Published on Jul 27, 2022 Updated 0 Hours ago

अंतर्राष्ट्रीय और घरेलू- दोनों मोर्चों पर शिंज़ो आबे की चतुर नीतियों ने दुनिया पर एक अमिट छाप छोड़ी है.

शिंज़ो आबे: जापान की राजनीति से जुड़े ऐसे अनुभवी राजनेता जो भविष्यद्रष्टा थे!

एक शांतिप्रिय देश जो अपने अनुशासन, कठोर मेहनत और नई चीज़ों की खोज के लिए जाना जाता है, जिसने दूसरे विश्व युद्ध की बर्बादी और दो-दो परमाणु हमलों को पीछे छोड़ दिया है, ऐसे देश जापान की दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल है. इन हालात में जब जापान से पूर्व प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे की हत्या की ख़बर पूरी दुनिया में फैली तो लोगों को तगड़ा झटका लगा. आबे की हत्या उस वक़्त की गई जब वो नारा शहर में सड़क के किनारे एक चुनावी रैली के दौरान छोटी सी भीड़ को संबोधित कर रहे थे. आबे की हत्या की ख़बर मिलते ही पूरी दुनिया में तुरंत नाराज़गी फैल गई. इस नाराज़गी की वजह ये थी कि घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय- दोनों कार्यक्षेत्रों में एक राजनीतिक नेता और भविष्यदर्शी के तौर पर शिंज़ो आबे में शानदार ख़ूबियां थीं. आबे के निधन से जापान की राजनीति और वर्तमान में सत्ता की बागडोर संभालने वाली उनकी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (एलडीपी) में एक बड़ा ख़ालीपन पैदा हो गया है. 

आबे की हत्या की ख़बर मिलते ही पूरी दुनिया में तुरंत नाराज़गी फैल गई. इस नाराज़गी की वजह ये थी कि घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय- दोनों कार्यक्षेत्रों में एक राजनीतिक नेता और भविष्यदर्शी के तौर पर शिंज़ो आबे में शानदार ख़ूबियां थीं. 

आबे की हत्या बेहद हैरान करने वाली है. इसका कारण ये है कि जापान में गन का लाइसेंस देने का क़ानून बेहद सख़्त है. जापान में राजनीतिक हिंसा काफ़ी असामान्य है और इससे पहले 1960 में जापान के तत्कालीन पीएम नोबुसुके किशी की चाकू के वार के ज़रिए हत्या की कोशिश की गई थी. ये इत्तफ़ाक़ है कि किशी शिंज़ो आबे के नाना थे. शिंज़ो आबे के हत्यारे 41 साल के जापानी नागरिक के पास घर में बनाई गई बंदूक़ थी. पूर्व प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे को दो गोलियां लगी और अस्पताल में उन्होंने दम तोड़ दिया. 

आबे के बारे में जानिए 

67 साल के शिंज़ो आबे सबसे ज़्यादा समय तक जापान के प्रधानमंत्री रहे. उनका पहला कार्यकाल 2006 से 2007 और दूसरा कार्यकाल 2012 से 2020 के बीच रहा. ख़राब सेहत की वजह से उन्होंने प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया लेकिन पर्दे के पीछे वो सक्रिय रहे. आबे एक सामान्य राजनेता नहीं थे; वो एक ऐसे राजनीतिक परिवार से संबंध रखते थे जिसके दो सदस्य जापान के प्रधानमंत्री रह चुके थे. उनके पास नई सोच की कोई कमी नहीं थी और वो दुनिया के मंच पर जापान की भूमिका को बदलना चाहते थे. आबे ने सबसे पहले एक “मुक्त और खुले इंडो-पैसिफिक” और क्वॉड्रिलेटरल सिक्युरिटी डायलॉग (क्वॉड) के दृष्टिकोण की नींव रखी. क्वॉड एक क्षेत्रीय समूह है जिसके सदस्य देश अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया हैं. 

किशी और आबे- दोनों को राष्ट्रवादी राजनेता माना जाता था. दोनों 1948 के संविधान में लगी पाबंदियों- जिसे अमेरिका की आक्रमणकारी सेना ने लगाया था जिसके तहत जापान को सैन्य ताक़त बनने की मनाही थी और उसे अमेरिका के साथ गठबंधन करके एक युद्धविरोधी देश बने रहना था-  को हटाकर जापान की सेना को मज़बूत बनाने में यक़ीन करते थे. ये न सिर्फ़ एक घरेलू स्तर पर विवादित मुद्दा बना हुआ है बल्कि क्षेत्रीय स्तर पर भी. चीन और दक्षिण कोरिया इसके सख़्त विरोधी हैं क्योंकि विश्व युद्ध से पहले के दौर में दोनों देश जापान के कब्ज़े में थे और जापान की तरफ़ से युद्ध अपराध बेहद भावनात्मक मुद्दा बना हुआ है. 

आबे एक सामान्य राजनेता नहीं थे; वो एक ऐसे राजनीतिक परिवार से संबंध रखते थे जिसके दो सदस्य जापान के प्रधानमंत्री रह चुके थे. उनके पास नई सोच की कोई कमी नहीं थी और वो दुनिया के मंच पर जापान की भूमिका को बदलना चाहते थे.

लेकिन शिंज़ो आबे विवादों से दूर नहीं थे; उन्होंने प्रधानमंत्री रहते हुए यासुकुनी वॉर मेमोरियल का दौरा किया जबकि इसकी वजह से क्षेत्रीय विरोध हो सकता था. यासुकुनी वॉर मेमोरियल की स्थापना 1869 में की गई थी और ये अलग-अलग युद्धों में जान गंवाने वाले 25 लाख जापानी सैनिकों को समर्पित है. इसको लेकर विवाद ये है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद जिन “युद्ध अपराधियों” को जेल में बंद किया गया था और जिन्हें मौत की सज़ा मिली थी, उनका भी नाम इस वॉर मेमोरियल में शहीदों की सूची में है. सैद्धांतिक तौर पर इसी कारण से इस वॉर मेमोरियल को अतीत में जापान के सैन्य आक्रमण के प्रतीक के रूप में देखा जाता है. जब भी जापान की कोई प्रतिष्ठित हस्ती यहां जाती है, उस वक़्त चीन, दक्षिण कोरिया और अमेरिका के द्वारा अलग-अलग स्तर पर विरोध की आवाज़ गूंजती है. 

आबे ने पीएम के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत चीन को लुभाने की कोशिश से की थी लेकिन कोविड महामारी ने उनके सभी प्रयासों पर पानी फेर दिया. उन्हें समझ में आ गया कि चीन के द्वारा अपने फ़ायदे के लिए दूसरों के शोषण की नीति ने इंडो-पैसिफिक के देशों को आंदोलित कर दिया है और इसके ज़रिए वो जापान को चुपचाप तमाशा देखने वाले देश से बदलकर सुरक्षा के मामले में एक सक्रिय भूमिका में लाना चाहते थे. 

भारत से विशेष लगाव

भारत के साथ आबे का मेल-जोल अपने नाना की गोद में बैठे रहने के दौरान हुआ. 1957 में भारत का दौरा करने वाले जापान के पहले प्रधानमंत्री नोबुसुके किशी, शिंज़ो आबे के नाना थे. आबे अक्सर बड़े लगाव के साथ भारत के बारे में उन कहानियों को याद करते थे जिन्हें उन्होंने अपने नाना से सुनी थी. भारत के सबसे बड़े विकास साझेदार के रूप में जापान की भूमिका की शुरुआत 1958 में जापान की तरफ़ से पहले कर्ज़ के साथ शुरू हुई. पीएम आबे के साथ पीएम मोदी का विशेष मेल-जोल था और ये संबंध उस वक़्त से था जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. ये आबे ही थे जिन्होंने दोनों देशों के द्वारा 2016 में नागरिक परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद भारत को परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता दी. चीन की घुसपैठ और विस्तारवाद के बारे में पारस्परिक चिंताओं को साझा करने में भी आबे स्पष्टवादी थे. द्विपक्षीय संबंधों को रूप देने में भी आबे ने निडरतापूर्वक क़दम रखा और भारत की “एक्ट ईस्ट पॉलिसी” में मदद करने के लिए पूर्वोत्तर राज्यों में साझा परियोजनाओं को मंज़ूरी दी. क्वॉड को नया जन्म देने के अलावा आबे द्विपक्षीय एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर में भी शामिल हुए. 

पीएम आबे के साथ पीएम मोदी का विशेष मेल-जोल था और ये संबंध उस वक़्त से था जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. ये आबे ही थे जिन्होंने दोनों देशों के द्वारा 2016 में नागरिक परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद भारत को परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता दी.

इसमें कोई शक की बात नहीं है कि शिंज़ो आबे उभरती नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के भविष्य को देख सकते थे. कुछ वर्गों में उन्हें एक बदलाव लाने वाला व्यक्ति माना जाता था जो पूरे इंडो-पैसिफिक में नई आर्थिक और सुरक्षा संरचना बनाना चाहता था. बेशक वो चीन के उदय को संतुलित करने में जापान के बदलते राष्ट्रीय हितों से प्रेरित थे. आबे चीन के साथ भारत के सीमा विवाद के दौरान भारत का समर्थन करने में झिझके नहीं और वो ताइवान पर चीन के हमले की स्थिति में ताइवान का बचाव करने को लेकर मुखर थे. 

आबे के निधन से जापान अपने रक्षा बजट को बढ़ाने और अपने संविधान में युद्ध विरोधी अनुच्छेद को हटाने की तरफ़ क़दम तेज़ कर सकता है. ये दोनों ऐसे मुद्दे हैं जिनके लिए आबे ने अभियान चलाया था. घरेलू मोर्चे पर आबे से जोड़ा जाने वाला एक और महत्वपूर्ण राजनीतिक दांव उनकी आर्थिक नीतियां हैं जिसे “आबेनॉमिक्स” के रूप में जाना जाता है. व्यवस्थात्मक बदलाव को आगे बढ़ाने जैसे कि श्रम बल में ज़्यादा महिलाओं को शामिल करना और काम-काजी उम्र के लोगों को लाने के लिए इमिग्रेशन नियम को आसान बनाना, ऐसे क़दम थे जिनका उद्देश्य यथास्थिति में आमूल-चूल बदलाव करना था. अंतर्राष्ट्रीय मामलों में आबे इंडो-पैसिफिक को लेकर अपने दृष्टिकोण, एशिया की सुरक्षा संरचना में जापान के लिए ज़्यादा मज़बूत भूमिका और भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों में अपने योगदान की वजह से याद किए जाएंगे. 

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