Author : Prabhash Ranjan

Published on Oct 04, 2021 Updated 0 Hours ago

संगठन को पूरी तरह अपंग होने से बचाने के लिए सार्क से अफ़ग़ानिस्तान को निलंबित करने के मामले को आगे बढ़ाना

SAARC: दक्षिण एशियाई संघ (सार्क) से अफ़ग़ानिस्तान का निलंबन और अंतर्राष्ट्रीय कानून

न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा सम्मेलन के साथ ही क्षेत्रीय सहयोग के लिए दक्षिण एशियाई संघ (सार्क) के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की प्रस्तावित बैठक को रद्द कर दिया गया. इस बैठक को रद्द करने की वजह यह थी कि पाकिस्तान इस बात पर ज़ोर दे रहा था कि इस सम्मेलन में अफ़ग़ानिस्तान का प्रतिनिधित्व करने के लिए तालिबान को स्वीकृति दी जाए, लेकिन सार्क सदस्य देश इसके लिए सहमत नहीं थे. न्यूयॉर्क में जो भी हुआ वह भविष्य का संकेत है. पाकिस्तान भविष्य में सार्क की बैठकों में तालिबान की हिस्सेदारी को लेकर, वो भी ना सिर्फ़ सचिवालय और संगठन के स्तर पर बल्कि सार्क के विभिन्न प्रकार के विशेष निकायों जैसे साउथ एशियन यूनिवर्सिटी (एसएयू) और सार्क डेवलपमेंट फंड में शामिल होने को लेकर दबाव बनाएगा. दरअसल, इन विशेष निकायों में गर्वनिंग काउंसिल होते हैं जिसमें सभी सार्क सदस्य देश शामिल रहते हैं. और अगर पाकिस्तान इस बात पर ज़ोर देगा कि तालिबान या फिर इसके प्रत्याशियों को इन विशेष निकायों में प्रतिनिधित्व करने का मौका दिया जाए, जो कि भारत को कभी स्वीकार्य नहीं होगा, तब इन संगठनों के विशेष निकायों की बैठक आगे भी नहीं हो पाएगी. इसका नतीजा यह होगा कि ऐसे तमाम संगठन और सार्क पूरी तरह से बेकार हो जाएंगे. किसी भी रूप में सार्क या फिर इसके विशेष निकाय इसकी क्षमता को स्वीकार करने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं. यही नहीं 1.9 बिलियन दक्षिण एशियाई लोगों की शांति और विकास की आकांक्षाओं को भी समझने में यह संगठन नाकाम रहा है जिसकी जड़ में भारत-पाकिस्तान के बीच तल्ख़ियां ज़िम्मेदार हैं.

न्यूयॉर्क में जो भी हुआ वह भविष्य का संकेत है. पाकिस्तान भविष्य में सार्क की बैठकों में तालिबान की हिस्सेदारी को लेकर, वो भी ना सिर्फ़ सचिवालय और संगठन के स्तर पर बल्कि सार्क के विभिन्न प्रकार के विशेष निकायों जैसे साउथ एशियन यूनिवर्सिटी (एसएयू) और सार्क डेवलपमेंट फंड में शामिल होने को लेकर दबाव बनाएगा.

लेकिन सार्क भारत के लिए एक अहम संगठन है. यह अकेला ऐसा बहुआयामी समूह है जहां भारत बेहद प्रभावी है. यह अकेला ऐसा बहुआयामी साधन है जिसके ज़रिए भारत अपने सॉफ्ट पावर का इस्तेमाल चीन की विस्तारवादी नीति के ख़िलाफ़ पूरे दक्षिण एशिया में कर सकता है. एसएयू इसका सबसे बेहतर उदाहरण है कि कैसे भारत सार्क का इस्तेमाल  सॉफ्ट पावर को प्रभावी बनाने के लिए करता है. पिछले दशक में  बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और भूटान के हज़ारों छात्र एसएयू में शिक्षा हासिल कर चुके हैं. ऐसे छात्र अपने मुल्क वापस लौटकर भारत के ब्रांड एंबेसडर बन सकते हैं, जो लंबे समय में कूटनीतिक संबंधों को सकारात्मक दिशा में ले जा सकते हैं. नतीजतन, यह भारत के हित में है कि वह सार्क को मज़बूत करे और संगठन को तालिबान की चुनौतियों से बचाने का विकल्प ढूंढे. तालिबान नेतृत्व में कई ऐसे नेता हैं जो अंतर्राष्ट्रीय आतंकी के तौर पर जाने जाते हैं. और तालिबान हर उन चीजों का प्रतिनिधित्व करता है जो सार्क चार्टर के संगठनात्मक मूल्यों के ख़िलाफ़ जाता है जैसे दक्षिण एशिया क्षेत्र में शांति, स्थिरता और विकास को बढ़ावा देना. ऐसे में इस संबंध में जो अहम विकल्प शेष रह जाता है वह यह है कि सार्क से अफ़ग़ानिस्तान को निलंबित कर दिया जाए.

अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से किसी देश के निष्कासन को लेकर अंतर्राष्ट्रीय कानून

सार्क एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन (आईओ) है लिहाजा इससे जुड़े सवालों के लिए किसी को भी अंतर्राष्ट्रीय कानून की तरफ देखना होगा. सबसे पहले और अहम बात यह देखना है कि क्या अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के बुनियादी दस्तावेज में किसी देश के संगठन से निलंबन या फिर निष्कासन का प्रस्ताव रहता है या नहीं. इस मामले पर अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को दो वर्ग (कैटेगरी) में बांटा जा सकता है. पहला, वो अंतर्राष्ट्रीय संगठन जो किसी सदस्य देश के निलंबन या निष्कासन के प्रस्ताव को साफ तौर पर जाहिर करते हैं. उदाहरण के लिए संयुक्त राष्ट्र चार्टर की अनुच्छेद 6 संयुक्त राष्ट्र महासभा को किसी देश को निलंबित करने का अधिकार देती है, जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सिफारिश पर होता है, अगर संबंधित देश ने लगातार ही संयुक्त राष्ट्र चार्टर का उल्लंघन किया है. इसी तरह संयुक्त राष्ट्र चार्टर की अनुच्छेद 5 संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता से किसी देश के निलंबन की स्वीकृति देती है. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की धाराओं के तहत अनुच्छेद XXVI (2) भी एक सदस्य देश के निलंबन और निष्कासन को प्रभावी बनाता है. अगर संबंधित देश आईएमएफ की धारा के तहत अपने दायित्वों को निभाने में अगर नाकाम हो जाता है, आईएमएफ की शब्दावली में इसे ‘अनिवार्य निष्कासन’ कहा जाता है.

कुछ अंतर्राष्ट्रीय कानूनविदों का मानना है कि अगर अंतर्राष्ट्रीय संगठन की बुनियाद रखने वाले नियमों में किसी सदस्य देश को निलंबित या निष्कासित करने को लेकर कुछ स्पष्ट नहीं कहा गया है तो ऐसे में किसी भी सदस्य देश को संगठन से निलिंबित या फिर निष्कासित कर पाने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है.

दूसरा, कई अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में इसके सदस्य देशों के निलंबन और निष्कासन को लेकर कोई प्रस्ताव नहीं होता है. सार्क दूसरी सूची के अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में आता है. नागेंद्र सिंह जैसे कुछ अंतर्राष्ट्रीय कानूनविदों का मानना है कि अगर अंतर्राष्ट्रीय संगठन की बुनियाद रखने वाले नियमों में किसी सदस्य देश को निलंबित या निष्कासित करने को लेकर कुछ स्पष्ट नहीं कहा गया है तो ऐसे में किसी भी सदस्य देश को संगठन से निलिंबित या फिर निष्कासित कर पाने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है. दूसरी ओर जो विचार वर्षों से चला आ रहा है वह यह है कि अगर अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के नियम किसी देश के निलंबन या फिर निष्कासन को लेकर ख़ामोश है तो अंतर्राष्ट्रीय संगठन के पास  किसी भी देश को निलंबित या निष्कासित करने की निहित शक्ति होती है. अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की इस निहित शक्ति की व्याख्या  नुकसान की भरपाई के संदर्भ में इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस द्वारा प्रदत्त है. कोर्ट का कहना है कि “अंतर्राष्ट्रीय कानून के अंदर, संगठन के पास वो सारी शक्तियां निहित होती हैं, जिसे चार्टर में भले उल्लेख नहीं किया जाता है, लेकिन अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए जब ज़रूरी होता है इन अधिकारों का प्रयोग किया जा सकता है”.

सच में, ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जब अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने सदस्य देशों को निलंबित किया है बावजूद इसके कि निलंबन को लेकर कोई लिखित प्रस्ताव नहीं रहा है. अमेरिकी राज्यों का संगठन – एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था जिसे 1948 में स्थापित किया गया, जिससे अमेरिकी महादेश में आने वाले मुल्कों के बीच सहयोग को बढ़ावा दिया जा सके – 1958 में क्यूबा की क्रांति के बाद इस संगठन ने क्यूबा को इस संगठन से निलंबित कर दिया.

अंतर्राष्ट्रीय कानून के जानकार जिन्होंने इस मामले पर अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की कार्यशैली को देखा है, उनका तर्क है कि अंतर्राष्ट्रीय संगठन से किसी के निलंबन या निष्कासन के लिए तीन तरह की परिस्थितियां ज़िम्मेदार होती है. पहली परिस्थिति वो है जब किसी सदस्य देश की सत्ता लोकतांत्रिक हाथों से  लोकतंत्र विरोधियों के हाथों में चली जाती है. मसलन, अफ्रीकन संघ ने कुछ महीनों पहले ही माली को और साल 2010 में नाइजर को वहां हुए तख़्तापलट के बाद संगठन से बाहर का रास्ता दिखा दिया था. दूसरी परिस्थिति वो है जब मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है. उदाहरण के तौर पर, राष्ट्रमंडल देशों ने 2009 में मानवाधिकार उल्लंघन के मसले पर फिजी को निलंबित कर दिया था, जहां फ्री स्पीच और एकजुट होने पर पाबंदी लगा दी गई थी और बिना आधार के गिरफ्तारी की जाने लगी. तीसरी परिस्थिति वो है जब कोई देश सशस्त्र आक्रमण करता है.

भारत को क्या करना चाहिए?

तालिबान के संबंध में उपरोक्त दो परिस्थितियां पूरी तरह मान्य होती हैं. तालिबान की सत्ता पूरी तरह से अलोकतांत्रिक है और मानवाधिकारों के प्रति इसके शासकों को जरा भी सम्मान नहीं है. तालिबान शासन के तहत अफ़ग़ानिस्तान सार्क के बुनियादी मूल्यों और सिद्धान्तों के लिए बड़ी चुनौती है. इस चर्चा के बाद यह स्पष्ट है कि सार्क के पास किसी सदस्य देश को निलंबित या फिर निष्कासित करने की निहित शक्ति है. हालांकि अंतर्राष्ट्रीय संगठन से किसी सदस्य देश को निलंबित या फिर निष्कासित करना आखिरी विकल्प है, लेकिन भारत को चाहिए कि वह तालिबान के शासन वाले अफ़ग़ानिस्तान के सार्क समूह से निष्कासन के लिए स्थापित प्रक्रियाओं के साथ आगे बढ़े.

 सार्क के मंच से अफ़ग़ानिस्तान के मामले की चर्चा कर तालिबान पर यह दबाव बनाया जा सकता है कि वह कम से कम एक समावेशी सरकार की तो स्थापना कर ही सकता है जो भारत की कई मांगों में से एक है और बुनियादी मानवाधिकारों का वो सम्मान करे.

हालांकि भारत के लिए इसमें एक रुकावट जो आगे आ सकती है वह है सार्क चार्टर की धारा X (1). इसके मुताबिक सभी फैसले सहमति से लिए जाने चाहिए. तालिबान के साथ पाकिस्तान की करीबी को देखते हुए वह ऐसे किसी प्रस्ताव को लेकर वीटो लगा सकता है. फिर भी सार्क के मंच से अफ़ग़ानिस्तान के मामले की चर्चा कर तालिबान पर यह दबाव बनाया जा सकता है कि वह कम से कम एक समावेशी सरकार की तो स्थापना कर ही सकता है जो भारत की कई मांगों में से एक है और बुनियादी मानवाधिकारों का वो सम्मान करे. चूंकि तालिबान अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करने की कोशिश में है और सार्क जैसे संगठन की सदस्यता नहीं खोना चाहेगा, ऐसे में निलंबन का भय उस पर दबाव बनाने में मददगार साबित हो सकता है. इससे भारत को इस क्षेत्र में अपने राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने में मदद मिल सकती है. इससे मृतप्राय हो चुकी सार्क जैसी संस्था में भी सांसों का संचार हो सकेगा और  यह एक ऐसा मंच बन सकेगा जहां दक्षिण एशिया में तालिबान शासन के दुष्प्रभावों को लेकर चर्चा की जा सकेगी.

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