Author : Manoj Joshi

Published on Sep 25, 2023 Updated 0 Hours ago
ब्रिक्स का विस्तार और उससे जुड़ी चुनौतियां

एक वक़्त था जब ब्रिक्स (BRICS) कुछ और नहीं, बल्कि गोल्डमैन सैक्स के अर्थशास्त्रियों द्वारा गढ़ी गई शब्दावली थी, जो उन्होंने चार उभरती बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं की व्याख्या करने के लिए तैयार की थी. ब्राज़ील, रूस, भारत और चीन के इस समूह में बाद में दक्षिण अफ्रीका को जोड़ा गया. बहरहाल, एक दशक से ज़्यादा समय के बाद इस समूह के पास अब अपना ख़ुद का निवेश बैंक- न्यू डेवलपमेंट बैंक है. साथ ही ग्लोबल साउथ यानी अल्प-विकसित और विकासशील दुनिया के दर्ज़नों देश इसकी सदस्यता हासिल करने की जुगत में लगे हैं.

पश्चिमी मीडिया का एक वर्ग ब्रिक्स को नाज़ुक और कमज़ोर बताता है, जबकि कुछ अन्य का विचार है कि ये संगठन विस्तार की प्रक्रिया के ज़रिए G7 और पश्चिमी दुनिया को चुनौती देने की कोशिश कर रहा है.

पिछले महीने ब्रिक्स के  जोहान्सबर्ग शिखर सम्मेलन ने दुनिया भर में असमान्य दिलचस्पी पैदा की है. एक समय था जब पश्चिमी मीडिया में इस समूह का शायद ही कभी ज़िक्र होता था, लेकिन अब इससे जुड़ी ख़बरों को प्रमुखता मिलने लगी है. पश्चिमी मीडिया का एक वर्ग ब्रिक्स को नाज़ुक और कमज़ोर बताता है, जबकि कुछ अन्य का विचार है कि ये संगठन विस्तार की प्रक्रिया के ज़रिए G7 और पश्चिमी दुनिया को चुनौती देने की कोशिश कर रहा है. वैसे तो ब्रिक्स, खुद को उभरती आर्थिक शक्तियों के एकीकृत चेहरे के रूप में आगे करता है, लेकिन हक़ीक़त ये है कि इस संगठन (जो ना तो व्यापार समूह है और ना ही सैन्य गुट) के भीतर दो एशियाई शक्तियों (भारत और चीन) के बीच ज़बरदस्त खींचतान चल रही है. ये दोनों ताक़तें अपनी वैश्विक छाप तैयार कर रही हैं.

जोहान्सबर्ग  सम्मेलन  में ब्रिक्स के विस्तार की घोषणा

रस्साकशी की ये क़वायद जिन मुद्दों पर चली, उनमें से एक ब्रिक्स की विस्तार प्रक्रिया थी. ख़बरों के मुताबिक दुनिया के 40 राष्ट्रों ने ब्रिक्स में शामिल होने में दिलचस्पी दिखाई है, हालांकि अब तक 22 देशों ने औपचारिक रूप से इस समूह में शामिल होने की इच्छा जताई है. ताज़ा विस्तार के तहत ईरान, मिस्र, अर्जेंटीना, इथियोपिया, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) को सदस्यता की पेशकश की गई है, जो 1 जनवरी 2024 से प्रभावी होगी. सदस्यता हासिल करने की इस प्रक्रिया में थोड़ी-बहुत लॉबिंग भी की गई, ये इस बात से स्पष्ट है कि पिछले महीने ब्रिक्स शिखर सम्मेलन से पहले ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने प्रधानमंत्री मोदी से फोन पर बात की थी. आधिकारिक प्रवक्ता के मुताबिक, दोनों नेताओं ने “क्षेत्रीय और द्विपक्षीय मामलों” के साथ-साथ ब्रिक्स के विस्तार जैसे मुद्दों पर भी चर्चा की. बाद में दोनों नेताओं की जोहान्सबर्ग में भी मुलाकात हुई.

शिखर सम्मेलन की शुरुआत में इस बात को लेकर कुछ संदेह था कि क्या वास्तव में ब्रिक्स के विस्तार की घोषणा की जाएगी. इसकी वजह प्रस्तावित सदस्यों के नामों पर चल रही गहन वार्ताएं थीं.

शिखर सम्मेलन में अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने साफ़ किया कि “भारत, ब्रिक्स सदस्यता के विस्तार का पूरी तरह से समर्थन करता है, और इस प्रक्रिया में सर्वसम्मति के साथ आगे बढ़ने का स्वागत करता है.’

अगस्त 2023 की शुरुआत में, भारत के एक आधिकारिक प्रवक्ता ने साफ़ किया था कि भारत मानता ​​​​है कि ब्रिक्स का विस्तार समूह के सदस्यों के बीच “पूरे परामर्श और आम सहमति” के ज़रिए होना चाहिए. शिखर सम्मेलन में अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने साफ़ किया कि “भारत, ब्रिक्स सदस्यता के विस्तार का पूरी तरह से समर्थन करता है, और इस प्रक्रिया में सर्वसम्मति के साथ आगे बढ़ने का स्वागत करता है.” 24 अगस्त को भी ऐसी ख़बरें आईं थीं कि संभावित नए सदस्यों पर “आख़िरी दौर की बातचीत” को अंजाम दिया गया है. समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने दावा किया कि इससे जुड़े समझौते को 23 अगस्त को ही मंज़ूरी दी जानी थी, लेकिन भारत द्वारा सदस्यता के लिए नए मानदंड पेश करने के चलते इसमें देरी हुई. 22 अगस्त को ब्राज़ील के राष्ट्रपति लुला ने स्पष्ट कर दिया था कि उनका देश किसी भी तरह “G7, G20 या अमेरिका के मुक़ाबले का समूह नहीं बनाना चाहता, बल्कि वे ख़ुद को बस संगठित करना चाहते हैं.”

दरअसल आम सहमति से काम करने वाले संगठन में प्रवेश पाना मुश्किल होता है, लेकिन वैश्विक राजनीति लेन-देन का नाम है और इसमें कुछ हद तक मान-मनौव्वल और बाहें मरोड़ने का खेल चलता रहता है. ऐसे ही धारणा उन देशों को बढ़ावा देने की है जिनसे आपके दोस्ताना रिश्ते हैं, और जिन देशों से आप आंख नहीं मिलाते उनका रास्ता रोक देते हैं. कभी-कभी वार्ताओं में दो ताक़तवर खिलाड़ी मतभेदों को दूर करते हैं और देशों के प्रवेश पर इस तरह से सौदेबाज़ी करते हैं ताकि एक प्रकार का संतुलन बना रहे! इसी तरीके से भारत, चीनी दबदबे वाले शंघाई सहयोग संगठन का सदस्य बन गया था. चीन को संतुलित करने के लिए रूस ने भारत की सदस्यता के मामले को आगे बढ़ाया था और चीन आख़िरकार भारत को शामिल करने के लिए सहमत हो गया था, बशर्ते उसके “फौलादी” मित्र पाकिस्तान को भी इसके समानांतर सदस्यता मिल जाए!

ऐसे संगठनों में एक अन्य तत्व ये है कि देश ना केवल अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए बल्कि दूसरों की महत्वाकांक्षाओं में रोड़े अटकाने के लिए भी सदस्यता चाहते हैं. इसी तरीक़े से चीन ने एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग (APEC) व्यवस्था का सदस्य बनने की मांग उठाई थी और वो इसका सदस्य बन भी गया. एक बार वहां पहुंचने के बाद उसने APEC को एशिया प्रशांत आर्थिक समुदाय के रूप में ढालने के अमेरिकी प्रयासों को बाधित करने के लिए अपने वोट का इस्तेमाल किया. दरअसल अमेरिका, APEC को यूरोपीय आर्थिक समुदाय जैसे सांचे में ढालना चाहता था, जिसने आख़िरकार यूरोपीय संघ के उभार का रूप ले लिया था.

बताया जाता है कि सदस्यता में बढ़ोतरी से जुड़ी इन क़वायदों का विरोध करने में ब्राज़ील ने भारत का साथ दिया है. दोनों ने सुझाव दिया है कि नए देशों को सदस्यता देने से पहले उन्हें पर्यवेक्षक का दर्जा दिया जा सकता है. भारत का ये रुख़ रहा है कि वैसे तो वो विस्तार का पूर्ण समर्थक है, लेकिन आवेदनों पर विचार करने और उन पर आगे बढ़ने के लिए तंत्र विकसित करने और उन्हें मानकीकृत किए जाने की आवश्यकता है.

ब्रिक्स, एक एकीकृत और उद्देश्यपूर्ण इकाई से कहीं ज़्यादा एक प्रतीकात्मक संगठन के रूप में खड़ा है. बेशक़ इसमें चीन और भारत जैसे सदस्य हैं, जो अपने संबंधित क्षेत्रों में ज़बरदस्त ताक़त का प्रदर्शन करते हैं, लेकिन ब्रिक्स की ये इकाई ख़ुद शायद ही किसी भी प्रकार के आर्थिक समूह के तौर पर काम करती है!

फ़िलहाल ब्रिक्स, एक एकीकृत और उद्देश्यपूर्ण इकाई से कहीं ज़्यादा एक प्रतीकात्मक संगठन के रूप में खड़ा है. बेशक़ इसमें चीन और भारत जैसे सदस्य हैं, जो अपने संबंधित क्षेत्रों में ज़बरदस्त ताक़त का प्रदर्शन करते हैं, लेकिन ब्रिक्स की ये इकाई ख़ुद शायद ही किसी भी प्रकार के आर्थिक समूह के तौर पर काम करती है! ये सही है कि इसके पास न्यू डेवलपमेंट बैंक है, जिसका मुख्यालय शंघाई में है. इस बैंक ने 2021 में अपने आवंटन को तेज़ी से बढ़ाकर 7.6 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंचा दिया. चार महाद्वीपों में बुनियादी ढांचे और सतत विकास के लिए इसका कुल आवंटन 32 अरब अमेरिकी डॉलर तक जा पहुंचा है. बैंक की शुरुआती सब्सक्राइब्ड पूंजी, ब्रिक्स सदस्यों के बीच समान रूप से वितरित की जाती है.

ब्रिक्स को लेकर चीन का दृष्टिकोण और समूह में उसकी भूमिका

इसमें कोई शक़ नहीं है कि चीन, ब्रिक्स को अमेरिका की वैश्विक शक्ति को कम करने के साधन के तौर पर देखता है. चीन के सरकारी अख़बार पीपुल्स डेली के पेज 2 में छपे लेख में “हुआन्यू पिंग” नाम के किसी लेखक ने कहा है कि वैश्विक शासन प्रणाली फ़िलहाल “एक ऐतिहासिक मोड़ पर” खड़ी है. उभरते बाज़ार और विकासशील देशों की तरक़्क़ी ने उनके प्रभाव को बढ़ाया है. हालांकि पश्चिम के दबदबे वाली वैश्विक व्यवस्था “वैश्विक आर्थिक विकास और सामाजिक प्रगति में बाधा” थी. लिहाज़ा, बहुपक्षवादी ब्रिक्स, समानता और सर्वसम्मति के आधार पर निर्णय लेने के लिए एक मॉडल उपलब्ध करा रहा है और न्यू डेवलपमेंट बैंक की शेयर-होल्डिंग से ये बात साबित होती है. इन्होंने वैश्विक शासन प्रणाली में सुधार को भी सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया और बहुपक्षीय और बहुध्रुवीय समाधानों की वैधता को क़ायम रखा है.

ब्रिक्स के भीतर चीन के रुतबे को लेकर कोई संदेह नहीं होना चाहिए. इसका सकल घरेलू उत्पाद, अन्य सदस्यों के संयुक्त GDP के दोगुने से भी ज़्यादा है. चीन की अर्थव्यवस्था भले ही धीमी हो गई हो, लेकिन ये अब भी बढ़ रही है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने चीन की अर्थव्यवस्था में 5.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी का अनुमान जताया है, जबकि भारत के लिए 5.9 प्रतिशत की वृद्धि दर की भविष्यवाणी की गई है. बाक़ी देश तो 1 प्रतिशत से भी कम दर से बढ़ रहे हैं. चीन ने ब्रिक्स में शामिल हो रहे दो नए सदस्यों, सऊदी अरब और ईरान को एक साथ लाने में अहम भूमिका निभाई है. चीन 2022 में दक्षिण अफ्रीका, भारत और ब्राज़ील का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार था.

इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि अमेरिका के खिलाफ वैश्विक संघर्ष में चीन, अफ्रीका को रणभूमि के तौर पर देखता है. पिछले महीने दक्षिण अफ्रीकी राष्ट्रपति सिरिल रामाफोसा के साथ बैठक में राष्ट्रपति शी ने अफ्रीका के साथ सहयोग को बढ़ावा देने को लेकर चीन की तत्काल  ज़रूरत पर बल दिया था. उन्होंने दुनिया में “बदलावों और अराजकता या अफरातफरी” के कारण ऐसी आवश्यकता की बात की थी, जो अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका की ओर किया गया संकेत था. बिज़नेस फोरम की बैठक में भी राष्ट्रपति शी ने इस विषय को उठाया. बैठक में वो शामिल तो नहीं हुए थे लेकिन वहां उनका भाषण पढ़कर सुनाया गया. भाषण में कहा गया: “फ़िलहाल, संसार में, हमारे समय में और इतिहास में, परिवर्तन इस तरह से सामने आ रहे हैं जैसे पहले कभी नहीं हुए, ये मानव समाज को एक नाज़ुक मोड़ पर ला रहे हैं.”

चीन भले ही बहुपक्षीयवाद की कसमें खाता हो, लेकिन वो हक़ीक़त में इसके साथ सहज नहीं है. वो अपने प्रमुख प्रतिद्वंदी अमेरिका का मुक़ाबला करने के लिए ब्रिक्स जैसी संस्थाओं को अपनी छवि के हिसाब से आकार देना चाहता है. इस क़वायद में उसे भारत का समर्थन मिलने के आसार ना के बराबर हैं, लिहाज़ा वो इन बहुपक्षीय संस्थाओं में उन देशों की सदस्यता बढ़ाने की जुगत लगा रहा है जहां उसने पहले से ही अपने बेल्ट एंड रोड पहल के ज़रिए भारी-भरकम निवेश कर रखा है. ऐसे देश चीन के वैश्विक एजेंडे का पालन करने के इच्छुक होंगे. ये क़वायद अब वैश्विक सुरक्षा पहल, वैश्विक विकास पहल और वैश्विक सभ्यता पहल के रूप में उभरकर सामने आ रही है.

चीन ने ब्रिक्स में शामिल हो रहे दो नए सदस्यों, सऊदी अरब और ईरान को एक साथ लाने में अहम भूमिका निभाई है. चीन 2022 में दक्षिण अफ्रीका, भारत और ब्राज़ील का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार था.

फाइनेंशियल टाइम्स में लिखे लेख में जेम्स किंज ने इन क़वायदों के पीछे चीन का दोहरा उद्देश्य बताया है. पहला लक्ष्य ये सुनिश्चित करना है कि एक ऐसे माहौल में जहां पश्चिमी रुख़ लगातार सख़्त होते जा रहे हैं, दुनिया के बड़े हिस्से चीनी निवेश और व्यापार के लिए खुले रहें. जबकि दूसरा उद्देश्य, चीनी प्रभाव दिखाने के लिए संयुक्त राष्ट्र (UN) जैसे बहुपक्षीय मंचों पर वोटों का एक समूह क़ायम करना है.

उथल-पुथल भरी अशांत दुनिया में चीन की राह आसान नहीं है. इसकी अर्थव्यवस्था धीमी हो रही है और वैश्विक सुरक्षा को लेकर इसके गुणा-गणित पर यूक्रेन में रूस के दुस्साहसी कारनामों की मार पड़ी है. इसके अलावा, ग्लोबल साउथ को बढ़ावा देने में इसका मुक़ाबला भारत के साथ है, जिसकी अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं, और जिसे पश्चिम का भी समर्थन हासिल है. संयुक्त राष्ट्र और उसकी संस्थाओं को बढ़ावा देते हुए भी चीन वहां किसी गंभीर सुधार में दिलचस्पी नहीं रखता, क्योंकि इससे उसके विरोधियों (जैसे भारत और जापान) को बड़ी भूमिका मिल सकती है.

एक ऐसे संगठन में, जो आम सहमति पर काम करता है, सदस्यता के विस्तार के साथ, कामकाज करने और नतीजे हासिल करने में कठिनाइयों की मात्रा बढ़ जाती है. अब 11 सदस्यों के साथ, हालात उतने ही कठिन हो जाएंगे. ब्रिक्स देशों की अर्थव्यवस्थाएं और भू-राजनीतिक शख़्सियत काफ़ी अलग-अलग हैं, जिससे सर्वसम्मति पर आधारित निर्णय लेना बेहद कठिन हो जाता है.


मनोज जोशी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में प्रतिष्ठित फेलो हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.