चीन के राष्ट्रपति बीते सप्ताह सऊदी अरब की अपनी यात्रा पर रियाद पहुंचे तो उनका धूमधाम के साथ स्वागत किया गया. यही वो समय था, जब सऊदी अरब ने तेल की ऊंची क़ीमतों की वजह से अपने बंपर बजट सरप्लस का ऐलान किया और अपने देश को सबसे तेज़ी से बढ़ती जी20 अर्थव्यवस्था के रूप में आगे रखने के साथ ही क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (MBS) की भविष्य के लिए क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को दोबारा डिज़ाइन करने वाली बड़ी-बड़ी योजनाओं को बढ़ावा दिया. ज़ाहिर है कि इसे हासिल करने के लिए सऊदी अरब ना सिर्फ़ आर्थिक बदलाव के बड़े दौर से गुजर रहा है, बल्कि विभिन्न भू-राजनीतिक परिस्थितियों का भी मुक़ाबला कर रहा है.
देखा जाए तो दशकों से हाउस ऑफ सऊद और वॉशिंगटन के बीच घनिष्ठ रिश्तों के साथ रियाद के पारंपरिक भू-राजनीतिक स्थान में मुख्य रूप से एक स्पष्ट पश्चिमी प्रभाव था. संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) के लिए उसकी और पश्चिमी देशों की ऊर्जा सुरक्षा के लिए सऊदी अरब की आंतरिक और बाहरी सुरक्षा दोनों ही लंबे समय से बहुत अहम रही है.
देखा जाए तो दशकों से हाउस ऑफ सऊद और वॉशिंगटन के बीच घनिष्ठ रिश्तों के साथ रियाद के पारंपरिक भू-राजनीतिक स्थान में मुख्य रूप से एक स्पष्ट पश्चिमी प्रभाव था. संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) के लिए उसकी और पश्चिमी देशों की ऊर्जा सुरक्षा के लिए सऊदी अरब की आंतरिक और बाहरी सुरक्षा दोनों ही लंबे समय से बहुत अहम रही है. इस रणनीति के दो प्रमुख भाग हैं: पहला, तेल और गैस की निरंतर एवं निर्बाध आपूर्ति; दूसरा, ऊर्जा मूल्य निर्धारण पर प्रभाव, विशेष रूप से ऑर्गेनाइजेशन ऑफ़ दि पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज (OPEC) यानी तेल उत्पादकों के संगठन के संबंध में. पहले भाग यानी तेल और गैस की निर्बाध आपूर्ति के समक्ष इन दिनों जलवायु परिवर्तन की बड़ी चुनौती है और जिसने नवीकरणीय ऊर्जा की ओर वैश्विक ऊर्जा परिवर्तन को बढ़ावा दिया है. हालांकि, दूसरा विषय यानी मूल्य निर्धारण का मुद्दा राजनीतिक रूप से अस्थिरता की वजह से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बना हुआ है. वर्तमान में यूरोप में यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के दौरान यह मुद्दा विशेषतौर पर चर्चा में है.
अरब देशों तक चीन की पहुंच शी जिनपिंग के लिए जीरो-सम गेम नहीं है यानी एक ऐसी स्थिति नहीं है, जिसमें एक व्यक्ति या समूह किसी अन्य व्यक्ति या समूह के हारने के बाद ही कुछ जीत सकता है. यूएस-सऊदी अरब संबंधों में कड़वाहट के पीछे एक अहम वजह ईरान का मुद्दा है.
स्थिति में लगातर हो रहे बदलावों को संचालित करने वाला या फिर निर्धारित करने वाला दूसरा पहलू अमेरिका और चीन के बीच महाशक्ति बनने की होड़ से पैदा होने वाले हालात हैं. ज़ाहिर है कि खाड़ी के देश इस स्थिति के भंवर में फंसने से बचने की कोशिश कर रहे हैं और इस होड़ में शामिल नहीं हो रहे हैं. इन हालातों के बीच रियाद का OPEC+ के गठन के ज़रिए तेल की क़ीमतों के निर्धारण में अपने प्रभाव के विस्तार का निर्णय, जिसमें मॉस्को भी शामिल है, ने अमेरिका और सउदी अरब के बीच के तनाव को और बढ़ा दिया है. मौज़ूदा परिस्थियों में सामने आ रहे इस तरह की तमाम भू-राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान सऊदी अरब के इतिहास में कुछ अत्यंत कठोर राजनीतिक और सामाजिक बदलावों को लागू करने के बारे में सोच रहे हैं. इन बदलावों में अपनी अर्थव्यवस्था को खोलना, तेल पर अपनी निर्भरता को कम करने की कोशिश करना, इस्लाम को लेकर ज़्यादा उदार रुख़ अख़्तियार करना, जैसे महत्त्वपूर्ण निर्णय शामिल हैं. वैश्विक स्तर पर व्यापक रूप से समर्थित पहलों और इनसे जुड़े ज़ोख़िमों के बावज़ूद, एमबीएस के इन क़दमों का देश की युवा आबादी समर्थन करती है.
चीन को मिला मौक़ा
अमेरिका और सऊदी अरब के बीच मौजूदा विवाद चीन के लिए एक बेहतरीन अवसर की भांति है. हालांकि बीजिंग को यह भी अच्छी तरह से मालुम है कि रियाद अपने निजी हितों के मद्देनज़र पूरी तरह से उसका साथ नहीं देगा. चीन का मानना है कि इस परिस्थिति में सऊदी अरब को एक केंद्रीय और “स्वतंत्र” सोच की ओर खींचना ज़्यादा उचित होगा. अमेरिका की बात करें तो उसके लिए एमबीएस को संतुष्ट करने के लिए राष्ट्रपति बाइडेन द्वारा हाल ही में किए गए प्रयास और बेतरतीब द्विपक्षीय संबंध को दुरुस्त करने के लिए एक फौरी तौर पर उठाए गए कुछ क़दम योजना के मुताबिक़ सटीक साबित नहीं हुए हैं. जहां तक जो बाइडेन की बात है, तो सच्चाई यह है कि एमबीएस ने मॉस्को के साथ मिलकर अमेरिकी में हुए मध्यावधि चुनावों से पहले तेल उत्पादन में कटौती की, जिसने अस्थिर मुद्रास्फ़ीति से उपजे हालात को और ज़्यादा बिगाड़ने का काम किया. बाइडेन, जिन्होंने पहले सऊदी को एक अछूत देश कहा था और जब वहां की रिफाइनरियों पर ईरान समर्थित हूती विद्रोहियों द्वारा ड्रोन से हमला किया गया था, तो उस समय अपनी प्रतिक्रिया देने में अमेरिका की सरकार कथित तौर पर पीछे रह गई थी, अर्थात उसकी प्रतिक्रिया काफ़ी देर से आई थी. उसी समय अमेरिका क्राउन प्रिंस की सूची से बाहर हो गया है. ज़ाहिर है कि एमबीएस मानते हैं कि एक रिपब्लिकन व्हाइट हाउस यानी अमेरिका में रिपब्लिकन की सरकार उनके हितों के साथ अधिक जुड़ी होती है. वर्ष 2021 में अफगानिस्तान से अमेरिका की असफल वापसी ने रियाद और अबु धाबी जैसी राजधानियों में चिंताओं को और अधिक बढ़ाने का काम किया है.
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की सऊदी अरब यात्रा कोई चीन के बढ़ते दबदबे की कहानी नहीं है. देखा जाए तो यह सऊदी अरब की अपने हितों की रक्षा, ज़्यादा स्वतंत्र विदेश नीति की मांग और अमेरिका के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों में अधिक भागीदारी या फिर बराबरी को तलाशने की कहानी है.
सऊदी अरब में वर्ष 2019 में ऑयल फैसिलिटीज यानी तेल सुविधाओं पर हमले की घटना को कम करके आंका गया है और यह दिखाता है कि रियाद आज सुरक्षा को किस प्रकार से आंकता है. इसी तरह से पूरे क्षेत्र में अमेरिका ‘के स्थान पर’ बीजिंग को एक बड़ी ताक़त को रूप में बढ़चढ़ा कर पेश किया जा रहा है, कहने का मतलब यह है कि बीजिंग की मौज़ूदगी को लेकर एक अतिशयोक्तिपूर्ण धारणा बना ली गई है. अरब देशों तक चीन की पहुंच शी जिनपिंग के लिए जीरो-सम गेम नहीं है यानी एक ऐसी स्थिति नहीं है, जिसमें एक व्यक्ति या समूह किसी अन्य व्यक्ति या समूह के हारने के बाद ही कुछ जीत सकता है. यूएस-सऊदी अरब संबंधों में कड़वाहट के पीछे एक अहम वजह ईरान का मुद्दा है. ईरान एक ऐसा देश है, जिसके साथ चीन ने मार्च, 2021 में 25 साल की लंबी रणनीतिक सहयोग साझेदारी पर दस्तख़त किए हैं. कुछ अनुमानों के मुताबिक़ यह साझेदारी लगभग 400 बिलियन अमेरिकी डॉलर की है. देखा जाए तो यह डील काफ़ी हद तक खुद-ब-खुद ऐसे किसी भी तर्क को ख़ारिज़ कर देती है कि चीन एक ऐसा देश है, जो अरब वर्ल्ड की किसी भी सैन्य सहायता के लिए आगे आएगा. इस पूरे रीजन में अमेरिका के प्रभाव में कमी स्पष्ट रूप से प्रतीत हो रही है, इसके बावज़ूद वॉशिंगटन को अभी भी लगता है कि इस क्षेत्र की दशा और दिशा को निर्धारित करने में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका बरक़रार रह सकती है.
चीन को खुश करने की कोशिश
हालांकि, उपरोक्त बातों का यह अर्थ कतई नहीं है कि चीन मैदान में है ही नहीं. पूरे क्षेत्र में बीजिंग का बढ़ता दबदबा जग-ज़ाहिर है और यह क़ाबिले गौर भी है. हालांकि यह चीन की सामरिक मौज़ूदगी के लिहाज़ से सीमित हो सकता है, लेकिन चीन द्वारा इस क्षेत्र में जगह बनाने के लिए अपनी आर्थिक ताक़त का प्रमुखता से उपयोग उल्लेखनीय है. प्रौद्योगिकी उनमें से अग्रणी है, जहां कई देश बीजिंग के विरुद्ध सख़्त रुख अपना रहे हैं. रियाद और बीजिंग के बीच 30 बिलियन अमेरिकी डॉलर के समझौतों का एक बड़ा हिस्सा हुआवेई (Huawei) को जाने वाला है. हुआवेई चीन को इस पूरे क्षेत्र में अहम तकनीक तक गहरी पहुंच प्रदान करती है, विशेष रूप से 5जी इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास. पूरे क्षेत्र में तैनात अमेरिकी सैन्य तकनीक से चीनी टेक की इस क़रीबी ने वॉशिंगटन को बेचैन कर दिया है. हालांकि अमेरिका ने इज़राइल के साथ अपने संबंधों का उपयोग करते हुए उसे बीजिंग के क़रीब जाने से रोकने में कामयाबी हासिल की है, लेकिन खाड़ी देशों के साथ उसे ज़्यादा सफलता नहीं मिली है.
इस क्षेत्र में चीन की दख़लंदाज़ी I2U2 ग्रुप (भारत-इज़राइल-यूएस-यूएई) जैसे नए ‘मिनीलेटरल’ के लिए एक मूलभूत चुनौती पेश करती है. भारत जैसा देश, जिसका चीन की अपेक्षा इस क्षेत्र के साथ ज़्यादा व्यापक और विशाल संयुक्त सैन्य अभ्यास कार्यक्रम है, लेकिन आज जियोपॉलिटिक्स का जियोइकोनॉमिक कंपोनेंट ज़्यादा अहम हो गया है. उदाहरण के लिए I2U2 के भीतर, जबकि भारत ने दर्ज़नों चीनी ऐप्स पर पाबंदी लगा दी है और हुआवेई को अपने देश के पास भी नहीं फटकने देता है, लेकिन संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) ने चीनी टेक कंपनी हुआवेई को अपने देश में काम करने की अनुमति दी है. बीजिंग को कम समय में हितों का यह और अधिक विभाजन हासिल करने की उम्मीद है, क्योंकि वह इस क्षेत्र में अपनी दीर्घकालिक ताक़त को मज़बूत करना चाहता है.
आख़िर में, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की सऊदी अरब यात्रा कोई चीन के बढ़ते दबदबे की कहानी नहीं है. देखा जाए तो यह सऊदी अरब की अपने हितों की रक्षा, ज़्यादा स्वतंत्र विदेश नीति की मांग और अमेरिका के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों में अधिक भागीदारी या फिर बराबरी को तलाशने की कहानी है. एक तरह से रियाद चीन की ख़ुश करने और अमेरिका की बेचैनी बढ़ाने के साथ-साथ अपने क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय रुतबे में इज़ाफ़ा करने के मकसद से काम कर रहा है.
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