Published on Feb 11, 2021 Updated 0 Hours ago

जहां तक भारतीय अर्थव्यवस्था को भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार करने का सवाल है तो ये बजट इस दिशा में केवल एक शुरुआत भर है.

भविष्य की राह खोलने वाला बजट?

2021-22 का केंद्रीय बजट कितना दूरंदेशी है? चलिए तीन नज़रियों से इस बात की पड़ताल करते हैं.

पहला, क्या इस बजट से भारतीय अर्थव्यवस्था को और अधिक हरित और ज़्यादा समावेशी बनाने के लक्ष्यों की नींव रखने वाले आवश्यक दीर्घकालिक और परिवर्तनकारी परियोजनाओं के लिए उपलब्ध धनराशि को बढ़ाया जा सकेगा?

दूसरा, क्या ये बजट भारत को सीमांत तकनीकों को अपनाने के लिए तैयार करने में मददगार साबित होगा?

तीसरा, क्या ये बजट भारत में कार्बन उत्सर्जन की कमी की प्रक्रिया को तेज़ करेगा या उसकी रफ़्तार को धीमा कर देगा?

कुल मिलाकर, ये बजट तीन में से दो नज़रियों पर खरा उतरता दिखता है. इस बारे में आप अपना निर्णय ख़ुद कर सकते हैं कि बजट की ये बातें ठीक हैं या नहीं.

दीर्घकालिक वित्त की बात

पहले दीर्घकालिक वित्त की बात करते हैं. ये इस बजट का एक मज़बूत पक्ष है. निश्चित तौर पर हाल के वर्षों में किसी भी बजट के मुकाबले इस बार का बजट इस मोर्चे पर बेहतर है. इस बार के बजट में दीर्घकालिक वित्त को सहज बनाने के लिए छोटे-बड़े कई उपाय करने की कोशिश की गई है. मिसाल के तौर पर वित्त मंत्री ने घोषणा की है कि देश में बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं को केंद्र में रखते हुए इनके लिए ज़रूरी धनराशि जुटाने के मकसद से एक नया विकास वित्त संस्थान (डीएफआई) गठित किया जाएगा. हालांकि,अभी हमें प्रस्तावित डीएफआई के ढांचे के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है. कुल मिलाकर इस वक़्त हमें सिर्फ़ ये मालूम है कि सरकार इस वर्ष प्रारंभिक पूंजी के तौर पर इसमें 20 हज़ार करोड़ का निवेश करेगी और तीन वर्षों में सरकार का इरादा इस प्रस्तावित डीएफआई को 5 लाख करोड़ रु मुहैया कराने का है. निजी पूंजी का लाभ उठाने की दिशा में निश्चित तौर पर ये एक बहुत बड़ी पहल होगी. हालांकि,ये बात तय है कि इस दिशा में एक सही फॉर्मूला मिल गया है और उसपर अमल करने की कोशिश जारी है. अब हमें ये जानना है कि इस निवेश का स्वरूप और इसकी दशादिशा क्या होगी. डीएफआई अर्थव्यवस्था के किस-किस सेक्टर पर अपना ध्यान केंद्रित करेगी? क्या इसका इस्तेमाल अर्थव्यवस्था के घिसे-पिटे, पुराने या मरणासन्न सेक्टरों में पूंजी निवेश के तंत्र के तौर पर किया जाएगा. मिसाल के तौर पर कहें तो क्या चीन में जीवाश्म ईंधनों से जुड़े सेक्टर को निवेश मुहैया कराने वाले बीआरआई तंत्र के देसी संस्करण के तौर पर भारत में इस नए डीएफआई के ज़रिए कोयले पर चलने वाले विद्युत संयंत्रों में फिर से पूंजी निवेश की कोशिश की जाएगी? वैसे तो इस रास्ते पर चलना काफ़ी लुभावना लग सकता है, लेकिन बेहतर होगा कि भारत में ये रास्ता न अपनाया जाए. अभी हमारे पास मौका भी है. सरकार इस तंत्र के ज़रिए निजी पूंजी के लिए उत्प्रेरक की भूमिका निभाना चाहती है, ऐसे में ज़रूरी है कि इस पूंजी को बेहतरीन नतीजा देने वाली दिशा दिखाई जाए. निजी क्षेत्र की अगुवाई वाली डीएफआई अगर दीर्घकालिक वित्त की ज़रूरतों पर सही तरीके से ध्यान देती है तो ये अर्थव्यवस्था के दूरंदेशी सेक्टरों से जुड़ी परियोजनाओं पर अपना ध्यान लगा सकेगी. इन परियोजनाओं के ज़रिए पर्यावरण, समाज और शासन-प्रशासन के लिए जोखिम कम करने में मदद मिलेगी. स्पष्ट है कि बजट पर हमारे तीन प्रश्नों में से पहले प्रश्न का सटीक जवाब मिल गया है.

निजी क्षेत्र की अगुवाई वाली डीएफआई अगर दीर्घकालिक वित्त की ज़रूरतों पर सही तरीके से ध्यान देती है तो ये अर्थव्यवस्था के दूरंदेशी सेक्टरों से जुड़ी परियोजनाओं पर अपना ध्यान लगा सकेगी. इन परियोजनाओं के ज़रिए पर्यावरण, समाज और शासन-प्रशासन के लिए जोखिम कम करने में मदद मिलेगी.

भारत को सीमांत तकनीकों के लिए तैयार करना

दूसरा, भारत को सीमांत तकनीकों के लिए तैयार करना: इस दृष्टिकोण से भी देखा जाए तो इस बजट में काफ़ी कुछ है. अक्सर देखा गया है कि बजट में सिर्फ़ बड़ी-बड़ी धनराशियों की घोषणा से कुछ ख़ास हासिल नहीं होता बल्कि इस धनराशि के आवंटन से ही असली बदलाव आता है. मिसाल के तौर पर ऊर्जा क्षेत्र को लेते हैं. बजट में भारत के ऊर्जा क्षेत्र- ख़ासकर मुश्किलों से घिरी वितरण कंपनियों के लिए 3 लाख करोड़ यानी 42 अरब अमेरिकी डॉलर मुहैया कराए जाने की बात कही गई है. समाचारों में सुर्खियों के तौर पर तो ये घोषणा छाई रह सकती है, लेकिन ये असली ख़बर नहीं है. दरअसल हर कुछ साल बाद सरकार द्वारा इन वितरण कंपनियों में फिर से पूंजी निवेश करने की ज़रूरत पड़ जाती है. असलियत ये है कि ये वितरण कंपनियां ऐसा गड्ढा बन गई हैं जिनमें गाहे-बगाहे सरकारी पैसा पानी की तरह गिरता और बर्बाद होता रहता है. इसके उलट अगर हम इनसे कहीं बारीक स्वरूप वाले लाइन आइटम पर नज़र दौड़ाएं तो पाते हैं कि: पावर ग्रिड के लिए एक नए निवेश ट्रस्ट का गठन कर उसमें 7000 करोड़ का आवंटन किया गया है. एक बार फिर देखें तो इस ट्रस्ट के ज़रिए निजी और सरकारी पूंजी को आपसी तालमेल से काम करने का एक बेहतरीन मौका है. अगर सही प्रारूप के साथ इस ट्रस्ट का ठीक ढंग से गठन हो जाए तो हमें निजी पूंजी हासिल करने में मदद मिलेगी. इतना ही नहीं इसके ज़रिए हमें नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन से जुड़ी क्रांति के महत्वपूर्ण रास्ते पर आगे बढ़ने में भरपूर मदद मिलेगी. इसके ज़रिए भारत के विद्युत तंत्र को अत्याधुनिक बनाने के लिए निजी क्षेत्र की काबिलियत, तकनीकी जानकारियों और व्यावहारिक ज्ञान का फ़ायदा उठाने का पूरा-पूरा मौका मिल सकेगा. नवीकरणीय ऊर्जा की ओर भारत के बढ़ते कदम के रास्ते में इन सुविधाओं का अभाव कुछ ऐसी चंद बाधाएं हैं जिनका केवल सार्वजनिक क्षेत्र के कोष से समाधान ढूंढ पाना संभव नहीं है. एक बार फिर स्पष्ट है कि सरकार इस मामले में सही रास्ते पर है. हालांकि,ऐसा नहीं है कि इस बजट में केवल यही एक मसला है. दूसरे उदाहरण के लिए “हाइड्रोजन मिशन” के वादे पर नज़र दौड़ाते हैं. भारत में कई लोग बिजली से हासिल होने वाली गतिशीलता यानी बिजली से चलने वाली परिवहन प्रणाली को लेकर बेहद उत्साहित हैं. इस बात की ठोस वजहें भी हैं, लेकिन हमें कार्बन उत्सर्जन को शून्य स्तर पर लाने के दूसरे उपाय भी ढूंढने चाहिए और हम ऐसे उपाय तलाश भी सकते हैं. जैसे उदाहरण के तौर पर हाइड्रोजन फ्यूल सेल्स को लेते हैं. इसके हिमायतियों का कहना है कि ये कम लागत वाला, आसानी से इस्तेमाल में आने वाला और कुल मिलाकर पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचाने वाला ईंधन है. इस संदर्भ में मैंने देखा कि सरकार नई तकनीक के मामले में अलग-अलग स्वरों को ध्यान से सुन रही है और हानि-लाभ का आकलन कर उस हिसाब से अपने फ़ैसले ले रही है. ऐसे में हमारे तीन में से दूसरे प्रश्न पर भी सरकार खरी उतरती दिखाई देती है.

जलवायु परिवर्तन के लिए ज़रूरी वस्तुओं पर निशाना साधने की क्या ज़रूरत है? सोलर सेल्स जैसी चीज़ों को महंगा कर हम भारत में कार्बन उत्सर्जन कम करने की दिशा में किए जा रहे प्रयासों को धीमा कर रहे हैं और हमें इसकी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए

पर्यावरण के क्षेत्र में भारत की महत्वाकांक्षाओं की बात

तो चलिए, अब पर्यावरण के क्षेत्र में भारत की महत्वाकांक्षाओं की बात करते हैं: ख़ासकर जिस गति से हम अपनी अर्थव्यवस्था में कार्बन उत्सर्जन कम करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं? इस दिशा में मुझे लगता है कि हमें इस बात को स्वीकार करना पड़ेगा कि बाकी दूसरे घटनाक्रमों के बीच इस मामले में इस बजट में एक कदम पीछे खींचने जैसी बात सामने आई है. कुछ मायनों में ये लगता है कि सरकार ने अपने “आत्मनिर्भरता’’ के नारे के सामने विकास के हरित लक्ष्यों को फ़िलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया है. शायद यही वजह है कि हरित विकास के लिए आवश्यक वस्तुओं पर सरकार ने करों की एक और किस्त लाद दी है. इस संदर्भ में सोलर लालटेन जैसे उदाहरण लिए जा सकते हैं. सरकार का तर्क है कि सौर क्रांति के लिए ज़रूरी उपकरणों का अनिवार्य रूप से देश में ही उत्पादन किया जाना चाहिए. लेकिन मेरा प्रश्न है: ऐसा क्यों? इन सामानों को छोड़कर बाकी कई और चीज़ें हैं जिनका देश में उत्पादन किया जा सकता है. जलवायु परिवर्तन के लिए ज़रूरी वस्तुओं पर निशाना साधने की क्या ज़रूरत है? सोलर सेल्स जैसी चीज़ों को महंगा कर हम भारत में कार्बन उत्सर्जन कम करने की दिशा में किए जा रहे प्रयासों को धीमा कर रहे हैं और हमें इसकी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए. ऐसे में दुर्भाग्य से हमारे आखिरी प्रश्न का उत्तर नकारात्मक में है. जलवायु परिवर्तन की चिंता करने वालों ने भी सरकार द्वारा अपनाई गई इन संरक्षणवादी नीतियों के ख़िलाफ़ मुंह नहीं खोला. लिहाजा सरकार ने इस दिशा में बेरोकटोक अपने कदम आगे बढ़ा दिए. नतीजतन जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ भारत की लड़ाई पर बुरा प्रभाव पड़ना तय है.

बहरहाल, मोटे तौर पर इस बजट से ये बातें उभरकर सामने आती है: फ़िलहाल हमें इस बारे में बहुत कम जानकारी है कि अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने और विकास को लक्ष्य बनाकर तैयार की गई योजनाओं के बारे में इस बजट में जो घोषणाएं की गईं है, सरकार उनपर असल में अमल कैसे सुनिश्चित करेगी. इसका मतलब ये है कि इनपर अमल के दौरान गड़बड़ियां हो सकती हैं लेकिन इसका ये भी मतलब है कि हमारे पास इन्हें ठीक ढंग से लागू करने का एक मौका है. जहां तक भारतीय अर्थव्यवस्था को भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार करने का सवाल है तो ये बजट इस दिशा में केवल एक शुरुआत भर है.

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