ये लेख रायसीना फ़ाइल्स 2022 सीरीज़ का हिस्सा है.
हिंद-प्रशांत क्षेत्र के भविष्य के लिए रस्साकशी प्राथमिक तौर पर बिल्कुल साफ़ है: विनाशकारी संघर्षों से परहेज़ करते हुए चीन को दबंगई से रोकना. आख़िरकार, हिंद-प्रशांत का विचार व्यापक रूप से देशों के लिए संगठित होने का सिद्धांत बन चुका है. ये तमाम मुल्क चीन की ताक़त के प्रबंधन और संतुलन की जुगत में लगे हैं. बहरहाल इन दिनों हिंद-प्रशांत के लिए एक और होड़ दिख रही है. दरअसल इसे हिंद-प्रशात के विचार को लेकर संघर्ष बताना ज़्यादा मुनासिब होगा. ये टकराव चीनी चुनौतियों का जवाब देने के लिए क्षेत्रीय स्तर पर नीतियों का सबसे प्रभावी समूह तैयार करने से जुड़ा है. कूटनीतिक मोर्चे पर इस नई रस्साकशी की रूपरेखा 2021 में खुलकर सामने आ गई. आम तौर पर समान विचार रखने वाले देशों और उनके समूहों ने परस्पर विरोधी दृष्टिकोण सामने रखे.
यूरोपीय देशों को भी ये खुले तौर से स्वीकार करना होगा कि दुनिया में संतुलन और निवारक तेवर आने वाले वक़्त में और ज़रूरी बनते जाएंगे. इसकी वजह ये है कि चीन और रूस के गठजोड़ से यूरेशिया के दोनों छोर पर स्थिरता को ख़तरा है.
क्वॉड्रिलैटरल सिक्योरिटी डायलॉग (क्वॉड) और ऑस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका के बीच त्रिपक्षीय भूक्षेत्रीय सुरक्षा भागीदारी (ऑकस) हिंद-प्रशांत में संतुलनकारी रणनीतियों की ठोस झलक देते हैं. ये पूरक भी हैं: अगर ऑकस से ऑस्ट्रेलिया की स्थिति मज़बूत होती है तो वो क्वॉड में भी एक क़ाबिल भागीदार बन सकता है. बहरहाल इन समूहों के सदस्य देशों के लिए अब असल चुनौती इन अलग-अलग संतुलकारी व्यवस्थाओं में मेलजोल बनाने से जुड़ी है. इसके लिए ज़्यादा समावेशी रुख़ अपनाना होगा. दक्षिणपूर्वी एशियाई देशों का संगठन (आसियान) और यूरोपीय संघ (ईयू) इस रुख़ की वक़ालत करते आ रहे हैं. ख़ासतौर से ऑस्ट्रेलिया को अपनी कथनी और करनी से ये स्पष्ट करना होगा कि किस तरह ऑकस तमाम भागीदारों के हितों को पूरा करता है या कम से कम उनकी स्थिति को कमज़ोर नहीं बनाता है. इस सिलसिले में ऑस्ट्रेलियाई सरकार ये ज़ाहिर कर सकती है कि ऑकस मूल रूप से राष्ट्रों की निवारक क्षमता में सुधार लाने की क़वायद है, ना कि एक नया गठजोड़ खड़ा करने की. दूसरी ओर यूरोपीय देशों को भी ये खुले तौर से स्वीकार करना होगा कि दुनिया में संतुलन और निवारक तेवर आने वाले वक़्त में और ज़रूरी बनते जाएंगे. इसकी वजह ये है कि चीन और रूस के गठजोड़ से यूरेशिया के दोनों छोर पर स्थिरता को ख़तरा है.
ऑकस और उसके बाद: पनडुब्बी से जुड़ी हलचल और गहरे समुद्र की क़वायद
ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिकी टेक्नोलॉजी सौदे को लेकर उठा कूटनीतिक तूफ़ान अब जाना-पहचाना क़िस्सा बन चुका है. दरअसल ऑस्ट्रेलिया ने फ्रांस के नौसैनिक समूह के साथ अत्याधुनिक डीज़ल-इलेक्ट्रिक पनडुब्बियों का बेड़ा तैयार करने का कार्यक्रम अचानक त्याग दिया था.[i] इसकी बजाए सितंबर 2021 में ऑस्ट्रेलिया ने अमेरिका और यूके के साथ परमाणु क्षमता वाली नौकाओं (यूएस वर्जिनिया-श्रेणी या यूके एस्ट्यूट-श्रेणी एसएसएन) की ख़रीद से जुड़े असाधारण समझौते का एलान कर दिया.[ii]
ऑकस के गठन के मौक़े पर ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने कहा था कि “हिंद-प्रशांत का भविष्य हम सबके भविष्य को प्रभावित करेगा.” ब्रिटेन के प्रधानमंत्री की दलील थी कि तीन देशों की ये नई भागीदारी “हिंद-प्रशांत में सुरक्षा और स्थिरता की हिफ़ाज़त के लिए एकजुट होकर काम करेगी.”
फ़्रांस की सरकार ने ऑस्ट्रेलिया द्वारा ठेका रद्द किए जाने को धोख़ा और चालबाज़ी करार दिया. दरअसल इस समझौते से दोनों देशों के बीच व्यापक सामरिक भागीदारी की झलक मिल रही थी.[iii] ऑस्ट्रेलिया की दलील थी कि वो चीन से बढ़ते ख़तरों के मद्देनज़र अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए बेहतरीन फ़ौजी क़ाबिलियत जुटा रहा है. अविश्वास के इस माहौल को हल्का होने में थोड़ा वक़्त लगेगा. हालांकि इससे इन तमाम देशों के मतभेद ज़रूर बेपर्दा हो गए हैं. इस नाटक में एक और किरदार है जिसे “हिंद-प्रशांत” के नाम से जाना जाता है. कुछ साल पहले तक अंतरराष्ट्रीय मसलों में बमुश्किल ये शब्दावली सुनाई देती थी, मगर अब ये एक शक्तिशाली कूटनीतिक मंत्र बन गया है. इस शब्द के कई उपयोगी अर्थ हैं. इसमें वो गूढ़ तथ्य भी शामिल है कि लगातार ताक़तवर और आक्रामक होते जा रहे चीन को लेकर क्या रणनीतियां अपनानी हैं.
ऑकस के गठन के मौक़े पर ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने कहा था कि “हिंद-प्रशांत का भविष्य हम सबके भविष्य को प्रभावित करेगा.” ब्रिटेन के प्रधानमंत्री की दलील थी कि तीन देशों की ये नई भागीदारी “हिंद-प्रशांत में सुरक्षा और स्थिरता की हिफ़ाज़त के लिए एकजुट होकर काम करेगी.” अमेरिका में विदेश नीति को लेकर बड़े-बड़े शिगूफ़े छोड़े जाने की परंपरा रही है. इसी के मुताबिक राष्ट्रपति बाइडेन ने एलान किया कि “आने वाले दशकों में हमारे देशों का भविष्य- और निश्चित रूप से पूरी दुनिया का भी- आज़ाद, खुले और फलते-फूलते हिंद-प्रशांत पर निर्भर करता है.” [iv]
सितंबर 2021 में ही तथाकथित क्वॉड देशों (अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, भारत और जापान) के नेता पहली बार आमने-सामने होने वाली बैठक के लिए इकट्ठा हुए. इस नए सामरिक गठजोड़ को मोटे तौर पर चीन के ख़िलाफ़ कूटनीतिक संतुलन बनाने की क़वायद के तौर पर देखा जाता है. क्वॉड के एजेंडे में ऑकस के मुक़ाबले टकरावों वाले मुद्दे कम हैं. क्वॉड का ज़्यादा ज़ोर “सार्वजनिक वस्तुओं से जुड़े एजेंडे” पर है. इनमें वैक्सीन, टेक्नोलॉजी, पर्यावरण और बुनियादी ढांचे शामिल हैं. सदस्य देश “एक ऐसा क्षेत्र जो हमारी साझी सुरक्षा और समृद्धि की बुनियाद हो, यानी एक आज़ाद और खुला हिंद-प्रशांत, जो समावेशी और लोचदार भी हो” के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जता चुके हैं.[v] ये कार्यक्रम 2022 में भी जारी है. मार्च 2022 में क्वॉड के नेता जल्दबाज़ी में बुलाई गई बैठक में दोबारा इकट्ठे हुए थे. इस मीटिंग का मक़सद सार्वजनिक वस्तुओं से जुड़े एजेंडे को रफ़्तार देना और यूक्रेन पर रूसी चढ़ाई को लेकर आपसी मतभेदों से पार पाना था. हालांकि इन नेताओं ने दोहराया कि क्वॉड का प्राथमिक ज़ोर हिंद-प्रशांत पर ही बना रहना चाहिए.
अगर चीन ने कुछ और तैयारी कर रखी हो, ख़ासतौर से ताइवान के साथ बढ़ते तनावों के मद्देनज़र अगर वो कोई हरकत करता है, तो उस परिस्थिति में क्या किया जाएगा- इसका जवाब ईयू के दस्तावेज़ में नहीं है.
हिंद-प्रशांत के विचार पर कुनबे में कोहराम
कूटनीतिक मोर्चे पर ऑस्ट्रेलिया की सक्रियता से सबको एकजुट करने वाले प्रभावी सिद्धांत के तौर पर हिंद-प्रशांत का विचार सामने आया था. अब वही ऑस्ट्रेलिया इस मसले पर शुरू हुए पारिवारिक विवाद का केंद्र बन गया है. दरअसल अलग-अलग लोकतांत्रिक देश हिंद-प्रशांत को लेकर अपनी जुदा राय रख रहे हैं. फ़्रांस ने पनडुब्बी सौदे के डूबने पर अपना ग़ुस्सा विश्व में हथियारों से जुड़े कारोबार के ख़ालिस व्यापारिक लहज़े में पेश नहीं किया. इसकी बजाए उसने हिंद-प्रशांत में साझा हितों और मूल्यों को आगे बढ़ाने को लेकर “निरंतरता के अभाव”[vi] का ही रोना रोया. दरअसल ऑकस के गठन वाले दिन ही ईयू ने ‘हिंद-प्रशांत में सहयोग की रणनीति’ से जुड़ा अपना दस्तावेज़ जारी किया था. ग़ौरतलब है कि यूरोपीय संघ पर एशिया के तनावपूर्ण भूराजनीतिक हक़ीक़तों की अनदेखी करने का आरोप अक्सर लगता रहा है.
यूरोप ने ज़ोरशोर से अपना रुख़ तो सामने रख दिया, लेकिन बहुपक्षीय कूटनीति, समावेशी क़वायदों और टकरावों से परहेज़ की उसकी गुज़ारिश में कई मुश्किल सवालों के जवाब नहीं हैं. मिसाल के तौर पर अगर चीन ने कुछ और तैयारी कर रखी हो, ख़ासतौर से ताइवान के साथ बढ़ते तनावों के मद्देनज़र अगर वो कोई हरकत करता है, तो उस परिस्थिति में क्या किया जाएगा- इसका जवाब ईयू के दस्तावेज़ में नहीं है. अक्टूबर 2021 आते-आते ताइवान जलसंधि के आर-पार हथियारबंद तनाव बढ़ने लगा था. चीनी के बमवर्षक विमान इस स्वायत्त द्वीप के साथ विवादित हवाई क्षेत्र में रोज़ाना अपनी ताक़त की नुमाइश कर रहे थे. ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने दो टूक कहा है कि “दुनिया में सबसे तेज़ी से आगे बढ़ रहे इलाक़े यानी हिंद-प्रशांत की दशा-दिशा से कई तरीक़ों से 21वीं सदी के आगे की रूपरेखा तय होगी.”[vii] इसमें असलियत में विनाशकारी युद्ध की लगातार बढ़ती आशंकाएं भी शामिल हैं.
बहरहाल, हिंद-प्रशांत एक भौगोलिक स्थान से बढ़कर है: ये एक विचार है, एक लहर है जो वैश्विक कूटनीति को बहा रही है. पिछले कुछ वर्षों में कई शक्तियों और अंतरराष्ट्रीय समूहों ने इस शब्दावली के इस्तेमाल से ये बताने की कोशिश की है कि वो चीन की चुनौती से किस तरह निपट रहे हैं. इनमें अमेरिका, जापान, भारत, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, आसियान, फ़्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड्स, ईयू, ब्रिटेन, ताइवान समेत तमाम देश शामिल हैं.
कुल मिलाकर ऐसा नहीं लगता कि ऑकस की व्यवस्था ने ऑस्ट्रेलिया को आसियान से अलग-थलग कर दिया है. ये बात भी क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि ऑकस के चलते कहीं न कहीं क्वॉड के कमज़ोर पड़ जाने से जुड़ी चिंताएं भी अल्पकालिक साबित हुई हैं.
हिंद-प्रशांत के दबदबे वाला भविष्य तेज़ी से हमारे सामने आ रहा है. 2021 की शुरुआत में राष्ट्रपति जो बाइडेन की अगुवाई वाले नए अमेरिकी प्रशासन ने हिंद-प्रशांत से जुड़े अपने विचार के उभार के साथ एक नया आग़ाज़ किया. अमेरिका ने एक विस्तृत नक़्शा सामने रखा जिसे उसने चीन के साथ ‘प्रतिस्पर्धी सह-अस्तित्व’ का नाम दिया है. ऐसी नीति के साथ भिन्न-भिन्न साथियों और भागीदारों का मज़बूती से जुड़ाव करने वाली क़वायद भी तय थी. जल्द ही राष्ट्रपति बाइडेन के पहले अंतरराष्ट्रीय शिखर सम्मेलन से इसकी भी झलक मिल गई. वो झलक थी- क्वॉड के नेताओं की बैठक (वर्चुअल माध्यमों से) की शुरुआत. कुछ ही महीनों बाद इन्हीं नेताओं की आमने-सामने बैठकर भी बातचीत हुई. हिंद-प्रशांत का ये सद्भाव चीन के ख़िलाफ़ एंकोरेज में कूटनीतिक भिड़ंत के दौरान अमेरिका के मज़बूत रुख़ से भी सामने आया. कुछ ही महीनों बाद कॉर्नवेल में हुए जी7 के शिखर सम्मेलन और ऑस्ट्रेलिया, भारत, दक्षिण कोरिया और दक्षिण अफ़्रीका जैसे अमेरिका के नए लोकतांत्रिक साथियों के साथ भी ऐसी ही तस्वीर सामने आई.[viii] इसके बाद उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नेटो) ने पूरब की ओर अपनी आंखें जमाते हुए चीन की ओर से “व्यवस्थागत चुनौतियों” के ख़तरे की चेतावनी दे दी.[ix] “हिंद-प्रशांत” की शब्दावली अब शिक्षा जगत में प्रयोग होने वाला ग़ुमनाम सा विचार नहीं रह गया है. अब ये व्यापक मतलबों वाली ज़ुबान बन गई है. इससे एक बात की अहमियत सामने आती है: सवाल ये है कि सुरक्षा, अर्थनीति, टेक्नोलॉजी और मूल्यों के सिलसिले में वैश्विक रूप से अहम हिंद-प्रशांत इलाक़े में दबदबा क़ायम करने की चीन की क़वायद को कुंद करने के लिए क्या करने की ज़रूरत है. ये अब वैश्विक कूटनीति में पहले दर्जे का सवाल बन गया है.
समावेशी का ग़ैर-समावेशी से मिलन: अपनाई जाने लायक रणनीति की ओर क़दम
हिंद-प्रशांत की क़वायद विश्व के नक़्शे को व्यावहारिक रूप से एक नया रूप देने की कोशिश है. ये मौजूदा वक़्त और समस्याओं के माक़ूल है. ये क़वायद एशिया-केंद्रित क्षेत्र को नए सिरे से गढ़ती है जिससे प्रशांत और हिंद महासागरों में बढ़ती कनेक्टिविटी और रस्साकशी की झलक मिलती है. इस प्रतिस्पर्धा के पीछे काफ़ी हद तक चीन का विस्तारवादी हित और दबदबा शामिल है. ये दृष्टिकोण कई देशों के लिए उपयोगी है क्योंकि इससे चीनी ताक़त को हल्का और संतुलित करने की क़वायद को बढ़ावा मिलता है और उसकी नए सिरे से व्याख्या होती है. टूटी भौगोलिक सरहदों के आरपार नई भागीदारियों का चक्रव्यूह बनाकर इस मक़सद को साधा जा रहा है. ऐसे में हमारे पास सामूहिक कार्रवाई के लिए एक नाम है; एक बेहद महत्वपूर्ण इलाक़े के लिए कूट शब्द जहां चीन भले ही अहमियत रखता हो लेकिन उसका दबदबा न हो.
मौजूदा वैश्विक विमर्श में अक्सर चीन की तरफ़ से किए गए घुसपैठों और जीत को लेकर उन्मादी क़वायदों, या अमेरिका और चीन के बीच की रस्साकशी के एकतरफ़ा क़िस्सों का बोलबाला रहता है. ऐसे में हिंद-प्रशांत का विचार बेहद उपयोगी विकल्प पेश करता है. ये कई देशों के बीच दृढ़ता और सद्भाव की क़वायद है. ये अपने से अधिक ताक़तवर चीन को एक क्षेत्रीय व्यवस्था में समाहित करने का जुगाड़ है. इस व्यवस्था में दूसरे के अधिकारों का भी सम्मान होता है और अधिकार न होने की स्थिति में उस शक्ति के संतुलन की काट करने की कोशिश भी इसमें जुड़ी होती है. यही सबसे अहम बात है: हिंद-प्रशांत में आपस में प्रतिस्पर्धी एकाकी व्यवस्थाओं (अमेरिका, जापान, ऑकस, क्वॉड) और समावेशी (ईयू, आसियान, भारत) दृष्टिकोण के बीच मेल-जोल क़ायम करना मुमकिन होना चाहिए.
सवाल उठता है कि अगर चीन ज़्यादा ज़ोर-ज़बरदस्ती और अड़ियल विचारों के साथ सामने आता है तो उन हालातों में क्या किया जाएगा. इसके साथ ही यूक्रेन पर हमला बोलने से पहले और जंग के दौरान रूस को चीन की ओर से दिए गए समर्थन से संकेत मिलते हैं कि ईयू के देश चीन से जुड़े सवालों से स्थायी रूप से मुंह नहीं मोड़ सकेंगे.
यहां असल सवाल चीन के बर्ताव को लेकर है. दूसरों की रणनीति इतनी लोचदार होनी चाहिए कि वो समावेशी और एकाकी नीतिगत कार्यसूचियों की धुरी बन सकें और एक-साथ दोनों के तत्वों को बरक़रार रख सकें. हालांकि इस सिलसिले में ग़ौर करने वाली बात ये होगी कि चीन सहअस्तित्व या ज़ोर-ज़बरदस्ती में से किस विचार पर ज़्यादा तवज्जो देने का फ़ैसला करता है. मेरा मानना है कि इस गतिशीलता ने कुछ सालों तक ऑस्ट्रेलियाई नीति को प्रभावित किया है. भले ही ये हमेशा सतह पर ज़ाहिर नहीं रहा और न ही इसके नतीजे अब तक बाध्यकारी बन सके हैं. मिसाल के तौर पर क्वॉड और ऑकस को एक साथ विदेश नीति के केंद्र में रखते हुए ऑस्ट्रेलिया ने चुपचाप दक्षिण पूर्व एशिया में अपने गुट से बाहर के सदस्यों के साथ अपने रिश्ते मज़बूत बना लिए हैं. 2022 में ऑस्ट्रेलिया के संघीय चुनाव अभियान में दोनों प्रमुख पार्टियों के मंचों से इसके प्रमाण मिल जाते हैं.[x] 2021 में ऑस्ट्रेलिया आसियान के साथ व्यापक सामरिक भागीदारी को अंतिम रूप देने वाला पहला देश बन गया.[xi] बहरहाल, ऑकस समझौते से इंडोनेशिया और मलेशिया में थोड़ी देर के लिए चिंताओं का दौर शुरू हो गया था. हालांकि सिंगापुर और फिलीपींस में इस समझौते को बेहतर रूप से स्वीकारा गया. कुल मिलाकर ऐसा नहीं लगता कि ऑकस की व्यवस्था ने ऑस्ट्रेलिया को आसियान से अलग-थलग कर दिया है. ये बात भी क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि ऑकस के चलते कहीं न कहीं क्वॉड के कमज़ोर पड़ जाने से जुड़ी चिंताएं भी अल्पकालिक साबित हुई हैं. भले ही मीडिया में इसको लेकर उत्तेजना और कयासों का दौर रहा हो लेकिन भारत या जापान में आधिकारिक नीतियों के मामले में कोई गंभीर सोच-विचार नहीं हुआ.
हिंद-प्रशांत के विचार का एक केंद्रीय हिस्सा क्षेत्रीय व्यवस्था को आकार देने में मध्यवर्ती ताक़तों (ना चीन और ना ही अमेरिका) के प्रभाव से जुड़ा है. दरअसल हिंद-प्रशांत के विचार का विस्तार इन्हीं ताक़तों (मुख्य रूप से ऑस्ट्रेलिया और जापान) की वर्षों की कूटनीतिक सक्रियता के चलते शांत रूप से हासिल उपलब्धि थी. एक ख़तरे के तौर पर चीन को लेकर गहराती चिंताओं के बीच 2020 और 2021 के संकट के देशों द्वारा चुने गए विकल्पों पर दो अलग-अलग तरह के प्रभाव रहे हैं. इससे हिंद-प्रशांत के विचार के केंद्र में तनाव का इज़हार होता है. एक तरफ़ इसमें समावेशी, बहुध्रुवीय, जोख़िम-प्रबंधन और साझा संसार के आर-पार तमाम देशों के विकल्पों का सवाल है. दूसरी ओर चीन-केंद्रित प्रतिद्वंदिता के बदतर होते जाने से सामरिक संतुलन और निवारक शक्तियों पर ज़ोर देने का दबाव बढ़ता चला जाएगा. कूटनीतिक और समावेशी विचार वाले हिंद-प्रशांत और सैन्य संतुलन और अमेरिका-चीन संघर्ष के बीच का तनाव ऑकस से जुड़े संकट के दौरान बेपर्दा और गहरा हो चुका था.
क्वॉड के भागीदार देशों को सैन्य प्रौद्योगिकी और ऊर्जा से जुड़ी आपूर्तियों में विविधता लाने की क़वायद में भारत की मदद करनी चाहिए. इसके साथ ही हिंद-प्रशांत पर क्वॉड के तवज्जो को दोहराने और पूरी ताक़त से अमल में लाने की दरकार है.
दूसरे देशों और समूहों को हिंद-प्रशांत से जुड़े इन दोनों विचारों (समावेशी और एकाकी) से पार पाने के लिए अपने उन्नत तरीक़े विकसित करने होंगे. मिसाल के तौर पर चीनी दबाव महसूस कर चुके हिंद-प्रशांत के लोकतांत्रिक देश (जैसे ऑस्ट्रेलिया, जापान, भारत, फिलीपींस और ताइवान) इलाक़े में नए सिरे से दिलचस्पी लेने के ईयू के फ़ैसले का स्वागत कर सकते हैं. हालांकि बहुपक्षीय कूटनीति, समावेशी तौर-तरीक़ों और ग़ैर-टकराव वाली नीतियों पर यूरोप के ज़ोर से एक ख़तरा भी जुड़ा है. सवाल उठता है कि अगर चीन ज़्यादा ज़ोर-ज़बरदस्ती और अड़ियल विचारों के साथ सामने आता है तो उन हालातों में क्या किया जाएगा. इसके साथ ही यूक्रेन पर हमला बोलने से पहले और जंग के दौरान रूस को चीन की ओर से दिए गए समर्थन से संकेत मिलते हैं कि ईयू के देश चीन से जुड़े सवालों से स्थायी रूप से मुंह नहीं मोड़ सकेंगे. वो सवाल है- क्या चीन हिंद-प्रशांत में स्थानीय ताक़तों के लिए महज़ क्षेत्रीय ख़तरा होने की बजाए वैश्विक रूप से व्यावस्थागत चुनौती पेश कर रहा है?
क्वॉड के लिए आगे की राह?
भारत और क्वॉड के दूसरे सदस्यों को इस संस्था को लेकर अपनी उम्मीदों को संशोधित करते रहना होगा. भले ही क्वॉड को एकाकी संतुलनकारी उपाय के तौर पर प्रचारित किया गया है, लेकिन इसमें अपने ‘सार्वजनिक वस्तुओं’ के एजेंडे के बूते अधिक समावेशी व्यवस्थाओं का केंद्र बनने की संभावना भी मौजूद है. ‘सार्वजनिक वस्तुओं’ से जुड़ी व्यापक कार्यसूची की ओर बदलाव एक चालाकी भरा क़दम है. इससे कई दूसरे देशों और संस्थाओं में क्वॉड की स्वीकार्यता सुनिश्चित कराने में मदद मिली है. इनमें आसियान और यूरोपीय संघ भी शामिल हैं. क्वॉड को अब वैश्विक कूटनीतिक ढांचे के टिकाऊ और स्थिरता लाने वाले हिस्से के तौर पर स्वीकारा जाने लगा है. इससे क्वॉड को लेकर चीन की ओर से की जाने वाली अधिकतर आलोचनाएं की धार कुंद पड़ गई है. ग़ौरतलब है कि चीन क्वॉड को रोकथाम और टकराव की नीयत वाला और सुरक्षा को लेकर एकाकी रुख़ रखने वाला आंशिक-गठजोड़ मानता है.
हाल के वर्षों में क्वॉड ने काफ़ी प्रगति की है: 2021 में इसके 2 शिखर सम्मेलन हो चुके हैं. मार्च 2022 में इसके नेताओं की वर्चुअल माध्यमों के ज़रिए अल्पकालिक चर्चा भी हुई है. इससे इस संस्था को सभी चार सदस्य देशों की सामरिक नीतियों से जुड़े ढांचे में दी जा रही प्राथमिकता का पता चलता है. इसके साथ ही ऑकस का गठन चीन की कूटनीतिक कुंठा का नया केंद्र बन गया है. मार्च 2022 तक के घटनाक्रमों के हिसाब से देखें तो क्वॉड, ऑकस, फ़ाइव आइज़ और अमेरिका के तमाम द्विपक्षीय गठजोड़ों को चीन कथित तौर पर एक संगठित ‘5432’ रणनीति के हिस्से के तौर पर दिखाना चाहता है.[xii] ये चीन की उस छटपटाहट भरी समझ की मिसाल है कि क्वॉड पर अब विश्वसनीय कूटनीतिक वार नहीं किया जा सकता.
बहरहाल क्वॉड के सामने अब क्षेत्रीय समुदाय को ठोस नतीजे और फ़ायदे देने के वादों पर खरा उतरने की चुनौती है. उसे इसी लक्ष्य पर तवज्जो देना होगा. इनमें दक्षिण पूर्व एशिया को टीका मुहैया कराना और प्रौद्योगिकी के मानकों और प्रशासन में सुधार से जुड़ी क़वायद शामिल हैं. क्वॉड के लिए दूसरे मसले और अवसरों में निम्नलिखित तत्व शामिल हैं:
यूक्रेन मसले पर मतभेदों की रोकथाम या प्रबंधन: क्वॉड देशों को आपसी बातचीत की भरोसेमंद व्यवस्था के ज़रिए अपने मतभेदों के प्रकटीकरण और उनके निपटारे की ठोस कोशिशें करनी चाहिए. रूस पर भारत की निर्भरता से चीन को संतुलित करने से जुड़े भारतीय हितों के प्रति दीर्घकालिक ख़तरे पैदा हो गए हैं. ख़ुद ही कमज़ोर पड़ चुके रूस पर भारत कितनी गंभीरता से निर्भर हो सकता है? क्योंकि कमज़ोर हालत में रूस की चीन पर निर्भरता लगातार बढ़ती जाएगी. क्वॉड के भागीदार देशों को सैन्य प्रौद्योगिकी और ऊर्जा से जुड़ी आपूर्तियों में विविधता लाने की क़वायद में भारत की मदद करनी चाहिए. इसके साथ ही हिंद-प्रशांत पर क्वॉड के तवज्जो को दोहराने और पूरी ताक़त से अमल में लाने की दरकार है.
दूसरे देशों और समूहों के साथ तालमेल बिठाने के अवसरों के हिसाब से ढलना: क्वॉड की व्यस्त कार्यसूची में लाज़िमी तौर पर विस्तार लाए बिना क्वॉड के सदस्यों को ‘क्वॉड प्लस’ में क्रियान्वयन के ख़ास मसलों पर सहयोग से जुड़े शुरुआती अवसरों की पहचान करनी चाहिए. इन मसलों में क्रिटिकल टेक्नोलॉजी, वैक्सीन, जलवायु, आपदा राहत या बुनियादी निवेश शामिल हैं. देशों में ब्रिटेन, फ़्रांस, दूसरे यूरोपीय भागीदार, दक्षिण कोरिया (जहां एक नई सरकार नई शुरुआत के मौक़े दे रही है), दक्षिण पूर्वी एशिया के भागीदारों में से हरेक देश, कनाडा और न्यूज़ीलैंड शामिल हैं.
क्वॉड के देशों को इलाक़े में संभावित सामरिक संकटों और राष्ट्रीय हितों और नीतिगत विकल्पों पर उनके प्रभावों पर बेबाक़ और गोपनीय वार्ताओं से फ़ायदा होगा. इन संभावित संकटों में ताइवान पर चीनी आक्रमण शामिल है.
भविष्य की आकस्मिक घटनाओं का पूर्वानुमान: क्वॉड कोई संधि समझौता नहीं है. इससे गठजोड़ जैसी उम्मीदें रखने पर इसकी शुरुआती कामयाबियां ख़तरे में पड़ जाएंगी. भले ही क्वॉड के देश एक-दूसरे के साथ समान-सोच और भरोसे का एक अहम स्तर तैयार कर रहे हैं, लेकिन ये नीतिगत स्तर पर तत्काल किसी ठोस कार्रवाई में तब्दील नहीं होगा. क्वॉड की सरकारों को उनके देशों (और इलाक़े) के सामने खड़े सुरक्षा जोख़िमों के बारे में साझा समझ विकसित करने में एक दूसरे की मदद करने पर ज़ोर देना होगा. रुकावटों से भरे इस दशक में कई तरह की बाधाएं सामने आ सकती हैं. संभावित सामरिक संकटों का साझा पूर्वानुमान, नीतिगत तालमेल तैयार करने या उम्मीदों में बदलाव लाने की दिशा में पहला क़दम है. मिसाल के तौर पर क्वॉड के देशों को इलाक़े में संभावित सामरिक संकटों और राष्ट्रीय हितों और नीतिगत विकल्पों पर उनके प्रभावों पर बेबाक़ और गोपनीय वार्ताओं (शायद 1.5 ट्रैक के स्वरूप में) से फ़ायदा होगा. इन संभावित संकटों में ताइवान पर चीनी आक्रमण शामिल है.
निष्कर्ष
क्वॉड ने संदेह करने वालों को धता बता दिया है. ये व्यवस्था टिकाऊ नज़र आती है. कुछ आंतरिक मतभेदों से क्वॉड जैसे लचकदार निकाय का मोल ठोस रूप से खुलकर सामने आ जाता है. क्वॉड हिंद-प्रशांत के अहम लोकतांत्रिक देशों के बीच चुपचाप सेतु-निर्माण करने वाले ढांचे की भूमिका निभा सकता है. इन मसलों में रूसी आक्रामकता का जवाब देने के तरीक़ों पर उपजा मतभेद शामिल है. इसके अलावा खुले तौर पर चीन का विरोध करने को लेकर अलग-अलग देशों की जोख़िम उठाने की अलग-अलग क्षमताओं का मसला भी इससे जुड़ा है. साथ ही इंटरनेट गवर्नेंस पर लोकतांत्रिक मूल्य आयद करने के अलग-अलग रुझान भी इन्हीं क़वायदों का हिस्सा हैं. हलचलों से भरी क्षेत्रीय और वैश्विक व्यवस्था में क्वॉड विश्वसनीय वार्ताओं का एक मंच साबित हो सकता है. ये ज़ोर-ज़बरदस्ती की काट करने और स्थिरता सुनिश्चित करने के सिलसिले में दूसरे गठजोड़ों के लिए मिसाल भी क़ायम कर सकता है.
[i] Andrew Greene, Andrew Probyn and Stephen Dziedzic, “Australia to get nuclear-powered submarines, will scrap $90b program to build French-designed subs,” ABC News, September 15, 2021.
[ii] Charbel Kadib, “Weighing up the options – Astute or Virginia Class?,” Defence Connect, November 30, 2021.
[iii] Chris Barrett, “’Crisis of trust’: France snubs Australia as it outlines Indo-Pacific vision,” The Sydney Morning Herald, November 24, 2021.
[iv] Remarks by President Biden, Prime Minister Morrison of Australia, and Prime Minister Johnson of the United Kingdom Announcing the Creation of AUKUS, September 15, 2021.
[v] Joint Statement from Quad Leaders, The White House, September 24, 2021.
[vi] Bruno Tertrais, “France, America and the Indo-Pacific after AUKUS,” Institute Montaigne, September 20, 2021.
[vii] Tsai Ing-wen, “Taiwan and the Fight for Democracy,” Foreign Affairs, November/ December, 2021.
[viii] 2021 Open Societies Statement, G7 Cornwall UK 2021.
[ix] Brussels Summit Communique, North Atlantic Treaty Organization, June 14, 2021.
[x] Prime Minister Scott Morrison’s address to the Lowy Institute, March 7, 2022.; and Opposition Leader Anthony Albanese’s Address to the Lowy Institute, March 10, 2022.
[xi] Minister for Foreign Affairs, Government of Australia.
[xii] Ananth Krishnan, “U.S. trying to build ‘Indo-Pacific NATO’ says China,” The Hindu, March 7, 2022.
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