Expert Speak Raisina Debates
Published on Oct 03, 2024 Updated 1 Days ago

दिल्ली और बीजिंग के बीच बातचीत को लेकर दिखाया जा रहा आशावाद थोड़ा जल्दबाजी लगता है, क्योंकि सेनाओं का पीछे हटना एक अस्थायी समाधान है. ये वास्तविक वापसी यानी पहले जैसी स्थिति पर लौटना नहीं है.

भारत-चीन सीमा विवाद: आशावाद के साथ सतर्क रहने की जरूरत

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भारत और चीन के संबंधों में हाल के दिनों में कुछ सुधार दिखा है, लेकिन इस आशावाद को लेकर बढ़ा-चढ़ाकर दावे नहीं किए जाने चाहिए. दोनों देशों के संबंधों को लेकर जो रिपोर्ट आ रही हैं, उससे ये संकेत मिलता है कि भारत और चीन ने अपने मतभेदों को "संकुचित" कर लिया है. कूटनीतिक भाषा में इसका अर्थ "प्रगति" होना है. अपने ताज़ा बयान में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि "सेना के पीछे हटने संबंधी" 75 प्रतिशत समस्याओं का समाधान हो गया है, लेकिन वास्तव में प्रगति कितनी हुई है, इसकी जांच की जानी चाहिए.

1993 का समझौता दोनों पक्षों को वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) की अपनी धारणा तक सैन्य गश्त करने की अनुमति देता है और अगर वो एक-दूसरे की धारणा रेखा को पार करते हैं, तो दोनों पक्षों को मामले को वहीं सुलझाना चाहिए और अपनी सेना को वापस लेना चाहिए.

अगर दोनों देशों के बीच सेना के पीछे लौटने यानी पहले की स्थिति में ले जाने को लेकर हुई पिछली वार्ताओं का इतिहास देखें तो इससे यही संकेत मिलते हैं कि इसके परिणाम बहुत ज़्यादा सकारात्मक नहीं होंगे. दरअसल, इस साल मई में, विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्पष्ट कहा था कि "गश्त के अधिकार" या "गश्त की क्षमता" जैसे मुद्दे लंबित हैं. चीन को पहले की स्थिति बहाल करनी चाहिए. इसका अर्थ ये हुआ कि चीन को पूरी तरह से पीछे हटना चाहिए और अपनी सभी सेना को अप्रैल 2020 से पहले की तैनाती या गैरीसन में वापस ले जाना चाहिए. दोनों देशों के लिए गश्त के अधिकार बहाल करने चाहिए. 1993 और 1996 के समझौतों का सम्मान करना चाहिए. अब सवाल ये है कि 1993 में हुआ समझौता क्या था? दरअसल ये समझौता उन शर्तों को स्पष्ट रूप से निर्धारित करता है जिनके आधार पर दोनों देशों द्वारा सीमा प्रबंधन का काम किया जाना था. 1993 का समझौता दोनों पक्षों को वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) की अपनी धारणा तक सैन्य गश्त करने की अनुमति देता है और अगर वो एक-दूसरे की धारणा रेखा को पार करते हैं, तो दोनों पक्षों को मामले को वहीं सुलझाना चाहिए और अपनी सेना को वापस लेना चाहिए. इसमें ये भी प्रावधान था कि अगर सीमा रेखा को लेकर कोई असहमति उभरती है, दोनों पक्ष संयुक्त रूप से इसका बातचीत से समाधान निकालने के लिए बाध्य हैं. 1993 के समझौते के तहत कोई भी पक्ष बल प्रयोग की धमकी नहीं दे सकता. इसके बाद 1996 में भारत और चीन के बीच एक और समझौता हुआ,जिसमें 12 अनुच्छेद हैं. हर अनुच्छेद एक विशिष्ट मुद्दे को संबोधित करता है. सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि किसी भी पक्ष की क्षमता का इस्तेमाल दूसरे के ख़िलाफ़ नहीं किया जाना चाहिए. इसमें ये प्रावधान था कि जब एक तरफ ब्रिगेड-आकार की सेना के साथ एलएसी के करीब सैन्य अभ्यास आयोजित किया जाता है, तो दूसरी तरफ ब्रिगेड-आकार की सेना को सूचित करना होता है. एलएसी के पार हवाई घुसपैठ पर भी रोक है. एलएसी के दो किलोमीटर के भीतर कोई हथियार नहीं चलाया जा सकता और न ही विस्फोटक का इस्तेमाल किया जा सकता है. एलएसी के करीब बड़ी सेनाओं को तैनात नहीं किया जा सकता है. केवल हल्की गश्त की अनुमति है. इसका उल्लंघन तब हुआ जब चीन ने अप्रैल-मई 2020 में एलएसी के भारत की तरफ के इलाके पर भारी उपकरणों के साथ बड़ी संख्या में सैनिकों को तैनात किया.

यथास्थिति की बहाली: मोदी सरकार की व्यापक जीत?

अगर चीन यथास्थिति बहाल करता है, 1993 और 1996 के समझौतों का सम्मान करके एलएसी पर पूर्व की स्थिति में जाता है तो इसका अर्थ चीन के ख़िलाफ़ भारत की बड़ी जीत होगा. हालांकि, जून 2020 में दोनों देशों के बीच गलवान में खूनी विवाद हुआ, इसमें 20 भारतीय और चीन के चार सैनिकों की जान चली गई थी. इसके बावजूद अगर अप्रैल 2020 से पहले वाली यथास्थिति की बहाली होती है तो ये मोदी सरकार के लिए एक व्यापक कूटनीतिक और घरेलू मोर्चे पर बड़ी जीत होगी. मूल रूप से, इसका मतलब ये होगा कि पूर्वी लद्दाख में विवाद के पांच बिंदुओं पर चीन जो ज़बरदस्ती करना चाह रहा था, उसके ख़िलाफ़ भारत का जवाबी दबाव काम आया. विवाद के ये पांच बिंदु हैं देपसांग बुलगे, गोगरा-हॉट स्प्रिंग्स, गलवान, और पैंगोंग त्सो और डेमचोक के दोनों दक्षिणी क्षेत्र और उत्तरी तट. अगर यहां अप्रैल 2020 से पूर्व की स्थिति बहाल होती है तो इसकी तुलना पाकिस्तान के ख़िलाफ़ मिली कारगिल विजय से की जा सकती है. बस अंतर ये होगा कि यहां उतनी बड़ी जंग और जनहानि नहीं हुई और किसी तीसरे पक्ष ने हस्तक्षेप नहीं किया.

अब सवाल है कि पूर्व स्थिति की व्यापक बहाली का चीन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इतना तो तय है कि अगर चीन अपनी स्थिति से इतने बड़े पैमाने पर पीछे हटता है तो इसके असर तो दिखेंगे.

अब सवाल है कि पूर्व स्थिति की व्यापक बहाली का चीन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इतना तो तय है कि अगर चीन अपनी स्थिति से इतने बड़े पैमाने पर पीछे हटता है तो इसके असर तो दिखेंगे. इसका मतलब होगा शी जिनपिंग और उनके वफादार सिपहसलारों के छोटे से समूह के लिए बड़ी शर्मिंदगी. इस बात की भी संभावना है कि ऐसा होने पर घरेलू मोर्चे में शी जिनपिंग के नेतृत्व वाले शासन की राजनीतिक स्थिति कमज़ोर होगी. कम से कम, इस बात की कल्पना करना कठिन है कि यथास्थिति की बहाली से उनकी पहले से ही कमज़ोर स्थिति और कमज़ोर नहीं होगी. उनकी छवि पर असर तो पड़ेगा. इसका सबसे बुरा प्रभाव ये हो सकता है कि शी जिनपिंग को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) के अध्यक्ष और नेता के रूप में बाहर कर दिया जाए. क्या ऐसा हो सकता है, ये तो समय ही बताएगा. शी जिनपिंग इस संभावित नुकसान से अच्छी तरह बच सकते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि चीन के शासन पर उनकी मज़बूत पकड़ है. एक दशक से ज़्यादा वक्त से शी जिनपिंग चीन पर शासन कर रहे हैं. उ्न्होंने प्रशासन के हर क्षेत्र में खुद को ताकतवर बनाया है. फिर भी ये परिदृश्य या परिणाम भारत के लिए बहुत बड़ी बात होगा क्योंकि ये प्रधानमंत्री मोदी को भारी जीत दिलाएगा. हालांकि ये परिदृश्य अभी भी काल्पनिक है. एक संभावना और है.

"डिसएंगेजमेंट" का मतलब क्या है?

"डिसएंगेजमेंट" को आसान शब्दों में समझें तो इसका मतलब दोनों देशों की सेनाओं के पीछे हटने से लगाया जा सकता है. फिलहाल इसकी जो संभावना चल रही है, उसमें वही शामिल हो सकता है, जिस पर भारत और चीन ने जुलाई 2020, अगस्त 2021 और फरवरी 2021 में बातचीत की थी. जुलाई 2020 की शुरुआत में, दोनों तरफ से 1.5 किलोमीटर का बफ़र ज़ोन बनाया गया और गलवान इलाके से आपसी सहमति से दोनों देशों के सेनाएं पीछे हटीं. ये पहला डिसएंगेजमेंट था. गोगरा पोस्ट-पीपी-17 को चीन और भारत की सेना ने अगस्त 2021 की शुरुआत में पांच किमी का बफ़र ज़ोन बनाकर पारस्परिक रूप से खाली कर दिया गया था. इसके बाद के समझौते में पैंगोंग त्सो के दक्षिण और उत्तरी दोनों किनारों से चीनी सेना को पीछे हटाना और कैलाश रेंज की ऊंचाइयों से भारतीय सेना की वापसी शामिल थी. इसे भारतीय सेना ने अगस्त 2020 के अंत में हासिल किया और इससे उसे इस इलाके की प्रमुख ऊंचाइयों पर कब्जा करने में मदद मिली. जहां तक पैंगोंग त्सो के संबंध है, तो अप्रैल 2020 से पहले भारतीय सेना पैंगोंग त्सो के सबसे पश्चिमी किनारे पर फिंगर 1 से लेकर झील के सबसे पूर्वी किनारे पर स्थित फिंगर 8 तक गश्त करती थी. भारत का दावा है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा फिंगर 8 तक जाती है, जहां उसकी गश्त सीमा समाप्त होती है. अप्रैल 2020 से पहले, भारतीय सैनिक फिंगर 3 के करीब स्थित अपने धन सिंह थापा पोस्ट से फिंगर 8 तक गश्त करते थे. लेकिन चीन का मानना है कि एलएसी फिंगर 4 पर ख़त्म होती है, जबकि भारत का दावा है कि ये फिंगर 8 पर समाप्त होती है. फरवरी 2021 के समझौते के तहत फिंगर 4 और फिंगर 8 के बीच आठ किलोमीटर का बफ़र ज़ोन बनाया गया, जिससे दोनों तरफ से गश्त नहीं हो सकती. भारत ने भी रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण मानी जाने वाली कैलाश रेंज की ऊंचाइयां से अपना कब्जा छोड़ दिया. इस इलाके से सेना हटने के बाद इसी तरह का एक और समझौता हुआ. सैन्य कोर कमांडरों की 16वें दौर की बैठक के बाद सितंबर 2022 में हॉटस्प्रिंग्स या पीपी-15 से भी सेनाएं पीछे हटाई गईं. हालांकि ये सब कुछ आपसी बातचीत से हुआ. इसके बाद बफ़र ज़ोन बने, लेकिन इनकी वजह से भारत को उन बिंदुओं तक कोई भौतिक पहुंच नहीं मिली, जहां तक वो अप्रैल 2020 से पहले गश्त कर सकता था.  

इस इलाके से सेना हटने के बाद इसी तरह का एक और समझौता हुआ. सैन्य कोर कमांडरों की 16वें दौर की बैठक के बाद सितंबर 2022 में हॉटस्प्रिंग्स या पीपी-15 से भी सेनाएं पीछे हटाई गईं. हालांकि ये सब कुछ आपसी बातचीत से हुआ.

अब अगर सरकार देपसांग बुलगे और डेमचोक में विवाद के शेष दो बिंदुओं से "डिसएंगेजमेंट" पर बातचीत करने के लिए आगे बढ़ती है, तो इससे उसी तरह का बफ़र ज़ोन बनाने का जोखिम पैदा होगा, जैसा अन्य विवादित इलाकों में हुआ था. इसका मतलब ये होगा कि भारतीय सेना के लिए गश्त के अधिकारों की कोई बहाली नहीं होगी,अप्रैल 2020 से पहले की स्थिति तो बहुत दूर की बात है. इससे चीनी सेना की पूर्ण वापसी और बीजिंग की ये प्रतिबद्धता सुनिश्चित नहीं हो पाएगी कि वो 1993 और 1996 के समझौतों का सम्मान करेगा. जैसा कि विदेश मंत्रालय ने अपने ताज़ा बयान में स्पष्ट किया है: "दोनों पक्षों को दोनों सरकारों द्वारा अतीत में किए गए प्रासंगिक समझौतों, प्रोटोकॉल और समझ का पूरी तरह से पालन करना चाहिए". लेकिन इस पर अभी तक सहमति नहीं बनी है. संक्षेप में कहें तो भारत और चीन उसी डिसएंगेजमेंट पर बातचीत करेंगे जो उन्होंने पहले की थी. भारत के पूर्व सेना प्रमुख जनरल वी.पी. मलिक के शब्दों में कहें तो भारत के लिए इस बातचीत का सबसे बेहतर परिणाम यही होगा कि वो "गैर-भौतिक निगरानी" कर सकेगा.

इस तरह का समाधान सिर्फ आंशिक राहत के रूप में काम करेगा क्योंकि चीन के पास अभी भी भारत की तरह ही काफी संख्या में सेनाएं तैनात हैं, लेकिन अगर बीजिंग अपने हिस्से के रूप में खाली किए गए क्षेत्र पर फिर से कब्जा करना चाहे या उसे ज़ब्त करना चाहे तो वो अपनी सेनाओं को तेज़ी से जुटा सकता है. इसका उदाहरण चीन द्वारा किए गए कई बुनियादी ढांचे और लॉजिस्टिक उपायों से मिलता है. इनकी वजह से पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा तक चीन तेज़ गति से पहुंच सकता है. 2017 के डोकलाम संकट और उसके बाद अप्रैल-मई 2020 में गलवान में जो विवाद हुआ, उसे देखते हुए चीन ने भारत के साथ पूरी विवादित सीमा पर रेल, सड़क, संचार का एक नया और उन्नत नेटवर्क विकसित किया. पूर्वी लद्दाख से सटे अपने इलाके में चीन ने सड़कों का बुनियादी ढांचा मज़बूत किया है. चीन ने एक नए जी-216 राजमार्ग का निर्माण किया है जो पूर्वी लद्दाख में विवाद वाले सभी क्षेत्रों तक उसे आसान और तेज़ पहुंच प्रदान करता है. जी-216 इस इलाके में पहले से मौजूद जीजे-19 राजमार्ग के समानांतर या उसके विकल्प के रूप में काम करेगा,क्योंकि चीन को यहां एक प्रमुख कमज़ोरी दिखाई देती है. इन दो राजमार्गों को पूरक (सहायक) करने वाला एक और राजमार्ग है जिसे जीजे-695 कहा जाता है. इस पर काम चल रहा है और ये एलएसी से करीब 10 से 15 किलोमीटर दूर है. अगर इसका निर्माण काम भी पूरा हो जाता है तो ये राजमार्ग भविष्य में चीन की सेना को संघर्ष की स्थिति में तेजी से जुटाने में सक्षम बनाएगा. इतना ही नहीं अगर वो चाहें तो इसकी मदद से वो एलएसी पर या उससे आगे के क्षेत्र को जल्दी से ज़ब्त भी कर सकता है, भारतीय सेना के प्रतिरोध को पहले ही रोक सकता है. अगर इतना ही काफ़ी नहीं है तो जुलाई 2024 में जारी सैटेलाइट इमेजरी से पता चलता है कि चीन ने अब एक पुल बनाया है जो पैंगोंग त्सो के उत्तर और दक्षिण तटों को जोड़ता है. अप्रैल 2020 के बाद से चीन ने इस इलाके में जिस तरह बुनियादी ढांचे का निर्माण किया है, उससे चीन को कई फायदे हुए हैं. अब चीन के पास ये क्षमता आ गई है कि वो भारत को गश्त के अधिकार से वंचित करने और बफ़र ज़ोन की स्थापना के लिए मजबूर करने के अलावा संघर्ष की स्थिति में तेज़ी से अपनी सेना को यहां पहुंचा सकता है. ज़ाहिर सी बात है कि दिल्ली और बीजिंग के बीच वर्तमान वार्ता को लेकर जिस तरह आशावाद की हवा चल रही है, उसके बावजूद, भारत को सलाह दी जाएगी कि वह समय से पहले जश्न ना मनाए, क्योंकि सेनाओं के पीछे हटने को लेकर जो बातचीत हो रही है, उसका मतलब अप्रैल 2020 से पहले वाली स्थिति की बहाली का नहीं बल्कि अस्थायी राहत मिलने जैसा होगा.


कार्तिक बोम्माकांति ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में सीनियर फेलो हैं.

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