Author : Abhijit Singh

Published on Oct 09, 2023 Updated 20 Days ago

दक्षिण चीन सागर के मुद्दे जटिल बने हुए हैं, लेकिन क्षेत्र में भारत की भू-राजनीतिक अनिवार्यताएं पहले से कहीं अधिक स्पष्ट है. 

चीन के सामुद्रिक उद्देश्यों का खुलासा: टेन-डैश लाइन के रहस्य का विश्लेषण

इस महीने की शुरुआत में, चीन ने टेन डैश लाइन के साथ अपना 2023 का नक्शा जारी किया– यह दक्षिण चीन सागर (एससीएस) में क्षेत्रीय दावे करने के लिए उपयोग की जाने वाली नाइन-डैश रेखा का एक अद्यतन संस्करण या अपडेटेड वर्ज़न है. चीन के इस कदम से उसके पड़ोसी देश भड़क गए हैं, वह इसे उनके विशेष आर्थिक क्षेत्रों (ईईज़ेड) के कुछ हिस्सों पर बीजिंग के प्रभुता के दावों को वैध करने की कोशिश के रूप में देख रहे हैं. नाइन-डैश लाइन पहले से ही एससीएस के 90 प्रतिशत से अधिक भाग को घेरती है लेकिन नए संस्करण में ताइवान के पूर्व में एक अतिरिक्त डैश लगाया गया है, जो इस क्षेत्र में चीन के क्षेत्रीय दावों को विस्तार देता महसूस होता है. 

क्या दक्षिण पूर्व एशिया में बीजिंग का सैन्य दृढीकरण एशिया में चीन और भारत के बीच शक्ति असंतुलन को और ख़राब करेगा?

भारत के लिए एससीएस में जारी नाटक लंबे समय से प्राथमिकता का विषय  नहीं रहा है, नई दिल्ली का इस क्षेत्र में कोई क्षेत्रीय दावा नहीं है और देश का ध्यान मुख्य रूप से लद्दाख में भारत-चीन सीमा पर केंद्रित है, जहां भारतीय सेना और चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के बीच लगातार गतिरोध चल रहा है और भारत ने चीन के नए नक्शे में अरुणाचल प्रदेश और अक्साई चीन पर चीन के दावों का विरोध किया है. हालांकि, एशिया के समुद्र में बीजिंग की विस्तारवादी रणनीति भारतीय पर्यवेक्षकों को चिंतित करती है. क्या एससीएस में किया जा रहा चीन का दुस्साहस पूर्वी हिंद महासागर में भी इसी तरह का खेल करने का पूर्व संकेत हो सकता है? क्या दक्षिण पूर्व एशिया में बीजिंग का सैन्य दृढीकरण एशिया में चीन और भारत के बीच शक्ति असंतुलन को और ख़राब करेगा?

संघर्ष का प्रज्वलन बिंदु 

यह समझने के लिए कि चीन की एससीएस रणनीति के पीछे के प्रेरणास्रोत हैं क्या, इस क्षेत्र में बीजिंग के क्षेत्रीय दावों के दायरे की पड़ताल करना ज़रूरी है. चीन की प्रभुता के दावे अतिरंजित किस्म के हैं और दक्षिण चीन सागर में नाइन-डैश लाइन के अंदर समूचे समुद्री स्थान, द्वीपों और समुद्री विशेषताओं को घेरे में लेते हैं. महत्वपूर्ण है कि बीजिंग उन जल क्षेत्रों पर अपने दावे को साबित करने के लिए बल प्रयोग करने को तैयार है. पिछले कुछ वर्षों में, चीन ने एससीएस में कृत्रिम द्वीपों का निर्माण और उत्तरोत्तर सैन्यीकरण किया है. अब वह उनका उपयोग क्षेत्र में चीनी तटरक्षक और मिलिशिया (सहायक सेना) अभियानों के लिए ठिकानों के रूप में करता है, नियमित रूप से इन जल क्षेत्रों के अन्य दावेदार देशों के मछली पकड़ने और तटरक्षक जहाजों को परेशान करने के लिए करता है. वियतनाम, मलेशिया, ताइवान, इंडोनेशिया और फिलीपींस, जिनके विशेष आर्थिक क्षेत्रों पर चीन भी दावा करता है सभी को चीन की, ताकतवर के बांह-मरोड़ने वाली रणनीति, का सामना करना पड़ा है. 

यहां यह बताना सही होगा कि नाइन-डैश रेखा को समुद्री कानून से कोई वैधता नहीं मिली है. जुलाई 2016 में एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण ने फैसला दिया कि चीन के ऐतिहासिक अधिकारों पर किए जा रहे नाइन-डैश रेखा के दावों का कोई क़ानूनी आधार नहीं है. जैसा कि अनुमान था बीजिंग ने इस फ़ैसले को ख़ारिज कर दिया, इसे निराधार और पूरी तरह से एकतरफ़ा बताया. पिछले कुछ सालों में, बीजिंग ने एससीएस में अपने क्षेत्रीय दावों को दोगुना कर दिया है, विवादित क्षेत्रों में अधिक मिलिशिया और तटरक्षक जहाज भेज रहा है, जिसमें फ़िलीपींस के जल क्षेत्र भी शामिल हैं, जहां चीनी जहाजों ने उकसावे की निर्लज्जतापूर्ण हरकतें की हैं. अगस्त 2023 में, चीन और फ़िलीपींस के बीच तनाव तब चरम पर पहुंच गया जब एक चीनी तटरक्षक जहाज ने स्प्रैटली द्वीप समूह में फिलीपीन्स के एक पुनःपूर्ति अभियान (रीसप्लाई मिशन) पर वाटर कैनन (तेज़ प्रेशर के साथ पानी फेंकने वाली तोप) से हमला कर दिया. 

अमेरिका-चीन संघर्ष 

चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका (अमेरिका) के बीच तनावपूर्ण संबंध समुद्री क्षेत्र पर असहमतियों को बढ़ाते हैं. अमेरिका एससीएस के क्षेत्रीय विवादों में कोई पक्षकार नहीं है लेकिन यह दक्षिणपूर्व एशियाई राज्यों का समर्थन करता है, जिनमें से कई अमेरिकी सहयोगी हैं. आधिकारिक तौर पर, वाशिंगटन का कहना है कि वह “अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुरूप शांति और स्थिरता बनाए रखने और समुद्रों की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है.” हालांकि, जुलाई 2020 में, अमेरिका ने एससीएस पर अपने दृष्टिकोण को तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप बदला और कहा कि वह अपतटीय संसाधनों पर चीन के दावों और धमकाने और उत्पीड़न के उसके अभियान को पूरी तरह से ग़ैरकानूनी मानता है. तब से अमेरिकी युद्धपोतों ने एससीएस में चौकसी बढ़ा दी है और वे नियमित रूप से विवादित जल क्षेत्र में चीनी आक्रामकता का मुकाबला करने के लिए आसियान नाइनसेनाओं और तटरक्षकों की सहायता कर रहे हैं. चीन इस क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति को एक अवांछित हस्तक्षेप के रूप में देखता है. बीजिंग का आरोप है कि अमेरिकी नाइनसेना की नाइनवहन गश्त की स्वतंत्रता‘ (FONOPS) चीनी संप्रभुता का उल्लंघन करती है और इससे क्षेत्रीय शांति को ख़तरा पैदा हो रहा है.

अगस्त 2023 में, चीन और फ़िलीपींस के बीच तनाव तब चरम पर पहुंच गया जब एक चीनी तटरक्षक जहाज ने स्प्रैटली द्वीप समूह में फिलीपीन्स के एक पुनःपूर्ति अभियान पर वाटर कैनन से हमला कर दिया.

एक विवादित हवाई क्षेत्र

चिंताजनक होने के बावजूद, एससीएस में क्षेत्रीय विवादों का एक और परेशान करने वाला आयाम है: क्षेत्रीय हवाई क्षेत्र के लिए प्रतियोगिता, जो भूमि और समुद्री क्षेत्र पर दावों की स्पष्ट प्रकृति के विपरीत धुंधलके में हो रही है. बीजिंग जिस तरह से क्षेत्रीय समुद्री स्थानों और समुद्री विशेषताओं पर दावा ठोकता है, वैसा वह एससीएस के ऊपर के आसमान पर नहीं करता. यद्यपि चीन पश्चिमी प्रशांत में विदेशी सैन्य विमानों की मौजूदगी का विरोध करता है, यहां तक ​​कि उसने पूर्वी चीन सागर में एक वायु रक्षा पहचान क्षेत्र (ADIZ) स्थापित कर दिया है लेकिन एससीएस में एडीआईज़़ेड स्थापित करने से उसने परहेज़ किया है, संभवतः इसलिए कि व्यस्त हवाई क्षेत्रों में बहिष्करणीय (एक्सक्लूज़नरी) हवाई क्षेत्रों को लागू करना कठिन है.

इसका मतलब यह नहीं है कि चीन का एससीएस के ऊपर के आसमान को लेकर रुख़ सौम्य है. इसके विपरीत, चीनी सैन्य विमान अक्सर ताइवान के ऊपर के हवाई क्षेत्र में विदेशी सैन्य विमानों का पीछा करते हैं और परेशान करते हैं. मई 2023 में, एक चीनी लड़ाकू जेट जे-16 एससीएस के ऊपर एक नियमित अभियान चला रहे एक अमेरिकी टोही विमान के पास खतरनाक रूप से उड़ा. वाशिंगटन ने इसे “अनावश्यक रूप से आक्रामक कृत्य” क़रार दिया, यह एक चीनी जेट द्वारा एससीएस के ऊपर एक अमेरिकी विमान के साथ लगभग टकरा जाने के कुछ महीने बाद हुआ. दरअसल, हाल के वर्षों में, पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में चीनियों के अमेरिकी सैन्य विमानों का पीछा करने की कई घटनाएं हुई हैं. चीनी जेटों ने एससीएस के ऊपर ऑस्ट्रेलियाई सैन्य विमानों को भी परेशान किया है. फिर भी, ऐसा लगता है कि चीन क़रीबी हवाई मुठभेड़ों के ख़तरों को स्वीकार करता है और उसने अमेरिका के साथ एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर भी हस्ताक्षर किए हैं जिसमें हवा और समुद्र में करीबी-लड़ाई की स्थितियों में व्यवहार के नियमों की रूपरेखा तैयार की गई है. बीजिंग 2001 में ईपी-3 घटनाक्रम की पुनरावृत्ति से बचने के लिए सतर्क है जब एक अमेरिकी टोही विमान एससीएस के ऊपर एक चीनी लड़ाकू जेट से टकरा गया था.

आसियान के विरोधाभास 

कुछ लोग कहते हैं कि ये विवाद इतने भयावह नहीं होते अगर चीन और एससीएस पर आसियान के रुख़ में विसंगतियां न होतीं. अलग-अलग आसियान सदस्य देश चीन की समुद्री आक्रामकता और द्वीप विशेषताओं के सैन्यीकरण पर अलग-अलग रुख़ अपनाते हैं. वियतनाम और फ़िलीपींस जैसे कुछ देश चीन के द्वीप-निर्माण और आक्रामक रुख़ का ज़ोरदार ढंग से विरोध करते हैं; कंबोडिया और लाओस जैसे अन्य बीजिंग का अधिक समर्थक करते लगते हैं. आसियान के लिए यह अच्छा नहीं है कि चीन का दक्षिणपूर्व एशिया में महत्वपूर्ण आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव है. जबकि यह अकेले में देशों पर अलग-अलग प्रभाव डालता है- बाकियों की तुलना में कुछ इसके प्रति अधिक अनुगृहीत हैं – दक्षिणपूर्व एशियाई देशों के इस समूह के भीतर चीन के दक्षिण चीन सागर के रुख़ के विरोध में आवाज़ें आमतौर पर नहीं उठतीं. वर्षों से, चीन और आसियान एक आचार संहिता, जो दक्षिण चीन सागर में “व्यवहार” को नियंत्रित करने और शांति और स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए परिभाषित नियमों का एक सेट हैपर बातचीत कर रहे हैं लेकिन अभी तक यह अमल में नहीं आ सका है. 

यद्यपि भारतीय नीति निर्माताओं का ध्यान अब भी हिंद महासागर पर ही केंद्रित हैं, व्यापार और संपर्क के लिए पश्चिमी प्रशांत का महत्व ज़्यादा स्वीकार्य हो रहा है. भारत का 55 प्रतिशत से अधिक व्यापार इस क्षेत्र से होकर गुज़रता है और इसलिए दक्षिणपूर्व एशिया में समुद्री सुरक्षा नई दिल्ली के लिए पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है.

आसियान के लिए, क्षेत्रीय विवाद भी चीन के साथ संबंधों में एक महत्वपूर्ण बाधा हैं. दक्षिणपूर्व एशियाई नेता चीन की समुद्री आक्रामकता के ख़तरों को पहचानते हैं, लेकिन यह भी जानते हैं कि क्षेत्रीय सीमा-संबंधी विवादों से प्रभावी ढंग से निपटने में विफलता आसियान नेतृत्व पर सवाल उठा सकती है. क्षेत्रीय तनावों का चतुराईपूर्ण प्रबंधन न किए जाने से दरअसल क्षेत्र में संघर्षों का एक चक्र शुरू हो सकता है. ऐसे में कई देश चीन का सामना करने और फिर उसके साथ सहयोग करने के बीच एक तंग रस्सी पर संतुलन बनाने जैसी स्थिति में फंसा हुआ महसूस करते हैं.

क्वॉड के लिए तो कोई मसला नहीं लेकिन अप्रासंगिक भी नहीं

पहली नज़र में, भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के बहुपक्षीय समूह-  क्वॉड  के लिए एससीएस संघर्ष काफ़ी हद तक उनसे संबंधित मामला नहीं है . जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत ऐसे मामले में हस्तक्षेप करने के ख़तरों को जानते हैं जो सीधे उनसे संबंधित नहीं है. हालांकि, इनमें से हर एक व्यापार और सैन्य संतुलन में इस क्षेत्र के महत्व को जानता है. क्वॉड भागीदारों ने स्वीकार किया है कि इस महत्वपूर्ण रण क्षेत्र में चीनी आक्रामकता को यूं ही चलने नहीं दिया जा सकता. विशेष रूप से जापान, दक्षिणपूर्व एशिया के समुद्री मामलों में, खुद को एक महत्वपूर्ण हितधारक के रूप में देखता है. दक्षिण चीन सागर में कोई क्षेत्रीय दावा या ईईज़ेड न होने के बावजूद, टोक्यो के क्षेत्र में महत्वपूर्ण व्यापार हित हैं. जापान का नेतृत्व पश्चिमी प्रशांत में प्रमुख समुद्री मार्गों पर चीनी नियंत्रण के बढ़ते ख़तरों के बारे में चिंतित हैं. वे चीन के ताइवान पर आक्रमण की आशंका से भी चिंतित हैं, जो जापान का सहयोगी और क़रीबी मित्र है. ऑस्ट्रेलिया को भी, जो एससीएस में सैन्य अभियान चलाने के बारे में मिली-जुली राय रखता है, चीन की समुद्री आक्रामकता परेशान करने वाली लगती है. कैनबरा ने अमेरिका के क्षेत्रीय समुद्री अभियानों का समर्थन करने की मांग की है.

भारत के दक्षिण चीन सागर में दांव 

भारत भी, हाल के वर्षों में, एससीएस को लेकर अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करने पर सोच रहा है. यद्यपि भारतीय नीति निर्माताओं  का ध्यान अब भी हिंद महासागर पर ही केंद्रित हैं, व्यापार और संपर्क के लिए पश्चिमी प्रशांत का महत्व ज़्यादा स्वीकार्य हो रहा है. भारत का 55 प्रतिशत से अधिक व्यापार इस क्षेत्र से होकर गुज़रता है और इसलिए दक्षिणपूर्व एशिया में समुद्री सुरक्षा नई दिल्ली के लिए पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. भारत का राजनीतिक उच्च वर्ग एससीएस का महत्व एक महत्वपूर्ण वाणिज्यिक प्रवेश द्वार के रूप में देखता है, जहां भारत के निहित स्वार्थ हैं.

इसके बावजूद, नई दिल्ली की एससीएस नीति हिंद महासागर क्षेत्र में चीन के उदय को रोकने की ज़रूरत से तय होती है. इसके पीछे यह समझ है कि पूर्वी हिंद महासागर में चीन के आधार का विस्तार होने से भारत का अपने पड़ोस में महत्व कम हो जाता है. भारतीय पर्यवेक्षकों का मानना है कि एससीएस में चीनी शक्ति का सुदृढ़ीकरण होने के परिणामस्वरूप बंगाल की खाड़ी में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की नाइनसैनिक शक्ति का प्रदर्शन ज़्यादा होने लगेगा. इसलिए पिछले कुछ सालों में भारतीय प्रयास दक्षिण एशियाई तटों में चीनी अनुसंधान और निगरानी की गतिविधियों को ट्रैक करने पर केंद्रित रहे हैं.

यह सुनिश्चित करने के लिए नई दिल्ली ने दक्षिणपूर्व एशिया में संबंधों को मजबूत करने और जुड़ाव को गहरा करने के लिए कदम उठाए हैं. भारत ने ब्रह्मोस मिसाइल की तीन बैटरियों की आपूर्ति के लिए फ़िलीपींस के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं और हाल ही में वियतनाम को एक युद्धपोत भेंट किया है. इस साल मई में, भारतीय नाइनसेना ने एससीएस में आसियान नाइनसेनाओं के साथ अपना पहला संयुक्त अभ्यास आयोजित किया और जून में, भारत और फ़िलीपींस ने एक संयुक्त बयान जारी कर चीन से 2016 के मध्यस्थ न्यायाधिकरण के फ़ैसले का पालन करने का आग्रह किया. अब यह बहस का विषय हो सकता है कि क्या यह दक्षिणपूर्व एशिया में क्षेत्रीय विवादों पर भारत की लंबे समय से चली आ रही तटस्थता की नीति में बदलाव है या केवल क्षेत्र में भारत के बढ़ते राजनीतिक हितों का संकेत है. एक बात स्पष्ट लगती है कि नई दिल्ली प्रशांत क्षेत्र की भू-राजनीति को प्रभावित करने के लिए उत्सुक है. चीन को यह संकेत देकर कि एससीएस में उसकी धमकी का अभियान अस्वीकार्य है, भारत इस क्षेत्र में एक ज़िम्मेदार हितधारक के रूप में अपनी साख को मजबूत करना चाहता है.

चूंकि यह नई दिल्ली के सभी के लिए सुरक्षा और विकास‘ (सिक्योरिटी एंड ग्रोथ फॉर ऑल- सागर) सिद्धांत और “पूर्व की ओर बढ़ो” नीति का पूरक है, इससे यह हक़ीक़त नहीं बदलती कि एससीएस को लेकर भारत का सैन्य रुख़ काफी हद तक सतर्कता भरा है. नाइनवहन पहुंच और वृहद समुद्रीय स्वतंत्रता पर ज़ोर देने के बावजूद, भारत ने चीन की समुद्री आक्रामकता को चुनाइनती नहीं दी है या एससीएस में बीजिंग के अतिरेक भरे क्षेत्रीय दावों के ख़िलाफ़ कुछ नहीं किया है. भारत के रणनीतिक हित मुख्य रूप से हिंद महासागर तक ही सीमित हैं, इसलिए शायद यह करना सही है. नई दिल्ली के लिए, विकल्प एक सक्रिय हितधारक या आक्रामक पक्षकार होने के बीच नहीं है. बल्कि, इसे आसियान देशों के लिए एक प्रतिबद्ध भागीदार होना चाहिए जो चीन को पीछे धकेलने के लिए तैयार हैं.


अभिजीत सिंह ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के सामुद्रिक नीति उपक्रम के प्रमुख हैं

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Abhijit Singh

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A former naval officer Abhijit Singh Senior Fellow heads the Maritime Policy Initiative at ORF. A maritime professional with specialist and command experience in front-line ...

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