Author : Jaimal Anand

Published on Mar 18, 2021 Updated 0 Hours ago

हजारों साल से प्लेग, महामारियों और संक्रामक रोगों से इंसान जूझते आए हैं, लेकिन उनका अस्तित्व बचा रहा. वे पुराने तज़ुर्बों से सीखते रहे.

अस्तित्व बचाने की कूटनीतिः कोविड-19 के दौर में वैक्सीन और स्वास्थ्य सेवाओं पर देशों का भू-राजनीतिक गेम प्लान

हजारों साल से प्लेग, महामारियों और संक्रामक रोगों से इंसान जूझते आए हैं, लेकिन उनका अस्तित्व बचा रहा. वे पुराने तज़ुर्बों से सीखते रहे. ऐसी बीमारियों के पिछले सबक उन्होंने याद रखे. उससे सीख लेकर खुद को बदला और इससे जुड़ी जानकारियां अगली पीढ़ी को सौंपते गए. इसलिए इसमें कोई शक नहीं कि इंसानी अस्तित्व की रक्षा के लिए आपसी सहयोग ज़रूरी है. यह ऐसी बात नहीं है कि हुई तो ठीक, न हुई तो भी ठीक.

लोगों के स्वास्थ्य, कूटनीति, सुरक्षा और भू-राजनीति को साथ जोड़कर देखने में बुनियादी तौर पर कुछ भी नया नहीं है. इस विषय पर कई तरह से और गहराई से विचार किया गया है. यह भी कह सकते हैं कि यह सदियों से हमारा सच बना हुआ है. 165 से 180 ईस्वी में एन्टोनिन प्लेग, जिसे गेलन प्लेग के नाम से भी जाना जाता है  (फिजिशियन गेलन के नाम पर यह नाम दिया गया, जिन्होंने इस प्लेग के बारे बताया था), इसे रोम साम्राज्य में वे सैनिक लेकर आए थे, जो पश्चिम एशिया से सैन्य अभियान पूरा करके लौटे थे. इस प्लेग से 50 लाख लोगों की मौत हुई थी. यानी इस महामारी ने रोम के एक तिहाई लोगों की जान ली थी और रोम की सेना को भी तबाह कर दिया था.

1918 में ऐसा ही प्रलय स्पेनिश फ्लू के कारण आया. जब पहली लहर के बाद यह महामारी ख़त्म होने की ओर थी, उसी साल गर्मियों में इसकी दूसरी लहर अमेरिका के तटीय इलाकों में पहुंची. असल में, पहले विश्वयुद्ध से लौट रहे सैनिक इससे संक्रमित हो गए थे और उनकी वजह से अमेरिकी लोगों में यह बीमारी फैली. फिलाडेल्फिया में 28 सितंबर 1918 को ‘लिबर्टी लोन परेड’ हुई, जहां हजारों की संख्या में लोग इकट्ठा हुए थे. इस परेड के दौरान बड़े पैमाने पर लोग स्पेनिश फ्लू से संक्रमित हुए. ऐसे आयोजनों को आज हम ‘सुपर स्प्रेडर’ कहते हैं यानी जहां बड़े पैमाने पर लोग वायरस से संक्रमित हों. लेकिन फिलाडेल्फिया के उलट सैन फ्रैंसिस्को में अगर बिना मास्क के कोई सार्वजनिक जगह पर दिखता तो उस पर पांच डॉलर का जुर्माना लगाया जाता. तब पांच डॉलर अच्छी-खासी रकम हुआ करती. आख़िरकार 1919 में महामारी ख़त्म हुई. तब तक इसने जिन लोगों को शिकार बनाया था, या तो उनकी मौत हो गई थी या उनमें इस रोग से लड़ने की क्षमता (इम्यूनिटी) आ चुकी थी.

WHO है भू-राजनीति का केंद्र

21 सितंबर 2020 को संयुक्त राष्ट्र आम सभा की 75वीं सालगिरह पर राष्ट्रपति रामफोसा ने कहा , ‘कोरोना महामारी के बाद हमें ऐसा रास्ता चुनना है, जो बदलाव का हो. इस रास्ते पर सबको साथ लेकर चला जाए. यह काम हर इंसान की मर्यादा का ख्य़ाल रखते हुए किया जाना चाहिए. इस साल हम 75 वर्षों की एकता और दोस्ती का जश्न मना रहे हैं. हम इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ वैश्विक शांति का अगुवा गारंटर बना हुआ है और भविष्य में भी बना रहेगा.’

1949 में सोवियत संघ ने संगठन के अंदर अमेरिका के अत्यधिक प्रभाव की बात कहकर अपने कदम पीछे खींच लिए. इसके बाद सोवियत संघ की WHO में वापसी 1956 में हुई, जब कम्युनिस्ट देश की कमान निकिता ख्रुश्चेव के हाथों में आ गई

यह सोचना कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और उसके कामकाज पर पहली बार 2020 में कोविड-19 महामारी के दौरान सवाल उठाया गया, गलत है. 1945 में जब संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना को लेकर चर्चा हो रही थी, तब सोचा गया था कि यह लंबे वक्त तक चलने वाली संस्था होगी और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की दुनिया के लिए इसकी अहमियत बनी रहेगी. WHO इंसानी ज़रूरतों को पूरा करने और उनके स्वास्थ्य सेवाओं के अधिकार को पूरा करने में केंद्रीय भूमिका निभाएगा. हालांकि, शीत युद्ध के दांवपेच शुरू होने से बहुत जल्द ही इसका राजनीतिकरण हो गया. एलेक्स ब्रेजोव संकेत देते हैं कि तनाव  की शुरुआत सोवियत संघ और पश्चिमी देशों के बीच WHO की वित्तीय मदद और उसमें प्रभाव बढ़ाने की होड़ को लेकर हुई. 1949 में सोवियत संघ ने संगठन के अंदर अमेरिका के अत्यधिक प्रभाव की बात कहकर अपने कदम पीछे खींच लिए. इसके बाद सोवियत संघ की WHO में वापसी 1956 में हुई, जब कम्युनिस्ट देश की कमान निकिता ख्रुश्चेव के हाथों में आ गई. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी संगठन में चीन के अधिक असर की बात कहकर इससे बाहर निकलने की धमकी दी थी. ये दोनों मामले एक जैसे ही लगते हैं.

WHO 147 देशों में मौजूदगी रखता है , उसके छह क्षेत्रीय ऑफिस हैं. इस वैश्विक इंफ्रास्ट्रक्चर पर संगठन अपने सालाना बजट का 70 फीसदी खर्च करता है. अगर वह क्षेत्रीय दफ़्तर बंद कर दे तो इससे काफी पैसा बचेगा और उसकी कामकाजी क्षमता भी प्रभावित नहीं होगी. वैक्सीन रेगुलेशन के क्षेत्र में शानदार इतिहास के बावजूद, स्वास्थ्य संबंधी मामलों में इसके वैश्विक नेतृत्व को रोज चुनौती मिलती है. यह चुनौती ख़ासतौर पर अमीर, तेज़तर्रार और सक्षम निजी संगठनों की ओर से पेश की जाती है. एक और बात यह है कि जिन कारणों से भू-राजनीति बदल हो रही है, उन्हें अब इंसानी सुरक्षा से अलग करके नहीं देखा जा सकता. असल में गरीबी, बेरोज़गारी, शहरीकरण और औद्योगिकरण का भू-राजनीति यानी देशों के आपसी रिश्तों पर असर पड़ रहा है. कोविड-19 भी इसी तरह का असर डालने वाली महामारी है.

बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था और स्वास्थ्य सेवाएं

संयुक्त राष्ट्र संघ की 75वीं सालगिरह की थीम थी, ‘हम जो भविष्य चाहते हैं, हमें उसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की जरूरत है, हम इस साझी पहल के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताते हैं. दुनिया मिलकर कोविड-19 की चुनौती से निपटेगी.’ संयुक्त राष्ट्र संघ की उपलब्धियों पर हमें गर्व है, लेकिन हम यह भी जानते हैं कि 1945 में जो दुनिया थी, 2020 की दुनिया वैसी नहीं है. आज उसके सामने कहीं बड़ी चुनौतियां हैं.

अस्तित्व की रक्षा वह आदिम इच्छा है, जिसके कारण अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा मिलता है. जब यह सहयोग बंद हो जाता है, तब स्याह और दुख़द सच्चाइयां सामने आती हैं. खाद्य संकट पर वैश्विक रिपोर्ट 2020, के मुताबिक कोविड-19 महामारी के कारण साल के अंत तक 25 करोड़ से अधिक लोगों को भुख़मरी का सामना करना पड़ेगा. हालिया आंकड़ों से पता चलता है कि निम्न और मध्यम आय वर्ग वाले देशों में 26.5 करोड़ से अधिक लोगों की रोज़ी-रोटी और जीवनयापन संकट में पड़ सकता है. कोविड-महामारी के आने से पहले इनकी संख्या 13.5 करोड़ थी, जो 55 देशों में फैले हुए थे.

वैक्सीन अलायंस, गावी की स्थापना साल 2000 में हुई. इसका मक़सद था, गरीब देशों की वैक्सीन तक पहुंच आसान बनाना. इसे वैश्विक स्तर पर वैक्सीन डिप्लोमेसी की शुरुआत कहा जा सकता है. 

अफ्रीका और गरीब मुल्कों में स्थिति बहुत गंभीर है. वहां वायरस लोगों की जिंदगी और रोजी-रोटी के लिए बड़ा संकट बना हुआ है. ख़ासतौर पर उसने महिलाओं, नौजवानों और बुजुर्गों को अधिक प्रभावित किया है. यह भी गौर करने वाली बात है कि वक्त के साथ स्वास्थ्य सेवाओं के लिए कई वैश्विक मंच बने, लेकिन इस मामले में WHO ने ही दुनिया के सामने एक मानक तय किया.  WHO के संविधान में स्वास्थ्य सेवाओं को मानवाधिकार बताया गया है और दूसरे स्वास्थ्य संगठन भी इसी ध्येय के साथ काम करते आए हैं.

वैक्सीन डिप्लोमेसी

वैक्सीन अलायंस, गावी की स्थापना साल 2000 में हुई. इसका मक़सद था, गरीब देशों की वैक्सीन तक पहुंच आसान बनाना. इसे वैश्विक स्तर पर वैक्सीन डिप्लोमेसी की शुरुआत कहा जा सकता है. गावी अलायंस की स्थापना संयुक्त राष्ट्र संघ की एजेंसियों, सरकारों और वैक्सीन इंडस्ट्री, निजी क्षेत्र की अन्य शाखाओं और सिविल सोसायटी को साथ लाने के लिए की गई थी ताकि शिशु मृत्यु दर में कमी लाई जा सके. सस्ती वैक्सीन और सब तक इसकी समान पहुंच की बहस के शुरू होने से वैक्सीन डिप्लोमेसी केंद्र में आ गई है. यह ऐसा विषय है, जिससे समूची दुनिया के लोगों का हित जुड़ा है. वैक्सीन तक पहुंच, डायग्नोस्टिक्स (बीमारी की पहचान के लिए की जाने वाली मेडिकल जांच) और ज़रूरी आपूर्ति हासिल करना कुछ देशों के लिए आसान है तो कुछ के लिए मुश्किल. आइए इसे एक उदाहरण से समझते हैं. अनुमान है कि सितंबर 2021 से मार्च 2022 के बीच अमीर देशों में कोरोना वायरस की वैक्सीन आसानी से मिलने लगेगी. मध्यम आय वर्ग और उभरते हुए देशों में सितंबर 2021 और 2022 की गर्मियों तक यही स्थिति होगी, लेकिन गरीब देशों में ऐसे हालात 2022 के वसंत से 2023 के बीच ही बन पाएंगे.

वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम 2021 दावोस एजेंडा और उसकी 2021 ग्लोबल इनसाइट रिस्क रिपोर्ट के मुताबिक, वैक्सीन के लिए होड़ मचने से इसकी कीमत बढ़ सकती है. WHO भी बार-बार कहता रहा है कि कोवैक्स जैसी सहयोगी पहल को मज़बूत बनाया जाना चाहिए ताकि महामारी पर जल्द काबू पाया जा सके. वैक्सीन डिप्लोमेसी कई जटिल विमर्शों पर आधारित है. यह वैक्सीन डेवलपमेंट, उसकी मैन्युफैक्चरिंग और लोगों के हित में उसकी डिलीवरी जैसे वैश्विक स्वास्थ्य के पहलुओं को समेटे हुए है.

अंतरराष्ट्रीय समझौतों और संगठनों के दायरे में जनता के स्वास्थ्य से जुड़े मसले शामिल किए जाने की पहल बढ़ रही है, जैसे 2015 में जलवायु परिवर्तन पर हुआ पेरिस समझौता, 2005 में संशोधित अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य दिशानिर्देश, एड्स, तपेदिक और मलेरिया से निपटने के लिए 2002 में बना अंतरराष्ट्रीय फंड. 2020 में कोवैक्स फैसिलिटी की स्थापना इसी राह में एक अहम पड़ाव है. इसे कोविड वैक्सीन के मद्देनजर बनाया गया है. इसका मक़सद वैक्सीन खरीदने में वैश्विक जोख़िम को कम करना और समान वितरण है.

कोविड-19 वैक्सीन राष्ट्रवाद का असर सिर्फ़ गरीब देशों पर ही नहीं पड़ेगा, इसका नतीजा समूची मानवता को भुगतना होगा

अक्टूबर 2020 में भारत और दक्षिण अफ्रीका ने WTO से संपर्क किया था, दोनों ने बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार संबंधी पहलू पर हुए समझौते (ट्रेड रिलेटेड एस्पेक्ट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स यानी ट्रिप्स एग्रीमेंट) की कुछ शर्तों से छूट मांगी थी. दोनों देशों का कहना था कि इन शर्तों से अस्थायी छूट मिल जाए तो समय रहते वैक्सीन सहित इलाज में काम आने वाले ज़रूरी सामान खरीदने में मदद मिलेगी. वहीं, 4 फरवरी, 2021, को अमीर देशों ने वैक्सीन के बौद्धिक संपदा (इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी) पर और रियायत देने की मांग ठुकरा दी. उनका कहना था कि इससे दवा कंपनियों में नई खोज का काम प्रभावित होगा, ख़ासतौर पर जिस तरह से कोरोना वैक्सीन के नए वेरिएंट सामने आ रहे हैं, उनसे निपटने में इससे मुश्किल खड़ी हो सकती है. WTO के ज्यादातर सदस्य देश इस छूट के हिमायती थे. उनमें विकासशील, पिछड़े देश और स्वयंसेवी संगठन भी शामिल थे. उनका मानना था कि WTO के बौद्धिक संपदा संबंधी शर्तों से तेजी से वैक्सीन बनाने का काम प्रभावित हो रहा है.

निष्कर्ष

आज दुनिया जिस आपात स्थिति का सामना कर रही है, उसमें जमाख़ोरी, वैक्सीन राष्ट्रवाद और बौद्धिक संपदा अधिकारों को लेकर अड़े रहने की कोई ज़रूरत है? ये सवाल लोगों तक वैक्सीन की पहुंच से जुड़े हुए हैं, जिसकी आख़िर में कीमत वैश्विक अर्थव्यवस्था को ही चुकानी पड़ेगी. वैक्सीन तक पहुंच का व्यापक अर्थ है. यूनिवर्सिटी ऑफ़ मेरीलैंड में इकॉनमिक्स के प्रोफेसर सेबनम केलेम्ली ओजकेन का दावा है कि वैक्सिनेशन नहीं करने से वैश्विक अर्थव्यवस्था को 4 लाख करोड़ डॉलर का नुकसान होगा. महामारी से रोज़ ही नुकसान बढ़ रहा है और यह बढ़कर 1.2 लाख करोड़ डॉलर सालाना तक पहुंच सकता हैRAND यूरोप की रिपोर्ट के मुताबिक, कोविड-19 वैक्सीन राष्ट्रवाद का असर सिर्फ़ गरीब देशों पर ही नहीं पड़ेगा, इसका नतीजा समूची मानवता को भुगतना होगा. अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ जैसे अमीर और अधिक आमदनी वाले देशों और क्षेत्रों को वैश्विक रिकवरी नहीं होने तक इससे सालाना 119 अरब डॉलर का नुकसान होने का अनुमान है. वैक्सीन को दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाने में जो अड़चनें हैं, अगर उन्हें दूर नहीं किया गया तो महामारी का दौर लंबा खिंच सकता है, जिससे आर्थिक अस्थिरता बढ़ेगी. ऐसा लगता है कि अमीर देश वैक्सीन की व्यापक पहुंच के रास्ते में जो बाधाएं खड़ी कर रहे हैं, उन्हें उससे ख़ुद को होने वाले नुकसान का अंदाज़ा नहीं है.

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