कई राजनीतिक और सुरक्षा से जुड़े घटनाक्रम एक के बाद एक होने के साथ कुछ समय पहले तक लग रहा था कि मध्य पूर्व (मिडिल ईस्ट) का कायापलट हो गया है. 2010 के दशक के मध्य और अंत, जब ये पूरा इलाका इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक़ एंड सीरिया (ISIS) जैसे आतंकी संगठनों के चंगुल में फंसा हुआ था और जिसने इराक़ और सीरिया के बड़े क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया था, की तुलना में कुल मिलाकर स्थिति में सुधार हो रहा था. इसके साथ-साथ सीरिया का गृह युद्ध, जिसकी शुरुआत मार्च 2011 में हुई थी, ख़त्म हो रहा है और राष्ट्रपति बशर अल-असद न सिर्फ देश के ज़्यादातर हिस्सों पर फिर से अपना कब्ज़ा स्थापित कर रहे हैं बल्कि मई 2023 में अरब लीग के शिखर सम्मेलन में भी उनका स्वागत किया गया था. उधर इराक़ में भी छिटपुट हिंसा को छोड़कर आंतरिक स्थिति में धीरे-धीरे सुधार हो रहा है. दूसरी तरफ, इज़रायल हमास और दूसरे आतंकी संगठनों से पैदा होने वाले ख़तरों को कम कर रहा था. हालांकि परिस्थितियां काफी कठिन थीं. इस पृष्ठभूमि में ये लेख संक्षेप में हाल के दिनों के सकारात्मक घटनाक्रमों की राह के बारे में बताता है जिसने संकेत दिया था कि ये इलाका सामान्य स्थिति की ओर बढ़ रहा है. इसके बाद पिछले साल 7 अक्टूबर को गज़ा संघर्ष शुरू होने के बाद सुरक्षा से जुड़ी उभरती चुनौतियों का आकलन भी किया गया है जिसकी वजह से ये क्षेत्र अस्थिरता की तरफ बढ़ रहा है.
ये लेख संक्षेप में हाल के दिनों के सकारात्मक घटनाक्रमों की राह के बारे में बताता है जिसने संकेत दिया था कि ये इलाका सामान्य स्थिति की ओर बढ़ रहा है. इसके बाद पिछले साल 7 अक्टूबर को गज़ा संघर्ष शुरू होने के बाद सुरक्षा से जुड़ी उभरती चुनौतियों का आकलन भी किया गया है जिसकी वजह से ये क्षेत्र अस्थिरता की तरफ बढ़ रहा है.
ऊपर बताए गए घटनाक्रमों से पता चलता है कि मिडिल ईस्ट कुछ साल पहले की तुलना में, जब इस क्षेत्र का ज़िक्र राजनीतिक उथल-पुथल, लोकप्रिय विद्रोहों और सशस्त्र एवं सांप्रदायिक संघर्ष के लिए किया जाता था और ये इलाका सुरक्षा से जुड़ी कई चुनौतियों का सामना कर रहा था, स्थिरता की ओर बढ़ रहा था. इसके अलावा, संभावित कायापलट की सोच को राजनीतिक पुनर्गठन की लगातार प्रक्रिया से भी मज़बूती मिली. ये प्रक्रिया विशेष रूप से उन देशों के बीच चल रही थी जो कई वर्षों से वैचारिक और राजनीतिक आधार पर बंटे हुए थे. उदाहरण के लिए, सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक सफलताओं में से एक थी इज़रायल और खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) के दो प्रमुख देशों यानी संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के बीच संबंधों का सामान्य होना. इसके लिए उन्होंने सितंबर 2020 में अब्राहम अकॉर्ड पर हस्ताक्षर किए थे.
इस अकॉर्ड को आस-पास और उससे बाहर के भी कई देशों ने सकारात्मक रूप से देखा क्योंकि उम्मीद की गई कि समझौते से इन देशों के बीच राजनीतिक और आर्थिक एकीकरण का दौर आएगा और साथ ही ये समझौता “आपसी समझ और सह-अस्तित्व के आधार पर मध्य पूर्व और दुनिया भर में शांति को मज़बूत करेगा और धार्मिक स्वतंत्रता समेत मानवीय गरिमा एवं स्वतंत्रता को सम्मान देगा.” ये उम्मीद थी कि मिडिल ईस्ट की भू-राजनीति और भू-अर्थशास्त्र में महत्वपूर्ण बदलाव होने वाला है. वास्तव में, अब्राहम अकॉर्ड ने हस्ताक्षर करने वाले देशों के बीच सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक सहयोग की संभावना को बेहतर बना दिया था जिसका सबूत राजनीतिक, वित्तीय और सामाजिक रूप से उच्च-स्तरीय दौरों में बढ़ोतरी और अभी तक हस्ताक्षर किए गए समझौतों के प्रकार से पता चलता है. उम्मीद के मुताबिक, अपने-अपने द्विपक्षीय समझौते की रूप-रेखा के भीतर इज़रायल और दो GCC साझेदारों के बीच सैन्य-सुरक्षा सहयोग का पता लगाया गया है. अब्राहम अकॉर्ड की शुरुआती सफलता का नतीजा तकनीकी और आर्थिक रूप से उन्नत देशों के बीच अक्टूबर 2021 में क्वाड्रीलेटरल (चतुर्भुज) संगठन की स्थापना के रूप में भी निकला है जिसे I2U2 कहा जाता है. इसमें भारत, इज़रायल, अमेरिका और UAE शामिल हैं. इसलिए पुनर्गठन ने बहुपक्षीय साझेदारियों के लिए नए रास्ते खोल दिए जिसमें न केवल मिडिल ईस्ट के देश बल्कि यूरोप और एशिया के देश भी शामिल थे. ऐसी ही एक संभावित साझेदारी इंडिया-मिडिल ईस्ट फूड कॉरिडोर है जिस पर 2022 में भारत, UAE और इज़रायल सहमत हुए थे और जिसका मक़सद संबंधित क्षेत्रों में “खाद्य आपूर्ति में रुकावट के साथ जुड़े ख़तरों को कम करना” है.
मिडिल ईस्ट में अस्थिरता
वैसे तो इज़रायल के साथ संबंधों को सामान्य बनाना GCC के इन देशों के लिए आर्थिक, सुरक्षा और तकनीकी प्रोत्साहन है लेकिन इज़रायल के लिए भी ये बेशक एक बहुत बड़ी कूटनीतिक जीत है क्योंकि उसे एक ऐसे क्षेत्र में मान्यता और स्वीकृति मिली है जो अन्यथा दुश्मनों से भरा हुआ है. इसके अलावा, इसे ‘नियो-पेरिफेरल डिप्लोमेसी’ के एक सफल संचालन के रूप में माना जा सकता है. ये एक विदेश नीति की रणनीति है जिसे इज़रायल के पहले प्रधानमंत्री डेविड बेन-गुरियन ने इज़रायल की स्थापना के तुरंत बाद गैर-अरब देशों के साथ करीबी संबंध बनाने के लिए अपनाया था. इसमें एक अपवाद इज़रायल के मौजूदा प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू हैं जिन्होंने आस-पड़ोस के अरब देशों, जो मिडिल ईस्ट और अफ्रीकी महाद्वीप दोनों में हैं, के साथ सहयोग पर ज़ोर दिया है.
मिडिल ईस्ट लंबे समय से सांप्रदायिक राजनीति से प्रभावित रहा है जो 1979 की ईरान क्रांति के मद्देनज़र साफ तौर पर दिखता है. इस क्षेत्र के इतिहास में इस ऐतिहासिक घटना के कुछ वर्षों के बाद सऊदी अरब और ईरान में अनबन शुरू होने लगी, ख़ास तौर पर क्षेत्र में वैचारिक सर्वोच्चता के लिए होड़ की वजह से. इसके कारण लंबे समय तक दोनों देशों के बीच संबंध ख़राब बने रहे. जनवरी 2016 में सऊदी अरब के द्वारा अपने साम्राज्य के भीतर आतंकी वारदात के आरोप में शिया धार्मिक नेता निम्र अल-निम्र को मौत की सज़ा के बाद दोनों देशों के संबंध और बिगड़ गए. इसके अलावा, नई शताब्दी की शुरुआत में ईरान का विवादित परमाणु कार्यक्रम सुर्खियों में आने के बाद सऊदी अरब की सुरक्षा से जुड़ी चिंताएं और बढ़ गईं. इसने ईरान के निरंकुश शासन से ख़तरे की साझा सोच के कारण इज़रायल के साथ सऊदी अरब की मौन सहमति वाले संबंध की स्थापना में मदद की. इन मुद्दों ने मार्च 2023 में सऊदी अरब और ईरान के बीच सुलह के समझौते पर दस्तख़त होने तक मिडिल ईस्ट को चिंता में डाल रखा था. क्षेत्रीय स्थिरता को बढ़ावा देने के साथ-साथ दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग के दायरे को व्यापक बनाने के दोहरे मक़सद वाले इस समझौते के पीछे आंशिक रूप से चीन की मध्यस्थता थी. कड़ी मेहनत से बनी इस सहमति से उम्मीद जताई गई कि सीधे तौर पर और प्रॉक्सी (छद्म) के ज़रिए दोनों कट्टर विरोधियों के बीच संघर्ष की आशंका कम हो जाएगी. क्षेत्रीय स्थिति सामान्य होने की तरफ एक और संकेत था जनवरी 2021 में कुवैत और अमेरिका की मध्यस्थता में क़तर, सऊदी अरब, UAE और बहरीन के बीच कूटनीतिक संबंधों की फिर से बहाली. जनवरी 2017 में क़तर की नाकेबंदी की शुरुआत होने के बाद वो सऊदी अरब, UAE और बहरीन को बेचैन करते हुए ईरान और तुर्किए के करीब चला गया था.
वैसे तो ऊपर बताए गए कुछ घटनाक्रमों ने मिडिल ईस्ट में महत्वपूर्ण बदलाव की तरफ इशारा किया लेकिन ज़्यादातर आने वाले तूफान को देखने में नाकाम रहे. इस क्षेत्र का सबसे ज्वलंत मुद्दा अनसुलझा इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष है जिसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया है. हाल के समय में इस दशकों पुराने संघर्ष को ख़त्म करने के लिए न तो बहुपक्षीय संस्थानों ने, न ही दुनिया की बड़ी शक्तियों ने कोई महत्वपूर्ण राजनीतिक कदम उठाया है. दूसरी तरफ सऊदी अरब समेत अमीर अरब देश जो बाइडेन प्रशासन की मदद से इज़रायल के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित करने की संभावना तलाश रहे थे. वैसे फिलहाल के लिए इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है, विशेष रूप से सऊदी अरब के द्वारा क्योंकि वो नहीं चाहेगा कि ऐसी सरकार के साथ वो अच्छे संबंध बनाए जिसकी फिलिस्तीन से जुड़ी नीति की इस क्षेत्र में और दूसरी जगहों पर कड़ी आलोचना हो रही है.
7 अक्टूबर के हमलों ने इस क्षेत्र के लंबे समय से अनसुलझे मुद्दे को फिर से सुर्खियों में ला दिया है जिसे अब नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. इसने साफ तौर पर इशारा किया है कि इस मुद्दे के समाधान के बिना 'स्थिर मिडिल ईस्ट' नहीं हो सकता है
7 अक्टूबर के हमलों ने इस क्षेत्र के लंबे समय से अनसुलझे मुद्दे को फिर से सुर्खियों में ला दिया है जिसे अब नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. इसने साफ तौर पर इशारा किया है कि इस मुद्दे के समाधान के बिना 'स्थिर मिडिल ईस्ट' नहीं हो सकता है और संघर्ष को केवल काबू में रखने से समीकरण नहीं बदलेगा. दिलचस्प बात ये है कि इज़रायल के जवाबी हमले के बाद ही ज़्यादातर अरब देशों, जिनमें इज़रायल के साथ संबंध सामान्य करने वाले देश भी शामिल हैं, को इज़रायल की कार्रवाई की निंदा करने के लिए मजबूर होना पड़ा.
अब इज़रायल डिफेंस फोर्स (IDF) और हमास के बीच केवल एक सैन्य संघर्ष से मामला आगे बढ़ गया है और लेबनान से काम करने वाले संगठन हिज़्बुल्लाह और यमन से काम करने वाले हूती उग्रवादियों, जिनके बारे में माना जाता है कि ईरान उन्हें वित्तीय और साजो-सामान का समर्थन मुहैया कराता है, ने इज़रायल के ख़िलाफ़ आक्रमण तेज़ कर दिया है. वैसे भी इस साल अप्रैल के मध्य में ईरान ने इज़रायल पर ड्रोन और मिसाइल हमले किए (जिन्हें इज़रायल के एयर डिफेंस सिस्टम ने प्रभावी ढंग से रोक दिया था) जिनका कुछ दिनों के बाद इज़रायल ने जवाब दिया. इसके अलावा हूती के अपग्रेड किए गए ड्रोन ने जिस तरह से इज़रायल के डिफेंस सिस्टम को चकमा देते हुए तेल अवीव पर हमला किया (19 जुलाई) उससे पता चलता है कि उसके पास किस तरह के हथियार हैं. कट्टर दुश्मनों के बीच इस तरह की तीखी नोकझोंक ने क्षेत्रीय तनाव को काफी बढ़ा दिया है, हालांकि उन्होंने आगे हमला करने से परहेज किया.
आगे की राह
जब तक इज़रायल और हमास के बीच सैन्य टकराव गज़ा पट्टी तक सीमित था उस समय तक इस संघर्ष के क्षेत्रीय नतीजों को लेकर कम चिंताएं थीं. लेकिन हाल के दिनों में इज़रायल को लेकर ईरान की बढ़ती बयानबाज़ी और कार्रवाई की वजह से समीकरण बदल गया है. तेहरान में हमास के राजनीतिक प्रमुख इस्माइल हनिया की हत्या के बाद इलाके के सुरक्षा हालात काफी बिगड़ गए हैं. इसकी वजह से ईरान और इज़रायल के बीच पूरी तरह से युद्ध की आशंका बढ़ गई है लेकिन बड़ा सवाल ये है कि युद्ध कब होगा!
इस तरह के हालात से बचने के लिए ईरान न सिर्फ इस इलाके में बल्कि इससे दूर भी इज़रायल और वहां के प्रतिष्ठानों पर निशाना साधने के मक़सद से अपने प्रॉक्सी के लिए समर्थन में बढ़ोतरी कर सकता है.
फिर भी ये देखा जाना बाकी है कि क्या इज़रायल के ख़िलाफ़ ईरान युद्ध शुरू करना चाहता है, ख़ास तौर पर ये जानते हुए कि इस तरह का कदम उठाने से अमेरिका जैसे किरदार भी अपने सहयोगी के समर्थन में युद्ध में शामिल हो सकते हैं. इस तरह के हालात से बचने के लिए ईरान न सिर्फ इस इलाके में बल्कि इससे दूर भी इज़रायल और वहां के प्रतिष्ठानों पर निशाना साधने के मक़सद से अपने प्रॉक्सी के लिए समर्थन में बढ़ोतरी कर सकता है. पिछले कुछ वर्षों से ईरान के सर्वोच्च नेता समेत उसके अधिकारी अपने देश की "रणनीतिक गहराई" के बारे में शेखी बघारते रहे हैं और इस तरह वो मिडिल ईस्ट में तैनात प्रॉक्सी के नेटवर्क की तरफ इशारा करते रहे हैं. या सीधे आक्रमण करने के बदले दूसरी संभावित रणनीति ये हो सकती है कि इज़रायल के संसाधनों (सैन्य और वित्तीय दोनों) पर दबाव डालने के लिए वो लंबे समय तक चलने वाले संघर्ष का विकल्प चुन सकता है. फिलहाल के लिए ईरान अपने प्रतिरोध की क्षमता बढ़ाने और अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा की हिफाज़त करने की दिशा में काम करेगा लेकिन ईरान के भीतर और दूसरी जगह ईरान के समर्थित लोगों के ख़िलाफ़ इज़रायल के द्वारा हाल के हमलों से जो शर्मिंदगी झेलनी पड़ी है उसकी वजह से सीधे या परोक्ष रूप से जवाबी कार्रवाई हो सकती है. इसलिए इस क्षेत्र में बदलते सुरक्षा हालात को देखते हुए इनमें से किसी भी विकल्प को खारिज नहीं किया जा सकता है. इसे देखते हुए ईरान-इज़रायल की तेज़ होती दुश्मनी, जो कि मौजूदा गज़ा संघर्ष का एक उभरता पहलू है, अगले कुछ वर्षों के लिए मिडिल ईस्ट को कम स्थिर बना सकती है.
अलवाइट निंगथाऊजम सिम्बायसिस इंटरनेशनल (डीम्ड यूनिवर्सिटी), पुणे के सिम्बायसिस स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ (SSIS) में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.
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