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तीस्ता जल बंटवारे की बात तो लंबे समय से हो रही है पर क्या हमारे पास तीस्ता के जल से संबंधित पर्याप्त जानकारी है?
पिछले कुछ वक्त में भारत और बांग्लादेश के बीच तीस्ता नदी के पानी के बंटवारे पर काफ़ी शोर मचा। दिसंबर से मई के बीच ख़ुश्क मौसम में बांग्लादेश तीस्ता का 50 फ़ीसदी पानी चाहता है। कम पानी आने से बांग्लादेश के किसानों को ख़ासा नुकसान हुआ जिनकी धान की खड़ी फ़सल ख़राब हो जाती है और इससे मछुआरों को भी नुक़्सान होता है जिनके लिए रोज़ी-रोटी का ख़तरा खड़ा हो जाता है। हालांकि भारत और बांग्लादेश के प्रधानमंत्री तीस्ता नदी के पानी के बंटवारे के लिए समझौता करने को तैयार हैं लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने वैकल्पिक प्रस्ताव रखा है। इसमें उत्तर बंगाल की तीन अलग नदियों तोरसा, रैदक और जलधक से पानी देने का प्रस्ताव है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के इस रुख़ के पीछे दलील ये है कि तीस्ता नदी में बंटवारे के लिए पानी नहीं है। इस रुख़ को तीस्ता नदी पर पश्चिम बंगाल सरकार की एक विशेषज्ञ समिति द्वारा हाल ही में बनाई गई आंतरिक रिपोर्ट (14 अप्रैल 2017 को thethirdpole.net पर प्रकाशित) के अंश से भी बल मिला है।
इस अंश में कुछ इस तरह से अपनी बात रखी गई: “भारत और बांग्लादेश में एक दूसरे से 100 किलोमीटर दूर तीस्ता नदी पर दो बैराज की योजना बनी थी जिनसे कुल मिला कर 16 लाख (1.6 मिलियन) हेक्टेयर जमीन की सिंचाई हो सकती थी; 9.2 लाख (920,000) हेक्टेयर भारत के पश्चिम बंगाल में और 7.5 लाख (750, 000) हेक्टेयर बांग्लादेश में। मोटे गुणा-भाग के मुताबिक बोरो की फ़सल (ख़ुश्क मौसम वाला धान) के लिए 16,000 क्यूमेक ( घन मीटर प्रति सकेंड) पानी चाहिए जबकि सूखे मौसम में पानी 100 क्यूमेक ही रहता है, यानी दोनों मुल्कों की ज़रूरत का छठवां हिस्सा” उक्त अंश में जो बात कही गई है वो नदियों की वैज्ञानिक समझ और कृषि विज्ञान के अंक गणित पर खरी नहीं उतरती है। फ़सल के लिए पानी की ज़रूरत और फ़सल उगने की मौजूदा स्थिति के मुताबिक पानी की कितनी ज़रूरत है, इसका कोई आंकड़ा पेश करने के लिए पानी कितना है ये बताने वाली नापजोख़ की ज़रूरत है। ये चाहे जितना अजीब लगे लेकिन इस अंश में नापजोख़ को “क्यूमेक” या “घन मीटर प्रति सेकेंड” में बताया गया है जो कि नदी में पानी के बहाव को नापने की इकाई है न कि पानी की कुल मौजूदगी बताने वाला सूचकांक। परिस्थितिकी-अर्थशास्त्री और नदी-विश्लेषक के तौर पर मुझे दुनिया में कहीं भी छपने वाले ऐसे किसी आकलन का इंतजार है जिसमें सिंचाई योग्य ज़मीन के हेक्टेयर के लिए पानी की कुल मौजूदगी के बिना जल प्रवाह पर पानी की ज़रूरत का अनुमान लगाया गया हो। उक्त अंश में पेश किया गया आंकड़ा कितना भरोसेमंद है? आख़िर इस आंकड़े का स्रोत क्या है?
अगर, इस आंकड़े पर भरोसा कर भी लिया जाए तो भी सहज सवाल ये उठता है कि बाकी का 94% पानी कहां चला गया? बाद में आए कुछ लेखों में नदी के बढ़ने की दिशा में पानी की जो कमी आ जाती है उसके लिए पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी ज़िले में गजोलडोबा पर बने तीस्ता बैराज़ प्रोजेक्ट (टीबीपी) को ज़िम्मेदार बताया गया। 1968 में जलपाईगुड़ी में आई भयंकर बाढ़ के बाद बहुउद्देशीय प्रोजेक्ट के तौर पर इसकी योजना बनाई गई थी। टीबीपी को उत्तर बंगाल में सिंचाई, जल विद्युत और बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाया गया था। ये दावा किया जाता है कि बाढ़ को रोकने में टीबीपी कुछ हद तक कामयाब रहा है लेकिन उसे निचले इलाके में सिंचाई का क्षेत्र बढ़ाने में कोई ख़ास सफलता नहीं मिली और इससे बांग्लादेश की तरफ़ पानी का प्रवाह कम हो गया। ये अवधारणा पेश की गई है कि तीस्ता-महानंदा सिंचाई नहर की तरफ़ पानी को मोड़ने से प्रवाह में ये कमी आई है।
बदक़िस्मती से ये सभी दावे और प्रतिदावे जल-प्रबंधन व्यवस्था में महज अनुमान आधारित सोच का नतीज़ा हैं जिनमें विश्लेषणात्मक आंकड़ों का अभाव रहता है। किसी भी सरकार ने ऐसा कोई आंकड़ा भी सार्वजनिक नहीं किया जिस पर स्वतंत्र जानकार शोध कर सकें या उन पर काम कर सकें। सार्वजनिक तौर पर तीस्ता का जल बहीखाता, तलछट-अवसाद का लेखाजोखा या सरल जल-ग्राफ़ तक उपलब्ध नहीं है।
जब टीबीपी की बहुउद्धेश्यीय परियोजना के तौर पर परिकल्पना की गई तब ये नहीं सोचा गया था कि सूखे मौसम में पानी के बंटवारे में इसके जलाशय की क्या भूमिका होगी। गाद इक्ट्ठा हो जाने की चिंता के बारे में भी नहीं सोचा गया था। ऐसा लगता है कि बाढ़ नियंत्रण को अलग-अलग नहरों में “अतिरिक्त” पानी को प्रवाहित कर देने के नज़रीय से ही ज़्यादा देखा गया । नदी के प्रवाह की ओर के परिस्थितिक तंत्र की मरम्मत, रोज़ीरोटी के साथ समायोजन, और जलीय जैव विविधता को कभी भी योजना का हिस्सा नहीं बनाया गया। जल उपलब्धता के हिसाब से एक सरल औसत पर आधारित “जलीय-अंकगणित” इस सरलीकृत सोच के केंद्र में थी, जिसने जल को मानव उपयोग के संसाधन के तौर पर ही देखा। 1983 का समझौता, 2011 का मसौदा जिस पर दस्तख़त नहीं हो सका था, वो भी इस सोच का सबूत हैं। ये भी सच है कि परिस्थितिक तंत्र का ख़्याल रखे बिना पूरे पानी को इस्तेमाल करने वाली योजनाओं पर भी विचार हो चुका है।
स्थिति आज भी नहीं बदली है। पानी को शुद्ध तौर पर कृषि ,वो भी बोरो या सूखे मौसम में क्षेत्र की धान की पैदावार के लिए इस्तेमाल करने के ख़िलाफ़ विरोधी विचार आज भी मौजूद हैं। ये एक स्थापित तथ्य है कि धान सबसे ज़्यादा पानी की ज़रूरत वाली फ़सल है जिसे 1,800-2,800 एम.एम. तक पानी की अवश्यकता होती है। इसके बावज़ूद पिछले 30 साल में जब से दोनों मुल्कों के बीच तीस्ता पर बातचीत शुरू हुई है तब से सरकारी मशीनरी की तरफ़ से किसानों को कम पानी की ज़रूरत वाली फ़सलों को बोने के लिए सलाह देने की कोई कोशिश नहीं हुई है। इसके बजाय इस बीच कम पानी वाली फ़सलों के मुक़ाबले भारत में धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा दिया गया। इससे धान की कीमत बढ़ गई, जिसने किसानों को धान की खेती की तरफ़ मोड़ा वो भी सूखे मौसम में ज़्यादा। नदी के प्रवाह की व्यवस्था को जल विज्ञान के नए तरीकों से सुधारकर सिंचाई की सुविधाओं का विकास किया गया जिससे इस रुझान को और बढ़ावा मिला। इसे नदी की तंदुरुस्ती और निचले इलाके की तरफ़ प्रवाह और परिस्थितिक कामकाज और संसाधन का नुक़्सान बढ़ा।
दूसरी तरफ़ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री का तोरसा, रैदक और जलधक से पानी देने का प्रस्ताव भी जलविज्ञान, परिस्थितिकी और आर्थिक नज़रीय से सवाल खड़े करने वाला है। क्या ख़ुश्क मौसम में तीनों नदियों का कुल जल-ग्राफ़ इस मौसम में तीस्ता के जल-ग्राफ़ के बराबर है? तीस्ता की तुलना में तीनों नदियां छोटी नदी जैसी हैं और मुमकिन है कि उनका कुल जल प्रवाह तीस्ता के बराबर न हो। बेशक हमें ज़्यादा ठोस नतीज़े देने वाले बेहतर आंकड़ों की ज़रूरत है। मैं जो संभावना देखता हूं उसके मुताबिक तीनों नदियों को जोड़ने वाली लिंक-नहर का निर्माण और मॉनसून में पानी को इक्ट्ठा करने के तरीकों की ज़रूरत है ताकि सूखे मौसम में उन्हें प्रवाहित किया जा सके। इसकी आर्थिक लागत के साथ ही सामाजिक-आर्थिक लागत भी है। यही नहीं लंबे वक़्त में रोजीरोटी के मामले में रुकावट डालने वाला इसका परिस्थिक असर भी साफ़ है।
दूसरी तरफ़, राष्ट्रीय जल वितरण योजना के तहत मानस-संकोश-तीस्ता को जोड़ने का प्रस्ताव भी है और मानस और संकोश का पानी मोड़ कर बांग्लादेश को तीस्ता की लिंक नहर के ज़रिए पानी दिया जा सकता है। इसके अलावा इसी जल वितरण परियोजना में एक और प्रस्ताव तीस्ता और फरक्का को जोड़ने का है। मानस और संकोश का तथाकथित “अतिरिक्त” जल (जैसा कि इसे सरलीकृत इंजीनियरिंग दर्शन में परिभाषित किया गया है ) तीस्ता से और फ़िर फरक्का से प्रवाहित हो सकता है! लिहाजा, ख़ुश्क मौसम में बांग्लादेश को तीस्ता से पानी दिया जा सकता है यही नहीं फरक्का के जरिए गंगा में पानी के कम प्रवाह होने के आरोप को भी इस “अतिरिक्त” पानी से सुलझाया जा सकता है ! प्रत्यक्ष रूप से ये सोच इस मसले से जुड़े सभी राजनैतिक पक्षों के लिए आसानी से तोड़ लिए जाने वाले फल जैसा है।
लेकिन, इस योजना से समस्या और पेचीदा हो जाएगी। पहली बात ये है कि मानस और संकोश भारत और बांग्लादेश में ब्रह्मपुत्र-यमुना नदी व्यवस्था की अहम सहायक नदियां हैं। इनके पानी को मोड़ने से नदी की मुख्यधारा के प्रवाह में कमी आ जाएगी। इससे नदी के निचले प्रवाह की तरफ़ खेती, परिस्थितिकी और जलीय जैव विविधता पर खासा असर पड़ेगा। दूसरी बात ये कि जैसा कि बहुत बार ये बताने की कोशिश की गई है कि मानस-संकोश लिंक नहर संरक्षित क्षेत्र से गुज़र सकती है, जो क्षेत्र के प्रजनन स्वभाव और प्राणियों की आवाजाही के लिए खासी समस्या खड़ी कर सकती है। तीसरा मुद्दा ये कि ये परियोजना तकनीकी-पर्यवरणीय और आर्थिक कसौटी पर साधी जा सकती है या नहीं ये भी पता नहीं है। चौथी संभावना ये है कि जमुना में पानी के प्रवाह की कमी आने से सरहद के दोनों तरफ़ एक और जल-विवाद पैदा हो सकता है जिसके बारे में बांग्लादेश चिंता भी जता चुका है।
इसमें कोई शक नहीं है कि तीस्ता की वजह से बांग्लादेश-भारत के बीच जल का मुद्दा ज्यादा पेचीदा होता जा रहा है। इसके न सिर्फ़ जल-राजनैतिक नतीजे हैं बल्कि दोनों मुल्कों के बीच भू-राजनैतिक नतीजे के साथ ही बांग्लादेश की आंतरिक राजनीति पर भी इसका असर पड़ना तय है। इस लेख में उठाए गए अनुत्तरित प्रश्न की वजह से भी ऐसा है! नदियों के खासकर उन नदियों के जो दो सरहदों के आरपार हैं , उनके स्वतंत्र विश्लेषण को लेकर सरकारे आशंकित रहती हैं और उन्हें कराने को लेकर बहुत अनमनापन भी है । इसीलिए प्रवाह, तलहटी और संसाधनों से जुड़े ज़्यादातर आंकड़े गुप्त हैं। हालांकि स्वतंत्र और तथ्यपरक वैज्ञानिक जानकारी से ऐसी सूचनाएं मिल सकती थीं जिससे हल तक पहुंचना संभव होता। मौजूदा गतिरोध की कमी “अनुत्तरित का उत्तर” खोजने में है और इसके बाद पूरे अधिकार के साथ संस्थागत प्रक्रिया बनाने में है जैसे जलाश्य के स्तर पर व्यवस्था को स्थापित करना।
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Dr Nilanjan Ghosh is Vice President – Development Studies at the Observer Research Foundation (ORF) in India, and is also in charge of the Foundation’s ...
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