इतनी सही साबित हो रही थी.

फाइज़र की वैक्सीन बेचने की रणनीति बिल्कुल साधारण है: टीका उसे ही बेचो जो हाथ के हाथ क़ीमत अदा कर सके. ज़ाहिर है, अमीर देशों ने तुरंत ही आपूर्ति की जा रही सारी की सारी वैक्सीन हथिया ली. बाक़ी देश इंतज़ार ही करते रह गए. फ़ाइज़र की वैक्सीन के ख़रीदार देशों की सूची में उन्हीं देशों के नाम थे, जिनका सकल घरेलू उत्पाद (GDP) दुनिया में सबसे ज़्यादा है. वहीं, 90 से अधिक विकासशील देशों को फ़ाइज़र की वैक्सीन की एक भी ख़ुराक नहीं नसीब हो सकी.

ज़ाहिर है, फ़ाइज़र के प्रबंधक अपनी हरकतों को ये कहकर जायज़ ठहराने की कोशिश करेंगे कि उन्होंने तो, ‘अपने साझीदारों या शेयरधारकों के हितों को सर्वोपरि रखा.’ ये बात कहनी आसान है. मगर ये आधा ही सच है. असल में कंपनी के प्रबंधकों का असली मक़सद तो अपनी जेबें भरना था. मिसाल के तौर पर, कंपनी के सीईओ अल्बर्ट बोउर्ला ने पिछले साल वेतन और बोनस के तौर पर लगभग 52 लाख डॉलर कमाए थे. इसके अलावा उन्हें शेयरों के विकल्प से भी 1.04 करोड़ डॉलर की आमदनी हुई थी. ध्यान रहे कि बोउर्ला की इतनी कमाई तब हुई थी जब फ़ाइज़र ने अपनी भारी क़ीमत वाली कोरोना की वैक्सीन की एक भी ख़ुराक नहीं बेची थी.

आज की तारीख़ तक, फ़ाइज़र ने अपने टीकों की महज़ चार करोड़ डोज़ ही कोवैक्स को देने का वादा किया है. ये कोवैक्स योजना की कुल ज़रूरत (2 अरब डोज़) का महज़ 2.5 प्रतिशत तो है ही, ख़ुद फ़ाइज़र और उसकी सहयोगी कंपनियों के टीके बनाने की वार्षिक क्षमता (वो भी दो अरब ही है) का भी महज़र 2.5 फ़ीसद ही है.

वैक्सीन सार्वजनिक हित की वस्तु हैं

वैक्सीन निर्माताओं को, विशेष रूप से अमेरिका में, सरकार और निजी फाउंडेशन द्वारा दिल खोलकर रिसर्च और वित्तीय सहयोग उपलब्ध कराया गया है. निश्चित रूप से ये सराहनीय प्रयास है.

फ़ाइज़र और मॉडर्ना, दोनों के टीके जिस mRNA तकनीक पर आधारित हैं, उसकी खोज सबसे पहले, अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ हेल्थ में की गई थी. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ हेल्थ की लैब टेक्नीशियन कैटालिन कैरिको ने इसके लिए जिस असाधारण प्रतिबद्धता का प्रदर्शन किया था, उसी के चलते mRNA तकनीक विकसित की जा सकी. वैक्सीन बनाने की अनकही नायिका कैटलिन ने आर्थिक लाभ के लिए नहीं, विज्ञान के प्रति अपने जज़्बे से ये काम किया था.

प्रोफ़ेसर मरियाना माज्ज़ुकैटो ने इस गतिविधि को बड़े सटीक शब्दों में कुछ इस तरह बयां किया है: ‘हमने जोखिमों का समाजीकरण कर दिया है, और मुनाफ़े का निजीकरण.’

फ़ाइज़र को वैक्सीन का विकास करने के लिए अमेरिकी सरकार के ऑपरेशन वार्प स्पीड के तहत 1.95 अरब डॉलर की वित्तीय मदद मिली थी. विडंबना ये है कि, जिसे हम ‘फ़ाइज़र वैक्सीन’ के नाम से जानते हैं, उसका विकास भी ख़ुद फ़ाइज़र नहीं, उसकी सहयोगी कंपनी बायोएनटेक (BioNTech) ने किया था. बायोएनटेक एक जर्मन कंपनी है, जिसकी स्थापना तुर्की से जर्मनी आकर बसे अप्रवासियों ने की थी. बायोएनटेक को कोरोना के टीके का विकास करने के लिए जर्मनी की सरकार से 37.5 करोड़ यूरो की मदद मिली थी. इसके अलावा गेट्स फाउंडेशन ने भी इसमें 5.5 करोड़ डॉलर का नेश किया था. 

निजी फाउंडेशन के दानदाताओं को टैक्स में बहुत सी रियायतें मिलती हैं. ये छूट इतनी ज़्यादा होती हैं कि उनके पैसे सार्वजनिक धन का रूप अख़्तियार कर लेते हैं. सार्वजनिक निधि से जो ज्ञान और उत्पाद निकलते हैं, वो सार्वजनिक संपत्ति होते हैं. टीके भी इसका अपवाद नहीं हैं. इतनी भारी आर्थिक मदद देने वाले, फिर चाहे वो सरकार हो या निजी फाउंडेशन, उन्हे ये सुनिश्चित करना चाहिए कि कंपनियों के साथ वित्तीय समझौते में सार्वजनिक संपत्ति होने की बात स्पष्ट रूप से लिखी जाए. ऐसा न होने की सूरत में, दवा और वैक्सीन विकसित करने का कारोबार, सार्वजनिक निधि को कारोबारी शेयरधारकों की जेबों तक पहुंचाने का ज़रिया बन जाता है. प्रोफ़ेसर मरियाना माज्ज़ुकैटो ने इस गतिविधि को बड़े सटीक शब्दों में कुछ इस तरह बयां किया है: ‘हमने जोखिमों का समाजीकरण कर दिया है, और मुनाफ़े का निजीकरण.’

अंतरात्मा का संकट

आइए सबसे पहले तो ये स्वीकार करें कि आज पूरी दुनिया इस वायरस के ख़िलाफ़ एक युद्ध लड़ रही है. हमने इस प्राणघातक वायरस के हाथों 30 लाख से ज़्यादा लोगों की जान गंवाई है, और अभी वायरस की प्यास बुझी नहीं है. हालांकि, हम सोशल डिस्टेंसिंग और मास्क के बारे में बातें जारी रखे हुए हैं, और फिर भी ये वायरस मौत का भयानक नाच जारी रखे हुए है. ये फैल रहा है, लोगों को संक्रमित कर रहा है, उनकी जान ले रहा है, म्यूटेट हो रहा है और मानवता के सीने पर बड़ी निर्दयता से दु:ख की लक़ीरें बनाता जा रहा है.

अंत में देखें तो इस घातक वायरस को हराने के लिए हमारे पास एक ही हथियार है, और वो है वैक्सीन. फ़ाइज़र और मॉडर्ना ने जान-बूझकर करोड़ों बेगुनाह लोगों को इस बुनियादी औज़ार से महरूम रखा है, जिसकी मदद से वो इस वायरस से लड़ सकते और मानवता के इतिहास की सबसे भयानक त्रासदी को और तबाही मचाने से रोक सकते.

कोरोना के टीके लगने शुरू हुए चार महीने से अधिक समय बीत चुका है. फिर भी, दुनिया के 40 से ज़्यादा देश, अब तक अपने यहां की 1.0 प्रतिशत से भी कम जनसंख्या को कोरोना का टीका लगा सके हैं.

कोरोना के टीके लगने शुरू हुए चार महीने से अधिक समय बीत चुका है. फिर भी, दुनिया के 40 से ज़्यादा देश, अब तक अपने यहां की 1.0 प्रतिशत से भी कम जनसंख्या को कोरोना का टीका लगा सके हैं. इन देशों की सूची में बड़े और अहम देश, जैसे कि- नाइजीरिया. दक्षिण अफ्रीका, वेनेज़ुएला, मिस्र, इथियोपिया, पाकिस्तान, ईरान, इराक़ और सूडान शामिल हैं. इनमें से अधिकतर देशों में वर्ष 2022 के दूसरे हिस्से से पहले ज़्यादातर लोगों को कोरोना का टीका नहीं लग सकेगा. विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक डॉक्टर टेड्रोस ने इन हालात को केवल एक शब्द में बयां किया है- कुरूप.

इसमें कोई दो राय नहीं कि, जिन अमीर देशों ने अपनी ज़रूरत से कहीं ज़्यादा टीकों के ऑर्डर दिए हैं, उन्हें कोरोना के टीकाकरण की इस भयावह असमानता की कुछ ज़िम्मेदारी लेनी होगी. लेकिन, ये बात बिल्कुल साफ़ है कि इस तबाही की मुख्य ज़िम्मेदार: फ़ाइज़र और मॉडर्ना हैं. ख़ास तौर से: उन्होंने टीकों के ऐसे दाम तय किए जिनका लागत से कोई संबंध नहीं था. उन्होंने वैक्सीन का आवंटन बिल्कुल भी ये विचार किए बिना किया कि उन्हें, वैक्सीन के वितरण की प्रक्रिया में थोड़ी तो ‘निष्पक्षता और समानता’ रखनी चाहिए. उन्होंने अपनी कुल क्षमता का महज़ 2.5 प्रतिशत ही कोवैक्स कार्यक्रम को दिया.

सीधे तौर पर, मानवता आज फ़ाइज़र की इन बेलग़ाम नीतियों की एक भारी क़ीमत लोगों की सेहत और लोगों की बड़ी संख्या में ऐसी मौतों के रूप में चुका रही है, जिन्हें निश्चित रूप से टाला जा सकता था. आने वाले समय में ये मंज़र और भी भयावाह हो सकता है.

एक निरंतर जारी रहने वाली महामारी

बहुत से देशों के पास इस वक़्त जश्न मनाने का मौक़ा है. डिज़्नीलैंड खुल रहा है. लंदन के पब और वेस्ट एंड का बाज़ार खुल रहा है. रेस्टोरेंट और फ्लाइट की बुकिंग तेज़ हो रही हैं. आख़िरकार. हवा में बहार की ख़ुशबू है.

लेकिन, इन जश्न के पीछे एक फ़िक्र छुपी हुई है: वायरस के वैरिएंट की. भयानक वायरस अपने और भी घातक म्यूटेंट वैरिएंट की मदद से ही बचते और क़हर ढाते रहते हैं. नया कोरोना वायरस (SARS-CoV-2) भी कोई अपवाद नहीं है. चूंकि, ये वायरस पहले ही 15 करोड़ से अधिक लोगों को संक्रमित कर चुका है, तो इसके सैकड़ों वैरिएंट भी बन चुके हैं. इनमें से कई वैरिएंट, असली वायरस से कहीं ज़्यादा घातक हैं.

असल में कोरोना वायरस, मानवता के विरुद्ध एक बेहद भयंकर गुरिल्ला युद्ध छेड़े हुए है. अगर आप दुनिया में मौजूद सभी कोरोना वायरस को पकड़ सकें, तो ये कोक के एक ही कैन में समा जाएंगे. फिर भी हम अपनी तमाम तोपों, पनडुब्बियों, मिसाइलों, परमाणु हथियारों, और हां अपनी बुद्धिमानी के बावजूद, अपने इस ख़तरनाक दुश्मन को शिकंजे में नहीं कस पा सके हैं. और ये वायरस न तो सीमाओं पर खड़े अधिकारियों की परवाह करता है और न ही सरहद पर खड़ी किसी दीवार की.

ये वायरस पहले ही 15 करोड़ से अधिक लोगों को संक्रमित कर चुका है, तो इसके सैकड़ों वैरिएंट भी बन चुके हैं. इनमें से कई वैरिएंट, असली वायरस से कहीं ज़्यादा घातक हैं.

वायरस के नए नए वैरिएंट दुनिया के हर कोने तक पहुंचने के लिए, मानवता के सबसे शानदार आविष्कारों में से एक- विमानों की मदद ले रहे हैं. भारत में वायरस के डबल म्यूटेंट के सामने आने के कुछ दिनों के भीतर, इसे फ्रांस में भी पहचाना गया. अमेरिका में बड़े पैमाने पर ब्राज़ील ही नहीं, दक्षिण अफ्रीकी और ब्रिटेन (केंट) वैरिएंट पाए जा रहे हैं. बल्कि ये सभी वैरिएंट सभी जगह पहुंच चुके हैं. इनमें से प्रत्येक वैरिएंट में दूसरे को बढ़ावा देने की क्षमता है. इससे ये महामारी उससे भी घातक हो सकती है, जितनी हम अब तक देख चुके हैं.

वैक्सीन निर्माताओं के लिए तो ये ख़ुशख़बरी की बात है. क्योंकि, वो हर वैरिएंट के लिए वैक्सीन विकसित करने की योजना बना रहे हैं. ‘जब तक सभी देश सुरक्षित नहीं, तब तक कोई भी देश सुरक्षित नहीं’, ये महज़ खोखले शब्द नहीं हैं. मानवता के लिए जोखिम बहुत बड़ा है.

जैसा कि अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की मेडिकल ऐंड बायोडिफेंस प्रिपेयेर्डनेस की पूर्व निदेशक डॉक्टर लूसियाना बोरियो ने कहा था: ‘आप किसी महामारी का मुक़ाबला यात्रा के प्रतिबंधों से नहीं कर सकते हैं. दुर्भाग्य से इसी कारण से ज़रूरत इस बात की है कि हम वैक्सीन को बाक़ी दुनिया से साझा करें…इससे पहले कि वायरस हमारी सरहदों में घुस जाए.’

सबसे ग़रीब लोगों को वैक्सीन हासिल करने से जान बूझकर रोकने के चलते फ़ाइज़र और मॉडर्ना ने न केवल ग़रीबों, बल्कि अपने धनी और मशहूर ग्राहकों के सिर पर भी एक ऐसी दुधारी तलवार लटका दी है, जो आने वाले लंबे समय तक महामारी के ख़तरे के रूप में मौजूद रहेगी.

बहुत मुमकिन है कि इस प्राणघातक वायरस पर जीत का एलान करने से पहले, आज हम जो भयावह हालात भारत में देख रहे हैं, वो आने वाले समय में कई अन्य देशों में भी देखने को मजबूर हों. 


**अरुण जैन अभी हाल के दिनों तक WHO फाउंडेशन के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स के सदस्य रहे थे. यहां पर उन्होंने जो विचार रखे हैं, वो पूर्णतया उनके अपने विचार हैं. न तो विश्व स्वास्थ्य संगठन और न ही WHO फाउंडेशन को ही इस लेख की पूर्वसूचना दी गई थी.

लेखकों के कमेंट के आधार पर स्पष्टता के लिए इस लेख को संशोधित और अपडेट किया गया है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.