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अमेरिका जब अपने CAATSA क़ानून के तहत प्रतिबंध लगाने या न लगाने का फ़ैसला करेगा, तो उसे भारत की विशिष्ट स्थिति का भी ख़याल करना होगा
पिछले साल दिसंबर में अमेरिका ने अपने क़ानून काउंटरिंग अमेरिकाज़ एडवर्सरीज़ थ्रो सैंक्शन्स एक्ट (CAATSA) के तहत तुर्की पर इसलिए प्रतिबंध लगा दिया था, क्योंकि तुर्की ने रूस से S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम ख़रीदा था. इस बारे में मीडिया से बात करते हुए अमेरिका के तत्कालीन सहायक सचिव क्रिस्टोफर फोर्ड ने कहा था कि, ‘ये फ़ैसला लेकर अमेरिका ये उम्मीद करता है कि अन्य देश भी इस बात का ‘संज्ञान लेंगे’ कि अमेरिका अपने इस क़ानून (CAATSA) के तहत देशों पर प्रतिबंध लगाने को लेकर कितना प्रतिबद्ध है. ऐसे में उन्हें ये उम्मीद है कि अन्य देश रूस से उपकरण और ख़ास तौर से ऐसे हथियार नहीं ख़रीदेंगे, जिससे वो प्रतिबंधों के दायरे में आ जाएं.’
तुर्की पर अमेरिका के प्रतिबंध लगाने से भारत के ऊपर भी ये प्रतिबंध लगने की आशंका खड़ी हो गई है. क्योंकि भारत ने भी वर्ष 2018 में रूस से S-400 की पांच यूनिट ख़रीदने का समझौता किया था और इसके लिए वर्ष 2019 में पहली किस्त के तौर पर 80 करोड़ डॉलर का भुगतान भी कर दिया था. अमेरिका का विदेश विभाग हर देश और उसकी परिस्थितियों के हिसाब से इस बात का फ़ैसला करता है कि उस पर प्रतिबंध लगाने हैं या CAATSA के अंतर्गत रियायत देनी है. इस अमेरिकी क़ानून के तहत किसी भी देश पर प्रतिबंध लगाने के लिए, रूस की रक्षा और ख़ुफ़िया क्षेत्र के संगठनों के साथ ‘बड़े पैमाने पर लेन-देन’ की शर्त को पूरा करना चाहिए. इस बात का निर्धारण करने के लिए अमेरिका ये देखता है कि संबंधित देश ने रूस के साथ जो क़रार या लेन-देन किया उसकी अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति के हितों के लिहाज़ से कितनी अहमियत है. इसके अलावा ये भी देखा जाता है कि ऐसे समझौते किस तरह के हैं, कितने व्यापक हैं और उनका होना रूस की सरकार, रक्षा और ख़ुफ़िया एजेंसियों के लिहाज़ से कितना महत्वपूर्ण है.
अमेरिका का विदेश विभाग हर देश और उसकी परिस्थितियों के हिसाब से इस बात का फ़ैसला करता है कि उस पर प्रतिबंध लगाने हैं या CAATSA के अंतर्गत रियायत देनी है.
अमेरिका ने कहा है कि इन प्रतिबंधों का मक़सद ये नहीं है कि इनसे किसी देश की रक्षा संबंधी क्षमताओं पर विपरीत प्रभाव पड़े. बल्कि अमेरिका द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने का लक्ष्य ‘रूस को उसकी ग़लत हरकतों के लिए दंडित करना है.’ अमेरिका का कहना है कि इससे रूस के रक्षा उद्योग को वो पूंजी नहीं मिल सकेगी, जिसकी उसे दरकार है और इससे वो अपने रक्षा साझीदारों को प्रभावित भी नहीं कर सकेगा. तुर्की और चीन दोनों ने ही S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम रूस से ख़रीदे हैं और इसके बाद, इस रक्षा सौदे से जुड़ी उनकी संस्थाओं और कंपनियों पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगा दिए हैं. हालांकि, अब तक अमेरिका ने भारत के संबंध में कोई निर्णय नहीं लिया है. लेकिन, यहां ये देखना उचित होगा कि आख़िर अमेरिका ने तुर्की पर ये प्रतिबंध किस आधार पर लगाया क्योंकि अमेरिका के विदेश विभाग ने अपने एक नैटो सहयोगी देश पर पाबंदियां लगाई हैं.
तुर्की, अमेरिका का नैटो गठबंधन सहयोगी है. उसके पास काफ़ी मात्रा में अमेरिकी रक्षा उपकरण मौजूद हैं. यही कारण है कि जब तुर्की ने रूस के साथ S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम ख़रीदने का सौदा किया, तो वो अमेरिका के सुरक्षा हितों को ख़तरा पहुंचाने वाले ‘महत्वपूर्ण लेन-देन’ की परिभाषा के दायरे में आ गया. अमेरिका का कहना है कि तुर्की के रक्षा उपकरणों में रूस के S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम के शामिल होने से अमेरिका की सैन्य तकनीक और सैन्य बलों के लिए ख़तरा पैदा हो गया है. क्योंकि, इसके ज़रिए तुर्की में तैनात अमेरिका के F-35 विमानों की क्षमता संबंधी आंकड़े जुटाकर रूस के हवाले किए जाने का डर है. रूस के साथ ये सौदा करने के बाद, तुर्की को पहले ही F-35 जॉइंट स्ट्राइक फाइटर पार्टनरशिप से निलंबित कर दिया गया है, क्योंकि तुर्की ने ‘नैटो द्वारा वैकल्पिक पैट्रियट मिसाइल डिफेंस सिस्टम लेने से इनकार कर दिया था, जो F-35 फाइटर प्लेन के साथ मिलकर काम कर सकते हैं.’ अमेरिका ये भी चाहता है कि वो ‘रूस को तुर्की के सैन्य बलों और रक्षा उद्योग में घुसपैठ करने से रोक सके.’ अमेरिका ने तुर्की पर जो प्रतिबंध लगाए हैं उनके तहत तुर्की की हथियार ख़रीदने वाली प्रमुख एजेंसी SSB को निशाना बनाया गया है. प्रतिबंधों के चलते अब उसे अमेरिका के आयात-निर्यात बैंक से कोई मदद नहीं मिल सकेगी. इसके अलावा प्रतिबंधों के ज़रिए कंपनी की संपत्तियों को ज़ब्त कर लिया गया है. उसके प्रमुख और कंपनी से जुड़े तीन और अधिकारियों को वीज़ा देने पर पाबंदी लगा दी गई है.
अमेरिका का कहना है कि तुर्की के रक्षा उपकरणों में रूस के S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम के शामिल होने से अमेरिका की सैन्य तकनीक और सैन्य बलों के लिए ख़तरा पैदा हो गया है. क्योंकि, इसके ज़रिए तुर्की में तैनात अमेरिका के F-35 विमानों की क्षमता संबंधी आंकड़े जुटाकर रूस के हवाले किए जाने का डर है.
अमेरिका के विदेश विभाग ने पहले ही अन्य देशों को चेतावनी दी है कि वो रूस के साथ अहम रक्षा सौदे करने से बाज़ आएं. अमेरिका की ये चेतावनी भारत के लिए चिंता का सबब है. हालांकि तुर्की और भारत के मामलों में कई असमानताएं भी हैं.
पहली बात तो ये है कि तुर्की को लेकर अमेरिका की चिंता ये थी कि F-35 के तकनीकी आंकड़े तुर्की के ज़रिए रूस को मिल जाएंगे क्योंकि तुर्की ने अमेरिका के रक्षा उपकरणों के साथ-साथ रूस का मिसाइल डिफेंस सिस्टम भी ख़रीद लिया है. लेकिन, ये बात भारत पर लागू नहीं होती, क्योंकि भारत के पास अमेरिका के F-35 लड़ाकू विमान नहीं हैं. हालांकि, भारत द्वारा रूस से S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम ख़रीदने के बाद, भविष्य में अगर वो अमेरिका से उच्च स्तर की रक्षा तकनीक वाले कुछ सौदे करना चाहेगा, तो इसमें मुश्किलें आएंगी या हो सकता है कि ऐसे सौदे दोनों देशों के बीच हो ही न पाएं. 2016 में जब अमेरिका ने भारत को प्रमुख़ रक्षा साझीदार का दर्जा दिया था, उससे भारत को अमेरिका से हाई टेक्नोलॉजी के रक्षा उपकरण ख़रीदने का रास्ता साफ़ हुआ था. अमेरिका ने तुर्की के सामने रूस से S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम ख़रीदने के बजाय अपना पैट्रियट मिसाइल डिफेंस सिस्टम देने का प्रस्ताव रखा था. लेकिन, रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि भारत की रक्षा ज़रूरतों के लिहाज़ से पैट्रियट के मुक़ाबले S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम बेहतर है. कई विशेषज्ञों का तो यहां तक कहना है कि ‘भारत के सामने खड़ी दो मोर्चों पर एक साथ युद्ध लड़ने की चुनौती को देखते हुए, S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम बेहद अहम हो जाता है.’ इसी वजह से भारत के लिए रूस से ये मिसाइल डिफेंस सिस्टम ख़रीदना ज़रूरी हो जाता है. इसके अलावा एक कारण ये भी है कि भारत रूस के साथ ये रक्षा सौदा करके अपने ‘स्वतंत्र विचारों वाले देश’ होने की छवि को और मज़बूत करना चाहता है, जो अपने राष्ट्रीय हितों के हिसाब से फ़ैसले करता है.
भारत के सामने खड़ी दो मोर्चों पर एक साथ युद्ध लड़ने की चुनौती को देखते हुए, S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम बेहद अहम हो जाता है.’ इसी वजह से भारत के लिए रूस से ये मिसाइल डिफेंस सिस्टम ख़रीदना ज़रूरी हो जाता है
चूंकि, भारत ने रूस के साथ मिसाइल डिफेंस ख़रीदने का क़रार, अमेरिका के CAATSA क़ानून पास करने के एक साल बाद किया था. तो, इसका मतलब ये भी है कि भारत को ऐसे सौदे पर अमेरिका से लगने वाले अड़ंगों का भी बख़ूबी एहसास था. अगर भारत ने ये जोखिम लेते हुए रूस से मिसाइल डिफेंस सिस्टम ख़रीदा, तो इसके दो कारण समझ में आते हैं: पहला तो ये कि भारत, रूस के साथ अपने रक्षा संबंधों को आगे भी जारी रखने में दिलचस्पी रखता है; और दूसरी वजह ये कि भारत ने ये जोखिम जान-बूझकर उठाया क्योंकि उसे ये उम्मीद थी कि आगे चलकर अमेरिका के साथ पारदर्शी तरीक़े से बात करके इस सौदे के लिए रियायत हासिल की जा सकती है.
CAATSA के तहत अमेरिका किसी देश को छूट या उस पर प्रतिबंध लगाने में ढिलाई कुछ शर्तों के साथ देता है. इसके लिए अमेरिका के राष्ट्रपति अपने देश की संसदीय समिति के सामने एक अर्ज़ी लगाते हैं, जिसमें ये कहते हैं कि संबंधित देश को ये छूट देना अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी हितों के लिहाज़ से बेहद आवस्यक है. वो इस अर्ज़ी में ये भी कहते हैं कि इससे अमेरिका के सुरक्षा उपकरणों और उनकी संचालन संबंधी क्षमताओं पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ेगा; या फिर अमेरिकी राष्ट्रपति ये तर्क देते हैं कि जिस देश पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव है वो ऐसे उपाय कर रही है जिससे रूस के साथ हथियारों की ख़रीद संबंधी सौदे कम किए जा सकें या फिर वो अमेरिका के साथ सुरक्षा के अन्य ऐसे मामलों में सहयोग कर रही है, जो अमेरिका के सामरिक हितों के नज़रिए से महत्वपूर्ण है.
भारत को इन सभी पैमानों के तहत रियायत मिलने के दरवाज़े खुले हुए हैं. अमेरिका इस समय भारत के साथ हिंद-प्रशांत क्षेत्र की योजनाओं पर बहुत नज़दीकी से काम कर रहा है. इस मोड़ पर ये साफ़ है कि भारत के S-400 ख़रीदने से अमेरिका के सिस्टम को कोई ख़तरा नहीं है और हथियारों के लिए भारत की रूस पर निर्भरता भी कम हो रही है. ये क़दम भारत ने अपनी ज़रूरतों और हितों के हिसाब से भी उठाया है, न कि उसने CAATSA के तहत प्रतिबंधों के ख़तरे से बचने के लिए ऐसा किया है. 2010-14 के दौरान जहां भारत अपने हथियारों के कुल आयात का 70 प्रतिशत रूस से ही ख़रीदता था. वहीं, वर्ष 2014-18 के दौरान भारत के हथियारों के आयात में रूस की हिस्सेदारी घटकर 58 प्रतिशत ही रह गई है. बल्कि सच तो ये है कि रूस पर भारत की निर्भरता घटने का सबसे बड़ा फ़ायदा इज़राइल और अमेरिका को ही हुआ है, और कुछ आकलनों के मुताबिक़ पिछले एक दशक के दौरान अमेरिका और भारत के बीच क़रीब 20 अरब डॉलर के रक्षा क़रारों पर दस्तख़त किए गए हैं. भले ही भारत ने अन्य देशों के साथ भी हथियारों की ख़रीद बढ़ाई हो. इसके बावजूद, आने वाले लंबे समय तक रूस ही भारत का प्रमुख हथियार निर्यातक बना रहेगा. इसकी वजह ये है कि रूस से भारत को मूल्यवान उच्च स्तरीय तकनीक मिलती है, जो हथियारों के किसी अन्य निर्यातक देश से नहीं मिलती. इसके अलावा दोनों देश साथ मिलकर भी कई हथियार बना रहे हैं. दोनों देशों के बीच सैन्य तकनीक के क्षेत्र में सहयोग का लंबा इतिहास रहा है और ये सिलसिला हाल-फिलहाल ख़त्म होने के तो क़तई आसार नहीं हैं.
भारत के S-400 ख़रीदने से अमेरिका के सिस्टम को कोई ख़तरा नहीं है और हथियारों के लिए भारत की रूस पर निर्भरता भी कम हो रही है. ये क़दम भारत ने अपनी ज़रूरतों और हितों के हिसाब से भी उठाया है, न कि उसने CAATSA के तहत प्रतिबंधों के ख़तरे से बचने के लिए ऐसा किया है.
इसीलिए, अगर अमेरिका अपने CAATSA क़ानून के तहत भारत पर प्रतिबंध लगाता है, तो इससे न केवल अमेरिका और भारत के लगातार मज़बूत होते रिश्तों पर बुरा असर पड़ेगा. बल्कि, सच तो ये है कि ऐसे प्रतिबंधों के बावजूद भारत, रूस के साथ अपने रक्षा संबंधों को तोड़ने नहीं जा रहा है. क्योंकि रूस, भारत का प्रमुख द्विपक्षीय सहयोगी और सामरिक साझीदार है. भारत को ये भी पता है कि अगर रूस की चौतरफ़ा घेरेबंदी की जाएगी, तो वो चीन के और क़रीब होता जाएगा और ये न सिर्फ़ भारत के हितों के ख़िलाफ़ होगा, बल्कि इससे अमेरिका के हितों को भी चोट पहुंचेगी.
हालांकि, ये स्पष्ट है कि भारत के लिए ये तर्क दे पाना मुश्किल होगा कि S-400 ख़रीदने का सौदा कोई महत्वपूर्ण रक्षा क़रार नहीं है. लेकिन, अमेरिकी क़ानून के तहत जिन उपरोक्त रियायतों का हमने ज़िक्र किया है, वो ये उम्मीद जगाती हैं कि कुशल कूटनीति से इस मामले में अमेरिका से रियायत हासिल की जा सकती है. हमने ट्रंप प्रशासन के दौरान ऐसा कोई बार होते देखा है, जबकि किसी भी देश को पूरी छूट भले ही नहीं दी गई. लेकिन, ज़रूरत के मुताबिक़ अमेरिका अपने क़रीबी देशों को कुछ रियायतें देता रहा है. अमेरिका के पूर्व रक्षा मंत्री जैसे जेम्स मैटिस ने भारत, इंडोनेशिया और वियतनाम जैसे देशों को रियायतें देने का खुलकर समर्थन किया था; अमेरिका की ओर से ये रियायतें नाज़ुक क्षेत्रीय हालात और इससे जुड़े अमेरिकी हितों के कारण दी गई थीं.
अमेरिका ने जिस तरह तुर्की पर सीमित रूप से प्रतिबंध लगाए हैं, उनसे भी भारत के लिए एक उम्मीद जगी है. जब इसके पीछे के तर्क को लेकर सीधा सवाल किया गया, तो अमेरिका के विदेश विभाग के अधिकारियों ने कहा कि वो तुर्की पर प्रतिबंध लगाकर एक संदेश तो देना चाहते हैं. लेकिन, वो एक क़रीबी सहयोगी देश के साथ अपने रिश्तों को भी बचाए रखना चाहते हैं. इससे भारत के मामले में भी रियायत की उम्मीद जगी है, जहां पर सामरिक हितों को देखते हुए कूटनीतिक वार्ता की राह खुली नज़र आती है. ऐसा इसलिए और भी है क्योंकि जहां तुर्की और अमेरिका के संबंधों में तनाव लगातार बढ़ रहा है. वहीं, भारत और अमेरिका के रिश्ते लगातार नई ऊंचाइयों को छू रहे हैं.
इसीलिए, हम ये देख सकते हैं कि CAATSA के तहत प्रतिबंध लगाने से पहले अमेरिका को भारत की विशिष्ट स्थिति का भी ख़याल करना होगा. ये उम्मीद की जा रही है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में लगातार बढ़ते संपर्क और दोनों देशो के संबंधों पर पड़ने वाले दूरगामी नतीजों को देखते हुए अमेरिका, भारत पर ऐसे प्रतिबंध लगाने से परहेज़ करेगा. पर चूंकि, इस वक़्त अमेरिका का पूरा ज़ोर रूस को तमाम तरीक़ों से सबक़ सिखाने पर लगा हुआ है, तो ये भी देखने वाली बात होगी कि क्या रूस के प्रभुत्व को कमज़र करने की अमेरिकी नीति के दायरे में रहकर, भारत को इस क़ानून के तहत कुछ रियायत दी जा सकेगी.
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Nivedita Kapoor is a Post-doctoral Fellow at the International Laboratory on World Order Studies and the New Regionalism Faculty of World Economy and International Affairs ...
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