Published on Jun 25, 2021 Updated 0 Hours ago

पिछली सरकारों में युद्ध इतिहास के दस्तावेज़ सार्वजनिक करने को लेकर एक हिचक रही है क्योंकि उन्हें डर था कि इससे राष्ट्रीय सुरक्षा पर बुरा असर पड़ेगा 

युद्ध इतिहास को ‘गुप्त सूची’ से हटाने की नई पहल से देश को फ़ायदा

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का यह कहना कि युद्ध इतिहास को सहेज कर रखा जाएगा और 25 साल के अंतराल पर उसे सार्वजनिक किया जाएगा, जो कि बेशक एक अच्छी पहल है. इस हालिया ऐलान के मुताबिक, इतिहास को सार्वजनिक करने का दायित्व रक्षा मंत्रालय के इतिहास विभाग का होगा. इस सिलसिले में पहले जिस नीति की घोषणा की गई थी, वह अपर्याप्त थी. इससे पहले एनएन वोहरा कमिटी रिपोर्ट और के.सुब्रमण्यम की अध्यक्षता वाली कारगिल रिव्यू कमिटी रिपोर्ट में भी इस तरह के दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की सलाह दी गई थी, लेकिन इसके बावजूद कोई प्रगति नहीं हुई.

इसलिए मोदी सरकार के इस कदम की तारीफ़ करने की कई वजहें हैं. देश में सैन्य और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी चुनौतियों के राजनीतिकरण की प्रवृति एक मसला रहा है. दूसरी वजह यह है कि पिछली सरकारों में युद्ध इतिहास के दस्तावेज़ सार्वजनिक करने को लेकर एक हिचक रही है क्योंकि उन्हें डर था कि इससे राष्ट्रीय सुरक्षा पर बुरा असर पड़ेगा. राष्ट्रीय सुरक्षा वह बहाना रही है, जिसका बार-बार इस्तेमाल करके युद्ध इतिहास को सार्वजनिक करने की ठोस नीति बनाने से बचा गया. यह दलील भी दी गई कि चीन और पाकिस्तान के साथ भारत का विवाद चल रहा है, जिन्हें सुलझाया जाना बाकी है. इसलिए युद्ध इतिहास को लेकर गोपनीयता ज़रूरी है.

1962 में भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को लेकर हुए युद्ध का भी आधिकारिक इतिहास है, लेकिन इसे अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है. अपनी तरह का यह अकेला दस्तावेज़ है, जिससे लोग अनजान हैं.

इस तर्क के कारण भी इस मामले में खुलापन नहीं रहा है. हालांकि, युद्ध इतिहास को सार्वजनिक किए जाने से आज़ादी के बाद देश के सैन्य इतिहास का निरपेक्ष विश्लेषण संभव होगा, जिससे देश के नीति-निर्माताओं को सैन्य सुरक्षा की ख़ातिर बेहतर नीति बनाने में मदद मिलेगी. युद्ध इतिहास को सार्वजनिक करने की अधिक उदारवादी व्यवस्था से सैन्य घटनाओं का राजनीतिकरण भी रुकेगा. ख़ासतौर पर उन युद्धों को लेकर, जो भारत ने लड़े हैं. इस मामले में यह जानना दिलचस्प होगा कि कई लोकतांत्रिक देशों ने इन दस्तावेज़ों को स्वैच्छिक रूप से सार्वजनिक करने की नीति अपनाई है. नीचे दिए गए टेबल-1 से आप इन देशों के बारे में जान सकते हैं. इस टेबल से यह भी पता लगता है कि इसके लिए इन देशों ने क्या अवधि तय की है.

टेबल-1

देश अवर्गीकरण की अवधि
संयुक्त राज्य अमेरिका 25 साल का नियम (स्वचालित अवर्गीकरण)
यूनाइटेड किंगडम 20 साल का नियम
इजराइल 30 साल का नियम

स्रोतः ‘चैप्टर 4: डिक्लासिफिकेशन एंड रिगार्डिंग’, फेडरेशन ऑफ़ अमेरिकन साइंटिस्ट्स, वॉशिंगटन डीसी, ‘द 20 ईयर रूल’, द नेशनल आर्काइव्स, लंदन, लुइस फिशर, 8th इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस ऑफ़ एडिटर्स ऑफ़ डिप्लोमैटिक डॉक्युमेंट्स, यूरोपियन इंटरयूनिवर्सिटी प्रेस, पेज 78.

इस हालिया ऐलान से पहले, वैसे अभी इससे भी वास्तविक बदलाव आना है, युद्ध इतिहास का एक आधिकारिक रूप पेश किया जाता रहा है. युद्ध में क्या हुआ है, इसे जानने का यही अकेला तरीका था. 1947 के बाद देश ने जितने भी युद्ध लड़े हैं, उन सबका आधिकारिक इतिहास है या इससे मिलता-जुलता रूप सबके लिए उपलब्ध है. कारगिल रिव्यू कमेटी रिपोर्ट ऐसा ही दस्तावेज़ है, जिसे कोई भी पढ़ सकता है.

1962 में भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को लेकर हुए युद्ध का भी आधिकारिक इतिहास है, लेकिन इसे अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है. अपनी तरह का यह अकेला दस्तावेज़ है, जिससे लोग अनजान हैं. द हेंडरसन ब्रुक्स रिपोर्ट, जिसमें 1962 में हुए युद्ध की गलतियों की जांच की गई थी, अभी तक सार्वजनिक नहीं की गई है. हालांकि, इसका पहला हिस्सा ऑनलाइन देखा जा सकता है, जिसे ऑस्ट्रेलिया के लेखक़ और पत्रकार नेविल मैक्सवेल ने जारी किया था. उन्होंने इस युद्ध का पुनर विश्लेषण प्रकाशित किया था, जिस पर काफी विवाद हुआ. इसके अलावा यह भी जानना दिलचस्प है कि भारत के आधिकारिक सैन्य इतिहास में आमतौर पर ऑपरेशन के बारे में ही जानकारियां होती हैं.

आधिकारिक युद्ध इतिहास के अलावा युद्ध की आंखों देखी और संस्मरण भी सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध हैं. पहले हुए युद्धों के बारे में लोगों की समझ उनमें शामिल हुए लोगों के मौखिक रूप से बताने से भी बेहतर हुई है. इससे आधिकारिक युद्ध इतिहास में जो चीजें छोड़ दी गई थीं, उनकी जानकारी मिली. इसके बावजूद सूचनाओं के इन जरियों को पर्याप्त नहीं माना जा सकता. एक और बात यह है कि आधिकारिक युद्ध इतिहास आमतौर पर गोपनीय सूत्रों के हवाले से बताया जाता है और वह निष्पक्ष होता है, लेकिन साथ ही वह बेहद सादा विश्लेषण भी होता है. इसलिए उससे यह पता नहीं लगता कि असल में हुआ क्या था? कैसे युद्ध की शुरुआत हुई और जब युद्ध बढ़ा, तब क्या हुआ?

यह भी हो सकता है कि रक्षा सुधार दूरदृष्टि न होने या जोख़िम से बचने की प्रवृत्ति के कारण न हुए हों. इस समस्या का पूरी तरह समाधान रिटायर हो चुके सैन्य अधिकारियों या नौकरशाहों के स्कॉलरों के इंटरव्यू से नहीं हो सकता.

1947-48, 1965 और 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ़ युद्ध और 1962 में भारत-चीन के बीच युद्ध के आधिकारिक इतिहास हैं, लेकिन उनका स्वतंत्र और बारीक विश्लेषण नहीं हुआ है. दूसरी बात यह है कि युद्ध से ऐन पहले और युद्ध के दौरान लिए गए फैसलों को समझने के लिए दस्तावेजों, नोट्स और अधिकारियों व नीति-निर्माताओं के बीच क्या बातचीत हुई, वह सामने आनी चाहिए. तभी उस बारे में बेहतर समझ बन पाएगी. इससे लोगों की युद्ध के बारे में समझ बढ़ेगी क्योंकि इसके अलग-अलग और कई ऐतिहासिक विश्लेषण उपलब्ध होंगे. आमतौर पर इतिहास से सबक नहीं सीखा जा सकता है और ख़ासतौर पर, सैन्य इतिहास तो लोगों या नीति-निर्माताओं को कोई सबक नहीं मुहैया कराता. इसके बावजूद इससे कई अहम जानकारियां मिल सकती हैं. युद्ध इतिहास से भारतीयों को इस तरह की बातें समझ में आ सकती हैं कि चीन और पाकिस्तान के साथ देश के रिश्ते जैसे हैं, वैसे क्यों हैं और इन दोनों देशों के साथ युद्ध में भारत ने कौन से सही कदम उठाए और कौन सी गलतियां कीं.

आर्काइवल रिसर्च से आगे

युद्ध इतिहास की रिसर्च के अलावा भी इन दस्तावेजों को सार्वजनिक करने के कई फायदे हैं. आइए, देश के हायर डिफेंस मैनेजमेंट और ऑर्गनाइजेशन में सैन्य सुधारों पर विचार करते हैं. कोई भी इतिहासकार या स्कॉलर यह जानना चाहेगा कि पिछले 25 साल में रक्षा सुधारों को लेकर अलग-अलग सेनाओं के बीच और अंदरूनी स्तर पर क्या चर्चा हुई. आज हायर डिफेंस रिफॉर्म्स की अहमियत साफ़ दिख रही है क्योंकि इस विषय पर खुली बहस हो रही है. ऐसे में अगर इस सिलसिले में ऐतिहासिक तथ्य सामने आते हैं तो यह समझने में मदद मिलेगी कि अब तक रक्षा सुधार क्यों नहीं हुए या क्यों अभी उनकी शुरुआत ही हो रही है. इसे लेकर किस तरह के दबाव का सामना करना पड़ा, किस तरह की बंदिशें रहीं या इसके लिए नेतृत्व के स्तर पर गलतियां हुईं.

यह भी हो सकता है कि रक्षा सुधार दूरदृष्टि न होने या जोख़िम से बचने की प्रवृत्ति के कारण न हुए हों. इस समस्या का पूरी तरह समाधान रिटायर हो चुके सैन्य अधिकारियों या नौकरशाहों के स्कॉलरों के इंटरव्यू से नहीं हो सकता. हद से हद, इससे रक्षा सुधारों के न होने की आंशिक वजह ही समझ में आ सकती है. वैसे, रक्षा सुधारों का ज़िक्र हो रहा है तो यह बताते चलें कि मोदी सरकार की ओर से चीफ़ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) यानी तीनों सेनाओं का प्रमुख पद बनाने की शानदार पहल हुई. इसमें भी कोई शक नहीं कि युद्ध इतिहास और गोपनीय रक्षा दस्तावेजों को सार्वजनिक करने से हायर डिफेंस ऑर्गनाइजेशन, रक्षा खरीद, सैन्य खुफिया शोध, भर्ती के मानकों और सुरक्षा बलों की प्राथमिकता, सैन्यकर्मियों से जुड़े मुद्दों, प्रशिक्षण वगैरह के बारे में बेहतर समझ बनेगी. सरकार की हालिया पहल से जो दस्तावेज सार्वजनिक किए जाएंगे, उनसे ऐसे मुद्दों को लेकर शोधकर्ता कहीं विश्वसनीय और गहन विश्लेषण कर पाएंगे.

भारत ने 1947 के बाद से अब तक जो भी युद्ध लड़े हैं, उनके बारे में आमतौर पर इतिहासकारों या वैसे विशेषज्ञों ने लिखा है, जो कभी न कभी भारतीय सेना में अपनी सेवाएं दी थीं. इन लोगों का योगदान व्यापक और महत्वपूर्ण रहा है, लेकिन वे युद्ध के बारे में इसी वजह से लिख पाए क्योंकि उनकी पहुंच पूर्व सैन्य अधिकारियों और एक हद तक सेवारत सैन्यकर्मियों तक थी. यहां गौर करने वाली बात यह है कि किसी भी लोकतांत्रिक समाज में सैन्य इतिहास पर शोध और लेखन सिर्फ उन एक्सपर्ट्स का एकाधिकार नहीं हो सकता, जो सेना में काम कर चुके हैं या फिर जो सेना में कार्यरत हैं. भारत के युद्धों और तीनों सेनाओं से जुड़े मामलों से सेना से बाहर के स्कॉलरों को भी जोड़ना जरूरी है, भले ही उनके पास सेना में काम करने का तजुर्बा न हो.

इतना तो तय है कि इसके लिए एक नया डीजी आर्म्ड फोर्सेज हिस्ट्री का पद बनाना होगा. इस पहल की कमान किसी संयुक्त सचिव के हाथ में देना ठीक नहीं. वहीं अगर यह जिम्मेदारी समितियों को दी गई तो इस पहल का कोई नतीजा नहीं निकलेगा

 अगर दूसरे देशों की बात करें तो जॉन कीन, लॉरेंस फ्रीडमैन और रिचर्ड ओवेरी जैसे कई जाने-माने इतिहासकार हैं, जिनके पास सेना में काम करने का तजुर्बा नहीं था, लेकिन जिन्होंने सैन्य इतिहास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. भारत में भी एक्सपर्ट्स यह काम कर सकते हैं. सैन्य इतिहास के अध्ययन के लिए सेना में काम करना कोई पूर्व शर्त नहीं होनी चाहिए.

अकादमिक संस्थानों में वरीयता

एक और बात यह है कि सेवारत या पूर्व अधिकारियों से अधिक सेना से बाहर के लोगों को सैन्य इतिहास और सेना से जुड़े विषयों के अध्ययन की हिचक छोड़नी होगी. अब जबकि सरकार युद्ध इतिहास को सार्वजनिक करने की नीति लेकर आई है, इन लोगों की पहुंच गोपनीय सैन्य दस्तावेजों तक हो जाएगी. इसलिए इस क्षेत्र में वे जो योगदान करेंगे, उसके बेहतर परिणाम सामने आएंगे. इसके साथ हम यह भी उम्मीद करते हैं कि भारतीय अकादमिक संस्थानों में भी सैन्य इतिहास को वह जगह मिलेगी, जो उसे मिलनी चाहिए थी.

यह बात सच है कि इस मामले को लेकर कई चुनौतियां बनी हुई हैं. इनमें सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि इस पहल से किस तरह के प्रोडक्ट्स सामने आएंगे, यह स्पष्ट तौर पर बताया जाए. साथ ही, इसे संगठित रूप देने के लिए किस तरह का ढांचा और प्रक्रिया बनाई जाएगी. इतना तो तय है कि इसके लिए एक नया डीजी आर्म्ड फोर्सेज हिस्ट्री का पद बनाना होगा. इस पहल की कमान किसी संयुक्त सचिव के हाथ में देना ठीक नहीं. वहीं अगर यह जिम्मेदारी समितियों को दी गई तो इस पहल का कोई नतीजा नहीं निकलेगा. जब तक ऐसी पूरी व्यवस्था न बन जाए, तब तक युद्ध इतिहास को लिखने और उसके संपादन की जिम्मेदारी भारतीय सेना के पास ही रहनी चाहिए. उसके पास ऐसे शोध करने की अंदरूनी क्षमता है और वह आधिकारिक ढंग से इस पर लिख भी सकती है.

युद्ध इतिहास को सार्वजनिक करने की पहल सराहनीय है, लेकिन सरकार को इतने पर ही नहीं रुक जाना चाहिए. भारत में यह काम अभी तक पुराने ढर्रे पर होता आया है, जो वक्त की मांग को पूरी नहीं करता.

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