अफ़ग़ानिस्तान का जो मंज़र हमने इस महीने के मध्य में देखा, वो यक़ीन के क़ाबिल नहीं लगता. कुछ ही घंटों के भीतर पुरानी व्यवस्था यूं ढह गई, मानों बस वो एक धक्के के इंतज़ार में थी और जो बाक़ी बच गया वो पिछले दो दशकों का मलबा मात्र था. अभी नई व्यवस्था के पूरी तरह से आकार लेने में वक़्त है, लेकिन, अगर हम अफ़ग़ान राष्ट्र और पूरे क्षेत्र के पुराने तजुर्बों को बुनियाद बनाकर देखें, तो आगे बनने वाली नई व्यवस्था का ख़ाका खींचना इतना मुश्किल भी नहीं है. जब तालिबान बड़ी तेज़ी से काबुल की तरफ़ बढ़ रहा था, तब भी पश्चिमी देशों का ख़ुफ़िया तंत्र यही भविष्यवाणी कर रहा था कि काबुल का क़िला ढहने में अभी तीस दिन और लग जाएंगे. लेकिन, तालिबान के लड़ाकों को काबुल में राष्ट्रपति महल के द्वार तक पहुंचने में 30 दिन तो क्या, 30 घंटे से भी कम समय लगा. अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी तो उससे पहले ही मुल्क छोड़कर भाग चुके थे. पश्चिमी देश तो वैसे भी अफ़ग़ानिस्तान से अपना बोरिया बिस्तर समेटकर निकल ही रहे थे. लेकिन, जिस रफ़्तार से तालिबान के लड़ाके काबुल पहुंचे, उससे अमेरिका को एक बार फिर सैगोन का वो लम्हा याद आ गया, जब उसे वियतनाम से अपने राजनयिकों को हेलीकॉप्टर से निकालना पड़ा था और भागने की जल्दी में संवेदनशील दस्तावेज़ अपने दूतावास में जलाने पड़े थे. इन शर्मनाक हालात के बावजूद अमेरिका के नीति निर्माता अभी भी यही कह रहे हैं कि उनका अफ़ग़ानिस्तान अभियान ‘कामयाब रहा’ है. वहीं, अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन अफ़ग़ानिस्तान के मंज़र को ‘भीतर से हिला देने वाला’ तो मानते हैं. मगर, वो अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के फ़ैसले पर भी अड़े हुए हैं
जिस रफ़्तार से तालिबान के लड़ाके काबुल पहुंचे, उससे अमेरिका को एक बार फिर सैगोन का वो लम्हा याद आ गया, जब उसे वियतनाम से अपने राजनयिकों को हेलीकॉप्टर से निकालना पड़ा था और भागने की जल्दी में संवेदनशील दस्तावेज़ अपने दूतावास में जलाने पड़े थे.
अभी पिछले महीने तक, जो बाइडेन इस बात को सिरे से ख़ारिज कर रहे थे कि तालिबान बहुत तेज़ी से अफ़ग़ानिस्तान पर जीत हासिल कर लेगा. बाइडेन का तर्क ये था कि, ‘तालिबान सबको रौंदकर पूरे मुल्क पर क़ाबिज़ हो जाएंगे, इस बात की आशंका बहुत कम है.’ लेकिन, एक महीने से भी कम वक़्त के भीतर आज पश्चिमी देश अपने नागरिकों और दूतावासों में काम करने वाले राजनयिकों को जल्द से जल्द अफ़ग़ानिस्तान से निकालने की मशक़्क़त कर रहे हैं. इसके साथ साथ वो ये बात भी मान रहे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में जल्द ही एक नई सरकार बनेगी. जब ब्रिटिश सरकार तालिबान से ‘मानव अधिकारों’ की रक्षा के लिए काम करने की अपील करने के बजाय, ये कहना शुरू किया कि पश्चिमी देशों को साथ आकर ये सुनिश्चित करना चाहिए कि अफ़ग़ानिस्तान एक बार फिर से आतंकवाद की पौधशाला न बन जाए, तो वो बस नए ज़मीनी हालात को बयां कर रहे थे.
सेना वापसी के फ़ैसले के पीछे ‘चीन’?
पिछले दो दशकों से स्वतंत्रता, लोकतंत्र और मानव अधिकारों की बात करने वाले पश्चिमी देशों के सुर आज जिस तरह बदले हैं, उससे ये बात यक़ीन से कही जा सकती है कि बहुत जल्द वो तालिबान की हुकूमत के साथ तालमेल बैठाने में जुट जाएंगे. और, जैसा कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के तल्ख़ हक़ीक़त वाले मोर्चे पर अक्सर होता आया है, तो इस बार भी व्यवहारिकता, पिछले बीस वर्षों की अहम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक उपलब्धियों पर भारी पड़ेगी. जो अफ़ग़ान नागरिक इन आदर्शों में यक़ीन करते थे और जिन्होंने अक्सर अपनी जान जोख़िम में डालकर पश्चिमी देशों के साथ मिलकर काम किया, वो आज सबसे मुश्किल हालात में हैं. आज उन्हीं लोगों ने उनसे किनाराकशी कर ली है, जो एक वक़्त में उनकी हिफ़ाज़त किया करते थे. लंबी लड़ाई के बाद महिलाओं और अल्पसंख्यकों को मिले अधिकारों और लोकतंत्र को पहले ही यथार्थ की बलिवेदी पर न्यौछावर किया जा चुका है, जिससे कि तालिबान के साथ तालमेल बिठाया जा सके.
अफ़ग़ानिस्तान की इस अराजकता के बीच पश्चिमी देश अपनी कुछ इज़्ज़त बचाने की जुगत में दुनिया को ये बता रहे थे कि अफ़ग़ानिस्तान में अब भी किसी न किसी तरह का राजनीतिक मेल-मिलाप हो पाना मुमकिन है. पर, सवाल ये है कि जिस संगठन ने दुनिया की सबसे ताक़तवर मानी जाने वाली सैन्य शक्ति को हराकर सत्ता हासिल की है, वो अगर नरमी भी दिखाएगा तो क्या वो स्थायी होगी? जिन इलाक़ों पर तालिबान ने पहले ही क़ब्ज़ा कर लिया है, वहां पर वो महिलाओं, जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ अपने उसी पुराने रुढ़िवादी एजेंडे को ही आगे बढ़ा रहे हैं, जिन्हें 1996 से 2001 के पहले तालिबानी राज के दौरान देखकर दुनिया सदमे में आ गई थी और उसकी अंतरात्मता कराह उठी थी. कमसिन लड़कियों का तालिबानी लड़ाकों से ज़बरदस्ती निकाह कराने से लेकर महिलाओं पर तमाम तरह की पाबंदियां लगाने के फ़रमान जारी करने, अफ़ग़ान सैनिकों और अपने राजनीतिक विरोधियों की बिना किसी सुनवाई के हत्या करने से लेकर संगीत और टीवी पर प्रतिबंध लगाने जैसे कई क़दम हैं, जो ये ज़ाहिर कर रहे हैं कि अपने दूसरे राज में तालिबान बिल्कुल भी बदले हैं.
पिछले दो दशकों से स्वतंत्रता, लोकतंत्र और मानव अधिकारों की बात करने वाले पश्चिमी देशों के सुर आज जिस तरह बदले हैं, उससे ये बात यक़ीन से कही जा सकती है कि बहुत जल्द वो तालिबान की हुकूमत के साथ तालमेल बैठाने में जुट जाएंगे.
इसके बावजूद, पश्चिमी देशों की सरकारें अपने नागरिकों को यही समझाएंगे कि भले ही तालिबान बदले हों या नहीं, अफ़ग़ान नागरिकों की बेहतरी के लिए उनके साथ किसी न किसी तरह का तालमेल ज़रूरी है. तभी अफ़ग़ान जनता अपने मुस्तक़बिल की मालिक ख़ुद बन सकेगी. अफ़ग़ानिस्तान इस समय जिस मानवीय तबाही से गुज़र रहा है, उस सच्चाई को पश्चिमी देश हाशिए पर धकेल देंगे. फिर ये देश, लंबे समय तक अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की हुकूमत से बन रहे सामरिक समीकरणों का हिसाब-किताब लगाने में जुट जाएंगे. कुछ विशेषज्ञों ये तर्क दे रहे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के सेना वापस बुलाने की सबसे बड़ी वजह चीन पर पूरा ध्यान केंद्रित करना है. अगर ये बात सही है तो अफ़ग़ानिस्तान की तबाही रोकने का जो वादा पश्चिमी देश अभी कर रहे हैं, उस पर तो क़तई यक़ीन नहीं किया जा सकता है. पश्चिमी देश, चीन से निपटने के लिए जो गठबंधन बना रहे हैं, उसमें और भी गहरी दरारें पड़ेंगी, जब ये देश अफ़ग़ानिस्तान के हालात को दूर से निराशा भरी नज़रों से देखेंगे.
पश्चिमी देशों की ताक़त की सीमा आज एकदम साफ़ नज़र आ रही है. इन देशों को अफ़ग़ानिस्तान में जो शर्मिंदगी उठानी पड़ी है, उसका असर आने वाले कई दशकों तक पश्चिम की सामरिक सोच पर पड़ने वाला है. हो सकता है कि पश्चिमी ताक़तें अफ़ग़ानिस्तान में राष्ट्र निर्माण के मिशन में नाकाम ही रहतीं. लेकिन, जिस तरह पश्चिमी देशों ने अफ़ग़ानिस्तान से पलायन किया है, उसने नई उभरती और तेज़ी से बदलती विश्व व्यवस्था के प्रबंधन की उनकी क्षमताओं पर बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है.
अफ़ग़ानिस्तान इस समय जिस मानवीय तबाही से गुज़र रहा है, उस सच्चाई को पश्चिमी देश हाशिए पर धकेल देंगे. फिर ये देश, लंबे समय तक अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की हुकूमत से बन रहे सामरिक समीकरणों का हिसाब-किताब लगाने में जुट जाएंगे.
अब जब जीत की ख़ुशी से लबरेज़ तालिबान, उदारवादी पश्चिमी देशों द्वारा अपनाए जाने का इंतज़ार कर रहा है, तो जिन अफ़ग़ान नागरिकों ने लोकतंत्र और मानव अधिकारों के वादे पर यक़ीन किया और पश्चिम के साथ डटकर खड़े रहे, उन्हें बलि का बकरा बनाया जा रहा है. ये अफ़ग़ान नागरिक उदारवादी विश्व व्यवस्था की कमज़ोरियों के सबसे बड़े गवाह हैं. ये उदारवाद, ये मूल्यों की बातें, कुछ और नहीं बहुत बड़ा छलावा है!
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