Published on Sep 17, 2021 Updated 0 Hours ago

बांग्लादेश को चरमपंथी इस्लामिक विचारधारा के संभावित उभार को लेकर सतर्क रहने की ज़रूरत है. 

अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबानी कब्ज़ा और अस्थिरता से भरे दौर का बांग्लादेश के साथ रिश्ते पर असर!

अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फ़ौज के आख़िरी दस्ते की वापसी ने तमाम दक्षिण एशियाई देशों के विदेश नीति विकल्पों को लेकर कई प्रकार के ख़तरे और चिंताएं पैदा कर दी हैं. इस सिलसिले में बांग्लादेश ने अब तक तालिबान सरकार को मान्यता देने को लेकर कोई ठोस  फ़ैसला सामने नहीं रखा है. इस मसले पर बांग्लादेश “इंतज़ार करो और देखो” की नीति पर चलते हुए अफ़ग़ानिस्तान के हालात पर नज़दीक से और पैनी नज़र बनाए हुए है. बांग्लादेश के कूटनीतिक इतिहास पर ग़ौर करें तो हम पाते हैं कि बांग्लादेश ने हमेशा से दूसरे मुल्कों के घरेलू मामलों में कोई दखलंदाज़ी न करने की नीति का पालन किया है. बांग्लादेश के विदेश मंत्री ने भी कहा है कि काबुल के राजनीतिक परिदृश्य से ढाका पर कोई ख़ास प्रभाव पड़ने की संभावना न के बराबर है. हालांकि बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान द्विपक्षीय रिश्तों और दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के सदस्य के नाते एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. ऐसे में इस बात की पूरी संभावना है कि भविष्य में दोनों देशों को प्रभावित करने वाले कई मुद्दे सामने आ सकते हैं.

नई भूराजनीतिक हक़ीक़त

बांग्लादेश के नज़रिए से तीन प्रासंगिक मुद्दों पर ध्यान देना आवश्यक है- (i) क्षेत्रीय स्थिरता, (ii) सुरक्षा और (iii) संपर्क या कनेक्टिविटी. क्षेत्रीय सुरक्षा को लेकर जताई जा रही चिंताएं साफ़ तौर से भूराजनीतिक मुद्दों की ओर संकेत करती हैं. इनमें से एक है अफ़ग़ानी सरज़मीं में ताज़ा तौर पर आए सत्ता के ख़ालीपन को लेकर क्षेत्रीय और ग़ैर-क्षेत्रीय ताक़तों का जुड़ाव. पाकिस्तान के अलावा चीन और रूस ने तालिबानी सरकार को वास्तविक अर्थों में वैधानिकता दे ही दी है. ग़ौरतलब है कि दोनों ही देशों ने 31 अगस्त को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक अहम प्रस्ताव पर हुए मतदान में हिस्सा नहीं लिया. इस संकल्प में अफ़ग़ानी सरज़मीं को “किसी भी देश के प्रति ख़तरा पैदा करने या आतंकवादियों को पनाह देने” से रोकने की बात कही गई है. साथ ही प्रस्ताव में इस मांग को भी शामिल किया गया है कि “मुल्क से अफ़ग़ानियों और तमाम विदेशी नागरिकों के सुरक्षित और व्यवस्थित रूप से बाहर जाने को लेकर तालिबान अपने वायदों पर अमल करे.

क्षेत्रीय सुरक्षा को लेकर जताई जा रही चिंताएं साफ़ तौर से भूराजनीतिक मुद्दों की ओर संकेत करती हैं. 

इस सिलसिले में दक्षिण एशिया में चीन की बढ़ती पैठ और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) जैसे उसकी मशहूर परियोजनाओं को भी ध्यान में रखना होगा. बीजिंग के हालिया क़दमों से अफ़ग़ानिस्तान और उसके पार के इलाक़ों को लेकर चीन की भूराजनीतिक और सामरिक महत्वाकांक्षाओं पर संदेह के बादल छाने लगे हैं. इतना ही नहीं चीन ने अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से कहा है कि वो अफ़ग़ानिस्तान की नई सरकार के साथ जुड़ाव बनाकर सक्रिय रूप से उसका मार्गदर्शन करे. वैसे दुनिया भर में चर्चा का मुद्दा बना चीन और अमेरिका के बीच का  भूराजनीतिक टकराव भी कुछ हद तक इन मसलों से जुड़ा हुआ है. कुछ अमेरिकी विश्लेषक तो अभी से मानने लगे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान की घरेलू सियासत में चीन की मज़बूत मौजूदगी रहने वाली है. इस सिलसिले में वो ये याद दिलाना नहीं भूलते हैं कि किस तरह से अफ़ग़ान मामलों में चीन, रूस और ईरान के ख़ुफ़िया तंत्र ने अमेरिकी इंटेलिजेंस को चकमा दे दिया. बहरहाल अभी तमाम हक़ीक़तों पर सरसरी निग़ाह दौड़ाकर आगे आने वाले भविष्य के बारे में कोई भी पूर्वानुमान लगाना लगभग असंभव है. हालांकि कई बड़े और ताक़तवर मुल्कों के बीच फंसे होने और मध्य पूर्व के इतने नज़दीक होने के चलते काबुल के डांवाडोल हालात दक्षिण एशिया की क्षेत्रीय स्थिरता को ख़तरे में डाल सकते हैं. इससे आगे चलकर बांग्लादेश की सुरक्षा में भी रुकावटें खड़ी हो सकती हैं. निश्चित तौर पर ये चिंताएं “अकेले बांग्लादेश की” ही नहीं हैं. इसके बावजूद सत्ता के संतुलन में आए बदलावों के चलते इन पर सतर्कता से नज़र बनाए रखने की ज़रूरत है.

कुछ अमेरिकी विश्लेषक तो अभी से मानने लगे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान की घरेलू सियासत में चीन की मज़बूत मौजूदगी रहने वाली है. 

एक बार फिर चरमपंथ का उभार

दूसरी ओर बांग्लादेश के लिए सुरक्षा से जुड़ी एक अहम चिंता चरमपंथी हिंसा को लेकर है. अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानियों के सत्ता पर काबिज़ होने के बाद बांग्लादेश में घरेलू चरमपंथी इस्लामिक गुटों के एक बार फिर से सिर उठाने का ख़तरा बढ़ गया है. डिजिटल माध्यमों और सोशल मीडिया का फ़ायदा उठाकर चरमपंथी गुट अफ़ग़ान वाकये से जुड़े तमाम पहलुओं की ग़लत तरीक़े से व्याख्या कर रहे हैं. दरअसल अफ़ग़ानिस्तान में हाल में हुई घटनाओं के बारे में अनाप-शनाप लिख-बोलकर वो अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं. फ़ेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लैटफ़ॉर्मों पर पहले ही तालिबान के साथ हमदर्दी जताने वाले संदेशों और टिप्पणियों की बाढ़ सी आ गई है. सबसे अहम बात ये है कि अफ़ग़ानी सत्ता पर तालिबानी क़ब्ज़े को “इस्लाम की फ़तह” के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है. चरमपंथी विचारधारा के असर में आकर कम से कम दो लोग बांग्लादेश से भारत के रास्ते अफ़ग़ानिस्तान में दाखिल होने की कोशिश कर चुके हैं. उनकी इस करतूत के पीछे तालिबानी सरकार को “अपनी ख़िदमत पेश करने” का इरादा शामिल था. यहां ये बात याद रखना ज़रूरी है कि सोवियत-अफ़ग़ान जंग के ख़ात्मे के बाद अफ़ग़ानिस्तान से वापस लौटे लोगों ने ही बांग्लादेश के पहले इस्लामिक चरमपंथी संगठन की नींव रखी थी. 1990 के दशक की शुरुआत में बने इस संगठन का नाम हरकत-उल-जिहाद अल-इस्लामी बांग्लादेश (HuJi-B) था. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय आस्था पर आधारित दूसरे हिंसक चरमपंथी संगठनों जैसे इस्लामिक स्टेट ख़ुरासान (आईएस-के) ने तो पहले से ही अफ़ग़ानी सरज़मीं पर अपनी पैठ जमा ली है. आईएस-के ने 26 अगस्त को काबुल हवाई अड्डे पर हुए हमले में अपना हाथ होने का दावा किया है. इस धमाके में 13 अमेरिकी सैनिकों समेत 170 लोगों की जान चली गई थी. इस्लामिक स्टेट यानी आईएस से प्रेरित दूसरे संगठनों जैसे जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश (जेएमबी) का एक नए धड़ा भी बांग्लादेश में मौजूद है. इन संगठनों के नक्शेक़दम पर चलने वाले गुर्गे तो एक लंबे समय से बांग्लादेश में इनकी मौजूदगी का दावा करते रहे हैं. ग़ौरतलब है कि 2016 में ढाका के गुलशन में होले आर्टिज़न रेस्टोरेंट में हुए हमले को जेएमबी के नए गुट से जुड़े कुछ युवा आतंकियों ने ही अंजाम दिया था. बाद में आईएस ने इस हमले में अपना हाथ होने का दावा किया था. इस हमले में 22 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था. इनमें कुछ विदेशी भी शामिल थे. 29 अगस्त को काबुल एयरपोर्ट पर संदिग्ध आत्मघाती बम हमलावर पर अमेरिकी ड्रोन हमले ने भी दक्षिण एशिया के विभिन्न इलाक़ों में चरमपंथी स्वरों को नया उभार दिया है. इन आवाज़ों के पीछे पश्चिम-विरोधी या अमेरिका-विरोधी सोच भी सामने आ गई है. जहां तक तालिबान का सवाल है तो हो सकता है कि अफ़ग़ानिस्तान पर इसके क़ब्ज़े से बांग्लादेश की सरज़मीं पर कोई सीधी आंच न आए. हालांकि इसके बावजूद बांग्लादेश को चरमपंथी इस्लामिक विचारधारा के संभावित उभार को लेकर सतर्क रहने की ज़रूरत है.

शिक्षा एक ऐसा क्षेत्र बन सकता है जो भविष्य में बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के बीच के रिश्तों में मज़बूती लाने में मदद करे.

अतीत में ग़ैर-सरकारी स्तर पर बांग्लादेश के कई नागरिक अफ़ग़ानिस्तान में हुए राष्ट्र निर्माण के कार्यों और विकास परियोजनाओं से जुड़े कामों में शामिल रहे हैं. ये लोग मूल रूप से बांग्लादेश के प्रमुख ग़ैर-सरकारी संगठनों में से एक बीआरएसी के कर्मचारी रहे हैं. बांग्लादेशी बीआरएसी के 9 में से 6 कर्मचारी पहले ही वतन वापस लौट चुके हैं. बीआरएसी के अधिकारियों की ओर से दी गई जानकारी के मुताबिक बाक़ी लोग अफ़ग़ानिस्तान में फंसे हुए हैं, लेकिन सुरक्षित हैं. हालांकि अफ़ग़ानिस्तान के सामाजिक विकास के लिए बांग्लादेश शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग करता रहा है. अफ़ग़ानिस्तान के कई छात्र बांग्लादेश में विभिन्न क्षेत्रों में अध्ययन कर रहे हैं. शायद शिक्षा एक ऐसा क्षेत्र बन सकता है जो भविष्य में बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के बीच के रिश्तों में मज़बूती लाने में मदद करे. 31 अगस्त 2021 को 148 अफ़ग़ान छात्रों को अमेरिकी फ़ौजी विमानों ने सुरक्षित रूप से देश से बाहर निकाल लिया. ये सभी बांग्लादेश के चट्टग्राम स्थित एशियन यूनिवर्सिटी फ़ॉर वूमेन के छात्र थे. साफ़ है कि बांग्लादेश के लिए अफ़ग़ानिस्तान के साथ शिक्षा क्षेत्र के माध्यम से सहयोग का विचार अहम हो जाता है. बांग्लादेश के लिए जन-केंद्रित उपायों के ज़रिए अफ़ग़ानी समुदाय को सशक्त बनाना समझदारी भरा फ़ैसला होगा. इसके अच्छे नतीजे देखने को मिल सकते हैं.

अफ़ग़ानिस्तान से आए शरणार्थी

बहरहाल काबुल में हुए सियासी बदलावों का एक और अहम चिंताजनक पहलू है. वो है वहां से आने वाले शरणार्थियों का सैलाब. बांग्लादेश ने हज़ारों अफ़ग़ान शरणार्थियों का मेज़बान बनने का अमेरिकी अनुरोध ख़ारिज कर दिया है. कई मायनों में ये फ़ैसला जायज़ भी है. फिलहाल बांग्लादेश म्यांमार से आए 11 लाख रोहिंग्या शरणार्थियों को जैसे-तैसे संभाल रहा है. ये शरणार्थी लंबे समय से बांग्लादेश में बसे हुए हैं. अंतरराष्ट्रीय बिरादरी इस समस्या का कोई ठोस समाधान मुहैया कराने में नाकाम रही है. इन शरणार्थियों को वापस उनके देश भेजने से जुड़ी प्रक्रिया भी सिरे नहीं चढ़ पाई है. हक़ीक़त ये है कि बांग्लादेश ख़ुद ही दुनिया की सबसे घनी आबादी वाले देशों में से एक है, इसके बावजूद बांग्लादेशी सरकार ने सिर्फ़ मानवता के आधार पर इन शरणार्थियों के लिए अपनी सरहदें खोल दी थीं. ऐसे में शरणार्थियों के एक नए समूह के लिए अपने दरवाज़े खोलना, फिर चाहे वो थोड़े ही समय के लिए क्यों न हो, यहां के हालात को और गंभीर बना देंगे. इतना ही नहीं इन तमाम हालातों के चलते अंदर ही अंदर एक दूसरी समस्या भी पनप रही है. अफ़ग़ान शरणार्थी संकट के चलते दुनिया में शरणार्थियों की समस्याओं पर नज़र रखने वालों का ध्यान रोहिंग्या मसले से हटकर इस ताज़ा संकट की ओर चला जाएगा. दूसरी ओर विश्लेषकों ने ये बात भी रेखांकित की है कि अफ़ग़ानिस्तान से शरणार्थियों के भारी तादाद में संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) पहुंचने से बांग्लादेश से यूएई में होने वाला मज़दूरों का निर्यात खटाई में पड़ सकता है. बांग्लादेश के लिए अफ़ग़ान संकट के सामाजिक-आर्थिक मायने भी हैं. बांग्लादेश को इस बात को भी मद्देनज़र रखना होगा.

हक़ीक़त ये है कि बांग्लादेश ख़ुद ही दुनिया की सबसे घनी आबादी वाले देशों में से एक है, इसके बावजूद बांग्लादेशी सरकार ने सिर्फ़ मानवता के आधार पर इन शरणार्थियों के लिए अपनी सरहदें खोल दी थीं. ऐसे में शरणार्थियों के एक नए समूह के लिए अपने दरवाज़े खोलना, फिर चाहे वो थोड़े ही समय के लिए क्यों न हो, यहां के हालात को और गंभीर बना देंगे. 

क्षेत्रीय संपर्क या कनेक्टिविटी

आख़िर में जिस मुद्दे पर ध्यान देना ज़रूरी है वो है क्षेत्रीय संपर्क या कनेक्टिविटी. सार्क का सदस्य होने के बावजूद इस मंच में अफ़ग़ानिस्तान की मौजूदगी का व्यापक रूप और साफ़ साफ़ बखान नहीं किया गया है. वहां तालिबानी राज कायम होने के बाद सार्क के बाक़ी सदस्य देशों में चिंता की लहर पैदा हो सकती है. सार्क के सदस्यों को अब किसी ठोस या आवश्यक क्षेत्रीय एजेंडे पर चर्चा के लिए तालिबानी प्रतिनिधियों के साथ एक ही मेज़ पर आना होगा. जैसा कि पहले ही ज़िक्र किया गया है, अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी सत्ता को मान्यता देने को लेकर बांग्लादेश अपने “मित्र राष्ट्रों” द्वारा लिए जाने वाले फ़ैसलों पर टकटकी लगाए है. हो सकता है कि इन देशों द्वारा कोई स्पष्ट फ़ैसला लिए जाने के बाद  बांग्लादेश भी उसी तरह का कोई क़दम उठाए. हालांकि इन सबके बावजूद बदली हुई भूराजनीति के मद्देनज़र नई अफ़ग़ान सत्ता के साथ प्रारंभिक तौर पर किसी भी तरह का संपर्क कायम करने के लिए सार्क एक अच्छा मंच साबित हो सकता है. जहां तक आतंकवाद के मसले का सवाल है सार्क इसको लेकर भी एक मुनासिब विकल्प पेश करता है. इस सिलसिले में आतंकवाद की रोकथाम पर क्षेत्रीय सम्मेलन, 1987 और 2004 के प्रोटोकॉल का इस्तेमाल कर संवाद की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है. यहां कुछ लोग ये दलील दे सकते हैं कि सार्क द्वारा मुहैया कराए गए औज़ार माकूल नहीं हैं और समग्र रूप से रुख़ तय करने के लिहाज़ से पर्याप्त भी नहीं हैं. इसके बावजूद हक़ीक़त यही है कि अफ़ग़ानिस्तान समेत दक्षिण एशिया के तमाम देशों के बीच जुड़ाव और चर्चा शुरू करने के लिए प्राथमिक आधार के तौर पर सार्क का मंच कारगर साबित हो सकता है.

नतीजे के तौर पर यही कहा जा सकता है कि तालिबान द्वारा अफ़ग़ानी सत्ता हथियाने के बाद बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के बीच के रिश्ते नई अफ़ग़ान राजसत्ता द्वारा तय की गई विदेश नीति की प्राथमिकताओं पर निर्भर करेंगे. इसके साथ ही नए शिगूफ़ों, विमर्शों, पटकथाओं और नीतियों को लेकर पड़ोसी देशों की प्रतिक्रियाओं से भी काफ़ी कुछ तय होने के आसार हैं. निश्चित तौर पर इन तमाम मसलों के चलते नीतिगत स्तर पर बांग्लादेश के विकल्पों और वरीयताओं में प्रत्यक्ष तौर पर कोई बदलाव नहीं आने वाला. बहरहाल क्षेत्रीय स्थिरता, सुरक्षा और कनेक्टिविटी को लेकर ऊपर बताई गई चिंताओं से ढाका के लिए कुछ परोक्ष प्रभाव ज़रूर दिखाई देते हैं. इन प्रमुख क्षेत्रों पर नज़र टिकाकर और इनके साथ पैदा होने वाले अवसरों और इनके चलते खड़ी होने वाली चुनौतियों को मद्देनज़र रखकर भावी रिश्तों पर निगाह रखी जा सकती है. इसी तरह की क़वायद के ज़रिए उनका ज़रूरी विश्लेषण भी किया जा सकता है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.