Published on Jun 21, 2022 Updated 29 Days ago

दक्षिण एशियाई क्षेत्र का एक अगुवा देश श्रीलंका अपनी ग़लत नीतियों के चलते अब संकट के गहरे दलदल में फंस चुका है. क्या वो इस नुक़सान की भरपाई कर सकेगा?

श्रीलंकाई संकट: विरासत में मिली भ्रांतियों और आर्थिक कुप्रबंधन के कारण मुश्किलों में घिर चुका एक द्वीप देश!
ये लेख ओआरएफ़ पर छपे सीरीज़, भारत के पड़ोस में अस्थिरता: एक बहु-परिप्रेक्ष्य अवलोकन का हिस्सा है.

हाल तक द्वीप देश श्रीलंका की मानव विकास सूचकांक में दक्षिण एशियाई क्षेत्र में अगुवा के तौर पर सराहना की जाती रही थी. ज़्यादातर सामाजिक-आर्थिक सूचकांकों (जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा और आबादी की गुणवत्ता) में वो शीर्ष पर बना रहा था. बहरहाल, गृह युद्ध और उसके बाद की राजनीतिक अस्थिरता के बीच व्यापक अर्थव्यवस्था और विदेश नीति के मोर्चों पर अपनाई गई ग़लत नीतियों ने श्रीलंका को सामाजिक-आर्थिक तौर अभूतपूर्व संकट की ओर धकेल दिया है. राजनीतिक फ़ैसले लेने के तानाशाही भरे रवैए ने इस आग में घी डालने का काम किया. हालांकि इस संकट के दुष्प्रभाव पिछले कुछ महीनों में ही सामने आने शुरू हुए हैं. आवश्यक सामानों और बिजली-पानी का इंतज़ाम करने में आम लोगों को भारी जद्दोजहद करनी पड़ रही है. कुछ परिवार तो ग़रीबी रेखा से नीचे चले गए हैं. इस समस्या  की शुरुआत 2008 में वैश्विक वित्तीय संकट और 2009 के गृह युद्ध के साथ ही हो गई थी. गृह युद्ध के बाद बुनियादी ढांचे के विकास को लेकर कर्ज़ पर आधारित प्रक्रिया को आगे बढ़ाया गया. ऋण और व्यय के मसलों में अंधाधुंध ख़र्च करने की वित्तीय नीति का सहारा लिया जाने लगा. देश का व्यापार घाटा और चालू खाते का घाटा बढ़ता चला गया. ये तमाम नीतियां अव्यावहारिक थीं. आर्थिक मोर्चे पर इस तरह की अनचाही दुश्वारियां 2019 में ईस्टर के मौक़े पर हुए बम धमाकों से और संगीन हो गईं. 2019 में नई सरकार द्वारा टैक्स में की गई भारी-भरकम कटौतियों से ये समस्या और गहरी हो गईं. कोविड-19 महामारी ने ताबूत में आख़िरी कील ठोकने का काम किया. महामारी के चलते पर्यटन और कर राजस्व में ज़बरदस्त गिरावट आ गई. 

गृह युद्ध और उसके बाद की राजनीतिक अस्थिरता के बीच व्यापक अर्थव्यवस्था और विदेश नीति के मोर्चों पर अपनाई गई ग़लत नीतियों ने श्रीलंका को सामाजिक-आर्थिक तौर अभूतपूर्व संकट की ओर धकेल दिया है. राजनीतिक फ़ैसले लेने के तानाशाही भरे रवैए ने इस आग में घी डालने का काम किया.

संकट की जड़

फ़िलहाल श्रीलंका की अर्थव्यवस्था अभूतपूर्व संकट के दौर से गुज़र रही है. इसकी जड़ श्रीलंका की तमाम सरकारों द्वारा अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर बरते गए कुप्रबंधन में छिपी है. संकट की तमाम वजहों में राजपक्षे सरकार की बेतरतीब आर्थिक नीतियां प्रमुख कारक रही हैं. इससे श्रीलंका के आर्थिक हालात और बदतर हो गए. गृह युद्ध (2009-2015) के बाद श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था में विशाल बजटीय घाटों का दौर रहने लगा. गृह युद्ध के दौरान सियासी फ़ैसले लेने का तानाशाही भरा रवैया देखा गया. इसके बाद भारी राजनीतिक अस्थिरता का दौर रहा. फ़ैसले लेने में सियासी आम सहमति का अभाव देखा गया. नतीजतन सरकारों ने हालात सुधारने के लिए ज़रूरी उपाय करना ज़रूरी नहीं समझा. महामारी के बाद विदेशी मुद्रा भंडार में भारी गिरावट आने से  ये समस्या और विकराल हो गई. देश के पास ज़रूरी खाद्य सामग्रियों और ईंधन के लिए रकम चुकाने की भी क्षमता नहीं रह गई. इससे इन पदार्थों की क़ीमतों में भारी बढ़ोतरी हो गई. वस्तुओं की बढ़ी क़ीमतों और मध्यवर्ती और पूंजीगत वस्तुओं के भारी-भरकम आयात ने देश का आयात ख़र्च आसमान पर पहुंचा दिया. नतीजतन 2021 में चालू खाते का घाटा 3.2 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया. मार्च के अंत तक देश का विदेशी मुद्रा भंडार गिरकर महज़ 1.93 अरब अमेरिकी डॉलर रह गया. इसका नतीजा ये हुआ कि देश का दिवाला निकल गया. बहुपक्षीय बेलआउट पैकेज और संप्रभु विकास सहायता के सिवाए वित्तीय बाज़ारों तक किसी तरह की कोई पहुंच नहीं रह गई. 

श्रीलंका की मौजूदा परेशानियों के लिए 2008 में आए वैश्विक आर्थिक संकट और लंबे समय तक चले गृह युद्ध को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. इनके चलते श्रीलंका में विदेशी मुद्रा की आवक कम हो गई. देश का विदेशी मुद्रा भंडार खाली होता गया. नतीजतन श्रीलंका की सरकार को 2009 में IMF से 2.6 अरब अमेरिकी डॉलर का ऋण लेने पर मजबूर होना पड़ा.

इस तरह से मौजूदा संकट विरासती समस्याओं और श्रीलंका की एक के बाद एक तमाम सरकारों के आर्थिक कुप्रबंधन का मिला-जुला परिणाम है. ये दुश्वारियां गृह युद्ध का नतीजा है. 2019 में ईस्टर पर हुई बमबारियों से ये परेशानियां और संगीन हो गईं. कोविड-19 महामारी और ग़लत आर्थिक नीतियों ने इन तकलीफ़ों को और विकराल बना दिया. यूक्रेन संकट के चलते वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में आई रुकावटों से वहां के हालात और भयावह हो गए. 

इस संकट का कारण क्या?

श्रीलंका की मौजूदा परेशानियों के लिए 2008 में आए वैश्विक आर्थिक संकट और लंबे समय तक चले गृह युद्ध को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. इनके चलते श्रीलंका में विदेशी मुद्रा की आवक कम हो गई. देश का विदेशी मुद्रा भंडार खाली होता गया. नतीजतन श्रीलंका की सरकार को 2009 में IMF से 2.6 अरब अमेरिकी डॉलर का ऋण लेने पर मजबूर होना पड़ा. 2016 में श्रीलंका की सरकार ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से दोबारा 1.5 अरब डॉलर तक की मदद मांगी. अर्थव्यवस्था में सकल मांग और उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए चक्रीय प्रभावों की रोकथाम से जुड़ी राजकोषीय नीति अपनाने की बजाए देश की सरकार ने ग़लत आर्थिक विकल्पों का सहारा लिया. चुनाव से पहले किए गए वादे निभाने के लिए राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने दिसंबर 2019 में टैक्स में कटौती का एलान कर दिया. मूल्य वर्धित कर (वैट) की दरों को 15 प्रतिशत से घटाकर 8 प्रतिशत कर दिया गया. कॉरपोरेट टैक्स की दर में 4 फ़ीसदी की कटौती की गई. अप्रत्यक्ष करों (जैसे राष्ट्र-निर्माण टैक्स, कमाई के हिसाब से लगने वाला टैक्स) और आर्थिक सेवा शुल्कों को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया. इन तमाम क़वायदों का नतीजा जीडीपी के 2 प्रतिशत के नुक़सान के रूप में सामने आया. करों में इतनी भारी-भरकम कटौतियां कोविड-19 महामारी के प्रकोप से चंद महीनों पहले लागू की गई. महामारी की आमद के बाद ये संकट और गहरा हो गया. नतीजतन श्रीलंका की अर्थव्यवस्था बेपटरी हो गई. 

विदेशी मुद्रा भंडार में गिरावट रोकने के लिए श्रीलंका की सरकार ने मई 2021 में खाद के आयात पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी. इसके साथ ही श्रीलंका को 100 फ़ीसदी ऑर्गेनिक खेती वाला देश घोषित कर दिया गया. बहरहाल खेती के परंपरागत तौर-तरीक़ों से तत्काल पूरी तरह से ऑर्गेनिक खेती की ओर मुड़ना व्यावहारिक नहीं था. नतीजतन इस क़दम से देश के कृषि पैदावार में भारी गिरावट आ गई. ख़ासतौर से चावल और चाय की उपज में गिरावट से खाद्य महंगाई आसमान छूने लगी. चाय, कॉफ़ी और मसालों जैसे कृषि उत्पादों के निर्यात भी बुरी तरह से प्रभावित हुए. हालांकि आगे चलकर सरकार ने निर्यात सामग्रियों के उत्पादन के लिए खाद के आयात पर से रोक हटा लिया, लेकिन तबतक इन नीतियों ने अपना दुष्प्रभाव दिखा दिया. ज़रूरी वस्तुओं की लगातार जारी किल्लत के बीच उपभोक्ता मूल्यों की महंगाई आज 40 फ़ीसदी तक पहुंच चुकी है. इससे आम लोगों (ख़ासतौर से निम्न सामाजिक-आर्थिक समूहों से ताल्लुक़ रखने वाले) का जीवन बेहद मुश्किल हो गया है. 

विकास की अव्यावहारिक परियोजनाएं

श्रीलंका के आर्थिक संकट के लिए एक और कारक प्रमुख रूप से ज़िम्मेदार है. दरअसल, बुनियादी ढांचे से जुड़ी विकास परियोजनाओं के लिए श्रीलंका ने बड़ी मात्रा में विदेशी कर्ज़ ले लिया. विशेषज्ञों ने इस बात पर भी ग़ौर किया है कि श्रीलंका की अर्थव्यवस्था चीन की कर्ज़ में फंसाने वाली कूटनीति के बोझ तले दब गई है. चीन की सहायता से तैयार हो रहे हम्बनटोटा बंदरगाह पर किया जा रहा निवेश उसकी कर्ज़ में फंसाने वाली कूटनीति का जीता जागता उदाहरण है. इसने श्रीलंका को भारी नुक़सान पहुंचाया है. चीन ने श्रीलंका में मोटे तौर पर अपने सामरिक हितों के हिसाब से निवेश किया है. चीन द्वारा विदेशी मुल्कों को बांटे गए कुल कर्ज़ में श्रीलंका का हिस्सा तक़रीबन 10.8 प्रतिशत हैश्रीलंका अपनी बुनियादी ढांचों की परियोजना के लिए चीनी सरकार की ओर से दिए गए सॉफ़्ट लोन और चीनी वाणिज्यिक बैंकों द्वारा मुहैया कराए गए वाणिज्यिक कर्ज़ों पर ज़बरदस्त रूप से निर्भर रहा है. ये क़वायद श्रीलंका के लिए प्रतिकूल नतीजे देने वाली साबित हुई है. दरअसल, इस तरह के वाणिज्यिक ऋण महंगी ब्याज़ दरों पर उठाए गए. इससे श्रीलंका के राजकोष पर अतिरिक्त बोझ आ गया.  

श्रीलंका के पर्यटन क्षेत्र में 2018 के बाद से 1.8 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी है. कोविड-19 महामारी के बाद विदेशों में रहने वाले प्रवासी श्रीलंकाइयों की तरफ़ से वतन भेजी जाने वाली विदेशी रकम में भी गिरावट आ गई. श्रीलंका की जीडीपी में पर्यटन क्षेत्र का हिस्सा 10 प्रतिशत से भी ज़्यादा है. 

मौजूदा आर्थिक संकट के पीछे देश के पर्यटन क्षेत्र में आई भारी गिरावट को भी ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. श्रीलंका का पर्यटन क्षेत्र अतीत में भारी मुनाफ़े का सबब रहा है. श्रीलंका के पर्यटन क्षेत्र में 2018 के बाद से 1.8 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी है. कोविड-19 महामारी के बाद विदेशों में रहने वाले प्रवासी श्रीलंकाइयों की तरफ़ से वतन भेजी जाने वाली विदेशी रकम में भी गिरावट आ गई. श्रीलंका की जीडीपी में पर्यटन क्षेत्र का हिस्सा 10 प्रतिशत से भी ज़्यादा है. प्रवासियों द्वारा विदेशों से भेजी गई रकम वहां की जीडीपी का तक़रीबन 8 प्रतिशत है. ये दोनों ही श्रीलंका में विदेशी मुद्रा के 2 सबसे बड़े स्रोत रहे हैं. इन दोनों स्रोतों से राजस्व में आई गिरावट के चलते श्रीलंका का विदेशी कर्ज़ अभूतपूर्व रूप से बढ़ गया. आज श्रीलंका पर 51 अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर विदेशी कर्ज़ का बोझ है. मार्च 2022 में उसका विदेशी मुद्रा भंडार गिरकर 1.9 अरब अमेरिकी डॉलर पर आ गया. वहां दहशत और दिवालिएपन के हालात बन गए हैं. देश का विदेशी मुद्रा भंडार आयातों या कर्ज़ के ब्याज़ चुकाने के लिहाज़ से कतई पर्याप्त नहीं है. नतीजतन क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था की रेटिंग घटा दी है और अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाज़ारों में हिस्सा लेने से दूर रहने की सलाह दी. 

श्रीलंका में संकट से निपटने में अपनाई गई ग़लत नीतियां  

संकट गहराते ही श्रीलंका ने अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर दिया. उम्मीद थी कि इससे निवेश जुटाने और प्रवासियों से विदेशी मुद्रा आकर्षित करने में मदद मिलेगी. महंगाई की ऊंची दरों के साथ-साथ मुद्रा के अवमूल्यन से श्रीलंका को निर्यात बढ़ाने में मदद मिलती. बहरहाल श्रीलंका की अर्थव्यवस्था उपभोग द्वारा संचालित विकासशील अर्थव्यवस्था है. उसके पास निर्यात के लिए योग्य बहुत कम सामग्रियां मौजूद हैं. इतना ही नहीं, श्रीलंकाई रुपए में ज़बरदस्त गिरावट (पिछले 2 महीनों में तक़रीबन 75 प्रतिशत) से खाद्य पदार्थों और ईंधन जैसी ज़रूरी वस्तुओं का आयात बहुत महंगा हो गया है. सरकार द्वारा व्यापक अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर पर्याप्त और बुद्धिमानी भरी नीतियां अपनाने की कोई क़वायद नहीं की गई. इसकी बजाए जल्दबाज़ी में और बार-बार अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की मदद मांगे जाने से ये संकट और गहरा हो गया. आख़िर में सरकारी ख़ज़ाने की रकम को ग़ैर-उत्पादक परियोजनाओं में ख़र्च किए जाने से हालात और बदतर हो गए हैं. इन परियोजनाओं में मट्टाला राजपक्षे अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट (दुनिया का सबसे वीरान अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा) और लोटस टावर शामिल है. यही वजह है कि श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था को एशियाई विकास बैंक ने “दोहरे घाटों वाली अर्थव्यवस्था” क़रार दिया है. वहां चालू खाते के घाटे के साथ बजट का अभाव मौजूद है. 

अपने विदेशी मुद्रा भंडार में गिरावट की रोकथाम के लिए श्रीलंकाई सरकार इंटरनेशनल सॉवरिन बॉन्ड्स (ISBs) का भी सहारा लेती रही है. इसके अलावा IMF से लगातार कर्ज़ भी जुटाई जाती रही है. आज श्रीलंका पर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का कर्ज़ 12.55 अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर पहुंच चुका है. श्रीलंका के कुल विदेशी ऋण में ISBs का हिस्सा सबसे ज़्यादा है. दूसरे प्रमुख ऋणदाताओं में एशियाई विकास बैंक, जापान और चीन शामिल हैं. बहरहाल IMF की ओर ये ऋण तमाम शर्तों के साथ दिए जाते हैं. इन शर्तों में बजट घाटा कम करना, मुद्रा नीति को सख़्त बनाना, सरकारी सब्सिडियों में कटौती करना और मुद्रा का अवमूल्यन करना शामिल हैं. फ़रवरी 2022 के आंकड़ों के हिसाब से देश में महज़ 2.31 अरब अमेरिकी डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार बचा हुआ था. दूसरी ओर श्रीलंका को कर्ज के ब्याज़ के तौर पर तक़रीबन 4 अरब अमेरिकी डॉलर की रकम चुकानी थी. इसमें 1 अरब अमेरिकी डॉलर के इंटरनेशनल सॉवरिन बॉन्ड्स (ISB) भी शामिल हैं जो जुलाई में परिपक्व या पूरे (mature) हो रहे हैं. यही वो लम्हा है जब श्रीलंका का दिवाला निकल गया. हाल ही में वो तक़रीबन 51 अरब अमेरिकी डॉलर के समूचे विदेशी कर्ज़ का ब्याज़ चुकता करने में नाकाम रहा. बाहरी ऋण के मोर्चे पर ऐसी चिंताजनक हालत के साथ-साथ सरकारी कर्ज़ों में इज़ाफ़े से मौजूदा समय में वैश्विक निवेशकों के बीच श्रीलंका की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़े हो गए हैं. 

सरकार ने निर्यात को बढ़ावा देने के मक़सद से IMF के दिशानिर्देशों का पालन करने के लिए मार्च में मुद्रा में 15 फ़ीसदी का अवमूल्यन कर दिया. हालांकि इस क़दम से श्रीलंकाई रुपए का भाव गिर गया और अर्थव्यवस्था में महंगाई का स्तर ऊपर चला गया. नतीजतन आज डॉलर के मुक़ाबले श्रीलंकाई रुपए का भाव 360 के स्तर तक जा पहुंचा है.

साफ़ ज़ाहिर है कि श्रीलंका का मौजूदा संकट अनेक ऐसे कारकों का नतीजा है जो एक-दूसरे से जुड़े हैं. इनमें बेपरवाह आर्थिक नीतियां, वैश्विक बाज़ारों में रुकावटें और घरेलू सुरक्षा से जुड़े मसले शामिल हैं. मुल्क कर्ज़ के दुष्चक्र में फंसा हुआ है. IMF की मदद हासिल करने के लिए कई शर्तों पर अमल करना ज़रूरी हो गया है. इन शर्तों ने सरकार को कई ज़रूरी ख़र्च करने से रोक रखा है. इससे अर्थव्यवस्था की रफ़्तार मंद पड़ गई है. नतीजतन देश को बार-बार IMF की शरण में जाना पड़ रहा है. इस तरह ऋण से जुड़ी क़वायदों का एक अंतहीन चक्र शुरू हो गया है. मिसाल के तौर पर सरकार ने निर्यात को बढ़ावा देने के मक़सद से IMF के दिशानिर्देशों का पालन करने के लिए मार्च में मुद्रा में 15 फ़ीसदी का अवमूल्यन कर दिया. हालांकि इस क़दम से श्रीलंकाई रुपए का भाव गिर गया और अर्थव्यवस्था में महंगाई का स्तर ऊपर चला गया. नतीजतन आज डॉलर के मुक़ाबले श्रीलंकाई रुपए का भाव 360 के स्तर तक जा पहुंचा है. इस तरह ये दुनिया की सबसे फिसड्डी मुद्रा बन गई है.     

मार्च 2022 में IMF द्वारा श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था के आकलन से ये बात सामने आई थी कि सरकारी कर्ज़ “अव्यावहारिक स्तरों” तक जा पहुंचे हैं और विदेशी मुद्रा भंडार अल्पकालिक ऋण अदायगी के लिहाज़ से अपर्याप्त हैं. यही वजह है कि IMF ने दो टूक कह दिया है कि कर्ज़ का टिकाऊपन बहाल करने के लिए सरकार द्वारा किए गए उपाय अपर्याप्त हैं. उसने श्रीलंका में डेट रिस्ट्रक्चरिंग की ज़रूरत की वक़ालत की है. “कर्ज़ के घनचक्कर” को तोड़ने के लिए ये आवश्यक है कि श्रीलंकाई सरकार कर व्यवस्था को पुनर्गठित करने के लिए एहतियात भरा और चरणबद्ध पहल करे, फ़िजूलख़र्ची कम करे और विदेशी मुद्रा कमाने के वैकल्पिक रास्तों की तलाश करे.  

भारत की “पड़ोसी सर्वप्रथम” नीति  

यहां एक दिलचस्प घटना पर ग़ौर करना ज़रूरी है. दरअसल अपनी अर्थव्यवस्था के संचालन के लिए विदेशी कर्ज़ों पर बढ़ती निर्भरता की श्रीलंकाई व्यवस्था को कठिन समय में चीन और भारत, दोनों ने मुसीबत से उबारा है. चीनी कर्ज़ों पर देश की निर्भरता से श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था अक्सर एक ऐसे चक्र में फंसती चली गई जिसे कर्ज़ का जाल क़रार दिया जा सकता है. दूसरी ओर भारत ने “पड़ोसी सर्वप्रथम नीति” के तहत रिश्तों में मज़बूती लाने और श्रीलंका को मौजूदा संकट से बाहर निकालने में मदद करने का रास्ता अपनाया है. भारत अबतक श्रीलंका को कर्ज़, क्रेडिट लाइंस और मुद्रा की अदला-बदली के तौर पर 1.9 अरब अमेरिकी डॉलर की मदद देने की प्रतिबद्धता जता चुका है. इसके अलावा अदला बदली के तौर पर 2 अरब अमेरिकी डॉलर का भी वचन दे चुका है. नवंबर 2021 में भारत ने श्रीलंका को 100 टन नैनो नाइट्रोजन तरल ऊर्वरक उपलब्ध करवाया था. श्रीलंकाई सरकार द्वारा रासायनिक ऊर्वरकों का आयात बंद किए जाने के चलते भारत की ओर से ये मदद दी गई थी. फ़रवरी 2022 में भारत ने श्रीलंका को 50 करोड़ अमेरिकी डॉलर का अल्पकालिक ऋण मुहैया कराया. इस कर्ज़ का मक़सद ऊर्जा मंत्रालय और सिलॉन पेट्रोलियम कॉरपोरेशन द्वारा श्रीलंकाई सरकार की ओर से पेट्रोलियम पदार्थों की ख़रीद में मदद पहुंचाना था. पिछले तीन महीनों में भारत ने श्रीलंका को 2.5 अरब अमेरिकी डॉलर की अतिरिक्त मदद मुहैया कराई है. इनमें ईंधन और खाने-पीने का सामानों के लिए साख की सुविधाएं भी शामिल हैं. मार्च के मध्य से श्रीलंका को भारत की ओर से 2,70,000 मीट्रिक टन डीज़ल और पेट्रोल की सप्लाई की जा चुकी है. इसके अलावा हाल ही में विस्तारित की गई 1 अरब अमेरिकी डॉलर की साख सुविधा के तहत तक़रीबन 40 हज़ार टन चावल की भी आपूर्ति की गई है. रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया (RBI) ने मुद्रा की अदलाबदली के तौर पर 40 करोड़ अमेरिकी डॉलर की सुविधा उपलब्ध कराई है. इसके अलावा एशियन क्लियरेंस यूनियन के तहत सेट्रल बैंक ऑफ़ श्रीलंका द्वारा धारित भुगतान को मुल्तवी कर दिया गया है.  

पिछले तीन महीनों में भारत ने श्रीलंका को 2.5 अरब अमेरिकी डॉलर की अतिरिक्त मदद मुहैया कराई है. इनमें ईंधन और खाने-पीने का सामानों के लिए साख की सुविधाएं भी शामिल हैं. मार्च के मध्य से श्रीलंका को भारत की ओर से 2,70,000 मीट्रिक टन डीज़ल और पेट्रोल की सप्लाई की जा चुकी है. 

  

भारत को श्रीलंका को तमाम ज़रूरी सहायता उपलब्ध कराते रहना चाहिए. हालांकि इस सिलसिले में ज़रूरी एहतियात बरतना आवश्यक है. श्रीलंका की मदद करते हुए भारत अपने सामरिक हितों की रक्षा कर सकेगा. दरअसल, श्रीलंका में अस्थिरता का दौर लंबा खिंचने से भारत पर भी दुष्प्रभाव पड़ सकता है. श्रीलंका में सियासी, सामाजिक, आर्थिक या सुरक्षा के मसलों में किसी भी तरह की अस्थिरता भारत के सामरिक हितों के ख़िलाफ़ है. भौगोलिक तौर पर श्रीलंका का सबसे क़रीबी देश भारत है. श्रीलंका का संकट अगर बेलगाम हो गया तो दक्षिण एशिया में उसके असर और नतीजों की आंच महसूस करने वाला सबसे पहला देश भारत ही होगा. 

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Authors

Aqib Mujtaba

Aqib Mujtaba

Aqib Mujtaba is a Research Analyst at the Institute of Economic Growth Delhi. His areas of research include energy economics growth capital flows. He has ...

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Pravakar Sahoo

Pravakar Sahoo

Pravakar Sahoo teaches Macroeconomics and International Economics to Indian Economic Service (IES) probationers at the Institute of Economic Growth Delhi. He has 20 years of ...

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Samahita Phul

Samahita Phul

Samahita Phul is a Junior Consultant at the Institute of Economic Growth Delhi. Her main areas of research are macroeconomics and monetary economics. She is ...

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