ग्वाटेमाला में सत्ता तंत्र विरोधी, भ्रष्टाचार विरोधी एक राजनीतिक रूप से नए व्यक्ति के चुनाव जीतने ने ग्वाटेमाला ही नहीं, पूरे लैटिन अमेरिका में लोकतंत्र के प्रति नई उम्मीदें जगा दी हैं. ग्वाटेमाला के बर्नार्डो एरेवलो जैसे उम्मीदवार की जीत, किसी भी देश में हवा के ताज़ा झोंके सरीखी होगी. वो एक विद्वान कूटनीतिज्ञ हैं, जिन्होंने पॉलिटिकल सोशियोलॉजी में पीएचडी कर रखी है. शांति स्थापना की कोशिशों के मामले में भी उन्हें लंबा तजुर्बा रहा है. बर्नार्डो राजदूत रह चुके हैं, और वो संयुक्त राष्ट्र में भी अपने देश की नुमाइंदगी कर चुके हैं. उन्हें अंतरराष्ट्रीय प्रशासन के साथ साथ घरेलू प्रशासन का ही बराबर का अनुभव है. ऐसे उम्मीदवार बमुश्किल ही राजनीति में आते हैं.
बर्नार्डो एरेवलो की जीत ये दिखाती है कि ग्वाटेमाला का लोकतंत्र इतना मज़बूत तो है कि वो एक पूरी तरह से बाहरी शख़्स को राजनीति में दाख़िल होकर, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों में हिस्सा लेने दे और एक ऐसी पार्टी के उम्मीदवार को हराने का भी मौक़ा दे, जो दो दशक से भी ज़्यादा समय से राजनीति कर रही है.
बर्नार्डो एरेवलो की जीत ये दिखाती है कि ग्वाटेमाला का लोकतंत्र इतना मज़बूत तो है कि वो एक पूरी तरह से बाहरी शख़्स को राजनीति में दाख़िल होकर, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों में हिस्सा लेने दे और एक ऐसी पार्टी के उम्मीदवार को हराने का भी मौक़ा दे, जो दो दशक से भी ज़्यादा समय से राजनीति कर रही है. आज के दौर में ये बहुत दुर्लभ बात है. क्योंकि भारत, जर्मनी, अमेरिका, जापान, ब्रिटेन और कनाडा जैसे लोकतांत्रिक देशों में ही दो बड़ी पार्टियों का दबदबा देखा जाता है. ऐसे में बर्नार्डो ने सैंड्रा टोरेस जैसी कद्दावर उम्मीदवार को शिकस्त दी, जो पूर्व राष्ट्रपति की पत्नी हैं और जिनके पास चुनाव लड़ने के लिए अथाह पैसा और क़ानूनी ताक़त भी है.
हालांकि, ये कहने का मतलब ये नहीं है कि ग्वाटेमाला का लोकतंत्र बिल्कुल सही है. हर लोकतांत्रिक देश की तरह ग्वाटेमाला की भी अपनी कमियां हैं. राजनीतिक कुलीन वर्ग ने शासन पर क़ब्ज़ा बना रखा है और वो बर्नार्डो एरेवलो के सुधार कार्यक्रमों को रोकने की पूरी कोशिश करेंगे. हिंसा के ख़तरे का कुरूप चेहरा भी सिर उठा सकता है. फिर भी, ग्वाटेमाला की जनता के लिए ये ऐतिहासिक मौक़ा है, जिन्होंने भ्रष्टाचार और कुशासन के कई झटकों के बावजूद अपने लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी है. बर्नार्डो एरेवलो की जीत का सबसे ज़्यादा श्रेय तो वहां के आम नागरिकों को जाता है, जो ये जानते हैं कि लोकतंत्र को मज़बूत बनाने का काम रोज़मर्रा की चुनौती है.
ये चलन, मतदाताओं के लिए फ़ायदेमंद हो सकता है, जिनके सामने चुनने के लिए अनगिनत दल और उम्मीदवार हैं. इसलिए, अगर कोई नेता ठीक से काम नहीं करता या भ्रष्टाचार करता है, तो मतदाता सत्ताधारी नेता को दंडित भी कर सकते हैं.
जिस दिन ग्वाटेमाला में मतदान हुआ, उसी दिन लैटिन अमेरिका के एक और देश, इक्वाडोर भी चुनाव हुए थे. बदक़िस्मती से इक्वाडोर के चुनाव से पहले भयंकर तनाव और हिंसा का माहौल था. एक पूर्व पत्रकार और भ्रष्टाचार विरोधी अभियान चलाने वाले राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार फर्नांडो विलाविसेंसियो की हत्या कर दी गई थी. फिर भी, मतदाता बड़ी तादाद में अपना वोट देने के लिए निकले, और इक्वाडोर के चुनाव में क़रीब 82 प्रतिशत मतदान हुआ. वहां भी 15 अक्टूबर को जब दूसरे दौर का मतदान होगा, तो मुक़ाबला सत्ता तंत्र की प्रत्याशी लुइसा गोंज़ालेज़ और 35 साल के बाहरी उम्मीदवार डेनियल नोबोआ के बीच होगा. इस समय तो ये साफ़ नहीं है कि इक्वाडोर क्या इक्वाडोर का लोकतंत्र भी ग्वाटेमाला के दिखाए रास्ते पर चलेगा, जहां स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों से शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक परिवर्तन हुआ था.
लैटिन अमेरिका के लोकतांत्रिक चुनावों में बदलाव की बयार
ग्वाटेमाला और इक्वाडोर के चुनाव, पूरे लैटिन अमेरिका क्षेत्र के तीन बड़े बदलावों का संकेत दे रहे हैं.
पहला तो एंटी इनकंबेंसी का है. बर्नार्डो एरेवलो की जीत, लगातार 15वीं बार है, जब लैटिन अमेरिका में मौजूदा राष्ट्रपति उम्मीदवार या पार्टी को शिकस्त मिली है. लैटिन अमेरिका में सत्ता में बैठी पार्टियां या नेता शायद ही कभी दोबारा सत्ता में लौटते हैं. 2011 से अब तक पेरू की जनता ने हर चुनाव में नए राष्ट्रपति का चुनाव किया है. कोलंबिया और मेक्सिको में हुए पिछले चुनावों में इतिहास में पहली बार वामपंथी दल जीतकर सत्ता में पहुंचा है. ये चलन, मतदाताओं के लिए फ़ायदेमंद हो सकता है, जिनके सामने चुनने के लिए अनगिनत दल और उम्मीदवार हैं. इसलिए, अगर कोई नेता ठीक से काम नहीं करता या भ्रष्टाचार करता है, तो मतदाता सत्ताधारी नेता को दंडित भी कर सकते हैं. राजनेताओं के लिए ये सियासी जंग का बड़ा कठोर मैदान है. जहां भ्रष्ट पूर्व राष्ट्रपतियों पर अक्सर मुक़दमा चलता है, उन्हें जेल भेजा जाता है, और पेरू के एलान गार्सिया के मामले में तो उनका अंत आत्महत्या के रूप में होता है.
सबसे अहम बात तो ये है कि लैटिन अमेरिका बार बार ये साबित कर रहा है कि ‘वामपंथ’ और ‘दक्षिणपंथ’ के विचार अब चुनावी राजनीति के लिए पुराने पड़ चुके हैं.
दूसरा चलन ये है कि एक ‘बाहरी’ उम्मीदवार, मामूली या बिना किसी सियासी तजुर्बे के, जनता का भरोसा जीतने वाला चुनाव अभियान चलाकर स्थापित उम्मीदवारों को हरा देता है. बर्नार्डो एरेवलो इसकी सबसे ताज़ा मिसाल भले हों. लेकिन, वो ऐसे उम्मीदवारों के सिलसिले की नई कड़ी हैं, जो 1990 के दशक से ऐसी लहर पर सवार होकर सत्ता तक पहुंच सके हैं. 1990 से 2016 के बीच लैटिन अमेरिका में 21 बाहरी उम्मीदवार या तो जीतकर अपने देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचे हैं, या फिर वो मुक़ाबले में दूसरे स्थान पर रहे हैं. हो सकता है कि एरेवलो के बाद इक्वाडोर में नोबोआ और अर्जेंटीना में
जेवियर माइली भी इसी सिलसिले को आगे बढ़ाएं. लैटिन अमेरिका की सियासत, ऐसे बाहरी उम्मीदवारों के फलने फूलने का बेहतरीन मौक़ा मुहैया कराती है, सत्ता तंत्र के स्थापित सदस्यों को चुनौती देने का मौक़ा देती है, ताकि नए चेहरे प्रशासन में बदलाव ला सकें और कुलीन वर्ग का सत्ता पर शिकंजा कमज़ोर पड़ सके. फिर भी, कई बार ‘बाहरी’ नेता अपने देश के लिए ख़तरनाक भी साबित हो सकता है. जैसे कि वेनेज़ुएला के ह्यूगो शावेज़ और पेरू के अल्बर्टो फुजीमोरी, जो लोकतांत्रिक उम्मीदवारों को हराकर जीते और तानाशाह बन गए.
लैटिन अमेरिका की राजनीति का आख़िरी चलन ‘मिलेनियल राजनेताओं’ का है. इस वक़्त लैटिन अमेरिका में दो मिलेनियल राष्ट्रपति हैं (मतलब वो नेता जो 1981 से 1996 के बीच पैदा हुए थे). चिली में गैब्रिएल बोरिक और एल-साल्वाडोर के नायिब बुकेले. अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में बोरिक और बुकेले अपने अपने देशों की युवा आबादी की कहीं ज़्यादा अच्छी नुमाइंदगी करते हैं. दोनों ही नेता चुनाव प्रचार के आधुनिक तौर-तरीक़े अपनाकर जीतने में सफल हुए. उन्होंने पारंपरिक मीडिया जैसे कि टीवी के बजाय ट्विटर और ट्विच जैसे प्लेटफॉर्म पर अपना ज़्यादा प्रचार किया और कामयाबी हासिल की. सूचना तकनीक के इस युग में ये चलन और बढ़ने ही वाला है. युवा राजनेता मतदाताओं तक पहुंचने के नए नए तरीक़े अपनाएंगे, जिसके लिए न तो उन्हें भारी-भरकम फंडिंग की ज़रूरत होगी न ही बड़े राजनीतिक संपर्कों की.
इन नए चलनों को लेकर इस नतीजे पर पहुंचना अभी जल्दबाज़ी होगी कि इनसे लैटिन अमेरिका पर नकारात्मक असर पड़ेगा या उसका फ़ायदा मिलेगा. लेकिन, इसमें तो कोई शक नहीं है कि लैटिन अमेरिका, लोकतंत्र के अध्ययन का उर्वर मैदान मुहैया कराता है. सबसे अहम बात तो ये है कि लैटिन अमेरिका बार बार ये साबित कर रहा है कि ‘वामपंथ’ और ‘दक्षिणपंथ’ के विचार अब चुनावी राजनीति के लिए पुराने पड़ चुके हैं. अब तो चुनाव, विचारधारा की लड़ाई के बजाय एंटी इनकंबेंसी, प्रशासन, भ्रष्टाचार के साथ साथ हिंसा और रोज़गार जैसे मुद्दों पर लड़े जा रहे हैं.
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