Published on Mar 16, 2021 Updated 0 Hours ago

अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में हो रहे मौज़ूदा बदलाव और वैश्विक मंदी के असर के चलते रूस के सामने कई चुनौतियों ने मुंह खोल दिया है.

भविष्य के संकेत: अंदरूनी लड़ाईयों में घिरा रूस क्या विश्व शक्ति बनने का सपना पूरा कर पायेगा?

बीते हुए साल 2020 में रूस कई घरेलू और विदेशी बदलावों से प्रभावित नज़र आया. इस दौरान रूस कई परिवर्तनों का साक्षी बना. परिवर्तन की शुरुआत रूस में संवैधानिक बदलावों से हुई, तो इसके बाद कोरोना महामारी और इसके दूरगामी प्रभाव, विपक्ष के नेता एलेक्सी नवलनी को ज़हर देने की साज़िश, बेलारूस, किर्गिस्तान और मॉलदोवा में संकट और अप्रत्याशित नागोर्नो-काराबाख में छिड़ी जंग का भी असर रूस पर पड़ा.

घरेलू मुद्दे

संवैधानिक बदलावों में जो सबसे अहम है वो यह कि रूस में इस प्रस्ताव पर फिर से काम किया गया कि भविष्य में राष्ट्रपति को सिर्फ दो बार ही पद पर बने रहने का मौका मिलेगा. दो राय नहीं कि यह एक सकारात्मक पहल है लेकिन इस प्रक्रिया के ज़रिए राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन ने सैद्धान्तिक रूप से सत्ता पर साल 2036 तक ख़ुद क़ाबिज़ रहने का रास्ता साफ कर लिया, हालांकि उन्होंने अपनी ऐसी मंशा को अभी तक ज़ाहिर नहीं किया है. पुतिन के लिए ऐसा कोई कदम उठाना बेहद आवश्यक था क्योंकि इससे वर्ष 2024 में पुतिन के वारिस के सत्ता पर बैठने के कयासों पर विराम लग गया और दूसरी बात पुतिन की लगातार दिवालिया हो चुके राष्ट्रपति की छवि में भी बदलाव हुआ.

कुछ अन्य बदलावों में महंगाई दर से पेंशन को जोड़ना, न्यूनतम मज़दूरी की गारंटी देना और गे मैरेज़ पर पाबंदी लगाना शामिल रहा. इसके साथ ही राष्ट्रपति की शक्तियों में और इज़ाफ़ा किया गया जिसमें ये प्रस्ताव भी शामिल किया गया कि राष्ट्रपति के प्रस्ताव पर फेडरेशन काउंसिल संवैधानिक और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जजों को उनके पद से हटा सकता है. इसके साथ ही डूमा (संसद का निचला सदन) को कैबिनेट की नियुक्ति के लिए ज़्यादा शक्तियां दी गईं और स्टेट काउंसिल ज़्यादा शक्तियों के साथ संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त एक हिस्सा बना. ज़ाहिर है कि बाद में होने वाले दोनों सुधारों का क्या नतीज़ा निकलता है उसके लिए लंबा इंतज़ार करना पड़ेगा. क्योंकि तभी यह साफ हो सकेगा कि क्या ऐसे बदलावों से पहले से चली आ रही सुपर प्रेसिडेंशियल सिस्टम मज़बूत हुई या फिर इसकी शक्तियों में कमी आई. दरअसल इन सभी सुधारों को एक पैकेज डील की तरह जनादेश के ज़रिए लोगों की स्वीकृति के लिए पेश किया गया.

पुतिन के लिए ऐसा कोई कदम उठाना बेहद आवश्यक था क्योंकि इससे वर्ष 2024 में पुतिन के वारिस के सत्ता पर बैठने के कयासों पर विराम लग गया और दूसरी बात पुतिन की लगातार दिवालिया हो चुके राष्ट्रपति की छवि में भी बदलाव हुआ.

जनादेश की सफलता के साथ कोरोना महामारी के आर्थिक प्रभावों से निपटने की ज़रूरत ने साल 2024 के सवाल को बाकी बचे वर्षों के लिए पृष्ठभूमि में धकेल दिया. कोरोना महामारी ने वैश्विक मंदी को जन्म दिया जिसकी वज़ह से तेल और गैस की कीमतों पर नकारात्मक असर हुआ. आर्थिक विकास मंत्रालय ने आशंका जताई है कि अर्थव्यवस्था में 3.9 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज़ की जाएगी और साल 2021-23 में औसत वार्षिक विकास दर के 3.2 प्रतिशत रहने की उम्मीद है. हालांकि ये आंकड़े अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के आंकड़ों से मेल नहीं खाते हैं और ना ही रूस की ख़ुद की ऑडिट चैंबर इन आंकड़ों की पुष्टि करती है. क्योंकि रूस की ऑडिट चैंबर के मुताबिक़ इन आंकड़ों में और ज़्यादा गिरावट दर्ज़ हो सकती है जो साल 2021-23 में 2 से 2.2 प्रतिशत के बीच रह सकती है.

रूस की अर्थव्यवस्था दरअसल साल 2014 के प्रतिबंधों के असर से धीरे धीरे साल 2017 में बाहर निकल पाई. लेकिन अभी भी यह आंकड़ा विश्व के औसत विकास स्तर से कम है. रूस के लोगों को मौज़ूदा दौर में वाक़ई ख़र्च के लिए उपलब्ध पैसे की कमी से जूझना पड़ रहा है तो साथ ही मुद्रा स्फीति की दर लगातार बढ़ती जा रही है और अर्थव्यवस्था में बेरोज़गारी तेजी से बढ़ रही है जबकि मज़दूरी घटती जा रही है. इसका असर ये हुआ कि रूस के पहले डिप्टी प्रधानमंत्री एंड्री बेलूसोव को अर्थव्यवस्था के मॉडल को अगले 3-4 साल में अपडेट करने की ज़रूरत पर बल देना पड़ा. इतना ही नहीं उन्होंने स्ट्रक्चरल कमियों को दूर करने के साथ अर्थव्यवस्था में विकास के नए अवसर पैदा करने के मक़सद को भी रेखांकित किया है. रूसी अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में हाइड्रोकार्बन पर आय की निर्भरता है जो वास्तव में स्ट्रक्चरल समस्या है और अर्थव्यवस्था में मंदी की शुरुआत होने से पहले से मौज़ूद है. हालांकि, कोरोना महामारी ने इस वक़्त सिर्फ ऐसे कमियों को सामने लाने का काम किया है.

साल 2021 में स्टेट डूमा चुनावों से पहले क्रेमलिन के लिए अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने और विकास करने दोनों की ज़रूरत है और ऐसा नहीं कर पाने का मतलब है सोशल कॉन्ट्रैक्ट से इसकी कड़ी का टूट जाना. जिसके तहत नागरिक कुछ हद तक तो स्थिर अर्थव्यवस्था और बेहतर जीवन स्तर के लिए राजनीतिक संयम का इस्तेमाल कर लेंगे. हालांकि ऐसे वक्त में जब सत्ताधारी समर्थक राजनीतिक दल, युनाइटेड रूस की पॉपुलैरिटी तेजी से घटती जा रही है और यह क़रीब 30 फ़ीसदी के आंकड़े तक पहुंच गई है तो यह काफी नुक़सानदेह हो सकता है.

और बात जब चुनावों की होती है तो रूस के विपक्षी नेता एलेक्सी नवलनी को कौन नज़रअंदाज़ कर सकता है जिनकी रूस की धरती पर ज़हर देने की साज़िश को यूरोपीय लैब के मुताबिक़ नोवोचोक का नया वैरिएंट कहा गया – वो ज़हर जिसने पूरी दुनिया में साल के दूसरे हिस्से में अखबारों के हेडलाइन्स को प्रभावित किया. तमाम पश्चिमी जांचकर्ताओं ने इस ऑपरेशन के लिए फेडरल सिक्युरिटी सर्विस (एफएसबी) को ज़िम्मेदार ठहराया. रूस में गैर व्यवस्थावादी विरोध के सबसे बड़े चेहरे के तौर पर नवलनी की पहचान बनी. ऐसे में उन्हें मारने की साज़िश रचना तमाम विश्लेषकों की राय में यह एक सवाल है कि क्या रूस में 2024 के चुनाव से पहले सीमित दायरे में विरोध की आवाज़ को ख़ामोश करने की यह मौन स्वीकृति  है.

विदेश नीति से जुड़ी प्रमुख घटनाएं

अक्टूबर में नवलनी को ज़हर देने की साज़िश रचने के आरोप में यूरोपियन यूनियन ने रूस के छह प्रमुख शख्सियतों पर पाबंदी लगा दी थी जिसके बाद दिसंबर में रूस ने भी पलटवार करते हुए कई लोगों पर पाबंदियां लगा दी. नवलनी को ज़हर देने की साज़िश वाले प्रकरण के चलते यूरोपियन यूनियन से उपजे तनाव के चलते विदेश मंत्री सरगई लावरोव ने तमाम संवाद ख़त्म करने की चेतावनी तक दे डाली. यह साल 2014 से रूस और पश्चिमी देशों के बीच तल्ख़ होते रिश्ते का चरम था. पहले से ही कुछ गंभीर एजेंडों को लेकर रूस और यूरोपियन यूनियन के बीच तनातनी मौज़ूद थी और द्विपक्षीय संबंध लगातार ख़राब थे.

रूस में गैर व्यवस्थावादी विरोध के सबसे बड़े चेहरे के तौर पर नवलनी की पहचान बनी. ऐसे में उन्हें मारने की साज़िश रचना तमाम विश्लेषकों की राय में यह एक सवाल है कि क्या रूस में 2024 के चुनाव से पहले सीमित दायरे में विरोध की आवाज़ को ख़ामोश करने की यह मौन स्वीकृति  है.

अमेरिका और रूस के बीच हथियारों की बिक्री पर नियंत्रण का एजेंडा अधर में लटका रहा क्योंकि साल बीत जाने के बाद भी नई स्टार्ट संधि के फरवरी 2021 में ख़त्म होने के बावज़ूद कोई पहल नहीं की गई. पहले ही अमेरिका ने आर्म्स कंट्रोल एग्रीमेंट और ओपन स्काइज एग्रीमेंट से एकतरफा बाहर निकलने का फैसला ले लिया था. अब जबकि जो बाइडेन अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति हैं तो नई स्टार्ट संधि के विस्तार के बारे में फिर से उम्मीद जग सकती है. लेकिन हथियारों को नियंत्रण करने के सवाल में अब नया आयाम जुड़ चुका है जो परमाणु हथियारों से आगे जाकर अब साइबर स्पेस और नई तकनीक वाले हथियार को भी शामिल करते हैं.

हथियारों के नियंत्रण के मुद्दे को छोड़कर अमेरिका के साथ रूस के संबंधों में कोई ज़्यादा सुधार होने की गुंजाइश नहीं दिखती है. प्रतिबंधों के स्तर पर रूस किसी भी तरह की राहत की उम्मीद नहीं कर सकता है लिहाज़ा नई सरकार आने के बावज़ूद जिन मामलों पर समझौता नहीं बन पाया है उसमें भविष्य में किसी तरह की सुधार की गुंजाइश भी नज़र नहीं आती है. हाल ही में बड़े स्तर पर अमेरिकी सरकारी एजेंसियों की हैकिंग की ख़बरों के लिए रूस पर उंगलियां उठाई गईं जो ऐसे गंभीर वक़्त में तनाव को बढ़ाता है.

इतना ही नहीं साल 2020 में रूस को अपने पड़ोसियों का विरोध भी झेलना पड़ा. बेलारूस में विरोध प्रदर्शन, किर्गिस्तान में राष्ट्रपति चुनाव नतीज़ों को वोट खरीदने के आरोप में रद्द करना, मोलदोवा में यूरोपियन यूनियन समर्थित अध्यक्ष का चुनाव करना, नागोर्नो काराबाख को लेकर अर्मेनिया और अजरबैजान में भयंकर जंग इसके मिसाल हैं. सभी स्थितियों में रूस ने अपनी स्थिति को संभाल कर रखा लेकिन जिस तरह पड़ोसी देशो के रिश्तों में तल्ख़ी देखी गई उससे पिछले कई वर्षों में हो रहे बदलावों का संकेत मिलता है जिसे मौज़ूदा वास्तविक हालात में प्राथमिकता और देश हित के रूप में वर्णित किया गया.

पहले ही अमेरिका ने आर्म्स कंट्रोल एग्रीमेंट और ओपन स्काइज एग्रीमेंट से एकतरफा बाहर निकलने का फैसला ले लिया था. अब जबकि जो बाइडेन अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति हैं तो नई स्टार्ट संधि के विस्तार के बारे में फिर से उम्मीद जग सकती है. 

एलेक्जेंडर लुकाशेंको की जीत के दावे को यूरोपियन यूनियन द्वारा ना मानने से रूस और पश्चिमी देशों के बीच रिश्तों को संतुलित करने की कोशिशों को भारी धक्का लगा. रूस ने इस डर के बावज़ूद कि सीमा पर इसके एक सहयोगी ने यूरोपियन यूनियन समर्थित सरकार को लाने में मदद की, सैन्य शक्ति द्वारा इसमें हस्तक्षेप नहीं किया. लेकिन सत्तारूढ दल को रूस ने राजनीतिक समर्थन देना नहीं छोड़ा. इससे फिलहाल तो बेलारूस का रूस के पाले में बना रहना तय है और साथ ही रूस में किसी भी तरह के प्रदर्शन को हवा नहीं देने पर सहमति बनती दिखी है. लेकिन बेलारूस की राजनीति के लिए यह अनिश्चित भविष्य की ओर इशारा करता है और एक ऐसे देश में जो कि नाटो स्टेट और इसकी सीमा के बीच बफर के रूप में मौज़ूद है वहां रूस के हितों को मज़बूत करता है.

इसके अलावा पड़ोसी देशों को लेकर सबसे बड़ी चुनौती नागोर्नो काराबाख़ में छिड़ी जंग को लेकर है जिसमें विवादित ज़मीन के लिए तुर्की समर्थित अज़रबैजान और आर्मेनिया आमने सामने आ गए. कम होती सीमाएं आर्मेनिया की हार की ओर संकेत दे रहे थे तो तुर्की ख़ुद को काउकैसेस क्षेत्र में प्रमुख शक्ति के तौर पर दावा करने में जुटा रहा. लेकिन आख़िर में रूस ही वो शक्ति के तौर पर उभर कर सामने आया जिसने लड़ रहे दोनों देशों को बातचीत के टेबल पर लाने की ज़हमत उठाई. इतना ही नहीं रूस ने संतुलन स्थापित करते हुए आर्मेनिया और अज़रबैजान दोनों ही देशों से अपने द्विपक्षीय रिश्तों को बरक़रार रखने में सफलता पाई  जबकि रूस ने सैन्य शक्ति के तौर पर हस्तक्षेप नहीं किया बल्कि एक शांति बहाली करने वाले देश के रूप में हस्तक्षेप किया. हालांकि, इस मामले में तुर्की का हस्तक्षेप करना इस बात को साबित करता है कि रूस इस इलाक़े में अब अकेला शक्तिशाली देश नहीं रह गया. हालांकि, शांति के दस्तावेज़ क्या रूस के लिए जीत या हार की वज़ह बने इसे लेकर अब चर्चा जारी है, हालांकि, यब बात साफ हो गया कि बदलती स्थानीय व्यवस्था में मॉस्को अपने कम होते प्रभाव के बीच ख़ुद की भूमिका तलाशने में जुटा है.

वैश्विक स्तर पर अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्द्धा लगातार बढ़ती जा रही है ऐसे में भविष्य में रूस क्या भूमिका अख़्तियार करता है ये उसकी विदेश नीति के आयाम का संकेत देगा. अब जबकि चीन अपने प्रभावों को लगातार बढ़ाने में लगा है तो रूस के लिए अपनी सामरिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने की योजना के बारे में सोचना होगा और इसके साथ ही अच्छे संबंध बनाए रखना भी होगा. वो भी ऐसे वक्त में जब पश्चिमी देशों के बीच रूस के संतुलन बनाने का दायरा लगातार कम होता जा रहा है.

आख़िर में रूस ही वो शक्ति के तौर पर उभर कर सामने आया जिसने लड़ रहे दोनों देशों को बातचीत के टेबल पर लाने की ज़हमत उठाई. इतना ही नहीं रूस ने संतुलन स्थापित करते हुए आर्मेनिया और अज़रबैजान दोनों ही देशों से अपने द्विपक्षीय रिश्तों को बरक़रार रखने में सफलता पाई  जबकि रूस ने सैन्य शक्ति के तौर पर हस्तक्षेप नहीं किया बल्कि एक शांति बहाली करने वाले देश के रूप में हस्तक्षेप किया. 

यह रूस और भारत के रिश्ते को लेकर भी सवाल पैदा करते हैं. क्योंकि भारत और रूस के बीच लगातार हथियारों को लेकर संबंध विस्तृत हो रहे हैं. हालांकि, भारत ने लगातार चीन के आक्रामक रवैये को लेकर अमेरिका के साथ साथ एशिया में अपनी जैसी सोच रखने वाले देशों के साथ रिश्ते को मज़बूत करने की कोशिशों को भी कम नहीं किया है. 2020 से पहले पूर्वी लद्दाख में हिंसक झड़प होने के बाद रूस ने भारत और चीन के बीच वार्ता का माहौल तैयार किया था. एक ऐसी वैश्विक व्यवस्था के बीच जहां चीन लगातार अपने प्रभाव को बढ़ाने में जुटा है वहां कई इलाकों में भारत और रूस की विदेश नीति में लगातार अंतर देखने को मिल रहा है जो इस बात का संकेत है कि किस तरह अंतर्राष्ट्रीय दबाव दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों पर लगातार असर डाल रहा है. ऐसे में दोनों देशों के लिए अपनी विदेश नीति की स्वायत्तता को बरक़रार रखने के लिए बेहतर संबंध निभाने की बेहद अहम भूमिका है.

निष्कर्ष

साल 2020 में जबकि रूस उत्तराधिकार की लड़ाई लड़ने में व्यस्त है तब कोरोना महामारी का असर, लड़ते झगड़ते पड़ोसी मुल्क, अमेरिका की सत्ता में नए राष्ट्रपति का चुनाव और कई मामलों के बीच यह दरअसल मौज़ूदा अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में बदलाव समेत वैश्विक मंदी की आहट ही है जिसकी वज़ह से रूस के सामने एक साथ कई चुनौतियां मुंह बाये खड़ी हो गई हैं.

सबसे ज़्यादा ज़रूरी स्ट्रक्चरल आर्थिक सुधार, सियासी दलों और उनके नेतृत्व का भविष्य. क्लाइमेट चेंज, चीन की बढ़ती आक्रामकता, अमेरिकी समर्थित पश्चिम देशों से बढ़ती तनातनी और अनिश्चित होती वैश्विक व्यवस्था जैसी तमाम चुनौतियों के निपटारे के लिए लंबा वक़्त लगेगा. ऐसे में क्या मॉस्को विश्व शक्ति के तौर पर अपनी महत्वाकांक्षा को अपनी मौज़ूदा क्षमताओं के साथ मिलान कर पाएगा? क्या पुतिन रूस के सामने आई इन चुनौतियों को लेकर कोई दीर्घकालिक दृष्टिकोण रख पाएगे? ऐसे तमाम सवाल हैं जो भविष्य में पूछे जाने हैं.

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Authors

Nandan Unnikrishnan

Nandan Unnikrishnan

Nandan Unnikrishnan is a Distinguished Fellow at Observer Research Foundation New Delhi. He joined ORF in 2004. He looks after the Eurasia Programme of Studies. ...

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Nivedita Kapoor

Nivedita Kapoor

Nivedita Kapoor is a Post-doctoral Fellow at the International Laboratory on World Order Studies and the New Regionalism Faculty of World Economy and International Affairs ...

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