फिलीपींस के खिलाफ़ चीन की ग्रे-ज़ोन बलप्रयोग की रणनीति की पृष्ठभूमि में, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और फिलीपींस के रक्षा मंत्रियों की हाल की बैठक ने एक नए प्रशांत अवरोधक आवश्यकता की ज़रूरत की तरफ इशारा किया हैः द स्क्वॉड. कुछ लोगों के लिए, इस नई घटना से क्वॉड की अहमियत कमतर हो गई है, क्योंकि चीन को संतुलित करने के लिए इसकी भूमिका अब तक प्रमुख क्षेत्रीय मिनीलेटरल पहल के रूप में रही है. क्वॉड को अक्सर एक ऐसा संगठन माना जाता है जिसका मुख्य उद्देश्य सार्वजनिक वस्तुओं की उपलब्धता का है. स्क्वॉड ने शायद सुरक्षा के ऐसे प्रतिमान को सामने रखा है जिसकी क्वॉड में कमी है.
क्वॉड के सैन्यीकरण किए जाने के सवाल पर बहुत बहस हो चुकी है और अब ‘स्क्वॉड’ प्रस्ताव के कारण यह और अधिक गंभीर हो गया है.
क्वॉड के संभावित सैन्यीकरण के बारे में पारंपरिक रूप से दो दृष्टिकोण हैं; पहला हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव से संबंधित है और दूसरा, भारत इसका ‘सबसे कमज़ोर कड़ी’ है.
सामरिक स्वायत्तता
क्वॉड के संभावित सैन्यीकरण के बारे में पारंपरिक रूप से दो दृष्टिकोण हैं; पहला हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव से संबंधित है और दूसरा, भारत इसका ‘सबसे कमज़ोर कड़ी’ है. क्वॉड को वाकई सैन्य उद्देश्य जोड़ना चाहिए, इस पर समर्थक और आलोचक दोनों एकमत हैं. भारत के दृष्टिकोण से, इस क्षेत्र में सैन्य गठबंधन से बचने की इच्छा सबसे ऊपर है. हालाँकि, समूह के भीतर अलग-अलग हित और अन्य क्वॉड सदस्यों की खतरे की धारणा कभी-कभी वैचारिक रूप से उस चिंता को दबा देती है. इसके अलावा, भारत के राष्ट्रीय विमर्श में चीन का सवाल लगातार गहराता जा रहा है. भारत ने न केवल दक्षिण चीन सागर में अपनी मौजूदगी बढ़ाई है, बल्कि स्थायी मध्यस्थता न्यायालय के 2016 के फैसले के विपरीत चीनी उत्पीड़न और संप्रभुता के प्रति-दावों के खिलाफ़ फिलीपींस के स्वतंत्र रूप से काम करने के अधिकारों का खुलकर समर्थन किया है.
सैन्यीकृत क्वॉड को अपनाने में भारत की अनिच्छा, समुचित विदेश नीति के नजरिए के लिहाज़ से रणनीतिक स्वायत्तता की इसकी खोज से जुड़ी है. भारत के रणनीतिक अभिजात्य तबके के बीच गठबंधन की राजनीति के प्रति संदेह की यह गहरी जड़ें शायद युद्ध के वर्षों के दौरान राष्ट्रवादी विचारों से जुड़ी हैं, जिसने साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा, गठबंधन की जोड़-तोड़ और हथियारों की होड़ को प्रथम विश्वयुद्ध के समय दुनिया की दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार माना था. नतीजतन, गुटनिरपेक्ष विदेश नीति के अनुसरण से स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में पर्याप्त फायदा मिला क्योंकि भारत को अपने नज़दीकी पड़ोस में शीतयुद्ध की महाशक्तियों के संघर्ष की अग्रिम पंक्तियों से सुरक्षित रूप से दूर, अधिकतर शांत भू-राजनैतिक वातावरण ही मिला.
फिर भी, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए तत्काल खतरे के मामलों में, भारतीय नीति-निर्माता इतने विवेकशील थे कि उन्होंने गुटनिरपेक्षता के सिद्धांतों का दामन तुरंत छोड़ दिया था, जिसमें 1962 के सीमा युद्ध में नेहरू द्वारा कैनेडी से सैन्य मदद मांगना, 1960 के दशक के मध्य में शास्त्री द्वारा दोनों महाशक्तियों से विस्तारित परमाणु छत्रछाया की मांग तथा 1971 में इंदिरा गांधी द्वारा सोवियत संघ के साथ वस्तुत: पारस्परिक रक्षा संधि करना शामिल है. हालांकि सुरक्षा गठबंधनों में फंसने का जोखिम होता है और इससे विरोधी के साथ अविश्वास की भावना पैदा हो सकती है, लेकिन एक खतरनाक ध्रुवीय शक्ति के सामने अपनी क्षमताओं को बढ़ाने के लिए बाहरी शक्तियों पर निर्भरता का फायदा उठाने के लिए भारत को अपनी जड़ता और हिचकिचाहट को त्यागने के लिए गंभीरता से विचार करना होगा.
बदली हुई वास्तविकताएँ
लद्दाख संकट में चीनी घुसपैठ के स्थान और उसके पीछे हटने का तरीका 1959 के अधिकतम दावे वाली रेखाओं पर जोर देने के उसके इरादे की ओर संकेत करता है. लद्दाख और अन्य जगहों पर उसकी कार्रवाई के आधार पर, चीन को एक तर्कसंगत सुरक्षा-संचालित एक्टर माना जा सकता है, जिसके इरादे सीमा में संशोधन के हैं और जो अपने विरोधियों के सामने एक सिद्ध तथ्य पेश करने के लिए सलामी स्लाइसिंग की रणनीति अपनाता है.
बीजिंग की ओर से, 'तथ्य सिद्धि' की रणनीति का उपयोग एक संतुलन साधने वाले गठबंधन या विवाद को एक पूर्ण युद्ध में बदलने के संदर्भ में प्रतिकूल प्रतिक्रिया को रोकने की उम्मीद पर निर्भर करता है, यानी ऐसे उपाय जिनकी चीन के लिए बहुत अधिक लागत हो.
बीजिंग की ओर से, 'तथ्य सिद्धि' की रणनीति का उपयोग एक संतुलन साधने वाले गठबंधन या विवाद को एक पूर्ण युद्ध में बदलने के संदर्भ में प्रतिकूल प्रतिक्रिया को रोकने की उम्मीद पर निर्भर करता है, यानी ऐसे उपाय जिनकी चीन के लिए बहुत अधिक लागत हो. इसके अलावा, अधिकांशतया, चीन ने ऐतिहासिक रूप से भारत को अन्य महाशक्तियों के साथ अपने संबंधों के चश्मे से देखा है, और वह नई दिल्ली के साथ समान शर्तों पर व्यवहार नहीं करता. अपनी ओर से भारत ने शीत युद्ध के बाद के वर्षों में सीमा पर चीन के साथ एक सौहार्दपूर्ण व्यवहार की कोशिश की, तथा बाद में उसने टाल-मटोल वाली संतुलन की रणनीति अपना ली, जिसमें भारत की सुरक्षा साझेदारी और अपनी क्षमताओं को बढ़ाने की कोशिशों के साथ-साथ चीन को अपने अच्छे इरादों के संकेत भेजने की आश्वासनपूर्ण नीति भी शामिल थी.
हालांकि, 2020 में लद्दाख में चीन की घुसपैठ और फिलीपींस, ऑस्ट्रेलिया और ताइवान के साथ ग्रे-ज़ोन में आक्रामकता की रणनीति के इस्तेमाल ने हिंद-प्रशांत देशों की भू-राजनीति में बदलाव की ज़रूरत पैदा कर दी है. इस क्षेत्र में मिनीलैटरल के एक क्रॉस-क्रॉसिंग संजाल का उदय चीनी आक्रामकता का जवाब देने की ज़रूरत से पैदा हुआ है.
एक ओर, सुरक्षा-केंद्रित लघु-समांतरों और क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य संलग्नता ने चीन को एक बड़ा सैन्य संघर्ष शुरू करने से रोक दिया है, मिनीलैटरल और द्विपक्षीय गठजोड़ों—जिसमें 2017 में पुनर्जीवित क्वॉड भी शामिल है, अब तक चीन को महाद्वीपीय और समुद्री दोनों क्षेत्रों में क्षेत्रीय विवादों को भड़काने से रोकने में विफल रहे हैं.
एक तर्कसंगत, संशोधनवादी एक्टर के रूप में जो बाहरी भू-राजनीतिक स्थितियों पर प्रतिक्रिया करता है, चीन को अमेरिका, उसके सहयोगियों और समान विचारधारा वाले भागीदारों के ठोस प्रयासों के जरिए रोका जा सकता है. 2020 में लद्दाख में चीनी घुसपैठ को रोकने में क्वॉड की विफलता को वास्तव में बीजिंग की इस धारणा के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है कि भारत जवाबी कार्रवाई में असहनीय लागत लगाने के लिए तैयार नहीं है. स्पष्ट रूप से कहें तो, चीन के साथ अविश्वास का माहौल बनने के डर से भारत ने अनिच्छा से क्वॉड और उसके हिंद-प्रशांत साझेदारों को अपनाया, जिससे चीन को इतना साहस मिला कि वह इस उम्मीद में आक्रामकता दिखाने लगा कि उसे अमेरिका और अन्य देशों से दंडात्मक कार्रवाई का सामना नहीं करना पड़ेगा.
निष्कर्ष
इस प्रकार, संकल्प के स्पष्ट संकेत भेजकर चीन को रोकने के लिए, क्वॉड को पारंपरिक, कठोर शक्ति वाले पाले में अपना खेल बढ़ाने की आवश्यकता है. निश्चित रूप से, भारत ने समुद्री और महाद्वीपीय थिएटरों को कवर करते हुए द्विपक्षीय और मिनीलेटरल दोनों प्रारूपों में अन्य निवासी हिंद-प्रशांत शक्तियों के साथ रणनीतिक जुड़ाव किया है. लांकि, भारत की स्थिति को मज़बूत करने के लिए अग्रणी क्षेत्रीय आर्थिक महाशक्तियों द्वारा एक ठोस चतुर्भुज प्रयास के असर को संतुलित करने का तर्क—समस्या सुलझाने के स्पष्ट संकेत है. साथ ही निवारक विफलता के मामले में चीनी आक्रामकता से निपटने के लिए अपनी सैन्य क्षमता को बढ़ाने को लेकर — क्वॉड के सैन्यीकरण पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है.
जैसे-जैसे क्षेत्र के बड़े देश अपनी आक्रामकता और रक्षा क्षमताओं को बढ़ा रहे हैं, हिंद-प्रशांत इलाके में संरचनात्मक बदलाव अवश्यंभावी हैं. संशोधनवादी चीन से निपटने में दांव और उसकी अपनी महत्वाकांक्षाएं इतनी बड़ी हैं कि भारत के लिए सामान्य मामलों पर टिके रहना मुश्किल है.
जैसे-जैसे क्षेत्र के बड़े देश अपनी आक्रामकता और रक्षा क्षमताओं को बढ़ा रहे हैं, हिंद-प्रशांत इलाके में संरचनात्मक बदलाव अवश्यंभावी हैं. संशोधनवादी चीन से निपटने में दांव और उसकी अपनी महत्वाकांक्षाएं इतनी बड़ी हैं कि भारत के लिए सामान्य मामलों पर टिके रहना मुश्किल है. हाल ही में, भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने सलाह दी कि भारत को चीन के साथ व्यापारिक संबंधों के लिए भी राष्ट्रीय सुरक्षा फ़िल्टर अपनाना चाहिए. क्वॉड में सैन्य आयाम जोड़ने का मामला, भले ही गैर-नुक्सानदेह लग रहा हो, इस पर अधिक दबाव नहीं था. ‘स्क्वॉड’ क्षेत्रीय क्षमता निर्माण के उस पहलू पर अधिक प्रकाश डाल सकता है.
यह स्पष्ट है कि प्रशांत थियेटर और हिंद महासागर थियेटर के बीच हमेशा अवधारणात्मक और क्षमता संबंधी अंतर रहेगा, जो मिलकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र बनाते हैं. इसकी वजह है कि अमेरिकी गठबंधन प्रणाली और चीन के तात्कालिक हित दोनों ही प्रशांत थियेटर में ही स्थित हैं. फिर भी, चूंकि भारत एक स्वतंत्र, खुले और समावेशी हिंद-प्रशांत क्षेत्र को सुनिश्चित करने में एक बड़ी क्षेत्रीय भूमिका चाहता है, इसलिए इस व्यवस्था से उसके विस्तारित और सूक्ष्म रूप में उसकी क्षमताओं और मजबूत हो सकती हैं.
(विवेक मिश्रा ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में फेलो हैं).
(संजीत कश्यप ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च इंटर्न हैं).
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