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व्हाइट हाउस से बाइडन प्रशासन के जाने का वक्त आ चुका है. राष्ट्रपति के तौर पर जो बाइडन के पास कुछ ही दिन बचे हैं. 20 जनवरी को डोनाल्ड ट्रंप एक बार फिर अमेरिकी राष्ट्रपति पद की शपथ लेने की तैयारी कर रहे हैं. राष्ट्रपति के तौर पर ट्रंप की नई सरकार का स्वागत मध्य-पूर्व में मची उथल-पुथल और इस क्षेत्र में तेज़ी से हो रहे बदलावों से होगा. हालांकि इज़राइल और हमास के बीच राजनीतिक और सैन्य युद्धविराम का एलान हो चुका है,लेकिन इसकी सफलता को लेकर संशय जारी है. सीरिया में बशर अल-असद के तीन दशक लंबे शासन के पतन के बाद नए सियासी समीकरण उभर रहे हैं. इस्लामी उग्रवादी गुट हयात तहरीर अल-शाम (एचटीएस) के नेता अहमद अल-शरा का उदय हो रहा है. अहमद अल-शरा को उनके उपनाम अबू मोहम्मद अल-जोलानी के नाम से भी जाना जाता है. सीरिया में आए बदलाव ने इस क्षेत्र की कूटनीति और वास्तविक राजनीति को एक नया लेकिन महत्वपूर्ण मोड़ दे दिया है.
अहमद अल-शरा कौन हैं?
अहमद अल-शरा को कुछ लोग पूर्व जिहादी कह रहे हैं. लेकिन अल-शरा को कहना है कि युवावस्था में जब वो भोले थे, उन्हें चीजों की ज़्यादा जानकारी नहीं थी, तब वो मौज-मस्ती में ही इस्लामिक गुटों के साथ दुड़ गए. अहमद अल-शरा पहले इस्लामिक स्टेट (जिसे अरबी में आईएसआईएस या दाएश के नाम से भी जाना जाता है) और अल-क़ायदा दोनों के साथ काम कर चुके हैं. खास बात ये है कि अल-शरा ने इस दोनों संगठनों के साथ अपने जुड़ाव का इस्तेमाल अपनी इस्लामिक साख बढ़ाने के लिए किया. मुख्यधारा की राजनीति और कूटनीति में उन्होंने इसका फायदा दमिश्क पर अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए किया. अमेरिका और पश्चिमी देशों के अलावा इस क्षेत्र के राजनयिक लगातार अलग-अलग और समूह के रूप में भी अहमद अल-शरा से मुलाकात कर रहे हैं. अल-शरा सार्वजनिक मंच पर वेस्टर्न स्टाइल केकपड़ों में दिखता है. उसने एक ऐसी कैबिनेट की गठन भी किया है, जो आम तौर पर इस तरह के संक्रमण काम में बनाई जाती है. इस मंत्रिमंडल में प्रमुख पदों पर उनके पूर्व कमांडरों को शामिल किया गया है. जनरल मुरहाफ़ अबू क़सरा को रक्षा मंत्री बनाया गया है. जनरल मुरहाफ़ को एचटीएस के संस्थापकों में से एक अबू हसन अल-हमावी की तरफ से कैबिनेट में नामांकित किया गया है. उन्होंने ), जिन्होंने हयात तहरीर अल-शाम के लिए कई सैन्य रणनीतियां तैयार कीं. इदलिब जैसे क्षेत्रों को नियंत्रित करने वाली एचटीएस के नेतृत्व वाली साल्वेशन सरकार के संस्थापक असद हसन अल-शैबानी को विदेश मंत्री का प्रभार दिया गया हैं.
इस बात पर भी कोई संदेह नही कि ये टीम बहुत ठोस है. वैसे भी ये पहली बार नहीं है कि जब अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को किसी जिहादी विचारधारा वाले ऐसे किसी गुट के साथ बातचीत करनी पड़ रही है, जिसका किसी देश पर नियंत्रण है.
कथित मंत्रिमडल के यही सदस्य अल-शरा और शेष दुनिया के बीच पुल का काम करते हैं. यही लोग उनकी मुख्य टीम का प्रतिनिधित्व करते हैं. इस बात पर भी कोई संदेह नही कि ये टीम बहुत ठोस है. वैसे भी ये पहली बार नहीं है कि जब अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को किसी जिहादी विचारधारा वाले ऐसे किसी गुट के साथ बातचीत करनी पड़ रही है, जिसका किसी देश पर नियंत्रण है. अफ़ग़ानिस्तान में अशरफ गनी के नेतृत्व वाली लोकतांत्रिक सरकार के पतन के चार साल बाद भी वहां तालिबान की अगुवाई में अंतरिम सरकार देश की सत्ता पर कायम है. फिर भी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के कई देश उससे बात कर रहे हैं. हालांकि, अफ़ग़ानिस्तान की तुलना में अल-शरा के नेतृत्व वाला सीरिया बहुत तेज़ी से मुख्यधारा में आ गया है. स्कॉलर आरोन ज़ेलिन के डेटाबेस के मुताबिक, एचटीएस के नेतृत्व वाली नई सीरियाई सरकार ने करीब 30 देशों के साथ राजनयिक संपर्क जोड़ लिया है. अगर इसकी तुलना तालिबान से करें तो इतने समय में वो सिर्फ सात देशों के साथ बातचीत करने में कामयाब रहा था.
भू-राजनीति के लिए सीरिया इतना महत्वपूर्ण क्यों है?
इस 'नए' सीरिया की वापसी की तेज़ रफ्तार के कारण इस क्षेत्र की भू-राजनीति में निहित हैं. अमेरिका और पश्चिमी देशों का मक़सद ईरान और खाड़ी देशों के बीच के क्षेत्रीय सहयोग को कमज़ोर करना और सीरिया में रूस के दख़ल को गंभीर झटका देना है. सीरिया में असद सरकार के पतन के बाद वहां रूस की उपस्थिति कम हो गई है. यहां तक कि असद के शासनकाल के आखिरी चरण के दौरान सीरियाई नेताओं ने अरब क्षेत्र के भीतर अपने राजनीतिक दांव को बढ़ाना शुरू कर दिया था, क्योंकि अरब स्प्रिंग आंदोलन के दौरान सीरिया को दरकिनार किया गया था. सीरिया के अंदर से ये सोच विकसित हो रही थी कि ईरान के पिछलग्गू देश बनने की बजाए दीर्घकालिक स्थिरता के लिए उसे अरब के बाकी देशों के साथ संबंध मज़बूत बनाने चाहिए, उनसे स्वीकृति हासिल करनी चाहिए. इसी का नतीजा था कि पिछले कुछ महीनों में, तत्कालीन राष्ट्रपति असद ने अपने देश के क्षेत्रों के भीतर इजरायली अपराधों पर सैन्य कार्रवाई नहीं की. आपको याद होगा इस दौरान इज़रायल ने कथित तौर पर इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (आईआरजीसी) से संबंधित ईरानी मिलिशिया और उसके बुनियादी ढांचे को निशाना बनाया था. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) ने इज़रायल द्वारा सीरिया की राजधानी में एक ईरानी राजनयिक मिशन पर बमबारी के बाद असद को प्रतिक्रिया देने से भी हतोत्साहित भी किया. हालांकि इस घटना की वजह से इज़रायल और ईरान के बीच सैनिक कार्रवाई हुई थी.
सीरिया की राजनीतिक दिशा दो बातों से तय होगा. पहली, इस क्षेत्र की भू-राजनीति. दूसरी, सीरिया के आंतरिक संघर्षों बाहरी भू-राजनीति को सुलझाने में अल-शरा का राजनीतिक कौशल.
सीरिया के राजनीतिक भविष्य की गिरावट को रोकने की चर्चा को सिर्फ शिया-सुन्नी प्रतिद्वंद्विता या इज़राइल-ईरान प्रतियोगिता तक सीमित करना सही नहीं होगा. ये मसला उससे कहीं ज़्यादा जटिल है. सीरिया में स्थिरता का मुद्दा अमेरिका-रूस या अमेरिका-चीन प्रतियोगिता की तुलना में अधिक गंभीर है. सीरिया की राजनीतिक दिशा दो बातों से तय होगा. पहली, इस क्षेत्र की भू-राजनीति. दूसरी, सीरिया के आंतरिक संघर्षों बाहरी भू-राजनीति को सुलझाने में अल-शरा का राजनीतिक कौशल. अगर अल-शरा ने सही राजनीतिक और कूटनीतिक चालें चलीं तो स्थिति नियंत्रण में आ सकती है.
सीरिया में ईरान-रूस क्या करेंगे?
सीरिया संकट सुलझाने में कुछ किरदारों की भूमिका दूसरों की तुलना में ज़्यादा महत्वपूर्ण होगी. अब जैसे ईरान का ही उदाहरण लीजिए. सीरिया में झटका लगने के बावज़ूद ईरान चीजों को ऐसे पेश करने की कोशिश कर रहा है कि उसके लिए स्थिति उतनी भी खराब नहीं है, जितनी बताई जा रही है, लेकिन ये एक तथ्य है कि फिलहाल ईरान ने इस क्षेत्र में अपना रणनीतिक लाभ काफ़ी हद तक गंवा दिया है. लेबनान में जो नए राष्ट्रपति बने हैं, उन्हें अमेरिका और सऊदी अरब का समर्थन हासिल है. अब वो भी ये कोशिश कर रहे हैं कि हिजबुल्लाह ज़्यादा मज़बूत ना हो सके. इसका मतलब ये हुआ कि ईरान के लिए लेबनान में भी मुसीबतें बढ़ गई हैं. ईरान कोशिश करेगा कि वो आने वाले कुछ महीनों या साल में इस क्षेत्र में अपने खोए हुए प्रभाव को कुछ हद तक हासिल कर ले. इसी तरह तुर्किये का उत्तरी सीरियाई क्षेत्र के कुछ हिस्सों पर कब्जा है. वो एक विद्रोही समूह, सीरियाई राष्ट्रीय सेना (एसएनए) का समर्थन करता है. अमेरिका समर्थित कुर्द समूहों को तुर्किये अपने लिए राष्ट्रीय सुरक्षा ख़तरे के तौर देखता है. तुर्किये को भी आने वाले दिनों में सऊदी अरब से वैचारिक विरोध का सामना करना पड़ेगा. हालांकि ये तनाव बहुत ज़्यादा नहीं बढ़ेगा. तुर्किये और ईरान मुस्लिम ब्रदरहुड का समर्थन करते हैं, जबकि रियाद और अबू धाबी दोनों ने पिछले दशक का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम ब्रदरहुड, उसके सहयोगियों और राजनीतिक इस्लाम जैसे समूहों की अवधारणा का प्रभाव कम करने में बिताया है. सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात को हमास, हिज़बुल्लाह और इस्लामिक स्टेट के ख़त्म होने या कमज़ोर होने का भी फायदा हुआ है.
2019 में एचटीएस के धार्मिक प्राधिकरण के प्रमुख ने लिखा था कि "एक पंथ के नज़रिए से देखें तो लोकतंत्र और इस्लाम एक-दूसरे के विरोधी हैं. इस्लाम की अवधारणा ईश्वर को शासन देने पर आधारित है, जबकि लोकतंत्र कहता है कि ईश्वर से अलग जो कुछ भी है, शासन उसे दिया जाए".
भू-राजनीतिक चुनौतियों से हटकर भी देखें तो अल-शरा की विचारधारा का खुलकर सामने आना अभी बाकी है. अल-शरा ने अतीत में खुद को मज़बूत करने के लिए आसानी से इस्लामवादी विचारधाराओं का इस्तेमाल किया है. अब वो एक देश संभालने की तरफ बढ़ रहा है. चुनाव, संविधान और लोकतांत्रिक मानदंडों की बात कर रहा है. उसके इस रुख़ की वजह से अल-शरा का अपने सहयोगियों के साथ टकराव हो सकता है. एचटीएस के भीतर भी इसे लेकर अंदरूनी संघर्ष हो सकता है. स्कॉलर कोल बुंज़ेल ने अपने अध्ययन में इस पूरे क्षेत्र और उससे आगे के सलाफ़िस्ट विचारकों की बात की है. उनके मुताबिक ये सभी अल-शरा से इस बात को लेकर नाराज़ हैं कि वो इस्लामी देश बनाने की बजाए संवैधानिक लोकतंत्र पर ज़ोर क्यों दे रहा है. 2019 में एचटीएस के धार्मिक प्राधिकरण के प्रमुख ने लिखा था कि "एक पंथ के नज़रिए से देखें तो लोकतंत्र और इस्लाम एक-दूसरे के विरोधी हैं. इस्लाम की अवधारणा ईश्वर को शासन देने पर आधारित है, जबकि लोकतंत्र कहता है कि ईश्वर से अलग जो कुछ भी है, शासन उसे दिया जाए". एचटीएस ने उसी साल ये भी कहा कि " जिहाद का उद्देश्य शरिया की सर्वोच्चता और संप्रभुता है". फिलहाल अल-शरा अपनी ही मूल संस्था के इन फ़रमानों के ख़िलाफ़ खड़ा नज़र आ रहा है.
अल-शरा के 'नए' सीरिया के भीतर भी कुछ दरारें पहले से ही दिखाई दे रही हैं. मिस्र के जिहादी अहमद अल-मंसूर के संरक्षण में सीरिया के एक नए समूह ने काहिरा में राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सिसी के राजनीतिक नेतृत्व को चुनौती देना शुरू कर दिया है. मंसूर ने मिस्रवासियों से 25 जनवरी को काहिरा में जुटने की अपील की है. 25 जनवरी को अरब स्प्रिंग की सालगिरह मनाई जाती है, जिसने मिस्र में होस्नी मुबारक के तीन दशक लंबे शासन को उखाड़ फेंकने में अहम भूमिका निभाई थी. मिस्र में सिसी समर्थक मीडिया ने भी मंसूर द्वारा बनाए जा रहे नैरेटिव का मुकाबला करना शुरू कर दिया है. हालांकि ये पहला मौका है, जब किसी सीरियाई जिहादी द्वारा दूसरे देश के राजनीतिक नेतृत्व के शासन को निशाना बनाया जा रहा है. हो सकता है दूसरे समूह भी अब ऐसा करें. सीरिया में इसी तरह के अन्य समूह भी आकार ले सकते हैं. जो लोग अल-शरा के साथ या मिलकर लड़े उनके राजनीतिक उद्देश्य अलग-अलग हो सकते हैं. ये भी संभव है कि वो अल-शरा की पसंद से पूरी तरह असहमत हों.
निष्कर्ष
अंत में ये कहा जा सकता है कि अल-शरा को लेकर जो सकारात्मक माहौल बना है, वो जल्दबाजी भी हो सकता है. अभी उसे समझना बाकी है. जश्न से ज़्यादा चिंता के मुद्दे बने हुए हैं. इस क्षेत्र के देशों के लिए ये प्रभाव और वैचारिक एकाधिकार की जंग है. यूरोप की चिंता ये है कि वो शरणार्थियों के किसी भी संभावित प्रवाह को कम करना या फिर उनका प्रबंधन चाहता है. यूरोप पहले ही इस तरह के आंदोलनों के नतीजों से जूझ रहा है. 2013 के बाद से ही इस क्षेत्र में चले संघर्षों और दक्षिणपंथियों के उदय की वजह से यूरोप में शरणार्थियों की संख्या बहुत बढ़ गई थी. अमेरिका का लक्ष्य दाएश के ख़िलाफ़ अपने आतंकवाद विरोधी अभियानों को जारी रखना, इजरायली के हितों की सहायता करना और पूरे क्षेत्र में शक्ति संतुलन के स्तर को बनाए रखने का है. इस सबके बीच रूस, ईरान और चीन फिर ये कोशिश करेंगे कि इस क्षेत्र पर दोबारा उनका प्रभाव बढ़े. भविष्य में तीन क्षेत्रों में ही महाशक्तियों के बीच होड़ दिखेगी. मिडिल-ईस्ट के अलावा यूक्रेन और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अपना-अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश की जाएगी.
इन सबके बीच अल-शरा को जीवित रहना होगा. मज़बूत होना होगा. दुनिया का भरोसा जीतना होगा. अल-शरा के शासन की शुरुआत तालिबान से बेहतर हुई है.
इन सबके बीच अल-शरा को जीवित रहना होगा. मज़बूत होना होगा. दुनिया का भरोसा जीतना होगा. अल-शरा के शासन की शुरुआत तालिबान से बेहतर हुई है. हालांकि, उसकी दीर्घकालिक सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वो शासन के लिए किस तरह की राजनीतिक वंशावली को चुनता है और वैचारिक वास्तविकताओं को वो किस तरह हल करता है.
कबीर तनेजा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में डिप्टी डायरेक्टर और फेलो हैं.
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