जून 1950 में कम्युनिस्ट देश नॉर्थ कोरिया ने जब दक्षिण कोरिया पर आक्रमण किया, तब से सिओल की सत्ता पर काबिज़ होने वाली सरकारों ने यह मान लिया कि उत्तर कोरिया की सैन्य शक्ति में इज़ाफ़ा दक्षिण कोरिया के अस्तित्व के लिए ख़तरा है और इस बढ़ती ताक़त पर अंकुश लगाना ज़रूरी है. और दक्षिण कोरिया के मौजूदा राष्ट्रपति मून जे इन इसके अपवाद नहीं हैं. दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जे इन ने मई 2017 में देश की सत्ता संभाली, और तब से उत्तर कोरिया की लगातार बढ़ती परमाणु शक्ति पर रोक लगाना उनकी विदेश नीति का सबसे अहम हिस्सा रहा है. अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों की तरह ही मून का भी यह मानना है कि उत्तर कोरिया की बढ़ती परमाणु ताक़त दक्षिण कोरिया के लिए बड़ी चुनौती है और उन्होंने इस पर अंकुश लगाने के लिए गंभीर प्रयास भी किए. उन्होंने ऐसी नीति पर आगे बढ़ने का फैसला किया है जिसके तहत उत्तर कोरिया के साथ ज़्यादा से ज़्यादा कारोबारी रिश्ते बहाल करना और परमाणु अप्रसार के फ़ायदे के बारे में उत्तर कोरिया को बताना शामिल है. इस प्रकार उत्तर कोरिया को आर्थिक रूप से ज़्यादा संपन्न दक्षिण कोरिया के साथ जोड़ने पर प्राथमिकता देना इस नीति का हिस्सा रहा. लेकिन अब जैसे जैसे राष्ट्रपति मून का कार्यकाल ख़त्म होने की ओर बढ़ रहा है अभी भी उत्तर कोरिया को परमाणु ताक़त बनने से रोकने के अपने सबसे बड़े लक्ष्य में पीछे हैं. हाल में ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथ हुई वार्ता के बाद अमेरिका ने हालांकि, दक्षिण कोरिया के साथ मिलकर उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रमों पर अंकुश लगाने के लिए काम करने में दिलचस्पी दिखाई है, यहां तक कि इस इलाक़े में क़ानून के मुताबिक व्यवस्था बहाल करने के लिए जो बाइडेन ने अमेरिका-कोरिया-जापान के बीच सहयोग पर भी बल दिया है. इस लिहाज़ से राष्ट्रपति मून के लिए अपने सबसे बड़े लक्ष्य को पूरा करने का यह बेहद अनुकूल वक़्त है. क्योंकि मून अमेरिकी राष्ट्रपति प्रशासन और जापान सरकार के साथ मिलकर उत्तर कोरिया के परमाणु प्रसार के मंसूबों पर अंकुश लगा सकते हैं.
जो बाइडेन ने अमेरिका-कोरिया-जापान के बीच सहयोग पर भी बल दिया है. इस लिहाज़ से राष्ट्रपति मून के लिए अपने सबसे बड़े लक्ष्य को पूरा करने का यह बेहद अनुकूल वक़्त है.
बाधाओं के ख़िलाफ़ आगे बढ़ना
राष्ट्रपति मून शुरू से ही तमाम बाधाओं के बावजूद इस नीति पर आगे बढ़ते रहे हैं. हालांकि, मून के कुछ पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों ने उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रमों को रोकने के लिए आक्रामक नीति अख़्तियार भी की. लेकिन इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एसोसिएशन (आईएईए) ने साल 1993 को जब यह शंका हुई कि उत्तर कोरिया परमाणु हथियार बना रहा है तब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने उत्तर कोरिया के राष्ट्रपति किम – II – सुंग के साथ मिलकर देश के विवादास्पद परमाणु कार्यक्रम को लेकर एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किया. हालांकि, दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति किम यंग सैम ने इसका तब इसका विरोध किया और कहा कि “हम लोग उनके साथ हाथ नहीं मिला सकते जो परमाणु हथियार बनाने में एक दूसरे के पार्टनर हैं.” राष्ट्रपति ली मुंग बेक (2008-2013) और पार्क गेउन हाई ( 2013-2017) ने घोषणा की कि जब तक उत्तर कोरिया अपने परमाणु कार्यक्रमों को रोकता नहीं है तब तक दक्षिण कोरिया उससे रिश्ते बहाल नहीं करेगा.
लेकिन जैसे ही मून ने देश की सत्ता संभाली तो उन्होंने इस ओर इशारा किया कि वो नॉर्थ कोरिया के सुप्रीम लीडर किम जोंग उन से व्यक्तिगत रूप से मिलने को लेकर गंभीर हैं. आख़िरकार मून ने किम जोंग उन के साथ तीन बार बातचीत की. साल 2018 में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने किम जोंग उन को ‘बारूद, गुस्सा और ताक़त…जो इससे पहले कभी देखा नहीं गया’ जैसे शब्दों से धमकाने की कोशिश भी की. लेकिन उत्तर कोरिया ने परमाणु टेस्ट में बढ़ोतरी कर इसका जवाब दिया. हालांकि, मून ने अपनी नीतियों से अलग रास्ता नहीं अख़्तियार किया बल्कि वो ख़ामोश रहे. उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के प्रशासन को उत्तर कोरिया तक भेजने में सफलता पाई.
दूर है अभी लक्ष्य
लोगों को शक है कि राष्ट्रपति मून की नीतियां क्या निकट भविष्य में नॉर्थ कोरिया की परमाणु ताक़त पर हमेशा से अंकुश लगाने में कामयाब हो पाएंगी. क्योंकि इतिहास इस बात का गवाह है कि उत्तर कोरिया हमेशा से न्यूक्लियर मिसाइल निर्माण से संबंधित नीति पर आगे बढ़ता रहा है. हालांकि, इस दौरान उसने कई तरह के समझौतों को लेकर अपनी सहमति भी जाहिर की है. परमाणु अप्रसार को लेकर उत्तर कोरिया ने दिसंबर 1985 में अपनी सहमति जताई थी. जनवरी 1992 में उत्तर कोरिया इस बात को लेकर दक्षिण कोरिया से सहमत था कि वह ना तो “न्यूक्लियर टेस्ट, उत्पादन, उत्पाद, स्टोर, तैनाती और ना ही न्यूक्लियर हथियारों का इस्तेमाल” करेगा.
साल 2000 में अमेरिकी विदेश मंत्री मैडलिन आलब्राइट के उत्तर कोरिया दौरे के दौरान उत्तर कोरिया अपने बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम और मिसाइल तकनीक के निर्यात को लेकर चर्चा करने पर सहमत था. सितंबर 2005 में छह देशों की वार्ता (दक्षिण, उत्तर कोरिया, चीन, जापान, रूस और अमेरिका ) में उत्तर कोरिया इस बात को लेकर प्रतिबद्ध दिखा कि वह न्यूक्लियर हथियार के कार्यक्रम को छोड़ देगा और इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (आईएईए ) के सुरक्षा मानकों और न्यूक्लियर अप्रसार संधि की शर्तों को अपने देश में लागू करेगा. साल 2012 में उत्तर कोरिया योंगयू में चल रहे यूरेनियम संवर्धन अभियान को रद्द करने और आईएईए के पर्यवेक्षकों को अपने यहां बुलाने के साथ साथ लंबी दूरी की मिसाइल और न्यूक्लियर टेस्टिंग पर पाबंदी लगाने पर सहमत हो गया था.
उत्तर कोरिया इस निष्कर्ष पर पहुंच चुका है कि न्यूक्लियर सैन्य क्षमता उसे अपने पड़ोसियों उत्तर कोरिया और जापान के मुक़ाबले ज़्यादा सैन्य मज़बूती देगा.
लेकिन वास्तविकता में उत्तर कोरिया ने इन समझौतों की शर्तों पर कभी अमल नहीं किया. उत्तर कोरिया ने साल 1980 में पहला परमाणु फैसिलिटी केंद्र बनाया. साल 1994 तक उत्तर कोरिया ने एक या दो परमाणु हथियार भी बना लिए. साल 2006 में उत्तर कोरिया ने भूमिगत न्यूक्लियर टेस्ट को भी अंजाम दिया. साल 2013 और 2016 में दोबारा उत्तर कोरिया ने परमाणु परीक्षण किया. साल 2017 में उत्तर कोरिया ने छठा न्यूक्लियर टेस्ट किया. आज उत्तर कोरिया के बारे में कहा जाता है कि उसके पास कम और मध्यम दूरी, लंबी दूरी और इंटरकॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल मौजूद है.
बावजूद इसके उत्तर कोरिया अपने न्यूक्लियर सैन्य कार्यक्रम को लेकर महत्वाकांक्षी है. इसे ऐसा लगता है कि न्यूक्लियर हथियारों की प्राप्ति इसे अधिकारियों और लोगों के भरोसे को जीतने में मदद करेगा. इतना ही नहीं, उत्तर कोरिया इस निष्कर्ष पर पहुंच चुका है कि न्यूक्लियर सैन्य क्षमता उसे अपने पड़ोसियों उत्तर कोरिया और जापान के मुक़ाबले ज़्यादा सैन्य मज़बूती देगा.
मौजूदा वक्त में उत्तर कोरिया में सख़्त सीमा बंदी लागू है जिसमें चीन के साथ लगने वाली सीमा भी शामिल है. माना जाता है कि इस वजह से उत्तर कोरिया को काफी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है.
चुनौतियां
इन चुनौतियों की पृष्ठभूमि में राष्ट्रपति मून के लिए उत्तर कोरिया की बढ़ती परमाणु शक्ति पर अंकुश लगाने के लक्ष्य को पूरा करना आसान नहीं होगा. उत्तर कोरिया को परमाणु अप्रसार के संबंध में रज़ामंद करने के लिए उन्हें काफी कूटनीतिक कुशलता का परिचय देना पड़ सकता है. उत्तर कोरिया को आर्थिक रूप से दक्षिण कोरिया के साथ जोड़ने के बारे में वो विचार कर सकते हैं. यह उत्तर कोरिया के लिए कुछ बेहद फायदेमंद आर्थिक प्रोजेक्ट जैसे केसोंग औद्योगिक कॉम्पलेक्स के लिए उसे आगे बढ़ा सकता है. यही नहीं उत्तर कोरिया को मौजूदा कोरोना महामारी के दौर में दक्षिण कोरिया राहत सामग्री भी भेज कर उसका भरोसा जीत सकता है. मौजूदा वक्त में उत्तर कोरिया में सख़्त सीमा बंदी लागू है जिसमें चीन के साथ लगने वाली सीमा भी शामिल है. माना जाता है कि इस वजह से उत्तर कोरिया को काफी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है.
इससे भी ज़्यादा ज़रूरी यह है कि दक्षिण कोरिया को अमेरिका और जापान के साथ सहयोग कर उत्तर कोरिया के परमाणु प्रसार कार्यक्रम पर रोक लगा सके. मून के लिए यह सौभाग्य की बात है कि अमेरिका और जापान की सरकार भी उत्तर कोरिया के परमाणु हथियार क्षमता बढ़ाने पर अंकुश लगाने के पक्ष में हैं.
21 मई को वाशिंगटन में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथ अपनी मुलाकात के दौरान मून ने उन्हें बताया कि कोरियाई प्रायद्वीप में कूटनीति से परमाणु अप्रसार के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है. इसे लेकर बाइडेन ने भी उन्हें “अंतर कोरियाई चर्चा, और सहयोग” बढ़ाने में मदद करने का आश्वासन दिया.]
बाइडेन ने “साझा सुरक्षा और समृद्धि, और कानून आधारित व्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए अमेरिका-कोरियाई गणराज्य-जापान के त्रिस्तरीय सहयोग ” पर भी ज़ोर दिया.
राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भरोसा दिया कि उत्तर कोरिया के परमाणु प्रसार पर रोक लगाने के लिए अमेरिका कोरियाई गणराज्य के साथ करीबी सहयोग बनाकर चलेगा”. इतना ही नहीं, बाइडेन ने “साझा सुरक्षा और समृद्धि, और कानून आधारित व्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए अमेरिका-कोरियाई गणराज्य-जापान के त्रिस्तरीय सहयोग ” पर भी ज़ोर दिया.
ज़ाहिर तौर पर वाशिंगटन और टोक्यो भी नॉर्थ कोरिया के न्यूक्लियर मिसाइल कार्यक्रम से पैदा होने वाले सुरक्षा चुनौतियों को लेकर गंभीर है. यह विषय कितना महत्वपूर्ण है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जापान के प्रधान मंत्री योशिहिदे सुगा ने 16 अप्रैल 2021 को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथ मुलाकात के दौरान इन विषयों पर प्रमुखता से चर्चा की थी.
संशयात्मक नीति
यहां इस बात का ज़िक्र करना बेमानी होगा कि राष्ट्रपति मून को नॉर्थ कोरिया के परमाणु कार्यक्रम पर अंकुश लगाने में महत्वपूर्ण शक्तियों का साथ मिलेगा, जैसे कि रूस और चीन – क्योंकि इन दोनों ही देशों ने नॉर्थ कोरिया को लेकर अपनी नीति को बेहद अस्पष्ट रखा है.
हाल के दशक में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में नॉर्थ कोरिया के न्यूक्लियर और मिसाइल टेस्ट को लेकर पाबंदी लगाए जाने को लेकर रूस की बड़ी भूमिका रही है. लेकिन रूस ने कभी भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव का साथ नहीं दिया है. नॉर्थ कोरिया के साथ रूस के कारोबारी संबंध मज़बूत हैं. साल 2019 में रूस और उत्तर कोरिया के बीच कुल 48 मिलियन अमेरिकी डॉलर से भी ज़्यादा का व्यापार हुआ था. रूसी कंपनियां नॉर्थ कोरिया का कोयला, तेल और पेट्रोलियम को दोबारा से दूसरे देशों को निर्यात करती हैं. रूस ने 10000 उत्तर कोरियाई मजदूरों को भी अपने यहां काम करने की अनुमति दी हुई है जिससे उत्तर कोरिया को विदेशी पूंजी कमाने का विकल्प मिल सके.
जहां तक बात चीन की है तो इसने संयुक्त राष्ट्र परिषद के प्रस्तावों में नॉर्थ कोरिया से परमाणु प्रसार कार्यक्रमों पर रोक लगाने की मांग की है. लेकिन चीन इसे लेकर तनिक भी गंभीर नहीं है. चीन को लगता है कि नॉर्थ कोरिया अगर परमाणु प्रसार कार्यक्रमों को छोड़ देगा तो कोरियाई महाद्वीप में एकजुटता बहाल होगी जिससे “नॉर्थ कोरिया का पतन” होगा जो सीमा पर कई तरह की मुश्किलों को बढ़ाएगा.
निष्कर्ष के तौर पर यही कहा जा सकता है कि नॉर्थ कोरिया के परमाणु प्रसार कार्यक्रम को रोकने की तमाम कोशिशों के बावजूद राष्ट्रपति मून अपने लक्ष्य से अभी भी काफी पीछे हैं.
इसके अलावा साल 1961 में उत्तर कोरिया के साथ चीन ने द्वीपक्षीय सहयोग संधि पर हस्ताक्षर किया था जो अपने आप में अनोखा है. इस संधि के मुताबिक दोनों में से किसी भी देश पर अगर कोई दूसरा देश सैन्य आक्रमण करता है तो ऐसी स्थिति में दोनों देश एक दूसरे को फौरन मदद और तो और सैन्य सहायता भी करेंगे. दुनिया भर में और किसी भी मुल्क के साथ दोनों देश की ऐसी रक्षा संबंधी संधि नहीं है. इतना ही नहीं नॉर्थ कोरिया के साथ चीन का कारोबारी रिश्ता भी ज़्यादा रहा है. साल 2019 में कुल 2.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर का व्यापार दोनों देशों के बीच हुआ था.
प्रभावी रणनीति की आवश्यकता
निष्कर्ष के तौर पर यही कहा जा सकता है कि नॉर्थ कोरिया के परमाणु प्रसार कार्यक्रम को रोकने की तमाम कोशिशों के बावजूद राष्ट्रपति मून अपने लक्ष्य से अभी भी काफी पीछे हैं. यही नहीं अब उनके पास वक़्त भी बेहद कम बचा है. उनके कार्यकाल के ख़त्म होने में महज नौ महीने बच गए हैं. उनके लिए ज़रूरी है कि वो अपनी कूटनीतिक प्रयासों का फिर से विश्लेषण करें जिससे कोरियाई प्रायद्वीप को परमाणु हथियार रहित किया जा सके.
नॉर्थ कोरिया की चुनौती से निपटने के लिए जापान और अमेरिका भी त्रीस्तरीय नीति पर जोर दे रहा है. ऐसे में अमेरिका और जापान के सहयोग से राष्ट्रपति मून को नॉर्थ कोरिया के परमाणु प्रसार कार्यक्रम पर अंकुश लगाने के लिए नई नीतियों और तरीक़े को इजाद करने के बारे में सोचना चाहिए
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.