Author : Sunjoy Joshi

Published on Apr 04, 2022 Updated 0 Hours ago

जिस कोल्ड वॉर सरीखी सुरक्षा संरचना में 24 फरवरी कोहमने पुनः प्रवेश किया उस संरचना को तो 30 साल पहले ही सोवियत यूनियन के खंडितहोने के साथ दफ़्न हो जाना चाहिये था. लेकिन कुछ सियासी तंत्र जब़र्दस्ती जान फूंकउसे ज़िंदा रखने की कोशिश करते रहे.

रूस और यूक्रेन: शांति की आस!

(ये लेख ओआरएफ़ के वीडियो मैगज़ीन इंडियाज़ वर्ल्ड के एपिसोड – ‘रूस और यूक्रेन: शांति की आस’, में चेयरमैन संजय जोशी और नग़मा सह़र के बीच हुई बातचीत पर आधारित है).


रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध को एक महीने से ऊपर हो चुका है, और इस युद्ध की तमाम आशंकाओं और संभावनाओं के बीच शांति वार्ता की कोशिशें भी जारी हैं. इसी कड़ी में तुर्की की राजधानी इस्तांबुल में दोनों देशों के प्रतिनिधियों की मुलाक़ात हुई – एक बार फिर से लोगों में उम्मीद जगायी कि शायद जल्द ही दोनों देश युद्ध रोकने को राज़ी हो जायेंगे, या फिर युद्ध के क्रम कुछ कमी आ जायेगी. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. रूस का अपनी फ़ौज पीछे करने का कदम उठाने के बावजूद रूस पर लगे प्रतिबंध जस के तस बने हुए हैं, कूटनीतिक गतिविधियां तेज़ हुई हैं, और इंतज़ार है कि ऊंट किस करवट बैठेगा. क्योंकि यूक्रेन फिर से खुद को तैयार करने में जुटा हुआ है, और उसे लगता है कि रूस दोबारा हमला तेज़ कर सकता है.

इन मिली-जुली संकेतों का क्या मतलब निकाला जाये? क्या हम जंग के धीमे पड़ने की उम्मीद कर सकते हैं?

युद्ध के मैदान तथा आभासी दुनिया, दोनों से आती ख़बरें देख लगता है कि हर घंटे और मिनट वहां के हालात बदल रहे हैं. रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध जंग के मैदान के अलावा सोशल मीडिया पर भी उतनी ही शिद्दत से लड़ा जा रहा है. हर पांच मिनट में कोई नया बयान युद्ध के संदर्भ में सुनने को मिल रहा है. वास्तव में कूटनीति वह लड़ाई नहीं है जो ट्विटर की खंदकों में लड़ी जाए  अब 28 मार्च को ही यूक्रेन और रूस के बीच आमने-सामने बैठकर बात हुई जिसमें पहली दफ़ा यूक्रेन की तरफ़ से कुछ ठोस प्रस्ताव लिखित में रखे गए. यह निस्संदेह शांति की तरफ़ एक ठोस सकारात्मक क़दम हैं. कुछ मुद्दों पर जैसे कि यूक्रेन का निष्पक्ष (neutral) स्टेट्स, उसके असैन्यीकरण (demilitarisation) का सिलसिला, नेटो से दूरी –  लग रहा था कि मुद्दे पर सहमति बन रही है और कोई रास्ता निकल सकता है. लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिये कि ये सभी मुद्दे काफी पेचीदा हैं. और इनमें सबसे पेचीदा मुद्दा तो यह है कि ये चर्चा अभी दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों पुतिन और ज़ेलेंस्की के बीच नहीं हो, इनके प्रतिनिधियों के बीच चल रही है. इसी कारण एक बार प्रतिनिधियों के स्तर पर बातचीत के बीच जो आस बनती दिखती है वह अगले क्षण किसी बड़े नेता के हवाले से ऐसा बयान आ जाता है कि बात बनने के बजाय और ज़्यादा बिगड़ती दिखती है. संवादहीनता के कारण हालात नाज़ुक बने हुए हैं, और कभी भी कोई चिंगारी भयंकर आग बन सकती है.

दूसरी बड़ी समस्या है की वास्तव में युद्ध यूक्रेन और रूस के बीच का युद्ध तो है ही नहीं. वास्तविक युद्ध तो पश्चिमी गठबंधन और रूस के बीच चल रहा है, और यह पक्ष तो शांति वार्ता से नदारद ही हैं.

दूसरी बड़ी समस्या है की वास्तव में युद्ध यूक्रेन और रूस के बीच का युद्ध तो है ही नहीं. वास्तविक युद्ध तो पश्चिमी गठबंधन और रूस के बीच चल रहा है, और यह पक्ष तो शांति वार्ता से नदारद ही हैं. शांति वार्ता छोड़िए इनके बीच बोलती ही बंद है. फ्रांस के इमैनुएल मैक्रॉन के साथ बातचीत के दरवाज़े अभी ज़रूर खुले हैं लेकिन दूसरी अहम् पार्टियां, जिनमें अमेरिका के अलावा रूस और नेटो के सदस्य देश शामिल हैं, गायब हैं.

दोनों पक्षों को समझना होगा कि वार्ताएं नाज़ुक स्थिति में है. मामला बेहद पेचीदा बन चुका और कई मुद्दे तो ऐसे हैं जो दोनों रूस और यूक्रेन आपस में सुलझा ही नहीं सकते हैं. मसलन यूक्रेन के निष्पक्ष स्टेटस सवाल है, जिसके लिए यूक्रेन ने अपनी सुरक्षा की गारंटी की मांग रखी है. पर जिन देशों से इस सुरक्षा गारंटी की अपेक्षा है वे तो कमरे में मौजूद ही नहीं हैं. कौन देगा सुरक्षा गारंटी – क्या UNSC (यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी काउंसिल) के P-5 देश गारंटी देने को तैयार हैं, या फिर तुर्की, कनाडा और अन्य देश भी इसमें शामिल होंगे? स्थिति तो यह है कि जिन लोगों या देशों या पक्षों का इस बातचीत में अहम् रोल है, वे इस वार्तालाप में शामिल ही नहीं. जो पक्ष फ़ैसले ले सकते हैं या फ़ैसलों पर असर डाल सकते हैं, वार्ता उनके बीच हो ही नहीं रही है.

रूस को ये भली-भांति पता चल चुका है कि वो यूक्रेन पर कब्ज़ा नहीं कर सकता है, और यूक्रेन भी इस बात को समझता है कि इस युद्ध के दौरान जिन इलाकों को वो खो चुका है, वो उसे अब वापिस मिलने से रहे. 

क्या ये बातचीत कूटनीतिक स्तर पर आगे बढ़ रही है या विवाद पहले की जगह पर ही अटका हुआ है?

हम ये ज़रूर कह सकते हैं कि दोनों देशों के बीच बातचीत आगे बढ़ी है. तुर्की में दोनों देशों के प्रतिनिधियों के बीच चर्चा के मसौदे से स्पष्ट है कुछ चीज़ें पहली बार बातचीत के टेबल पर आयीं हैं. कई मुद्दे हैं जहां यूक्रेन को अपने कदम पीछे खींचने पड़ेंगे और कुछ चीज़ों में रूस को पीछे हटने की ज़रूरत पड़ेगी. फिलहाल समस्या ये है कि दोनों ही पक्ष में जिस किसी को भी लगता है कि उसका पक्ष कमज़ोर हो रहा है तो, तुरंत वार्ता क्रम के बारे में कुछ ऐसी बयानबाज़ी कर डालता है जो मामले को घुमा देती है. वार्ता के साथ ही पुतिन की तरफ़ से बयान आया की वे ज़ेलेंस्की के किसी भी प्रस्ताव से कतई सहमत नहीं हैं और यदि ज़ेलेंस्की उनकी नहीं मानेंगे तो यूक्रेन पूरी तरह बर्बाद कर दिया जाएगा.

इस तरह का बयानबाज़ी, निस्संदेह मोल-भाव करने के हथकंडे हो सकती हैं पर वास्तव में इस स्थिति में बेहद खतरनाक भी है. और दोनों ही पक्ष जब भी समझौते के मसौदे से असंतुष्ट होते हैं तो कोई न कोई स्पीड-ब्रेकर लगा देते हैं.

दोनों पक्षों को अब तक यह भान तो हो ही गया होगा की कहीं न कहीं इस युद्ध का negotiated settlement करना ज़रूरी है. रूस को ये भली-भांति पता चल चुका है कि वो यूक्रेन पर कब्ज़ा नहीं कर सकता है, और यूक्रेन भी इस बात को समझता है कि इस युद्ध के दौरान जिन इलाकों को वो खो चुका है, वो उसे अब वापिस मिलने से रहे. वास्तव में इस जंग से सबसे ज़्यादा नुक़सान यूक्रेन का हुआ है. रूस पर सैंक्शंस लगे हैं जिनका नुकसान समय रहते उसे ज़रूर झेलना पड़ेगा और उसके साथ दुनिया के कई और देशों को भी भुगतना होगा.

क्या रूस इस युद्ध से वो सब कुछ हासिल कर पाया है, जो वो चाहता था?

रूस को क्षेत्रीय आधार पर सफ़लता मिली है – दोनेत्स्क और लुहांस्क के इलाके पर उसने कब्ज़ा कर लिया है. रूस ने मारियोपोल पर बमबारी कर, वहां से क्राइमिया तक एक लैंड कॉरिडोर स्थापित कर ही लिया है. मिंस्क समझौते के तहत पूर्वी इलाका स्वशासित प्रदेश के रूप में यूक्रेन का ही हिस्सा बना रहता. मिस्क सम्झौता पूरा हुआ नहीं और इस बीच रूस ने ज़मीनी सच्चाई को ही तब्दील कर दिया. यहाँ उसे सफलता तो मिल गयी किन्तु रूस की यूक्रेन को तबाह कर उस समूचे देश पर कब्ज़ा कर नई राज व्यवस्था स्थापित करने की क्षमता पर बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लग गया है.

यूक्रेन का इस युद्ध में बड़ा नुक़सान तो हुआ है. डोनबास, क्राइमिया और ईस्टर्न कॉरिडोर जैसे इलाके रूस के कब्ज़े में चले जाना और उन्हें रूस द्वारा स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करना भर ही यूक्रेन के लिए बड़ी विफलता है जिसे निगलना उसके उसके लिए आसान नहीं.

इस स्थिति में, जहां रूस बड़े क्षेत्र पर कब्ज़ा कर चुका है नेगोशिएशंस आसान नहीं होने वाले और लंबे समय तक चल सकते हैं. दोनों ही पक्ष जो पोज़िशन ले चुके थे उससे पीछे हटना है. यूक्रेन का इस युद्ध में बड़ा नुक़सान तो हुआ है. डोनबास, क्राइमिया और ईस्टर्न कॉरिडोर जैसे इलाके रूस के कब्ज़े में चले जाना और उन्हें रूस द्वारा स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करना भर ही यूक्रेन के लिए बड़ी विफलता है जिसे निगलना उसके उसके लिए आसान नहीं. रूस के अतिक्रमण से ये विवाद और गहरा हुआ है और इसे स्वीकार करना ज़ेलेंस्की के लिये बेहद मुश्किल होगा. मुमकिन है कि आने वाले समय में क्राइमिया और ईस्ट यूक्रेन का विवाद कोल्ड फ्रीज़र में रखा हुआ विवाद बन जायेगा, जिसपर रूस का डी-फैक्टो राज चलेगा, पर पूर्ण तरीके से स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता नहीं मिलेगी. पुतिन को यह स्थिति मान्य हो सकती है और ज़ेलेंस्की के लिए भी बीच का रास्ता बन सकती है. वे कह सकते हैं कि यूक्रेन का कोई इलाका गंवाया नहीं है.

भारत की आलोचना; चीन की भूमिका?

जहां तक भारत का रूस के प्रति सैंक्शंस का सवाल है यह सैंक्शंस संयुक्त राष्ट्र द्वारा तो लगाये नहीं गए हैं. सैंक्शंस कुछ पश्चिमी देशों ने लगायी हैं, और उनके बीच भी उनके स्वरूप को लेकर भिन्नता है. यूरोप वो सैंक्शंस नहीं लगा रहा जो अमेरिका या ब्रिटेन लगा रहे हैं. सभी ऐसे सैंक्शंस लगाते हैं जिनसे उनका कम से कम नुकसान है. तुर्की तो नेटो का सदस्य देश होते हुए भी रूस पर प्रतिबंध नहीं लगा रहा. इज़राइल भी इन सैंक्शंस का समर्थन नहीं कर रहा है. भारत और चीन समेत कई देश किसी भी देश की संप्रभुता पर हमले का समर्थन नहीं करते और इस कारण यूक्रेन के मामले में रूस के साथ नहीं हैं. पर साथ ही वर्तमान स्थिति के लिये वे किसी एक देश या पक्ष के मत्थे सारा दोष मढ़ समस्या का समाधान निकालने के पश्चिमी तरीके से भी सहमत नहीं हैं. समाधान निकलेगा अच्छी कूटनीति के माध्यम से ही. यह मौका है भारत सरीखे देशों के लिए कि वे इस मौके पर एक संतुलित भूमिका निभाने का प्रयास करें. भारत की तटस्थ भूमिका के कारण ही दोनों पक्ष के कई गणमान्य दिल्ली पहुँच रहे हैं ताकि अपना- अपना पक्ष रख सकें.

रूस और चीन के बयानों से स्पष्ट कहा जा रहा है कि – ‘हम लोग साथ प्रयास करेंगे एक नयी विश्व व्यवस्था को जो बहु-ध्रुवीय हो, प्रजातांत्रिक हो जिसमें सभी देशों की आवाज़ सुनी जायेगी और जो कुछ गिने-चुने देशों की मर्ज़ी से नहीं चलायेंगे.’   

चीन के विदेश मंत्री वांग-ई कुछ समय पहले भारत के दौरे पर थे. फिर लावरोव चीन के दौरे के बाद भारत आये. भारत आने के पूर्व वे चीन में थे और बीजिंग न जाकर पूर्वी चीन गये. दिलचस्प यह है की चीन में उनकी यात्रा का परोक्ष मक़सद यूक्रेन युद्ध नहीं, बल्कि अफ़ग़ानिस्तान था. अफ़ग़ानिस्तान पर चर्चा करने के लिये चीन में बैठक हुई, जिसमें चीन समेत कई अन्य देशों के विदेश मंत्री शामिल हुए. इस मौके पर कज़ाकिस्तान, उज़बेकिस्तान, पाकिस्तान और ईरान जैसे कई मध्य-एशिया देशों के मंत्रियों ने भाग ले इस मौके पर अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य की चर्चा की. लावरोव का कहना था की जिस तरह से पश्चिमी देशों ने अफ़गानिस्तान को केंद्र बनाकर पूरी दुनिया में एक ग्लोबल कॉन्फ्लिक्ट (Global Conflict) उत्पन्न किया वही काम अब पश्चिमी ताकतें यूक्रेन में करने की कोशिश की कर रही हैं. स्पष्ट था चीन और रूस नियोजित ढंग से एक दूसरा कथानक रचने में जुटे हैं जिससे पश्चिमी देशों के पक्ष को कमज़ोर किया जा सके. रूस और चीन के बयानों से स्पष्ट कहा जा रहा है कि – ‘हम लोग साथ प्रयास करेंगे एक नयी विश्व व्यवस्था को जो बहु-ध्रुवीय हो, प्रजातांत्रिक हो जिसमें सभी देशों की आवाज़ सुनी जायेगी और जो कुछ गिने-चुने देशों की मर्ज़ी से नहीं चलायेंगे.’

संदेश दिया जा रहा है की अमेरिका तो हाथ झाड़ अफगानिस्तान से भाग निकला और सारी समस्याएँ वहाँ का वहाँ ही छोड़ गया । अब रूस और चीन नयी वैकल्पिक सरंचना का निर्माण करेंगे जिसमें सभी को साथ लेकर चलने की कोशिश हो ताकि अफ़्घनिस्तान और यूक्रेन जैसे दुस्साहसी निर्णय न हों.

अमेरिका का इस घटनाक्रम में योग क्या है? क्या आगे समझौता होगा? क्या भारत का रुख़ बदलेगा?

भारत का रुख़ पूरे युद्ध के दौरान सबसे संतुलित रुख़ है. भारत ने किसी भी समय यूक्रेन पर रूस के हमले की वक़ालत नहीं की है. भारत इस घटनाक्रम को परिपक्व ढंग से समग्र और व्यापक दृष्टि से देख रहा है. भारत न तो पश्चिमी देशों द्वारा तैयार किये जा रहे किसी गठबंधन का हिस्सा बनने जा रहा है न ही रूस और चीन की मिलीभगत से खड़े होने वाले किसी काउंटर गठबंधन से जुड़ने वाला है. भारत के लिये इस समय सबसे उपयुक्त भूमिका एक निष्पक्ष मीडियेटर की है. स्थिति ऐसी है की यदि समझौता हो भी जाता है तो समझौते के जो मसौदे बन रहे हैं, उनमें कोई ऐसा रास्ता नहीं दिखता जिससे दोनों पक्ष संतुष्ट हो सकें. चाहे यूक्रेन की तटस्थ स्टेटस का मुद्दा हो, या फिर डी-मिलिट्राईज़ेशन का, या पूर्वी यूक्रेन के छिन चुके इलाकों का मुद्दा – सब ऐसे मुद्दे हैं जो कभी भी, किसी भी वक्त़ यूरोप की शांति को भंग करने की क्षमता रखते है. सम्झौता जो भी हो ऐसे कई नासूर है जो यूरोप को लंबे समय तक तकलीफ़ देते रहेंगे.

इस वक्त आवश्यकता है दूरगामी कूटनीति की जिससे समग्र रूप से यूरोप और एशिया की सुरक्षा संरचना पर विचार कर उसे भविष्य के लिए एक नया रूप देने का प्रयास करें.

जिस कोल्ड वॉर सरीखी सुरक्षा संरचना में 24 फरवरी को हमने पुनः प्रवेश किया उस संरचना को तो 30 साल पहले ही सोवियत यूनियन के खंडित होने के साथ दफ़्न हो जाना चाहिये था. लेकिन कुछ सियासी तंत्र जब़र्दस्ती जान फूंक उसे ज़िंदा रखने की कोशिश करते रहे. नतीजा सब के सामने है – सोवियत यूनियन के खंडित होने के साथ ही जिस विवाद का अंत हो जाना चाहिये था, वो आज फिर से मुंह बाएँ खड़ा है. और यह मत भूलिए कि उससे ठीक 20 साल पहले, चीन के साथ तालमेल उसी सोवियत रूस पर नकेल कसने और शीत युद्ध में उसे कमज़ोर करने के लिए शुरू किया गया था. इसी के चलते निकसन की ऐतिहासिक यात्रा संपन्न हुई. अमेरिका की चीन परियोजना सफल हुई, सोवियत संघ का विघटन हुआ. विघटन तो हो गया पर शीत द्वारा जन्मे सुरक्षा-विन्यास को समाप्त नहीं किया गया.

आज जब हम वापस उसी शीत युद्ध के बीच अपने को पाते हैं तो उस शीत युद्ध में रूस के साथ-साथ चीन अब खड़ा है. और इस अंतराल में चीन सेर का सवा सेर नहीं बल्कि सवा सौ सेर बन चुका है. उसका जीडीपी तब के 115 मिलियन डॉलर से बढ़कर आज 15 बिलियन डॉलर हो चुका है.

आज जब हम वापस उसी शीत युद्ध के बीच अपने को पाते हैं तो उस शीत युद्ध में रूस के साथ-साथ चीन अब खड़ा है. और इस अंतराल में चीन सेर का सवा सेर नहीं बल्कि सवा सौ सेर बन चुका है. उसका जीडीपी तब के 115 मिलियन डॉलर से बढ़कर आज 15 बिलियन डॉलर हो चुका है. क्या जिस भ्रमित सिक्योरिटी आर्किटेक्चर के चलते यह स्थिति उत्पन्न हुई उस पर पुनर्विचार की ज़रूरत नहीं है? वास्तव में उसके पुनर्निर्माण की ज़रूरत है. और अगर ये पुनर्निर्माण नहीं किया गया तो यूक्रेन में धधकता उबाल सिर्फ़ यूक्रेन को ही नहीं बल्कि कई अन्य देशों को अपनी चपेट में लेगा.

ज़ाहिर है कि रणनीतिक दृष्टि में एक ग़हरी खामी थी जिसके कारण यह स्थिति पैदा हुई. यह उन त्रुटिपूर्ण सुरक्षा विचारों पर फिर से विचार करने का समय है. यदि ऐसा नहीं किया जाता है, तो अकेले यूक्रेन में शांति से समस्या का समाधान नहीं होगा. यह आग आगे भी यूं ही सुलगती रहेगी

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.

Author

Sunjoy Joshi

Sunjoy Joshi

Sunjoy Joshi has a Master’s Degree in English Literature from Allahabad University, India, as well as in Development Studies from University of East Anglia, Norwich. ...

Read More +