Author : Collin Koh

Published on Dec 24, 2021 Updated 0 Hours ago

ऑकस को लेकर आसियान देशों के तमाम विरोधाभासी विचार के बावजूद क्षेत्रीय सुरक्षा मुद्दों पर सहयोग और सह-अस्तित्व बनाए रखना ज़रूरी है.

“इच्छा से गठबंधनों” की शुरूआत और दक्षिण पूर्व एशिया में व्यावहारिक सुरक्षा सहयोग पर इसका असर

 बीते सितंबर को दक्षिण पूर्व एशिया में अजीब सी स्थिति पैदा हो गई जब ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका ने त्रिस्तरीय समूह ऑकस के गठन का ऐलान किया. इस ऐलान के साथ ही आसियान देशों के भीतर आंतरिक विभाजन पूरी तरह साफ हो गया, ख़ास कर तब जबकि इंडोनेशिया और मलेशिया ने क्षेत्रीय शांति और सुरक्षा के लिए ऑकस के परिणामों को लेकर अपनी चिंताएं जाहिर की– ख़ास कर इसके तहत ऑस्ट्रेलिया के हाथों न्यूक्लियर सबमरीन दिए जाने के प्रस्ताव के बाद कैसे क्षेत्रीय हथिय़ारों की होड़ को बढ़ावा मिलेगा- जबकि कुछ सदस्य देशों ने भले ही इसे लेकर सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी लेकिन वो भ्रम की  स्थिति में नज़र आए.

शीत युद्ध के दौरान इसकी वजह से दक्षिण पूर्व एशियाई देशों को सामाजिक राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए आत्म अवलोकन करने का मौका दिया है. 

शायद, यह पूछना सार्थक है कि क्या ऑकस जैसे “इच्छा रखने वाले गठबंधन” भारत-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा सहयोग को कमजोर बनाएंगे. क्योंकि दक्षिण पूर्व एशिया, दशकों से इस क्षेत्र में एक मज़बूत अतिरिक्त-क्षेत्रीय सुरक्षा प्रदान करता रहा है जिसकी वजह से इस क्षेत्र में लंबे समय से शांति और स्थिरता रही है. साल 1945 के बाद इस क्षेत्र में लगातार अमेरिकी सैन्य मौजूदगी ने शांति और स्थिरता को बढ़ावा दिया है. ख़ास कर शीत युद्ध के दौरान इसकी वजह से दक्षिण पूर्व एशियाई देशों को सामाजिक राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए आत्म अवलोकन करने का मौका दिया है.

कोरोना महामारी के बाद की वास्तविकताएं

आज और भविष्य के लिए, दक्षिण पूर्व एशियाई देश बड़े पैमाने पर सामाजिक आर्थिक विकास पर ख़ुद को केंद्रित कर चुके हैं. रक्षा और सुरक्षा के मामले में, यह क्षेत्र आम तौर पर नीतिगत कार्रवाइयों के दो पहलुओं पर निर्भर करता है. पहला ख़ुद के तौर पर राष्ट्र की मदद: इसका कोई रास्ता नहीं है कि दक्षिण पूर्व एशियाई देश, व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से, दुनिया के ताकतवर मुल्कों के साथ किसी भी तरह हथियारों की दौड़ में शामिल होने की उम्मीद कर सकते हैं –  कम से कम चीन को लेकर भी नहीं, यह तो तय है लेकिन दुनिया के सबसे अत्याधुनिक पारंपरिक हथियारों में से कुछ को हासिल करने की कोशिश में वैसे कोई व्यवधान नहीं है. 1990 के दशक में, मौजूदा बची खुची संप्रभुता और क्षेत्राधिकार संबंधी विवादों की वजह से, कुछ दक्षिण पूर्व एशियाई देश कम से कम आंशिक रूप से अपने पड़ोसियों को ध्यान में रखते हुए ख़ुद को हथियारबंद करने की कोशिश करेंगे.

कार्रवाई का दूसरा चरण आसियान-केंद्रित क्षेत्रीय ढांचे के जरिए अतिरिक्त-क्षेत्रीय शक्तियों को शामिल करना है, जिससे उनमें से प्रत्येक को शांति और स्थिरता बनाए रखने में शामिल किया जा सके. यह वह जगह है जहां अतिरिक्त-क्षेत्रीय सुरक्षा उपस्थिति मौजूद है. जो दक्षिणपूर्व एशियाई देशों के लिए स्थिरता का माहौल बनाने में मदद करता  है. कोरोना महामारी के बाद के समय में, जैसा कि दक्षिण पूर्व एशियाई देशों ने आर्थिक सुधार को प्राथमिकता दी, किसी तरह की अतिरिक्त-क्षेत्रीय मौजूदगी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए राष्ट्र के ख़ुद को मदद करने पर अधिक भरोसा करने की कोशिश मुमकिन नहीं नज़र आई. हथियार और जीविका के बीच, जो आवाम की भावनाएं हैं वह जीविका को लेकर ज़्यादा प्रासंगिक हैं. घरेलू स्तर पर लोगों को यह आशंका रहती है कि सत्ता में बने रहने वाले राजनीतिक अभिजात वर्ग सार्वजनिक हेल्थकेयर और सामाजिक सुरक्षा पर ज़्यादा राष्ट्रीय संसाधन ख़र्च करने के हक़ में नहीं होते हैं.

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन का आश्वासन है कि ऑकस पूरक की भूमिका में होगा, ना कि यह किसी तरह से किसी की ज़ड़ खोदेगा

यह संभवतः ऑकस की घोषणा के बाद सिंगापुर और फिलीपींस के आए बयानों के बाद कुछ सकारात्मक कदम की ओर इशारा करता है. इंडोनेशिया और मलेशिया ने भी इसे लेकर केवल चिंताओं को व्यक्त करने से ज़्यादा कुछ नहीं किया. कुछ भी हो, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन का आश्वासन है कि ऑकस पूरक की भूमिका में होगा, ना कि यह किसी तरह से किसी की ज़ड़ खोदेगा, आसियान के कुछ नेताओं द्वारा आसियान की अवधारणा को सकारात्मक तौर पर लिया गया. आसियान-ऑस्ट्रेलिया शिखर सम्मेलन के संयुक्त बयान ने ऑकस को बढ़ावा तो दिया, साथ ही सहयोग को बढ़ाने की संभावनाओं के बारे में एक सकारात्मक संकेत दिया. आसियान शिखर सम्मेलन ने भले ही ऑकस का ज़िक्र नहीं किया, जो हो सकता था कि अगर दूसरे सदस्य देशों को उनकी सुरक्षा चुनौतियों को लेकर ख़तरा लगता तो इसे लेकर नए फ्रेमवर्क तैयार किए जा सकते थे. कम से कम इसने साफ कर दिया कि आसियान सदस्य देशों के बीच सहमति की कमी है.

आसियान के भीतर सहमति की कमी कोई आश्चर्य की बात नहीं है, यह दक्षिण एशिया के असल स्वरूप को दर्शाता है, जो विविध और अलग-अलग राष्ट्रीय हितों वाले देशों से बना हुआ है.  यही वजह है कि 10-सदस्यीय यह ब्लॉक क्षेत्रीय भू-राजनीति के दृष्टिकोण को लेकर ख़ुद के विचार रखने की सोच से अभी काफी दूर है. जबकि आसियान के सभी सदस्य देश क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण के मौकों को स्वीकार कर सकते हैं, जो कि उनके चीन के साथ आनिष्ठ संबंधों में अब तक नहीं दिखा है. उदाहरण के लिए, व्यापार, निवेश और संपर्क के क्षेत्रों में, यह नहीं कहा जा सकता है कि सभी मुल्क बीजिंग को एक जैसा ही समझते हों.  जैसा कि चीन की नीतिगत कार्रवाइयों को लेकर हमेशा अनिश्चितताएं देखी जाती हैं, जिसकी कार्रवाई उसके बयान के ठीक उलट होती है और दक्षिण चीन सागर पर दावा जताने वाले कुछ आसियान देश जो चीन से ख़तरा महसूस करते हैं, उसे देखते हुए, ब्लॉक के भीतर निरंतर, और बढ़ी हुई, अतिरिक्त-क्षेत्रीय भागीदारी की ललक हमेशा रहेगी.

बयानबाज़ी से परे

बयानबाज़ी से परे इसे देखना बेहद अहम है. ऑकस को लेकर इंडोनेशिया के बयान और ऑस्ट्रेलिया के न्यूक्लियर सबमरीन डील को लेकर काफी  नरम है ख़ास कर जब इसकी तुलना शीत युद्ध के दौरान की जाती है और 1990 के पूर्व जब कैनेबेरा ने एफ-111 लॉन्ग रेंज बॉम्बर्स, जो कि न्यूक्लियर क्षमताओं से लैस था, उसे ख़रीदने का ऐलान किया.  ऑकस की घोषणा के बाद, इंडोनेशिया ऑस्ट्रेलिया के साथ अपनी सामान्य रक्षा और सुरक्षा गतिविधियों के साथ आगे बढ़ गया, जिसमें उनकी सामान्य समुद्री सीमा के साथ नियमित समुद्री गश्त भी शामिल हैं. इसके अलावा  हाल ही में, दोनों नौसेनाओं ने न्यू होराइजन 2021 का अभ्यास किया. मलेशिया ने हाल ही में साइबर सुरक्षा पर सहयोग करने के लिए ऑस्ट्रेलिया के साथ एक नया समझौता किया है- जो एक ऐसा कदम है जो शायद नहीं होता अगर कुआलालंपुर को यह अहसास नहीं होता कि कैनबरा उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा बनता जा रहा है.

मौजूदा कोरोना महामारी के बाद की परिस्थितियों को देखते हुए, मौजूदा भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का प्रबंधन करते हुए इन नए समूहों को स्थापित क्षेत्रीय संस्थानों के साथ सह-अस्तित्व में शामिल करना होगा.  

इसलिए, यह अनुमान लगाना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है कि इतने लंबे समय तक “इच्छा से  गठबंधन करने वाले देश” जैसे कि ऑकस सीधे तौर पर आसियान की मौजूदगी को ख़तरा नहीं पैदा करता, और दक्षिण पूर्व एशियाई सरकारें इसके अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं. वास्तव में, पहली सूरत में कोई यह सवाल कर सकता है कि या तो आसियान या फिर कोई दक्षिण पूर्व एशियाई देश के पास ऐसी कोई एजेंसी है जो ऐसे समूह के निर्माण को रोक सके. इसी तरह ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और अमेरिका से बनी क्वाडिलैट्रल सुरक्षा वार्ता को इस क्षेत्र में पहली बार प्राप्त किया गया, जो कुछ समय पहले तक ऑकस इंडो-पैसिफिक में एक और भू-राजनीतिक स्थिरता की वजह बन जाएगा और इस बात पर चर्चा होगी कि आख़िर इन नए समूहों और उनके सदस्य राज्य क्षेत्रीय सुरक्षा मामलों के चुनिंदा क्षेत्रों में आसियान के साथ कैसे सहयोग करेंगे.

संक्षेप में, ऑकस जैसे “गठबंधन के लिए इच्छुक राष्ट्र” का उदय आसियान की अंतर्निहित सीमाओं को रेखांकित कर सकता है और इसकी सीमाओं पर प्रकाश डाल सकता है लेकिन यह अभी स्वीकृति की सीमा से बहुत दूर है – वास्तव में, मौजूदा कोरोना महामारी के बाद की परिस्थितियों को देखते हुए, मौजूदा भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का प्रबंधन करते हुए इन नए समूहों को स्थापित क्षेत्रीय संस्थानों के साथ सह-अस्तित्व में शामिल करना होगा. अतिरिक्त क्षेत्रीय पार्टियां और उनके सहयोगी समूहों का भू राजनीतिक क्षेत्र पर अलग-अलग प्रभाव होगा लेकिन इसके बावजूद उन्हें क्षेत्रीय शांति और स्थिरता की वकालत करने वालों के तौर पर माना जाएगा. आसियान और उसके सदस्य देश इन समूहों और मुल्कों के साथ शामिल होकर वास्तविक सुरक्षा फायदे के हक़दार होंगे.

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