डोनाल्ड ट्रंप के शासन काल में अमेरिका ने विदेश नीति के निर्णय लेने की प्रक्रिया में कार्यपालिका और विधायिका के बीच सत्ता संघर्ष होते देखा था. वैसे तो अमेरिकी सरकार और संसद के बीच विदेश नीति के मसले पर ये टकराव 9/11 के हमले के बाद ही शुरू हो गया था, जब अमेरिकी सरकार ने विदेश नीति पर अपना शिकंजा मज़बूत करना शुरू किया. लेकिन, डोनाल्ड ट्रंप की ‘अमेरिका फ़र्स्ट’ नीति से विदेश नीति को देखते हुए कार्यपालिका द्वारा अपनी पकड़ मज़बूत करने से संसद के दोनों सदनों में दोनों पार्टियों के सांसदों और ट्रंप प्रशासन के बीच तनातनी काफ़ी बढ़ गई थी. शीत युद्ध के बाद की अमेरिकी विदेश नीति के मूल सिद्धांतों की रक्षा करते हुए रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी के सांसदों ने अस्थायी प्रावधान पारित करके, ट्रंप को अमेरिका के गठबंधनों का दर्जा कम करने से रोका था. यही नहीं, अमेरिकी संसद के दोनों सदनों ने मिलकर सुनिश्चित किया था कि अगर सैन्य मामले में ट्रंप कोई दुस्साहस भरा फ़ैसला करते हैं, तो उसके लिए उन्हें अमेरिकी संसद से मंज़ूरी लेना अनिवार्य होगा. इस संरक्षणवादी सोच से इतर, 2018 में अमेरिका के मध्यावधि चुनावों के बाद – जब डेमोक्रेटिक पार्टी ने हाउस ऑफ़ रिप्रेजेंटेटिव्स में बहुमत हासिल कर लिया- तो 116वीं अमेरिकी कांग्रेस ने ही चीन के मानव अधिकारों के रिकॉर्ड को लेकर अमेरिका की विदेश नीति तय की थी. तब हाउस ने शिन्जियांग, हॉन्ग-कॉन्ग और तिब्बत को लेकर प्रस्ताव पारित किए थे.
2020 के राष्ट्रपति चुनाव से पहले से ही ये लग रहा था कि जो बाइडेन चुनाव जीतते हैं, तो अमेरिका की विदेश नीति चलाने में वहां की संसद की भूमिका लगातार बढ़ती रहेगी. चूंकि ख़ुद बाइडेन ने ये स्वीकार किया था कि कार्यपालिका के पास विदेश नीति के सारे अधिकार रहने की प्रक्रिया को मोड़ने की ज़रूरत है.
2020 के राष्ट्रपति चुनाव से पहले से ही ये लग रहा था कि जो बाइडेन चुनाव जीतते हैं, तो अमेरिका की विदेश नीति चलाने में वहां की संसद की भूमिका लगातार बढ़ती रहेगी. चूंकि ख़ुद बाइडेन ने ये स्वीकार किया था कि कार्यपालिका के पास विदेश नीति के सारे अधिकार रहने की प्रक्रिया को मोड़ने की ज़रूरत है. विशेष रूप से उन्होंने 9/11 के हमले के बाद के अमेरिकी राष्ट्रपतियों द्वारा सैन्य बलों के इस्तेमाल की अनुमति देने की ताक़तों (AUMFs) के दुरुपयोग का ज़िक्र किया था. हालांकि, ट्रंप के शासनकाल के दौरान जहां विदेश नीति के मामलों पर संसद की दख़लंदाज़ी विधायी प्रयासों के ज़रिए, सरकार के अधिकार सीमित करने और अपना नियंत्रण स्थापित करने के रूप में देखी थी. वहीं, जो बाइडेन की विदेश नीति उनकी अपनी पार्टी के भीतर की गुटबाज़ी से निर्धारित हो रही है.
प्रगतिशील सांसदों का बढ़ता प्रभुत्व
2020 के चुनाव से पूर्व डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर तरक़्क़ीपसंद माने जाने वाले नेता ये समझते थे कि विदेश नीति, ‘ऐसा विशाल क्षेत्र’ है, जहां जो बाइडेन को ‘अधिक प्रगतिशील नीतियां अपनाने की दिशा’ में ले जाया जा सकता है. अपना चुनावी एजेंडा तैयार करते समय जो बाइडेन के प्रचार अभियान ने भी कई विषयों (जैसे कि चीन के मसले पर ट्रंप से भी ज़्यादा आक्रामक रवैया अपनाने) पर अपनी पार्टी के तरक़्क़ीपसंद नेताओं की शर्तें मान ली थीं. चूंकि जो बाइडेन के पास इस बात की गुंजाइश बहुत कम थी कि वो ध्रुवीकरण वाले घरेलू मसलों पर प्रगतिशील डेमोक्रेटिक नेताओं की बातें मान सकें, तो उन्होंने विदेश नीति के मसले पर उन्हें छूट दी. हालांकि, माना तो ये जा रहा था कि चुनाव के बाद विदेश नीति के मुद्दे पर डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रगतिशील नेताओं का प्रभाव सीमित ही होगा. क्योंकि 117वीं अमेरिकी संसद में डेमोक्रेटिक पार्टी के मध्यमार्गी नेताओं को ही नेतृत्व वाले पद मिले हैं.
पार्टी के भीतर से नई पीढ़ी के नेताओं को आगे बढ़ाने की मांग ज़ोर पकड़ने केबावजूद, नैंसी पेलोसी लगातार चौथी बार हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव्स की स्पीकर चुनी गईं. वहीं चार बार सीनेटर रह चुके चक शुमर ही सीनेट में बहुमत दल के नेता चुने गए. 2020 के चुनावों में 116वीं संसद के 232 बनाम 197 सांसदों की तुलना में 117वीं कांग्रेस में डेमोक्रेटिक पार्टी की ताक़त घटकर 219 बनाम रिपब्लिकन पार्टी के 211 सांसदों की रह गई. डेमोक्रेटिक पार्टी के मध्यमार्गी नेताओं ने पार्टी को हुए इस नुक़सान के लिए प्रगतिशील नेताओं के एजेंडे को ज़िम्मेदार ठहराया. चूंकि, डेमोक्रेटिक पार्टी के बहुत से प्रगतिशील नेता ध्रुवीकरण वाले मसलों, जैसे कि ‘डीफंड द पुलिस’ के साथ चुनाव लड़े थे. ऐसे मूल्यांकन से मध्यमार्गी नेता डेमोक्रेटिक पार्टी के कॉकस पर अपना नियंत्रण बनाए रखने में सफ़ल हो गए. हालांकि, चुनाव के नतीजे देखकर ये नहीं कहा जा सकता है कि जनता ने प्रगतिशील नेताओं को नकार दिया है.
जहां तक विदेश नीति की बात है, तो डेमोक्रेटिक पार्टी के मध्यमार्गी भी अब तरक़्क़ीपसंदों की राह पर चलने लगे हैं. ये बात हाल ही में तब ज़ाहिर हुई थी, जब प्रगतिशील सांसदों ने फिलिस्तीनी नागरिकों के ख़िलाफ़ इज़राइल की कार्रवाइयों में अमेरिका की सहमति होने पर ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पेश किया.
ये बात डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रगतिशील कहे जाने वाले सांसदों की चौकड़ी– इल्हान ओमर, अलेक्ज़ेंड्रिया ओकैसियो-कॉर्टेज़, राशिदा त्लाइब और अयाना प्रेसली के फिर से चुनाव जीतने से साबित होती है. अमेरिकी संसद के निचले सदन की ये चारों ही डेमोक्रेटिक सांसद युवा मतदाताओं के बीच प्रगतिशील आंदोलन की अगुवा रही हैं. वहीं, नए नए तरक़्क़ीपसंद बने डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं जैसे कि जमाल बोमैन और कोरी बुश ने अपनी पार्टी के मध्यमार्गी और पार्टी के सामंती वर्ग के नेताओं को पीछे धकेलकर चुनाव जीता. इनमें 16 बार अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य रहे इलियट एंजेल और 10 बार सांसद रहे विलियम लेसी क्ले शामिल हैं.
इसका नतीजा ये हुआ है कि भले ही हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव्स में डेमोक्रेटिक पार्टी की ताक़त क़रीब दर्जन भर सीटों से कम हो गई. लेकिन, पार्टी के भीतर का तरक़्क़ीपसंद मोर्चा अभी भी 2018 के मध्यावधि चुनाव में आई ‘नीली लहर’ के स्तर से ऊपर की ताक़त बनाए हुए है. 117वीं अमेरिकी संसद में हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव्स में डेमोक्रेटिक पार्टी के कुल 219 सांसदों में से 93 को प्रगतिशील मोर्चे का सदस्य माना जाता है. इसलिए अब मध्यमार्गी डेमोक्रेटिक नेताओं ने अपनी अगुवाई वाली सदन की प्रमुख निगरानी समितियों की प्राथमिक सदस्यता प्रगतिशील मोर्चे के सांसदों के हवाले कर दी है. ये संसदीय समितियां हीं जो बाइडेन के घरेलू एजेंडे पर प्रभाव डालने की ताक़त रखती हैं.
जहां तक विदेश नीति की बात है, तो डेमोक्रेटिक पार्टी के मध्यमार्गी भी अब तरक़्क़ीपसंदों की राह पर चलने लगे हैं. ये बात हाल ही में तब ज़ाहिर हुई थी, जब प्रगतिशील सांसदों ने फिलिस्तीनी नागरिकों के ख़िलाफ़ इज़राइल की कार्रवाइयों में अमेरिका की सहमति होने पर ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पेश किया. डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रमुख इज़राइल समर्थक मध्यमार्गी नेताओं (जैसे कि सीनेटर क्रिस कून्स और रिप्रेज़ेंटेटिव जेरी नैडलर) इज़राइली पुलिस की हिंसा और पूर्वी येरूशलम से फिलिस्तीनियों को निष्काशित करने के विरोध में बोला. इससे जो बाइडेन की सरकार पर इस बात का दबाव पड़ा कि वो इज़राइल और फिलिस्तीन के मसले पर एक संतुलित रुख़ अपनाए और इज़राइल का समर्थन करने के साथ-साथ उससे फिलिस्तीनियों को निष्कासित करने का क़दम वापस लेने की मांग करे.
जब भारत ने कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाया था, तो उसके बाद डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रगतिशील सांसदों का ध्यान उसकी तरफ़ गया था. उस समय अमेरिका के तरक़्क़ीपसंद सांसदों ने डोनाल्ड ट्रंप की विदेश नीति को अमेरिकी मूल्यों से ‘अलग करने’ की नीति के प्रति विरोध जताया था.
इसी तरह जब जो बाइडेन प्रशासन ने यमन में सऊदी अरब के नेतृत्व में चलाए जा रहे अभियान को बस अमेरिकी समर्थन बंद किया, तो डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रगतिशील सांसदों ने मध्यमार्गी नेताओं (इनमें अमेरिकी संसद में जो बाइडेन के कुछ सहयोगी भी शामिल हैं) पर ये दबाव बनाया कि अमेरिका, सऊदी अरब के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करे. तरक़्क़ीपसंद सांसदों के दबाव के चलते ही जो बाइडेन ने 2019 में अमेरिकी संसद द्वारा डायरेक्टर ऑफ़ नेशनल इंटेलिजेंस को दिए गए आदेश का पालन करते हुए जमाल ख़शोगी के क़त्ल में सऊदी अरब की भूमिका पर अपना मूल्यांकन जारी किया.
भारत और अमेरिका के रिश्तों के लिए इसका क्या अर्थ है?
जब भारत ने कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाया था, तो उसके बाद डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रगतिशील सांसदों का ध्यान उसकी तरफ़ गया था. उस समय अमेरिका के तरक़्क़ीपसंद सांसदों ने डोनाल्ड ट्रंप की विदेश नीति को अमेरिकी मूल्यों से ‘अलग करने’ की नीति के प्रति विरोध जताया था. अक्टूबर 2019 में हाउस फॉरेन अफेयर्स कमेटी (HFAC) की सुनवाई के दौरान प्रगतिशील डेमोक्रेटिक सांसदों ने कश्मीर में दूरसंचार सेवाओं पर प्रतिबंध लगाने और लोगों को नज़रबंद करने पर विरोध जताया था. प्रगतिशील सांसद राशिदा त्लाइब औऱ प्रमिला जयपाल ने अमेरिकी संसद के निचले सदन में इस विषय पर दो प्रस्ताव भी पेश किए थे. उस वक़्त सदन की विदेशी मामलों की समिति (HFAC) के अध्यक्ष रहे मध्यमार्गी इलियट एंजेल ने भी अक्टूबर 2019 की सुनवाई में प्रगतिशील सांसदों का साथ देते हुए कश्मीर की गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित किया था. हालांकि, इस विषय पर डेमोक्रेटिक पार्टी की अंदरूनी खींच-तान बिल्कुल उजागर हो गई थी.
अगस्त 2019 में भारत द्वारा कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के बाद इलियट एंजेल ने अमेरिकी सीनेट में डेमोक्रेटिक पार्टी के एक और मध्यमार्गी सदस्य बॉब मेनेंडेज़ के साथ मिलकर एक साझा बयान जारी किया था. इस बयान में HFAC के प्रमुख इलियट एंजेल और उस वक़्त सीनेट की विदेशी मामलों की समिति (SFRC) के प्रतिष्ठित सदस्य मेनेंडेज़ ने ट्रंप प्रशासन की नीति का समर्थन किया था और, कश्मीर में भारत द्वारा उठाए गए क़दम पर सीधे तौर पर कोई टिप्पणी नहीं की थी. ख़बर तो ये भी आई थी वो हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव्स में प्रगतिशील सांसदों द्वारा लाए गए प्रस्तावों को रोकने की कोशिशों में भी शामिल थे. इन प्रस्तावों में भारत के क़दम और ट्रंप प्रशासन के आंख मूंदने वाली नीति की आलोचना की गई थी.
इसके बाद, जैसी की हम चर्चा कर चुके हैं, संसद के चुनाव के दौरान, प्रगतिशील उम्मीदवार जमाल बोवेन को इलियट एंजेल ने प्राइमरी में परास्त कर दिया. एंजेल के ख़िलाफ़ तरक़्क़ीपसंदों का ये अभियान मुख्य रूप से उनकी विदेश नीति के रिकॉर्ड पर केंद्रित था. प्रगतिशील नेता ये मांग कर रहे थे कि अमेरिका, मानव अधिकारों के मुद्दों पर ध्यान देने को अपनी विदेश नीति का निर्देशक सिद्धांत बना ले. फिर चाहे मामला अमेरिका के विरोधियों के साथ रिश्तों का हो या फिर साझेदारों के साथ संबंध का. दोनों के साथ इसी सिद्धांत के आधार पर बर्ताव किया जाए. लेकिन, इलियट एंजेल का रिकॉर्ड इस मांग के ठीक उलट था. इस संदर्भ में अगर देखें तो, सीनेटर बॉब मेनेंडेज़ (जो अब सीनेट की विदेशी मामलों की समिति के अध्यक्ष हैं) द्वारा रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन को लिखी गई एक सार्वजनिक चिट्ठी के पीछे की वजह समझ में आ जाती है. इस चिट्ठी में मेनेंडेज़ ने मांग की थी कि जब लॉयड ऑस्टिन मार्च 2021 में भारत के दौरे पर जाएं तो भारतीय नेतों के साथ उनके देश में लोकतंत्र के बिगड़ते हालात का मुद्दा उठाएं. मेनेंडेज़ की ये चिट्ठी शायद राजनीतिक कारणों से अधिक लिखी गई थी, जिससे वो अपने मध्यमार्गी सहयोगी सांसद रिप्रेज़ेंटेटिव इलियट एंजेल जैसी नियति को दोहराने से ख़ुद को बचा सकें.
इसके अलावा सीनेटर मेनेंडेज़ ने अपनी चिट्ठी में ये इशारा किया था कि ‘संवेदनशील सैन्य तकनीक के विकास और उनकी ख़रीद के मामले में भारत के पास अमेरिका के साथ मिलकर काम करने की क्षमताएं बहुत सीमित हैं.’ हालांकि, मेनेंडेज़ ने इसके लिए भारत के रूस के साथ मज़बूत रक्षा समझौतों से जुड़े ख़तरों का हवाला दिया था. लेकिन, उन्होंने ये बात तब उठाई थी, जब उनकी पार्टी के प्रगतिशील नेता अमेरिका द्वारा हथियारों के निर्यात को मानव अधिकार से संबंधित चिंताओं से जोड़ने की मांग ज़ोर-शोर से कर रहे थे.
अमेरिका के रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन के दौरे के कुछ ही दिनों बाद, जो बाइडेन प्रशासन ने भारत को अपने शासन काल में हथियारों की बिक्री के पहले सौदे को हरी झंडी दिखाई थी. अमेरिका की रक्षा सुरक्षा सहयोग एजेंसी (DSCA) ने एलान किया था कि वो भारत को छह P-8i निगरानी विमान बेचेगा. इस घोषणा के साथ साथ DSCA ने इस बिक्री की जानकारी देने वाली एक नोटिस हाउस फॉरेन अफेयर्स कमेटी (HFAC) और सीनेट की विदेशी मामलों की समिति (SFRC) को भी भेजी थी. अमेरिकी संसद की ये समितियां, सदस्यों को ये अधिकार देती हैं कि वो नोटिस प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर ऐसे सौदों पर अपने ऐतराज़ या चिंताएं जता सकते हैं.
जिस समय भारत कोरोना महामारी की ज़बरदस्त दूसरी लहर से जूझ रहा था, तब बाइडेन प्रशासन ने भारत की मदद के लिए अमेरिकी समाज के हर तबक़े से सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया.
हालांकि, भारत को P-8i टोही विमान बेचने पर अमेरिकी सांसदों के सवाल उठाने की 30 दिन की मियाद पूरी हो चुकी है. अब जो बाइडेन प्रशासन, भारत को ये विमान बेचने के लिए स्वतंत्र है. लेकिन, 30 दिनों की इस समय सीमा के दौरान, डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रगतिशील समूह ने अमेरिका द्वारा इज़राइल को 73.5 करोड़ डॉलर के हथियार बेचने के सौदे पर विधायी तरीक़े से रोक लगाने की ज़ोर-शोर से मांग उठाई थी. इसके लिए वो मानव अधिकारों से जुड़ी चिंताओं का हवाला दे रहे थे. अमेरिकी संसद की अनुसंधान सेवा ये कहती है कि कांग्रेस, अमेरिका द्वारा किसी देश को हथियार बेचने के प्रस्तावित सौदे को ‘कभी भी साझा प्रस्ताव के माध्यम से रोकने या ख़ारिज करने में सफल नहीं हुई है.’ लेकिन ये देखना होगा कि क्या तरक़्क़ीपसंद सांसद इस संदर्भ में संसद के विधायी अधिकारों का दायरा बढ़ाने की मांग करते हैं. उदाहरण के लिए 115वीं और 116वीं अमेरिकी कांग्रेस के कार्यकाल में प्रगतिशील सांसदों ने AECA में संशोधन करके हाउस की प्रक्रिया को सीनेट जैसी बनाने की कोशिश की थी. जिसके तहत, अगर किसी सौदे पर उस सदन की विदेशी मामलों की समिति ऐतराज़ नहीं करती है, तो वो हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव्स के सदस्यों को भी सदन में इस बात पर चर्चा के लिए मजबूर करने का अधिकार देना चाहते थे. ये अधिकार सीनेट के सदस्यों को मिला हुआ है.
हालांकि, जो बाइडेन की विदेश नीति पर प्रगतिशील वर्ग के बढ़ते प्रभाव से भारत और अमेरिका के रिश्तों के ऐसे विवाद सुलझाने में भी मदद मिली है, जिन्हें लेकर दोनों देशों के विचार अलग-अलग थे.
जिस समय भारत कोरोना महामारी की ज़बरदस्त दूसरी लहर से जूझ रहा था, तब बाइडेन प्रशासन ने भारत की मदद के लिए अमेरिकी समाज के हर तबक़े से सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया. बाइडेन प्रशासन ने USAID के ज़रिए मदद जुटाई. अमेरिका के कारोबारी वर्ग, भारत पर केंद्रित व्यापार की वकालत करने वाले समूह और यहा तक कि भारतीय मूल के लोग भी इस प्रयास में शामिल किए गए. भारत को अपने सहयोग के तहत जो बाइडेन ने वैक्सीन बनाने के कच्चे माल के निर्यात पर लगे प्रतिबंध भी हटा लिए. लेकिन, जब भारत और दक्षिण अफ्रीका ने कोरोना के टीके से जुड़े बौद्धिक संपदा के अधिकारों से अस्थायी तौर पर छूट की मांग की, तो जो बाइडेन प्रशासन इसके लिए राज़ी नहीं था. लेकिन प्रगतिशील सांसदों ने अपने प्रयासों से बाइडेन प्रशासन को इस दिशा में आगे बढ़ने को मजबूर किया.
डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रगतिशील वर्ग ने ‘कामकाजी वर्ग के समर्थक प्रगतिवाद’ और ‘कॉरपोरेट विरोधी प्रगतिवाद’ के संघर्ष को फिर से ज़िंदा करते हुए, जो बाइडेन प्रशासन की इस बात के लिए आलोचना की कि वो दवा कंपनियों द्वारा कोरोना के टीके बनाने के विशेषाधिकारों का संरक्षण करके उनके मुनाफ़े को प्राथमिकता दे रहे हैं. बाइडेन प्रशासन द्वारा, वैक्सीन निर्माण से जुड़े बौद्धिक संपदा के अधिकारों में रियायत का विरोध करने के पीछे तर्क ये दिया गया कि वो कामकाजी वर्ग के समर्थक एजेंडे के तहत ही ऐसा कर रहे हैं, जिससे अमेरिका की घरेलू उत्पादन क्षमता बढ़े. फिर भी, प्रगतिशील सांसदों के अभियान को मध्यमार्गी वर्ग का भी साथ मिल गया. इससे आख़िरकार जो बाइडेन सरकार को ये ऐलान करना पड़ा कि वो वैक्सीन के निर्माण के बौद्धिक संपदा के अधिकारों (TRIPS) में छूट का समर्थन करता है.
इसीलिए, जो बाइडेन के सत्ता में रहने के दौरान, भारत और अमेरिका के संबंधों का सफर मिला जुला रहने वाला है. डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रगतिशील वर्ग के सांसद, सुधारवादी रुख़ अपनाने की मांग कर रहे हैं. वो चाहते हैं कि अमेरिका की विदेश नीति संबंधित फ़ैसले लेने में संसद की संरक्षणवादी भूमिका और मज़बूत की जानी चाहिए.
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