एनक्रिप्शन, कमज़ोरियों और निजता को लेकर सरकारों और उद्योग के बीच तनाव में अब दुनिया की दो बड़ी ताक़तों, चीन और अमेरिका के बीच भौगोलिक सामरिक टकराव भी शामिल हो गया है.
1990 के दशक में भू-मंडलीकरण और डिजिटलीकरण के हवाले से वादा किया गया था कि व्यापार, यात्रा और तकनीक के माध्यम से ये दोनों मिलकर दुनिया को क़रीब लाएंगे. अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध के ख़ात्मे और इंटरनेट के आविष्कार ने एक दूसरे पर निर्भर विश्व की परिकल्पना पेश की थी, जिसमें तमाम देशों के बीच लोगों की आवाजाही, निवेश और सीमाओं के आर-पार आपूर्ति श्रृंखलाओं के निर्माण के ज़रिए, दुनिया में अधिक शांति, अपेक्षा के अनुरूप बदलाव और समृद्धि लाने की उम्मीद जताई गई थी. पर, इसकी जगह पिछले एक दशक में ये बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई है कि एक दूसरे पर निर्भरता से किस तरह आज दुनिया उलझ कर रह गई है.
शोर करने वाले डायल-अप मॉडेम की जगह अब नई पीढ़ियों वाली वायरलेस संचार तकनीक आ गई है. हालांकि, तकनीकी इनोवेशन से हर बार काम-काज में ज़्यादा भरोसा पैदा हो या राजनीतिक स्तर पर ईमानदारी का ही नतीजा निकले, ये ज़रूरी नहीं है. एनक्रिप्शन, कमज़ोरियों और निजता को लेकर सरकारों और उद्योग के बीच तनाव में अब दुनिया की दो बड़ी ताक़तों, चीन और अमेरिका के बीच भौगोलिक सामरिक टकराव भी शामिल हो गया है. अमेरिका और चीन के बीच आज बढ़ते अविश्वास के कारण वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं के टूटने का ख़तरा मंडरा रहा है. इससे विश्व के एक बड़े हिस्से का भरोसा टूटेगा और अंतरराष्ट्रीय सहयोग का मसला भी पेचीदा हो जाएगा.
इस लेख में हम अमेरिका और चीन के बीच राजनीतिक टकराव के डिजिटल क्षेत्र पर पड़ने वाले प्रभाव का विश्लेषण करने की कोशिश कर रहे हैं, ख़ासतौर से इस बात का कि इससे विकासशील देशों या ग्लोबल साउथ पर कैसा असर देखने को मिलेगा.
इस लेख में हम अमेरिका और चीन के बीच राजनीतिक टकराव के डिजिटल क्षेत्र पर पड़ने वाले प्रभाव का विश्लेषण करने की कोशिश कर रहे हैं, ख़ासतौर से इस बात का कि इससे विकासशील देशों या ग्लोबल साउथ पर कैसा असर देखने को मिलेगा. इस लेख के पहले भाग में हम डिजिटल क्षेत्र में विश्व की एक दूसरे पर निर्भरता की हक़ीक़त और उसके जोख़िमों को समझने की कोशिश करेंगे. वहीं, दूसरे भाग में हम ज़रा पीछे जाकर डिजिटल दुनिया के भूगोल और राजनीतिक आकार को समझने की कोशिश करेंगे, और ये सवाल भी उठाएंगे कि कहीं एक दूसरे पर निर्भरता का अर्थ ये तो नहीं कि दुनिया का एक हिस्सा डिजिटल तौर पर दूसरे हिस्से पर निर्भर है. अगर सामरिक स्तर पर तनाव बढ़ता है, तो लंबी अवधि में, इसका सबसे बुरा प्रभाव किस पर पड़ेगा? आख़िर तकनीक को अंतत: किसके काम आना चाहिए? इस पेपर के आख़िरी हिस्से में हम दक्षिणी दुनिया या ग्लोबल साउथ के देशों के लिए आगे के रास्ते के कुछ सुझाव देने की कोशिश करेंगे, जिससे वो अमेरिका और चीन की प्रतिद्वंदिता वाले रास्ते को छोड़कर एक नई दिशा में बढ़ सकें, और ख़ुद का एक ऐसा डिजिटल भविष्य निर्धारित कर सकें, जो समावेशी हो, आपसी सहयोग पर आधारित हो और स्थिर हो.
एक दूसरे पर परस्पर-निर्भरता
संयुक्त राष्ट्र महासचिव के डिजिटल सहयोग के उच्च स्तरी पैनल का घोषणापत्र, ‘द एज ऑफ़ डिजिटल इंटरडिपेंडेंस’ मौजूदा समय की सच्चाइयों का आईना भी है और इसमें भविष्य की अपेक्षाओं को भी शामिल किया गया है. इस रिपोर्ट में ये स्वीकार किया गया है कि डिजिटल दुनिया के फ़ायदे भी हैं और आज दुनिया में एक डिजिटल विभाजन भी है. इस रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि पूरी दुनिया के लिए समावेशी डिजिटल भविष्य के निर्माण के लिए तुरंत काम शुरू करने की सख़्त ज़रूरत है, और इस लक्ष्य को डिजिटल सहयोग को बढ़ाकर की हासिल किया जा सकता है.[1]संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने, ‘रोडमैप फॉर डिजिटल को-ऑपरेशन’[2]की शुरुआत करते हुए कहा था कि, ‘हम तकनीकी प्रशासन के बेहद महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़े हैं. अगर डिजिटल तकनीक को मानवता की भलाई के लिए प्रयोग करने को लेकर हम अभी एक साथ नहीं आए, तो हम इसके प्रभाव का प्रबंध करने के मामले में एक महत्वपूर्ण अवसर को गंवा देंगे. इसके बाद इंटरनेट का और भी विभाजन होगा, जो सबके लिए नुक़सानदेह ही होगा.[3]गुटेरस ने जिस रोडमैप को लॉन्च किया वो संयुक्त राष्ट्र के अपने उच्च स्तरीय पैनल के काम को ही आगे बढ़ाने वाला है.
निर्माण के स्तर पर तकनीकी परस्पर निर्भरता एक जानी पहचानी चीज़ है. इस निर्भरता का निर्माण तुलनात्मक रूप से फ़ायदेमंद संसाधनों और श्रमिक बाज़ार के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय संसाधनों की आपूर्ति श्रृंखलाओं के माध्यम से किया गया है. इसके सार को अक्सर ही इस तरह रेखांकित किया जाता है कि, ‘इसका डिज़ाइन अमेरिका में बना और इसे चीन में असेंबल किया गया.’ वैसे तो तकनीकी क्षेत्र की विशालकाय कंपनियों की आपूर्ति श्रृंखलाएं आधी दुनिया में फैली हुई हैं. इंटेल के पहली श्रेणी के डायरेक्ट सप्लायर ही अकेले दस हज़ार हैं जो 89 देशों में फैले हुए हैं.[4]इसी तरह, एप्पल के 200 सप्लायर एशिया, यूरोप और अमेरिका में फैले हुए हैं और एप्पल की 98 प्रतिशत सामान लेने के व्यय का स्रोत यही हैं.[5]वैश्विक स्तर पर चीन की मोबाइल स्मार्टफोन कंपनियों जैसे कि शाओमी और ओप्पो की तरक़्क़ी ने वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला और वैल्यू चेन के मामले में लोगों और कल-पुर्ज़ों की परस्पर निर्भरता को और बढ़ावा देने का ही काम किया है. चीन की संचार कंपनी हुवावे के एक तिहाई मुख्य आपूर्तिकर्ता अमेरिकी हैं, जबकि बाकी़ के सप्लायर चीन, जापान और यूरोप के कुछ देशों से आते हैं. इस स्पेशलाइज़ेशन के कारण जो कंपनियां हुवावे और शाओमी को चिप सप्लाई करती हैं, वही कंपनियां एप्पल और सैमसंग को भी आपूर्ति करती हैं.[5]
दुनिया भर के उद्योग डिजिटल अर्थव्यवस्था का लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं, और सरकारें चौथी औद्योगिक क्रांति के लिए नियम और नीतियां बनाने में जुटी हैं, तो इसके लिए इंटरनेट की तेज़ स्पीड और नेटवर्क के संचालन में कम से कमतर देरी ही, इस तरक़्क़ी को आगे बढ़ाने में मुख्य भूमिका निभाएंगी
मोबाइल उपकरण का बाज़ार दुनिया की तकनीकी परस्पर निर्भरता की एक छोटी सी मिसाल है. अब जबकि दुनिया भर के उद्योग डिजिटल अर्थव्यवस्था का लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं, और सरकारें चौथी औद्योगिक क्रांति के लिए नियम और नीतियां बनाने में जुटी हैं, तो इसके लिए इंटरनेट की तेज़ स्पीड और नेटवर्क के संचालन में कम से कमतर देरी ही, इस तरक़्क़ी को आगे बढ़ाने में मुख्य भूमिका निभाएंगी. इसके बावजूद नेटवर्क और इंटरनेट स्पीड का पांचवीं पीढ़ी (5G) के माध्यम से और विकास करने का मार्ग, कई मुश्किलों से होकर गुज़रने वाला है. 5G तकनीक की स्थापना से राष्ट्रीय सुरक्षा के ख़तरों से समझौता करने की चुनौती उत्पन्न हो गई है. हालांकि, हर देश का अपने लिए जोखिमों का हिसाब लगाना बिल्कुल अलग-अलग समीकरणों पर निर्भर करता है. इसके लिए वो अपने कारोबारी नफा नुक़सान को देखते हैं, तो ऐतिहासिक तजुर्बों और राजनीतिक-सुरक्षा संबंधों का भी हिसाब किताब लगाते हैं. उदाहरण के लिए, जब इस साल जुलाई में ब्रिटेन ने अमेरिका के प्रतिबंधों के बाद, चीन की हुवावे कंपनी को अपने यहां के 5G नेटवर्क से निकाल बाहर करने का फ़ैसला किया था, तो उसे इस बात का भी ध्यान रखना था कि वो हुवावे के अब तक के 5G के ढांचे की विरासत का आगे क्या करेगा. इसीलिए, ब्रिटेन ने अपने यहां के 5G नेटवर्क को लागू करने का फ़ैसला अगले तीन साल तक टाल दिया. और तब भी ब्रिटेन को इसके लिए क़रीब 7 अरब डॉलर का बोझ उठाना पड़ेगा.[7]हालांकि, ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के आकार को देखते हुए, ये रक़म कुछ ख़ास नहीं है. और ये आर्थिक बोझ भी ब्रिटेन को एक साथ नहीं, आने वाले वर्षों में किस्तों में उठाना पड़ेगा. लेकिन, विकासशील देश जो तकनीक की मदद से आर्थिक तरक़्क़ी की छलांग लगाना चाहते हैं, वो 5G तकनीक को अपनाने में इतनी देर का बोझ शायद न उठा सकें या न उठाना चाहें.
इसके अलावा, भले ही चीन की हरकतों से देशों को कुछ चिंता होती हो, लेकिन ज़्यादातर देशों के लिए चीन कोई दुश्मन देश नहीं है. इसीलिए, फाइव आईज़ (Five Eyes) गठबंधन के बाक़ी के चार देशों-ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूज़ीलैंड और ब्रिटेन, जिनका अमेरिका के साथ ख़ुफ़िया जानकारी साझा करने का समझौता है, उन्होंने भले ही 5G नेटवर्क को लेकर अपनी नीतियों का तालमेल अमेरिका से बिठाया है. मतलब, जैसा चीन की कंपनियों के साथ अमेरिका कर रहा है, वैसे ही फ़ैसले ये देश भी कर रहे हैं. परंतु, अन्य देशों और इनमें वो देश भी शामिल हैं, जिनके साथ अमेरिका ने संधि कर रखी है, उन्होंने 5G नेटवर्क में चीन की कंपनियों की भागीदारी को लेकर अलग-अलग नीतियों पर चलने का रास्ता अख़्तियार किया हुआ है. थाईलैंड, जो कि एशिया में अमेरिका के साथ सबसे पुरानी संधि करने वाला देश है, उसने अपने यहां के 5G नेटवर्क के लिए चीन की कंपनियों की आपूर्ति रोकने का फ़ैसला नहीं किया है. हालांकि, थाईलैंड ने ये ज़रूर कहा है कि वो सुरक्षा संबंधी चिंताओं का ख़याल रखेगा.[8]थाईलैंड का ये नज़रिया कई अन्य देशों के साथ मेल खाता है. इनमें फिलीपींस जैसा दक्षिणी पूर्वी एशिया में अमेरिका का एक पुराना साथी देश भी शामिल है.[9]लैटिन अमेरिका में जहां डिजिटल क्रांति के सामाजिक आर्थिक फ़ायदे महसूस किए जाने लगे हैं, वहां पर कई देश व्यापार युद्ध से बचने की हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं. वो इंटरनेट के खंड-खंड होने और साइबर दुनिया के एक और सैन्य मोर्चा बनने देने के भी ख़िलाफ़ हैं.
सीमित संसाधनों वाले विकासशील देशों के सामने विकल्प चुनने की चुनौती तो है. अब जैसे-जैसे ये देश अपने मूलभूत ढांचे का विकास कर रहे हैं और चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, यूरोपीय संघ और अमेरिका के निजी क्षेत्र के साथ मिलकर अपने यहां डिजिटलीकरण की योजना को आगे बढ़ा रहे हैं, वैसे-वैसे बहुत से देशों को महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे की परस्पर निर्भरता के नेटवर्क से ख़ुद को अलग कर पाना मुश्किल होता जाएगा. परस्पर निर्भरता का एक आयाम तो इत्तेफ़ाक़न है. लेकिन, कई देश किसी एक मुल्क पर निर्भरता के जोख़िम से बचने के लिए भी अपने बुनियादी ढांचे के विकास में कई देशों को साझीदार बना रहे हैं. जैसे कि, आसियान क्षेत्र के देश बड़ी सक्रियता से क्षेत्र के अंदर संपर्क को बढ़ावा देने में जुटे हैं, और इसके लिए आसियान स्मार्ट सिटी नेटवर्क जैसे प्रयासों की मदद ली जा रही है. ऐसे किसी देश के महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे के निर्माण में अगर कई कंपनियों को भागीदार बनाया जाता है, तो आने वाले समय में किसी एक पर निर्भरता का जोख़िम कम होगा और महत्वपूर्ण नेटवर्क की सुरक्षा भी सुनिश्चित की जा सकेगी. आसियान के दस सदस्य देशों के बीच तकनीकी संपर्क में एकरूपता लाकर, और एक दूसरे के तकनीकी मंचों के बीच समन्वय या मिलकर काम करने की क्षमता विकसित करने के साथ-साथ, संबंधित देशों के लिए अपने अपने नेटवर्क का चुनाव करने की संप्रभुता को भी बचाए रख पाना मुश्किल हो रहा है. क्योंकि, अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते तनाव का असर इस क्षेत्र पर भी पड़ रहा है. लेकिन, किसी एक विक्रेता या तकनीक के एक ही सप्लायर पर निर्भर रहना भी जोख़िम भरा हो सकता है.
सीमित संसाधनों वाले विकासशील देशों के सामने विकल्प चुनने की चुनौती तो है. अब जैसे-जैसे ये देश अपने मूलभूत ढांचे का विकास कर रहे हैं और चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, यूरोपीय संघ और अमेरिका के निजी क्षेत्र के साथ मिलकर अपने यहां डिजिटलीकरण की योजना को आगे बढ़ा रहे हैं, वैसे-वैसे बहुत से देशों को महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे की परस्पर निर्भरता के नेटवर्क से ख़ुद को अलग कर पाना मुश्किल होता जाएगा.
एक बिना भरोसे वाले नेटवर्क के हवाले से साइबर सुरक्षा को लेकर जताई जा रही चिंता का असर, जांच परख कर भरोसा करने के मंत्र पर भी पड़ रहा है. ऐसे में कई देशों के लिए, अपने सामरिक फ़ैसले इन आयामों को ध्यान में रखकर भी करने पड़ेंगे. उदाहरण के लिए, वियतनाम और भारत ने अपने स्वदेशी 5G इकोसिस्टम का निर्माण करने की शुरुआत की है. इसके लिए वो स्थानीय तकनीकी आपूर्तिकर्ताओं की मदद ले रहे हैं.[a]जबकि, भारत और वियतनाम दोनों ही देशों के लिए ये काम मुश्किल हो रहा है. इसकी एक वजह तो ये है कि दोनों देशों में ग्रामीण जनसंख्या अधिक है, और दूसरी बात ये कि 5G का मूलभूत ढांचा विकसित करने में बहुत पूंजी लग रही है.[11]छोटे देशों के लिए तकनीक महंगी होने के बावजूद, स्वदेशी तकनीक विकसित करना मुश्किल होता है. इसके अलावा, भले ही स्वदेशी तकनीक भले ही आदर्श हो, मगर इसे हासिल करने का लक्ष्य हमेशा लंबी अवधि का होता है.
ऐसी परिस्थिति में आज भी परस्पर निर्भरता ही एक मात्र तरज़ीह देने वाला विकल्प है. हालांकि, परस्पर निर्भरता से आज की दुनिया के तमाम भौगोलिक सामरिक असंतुलन पर पर्दा पड़ जाता है.
निर्भरता
डिजिटलीकरण के अभियान का सबसे बड़ा वादा ये है कि इससे लोगों के रहन-सहन का स्तर बढ़ेगा. अफ्रीका के सहारा क्षेत्र के देशों, एशिया, लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई देशों में कामकाज की उम्र वाले लोगों की आबादी बढ़ रही है. इन क्षेत्रों में डिजिटलीकरण से आबादी वाली पूंजी के आर्थिक लाभ की संभावनाओं को बढ़ाया जा सकता है. इसके लिए उचित तकनीकी उपकरणों, सरकारी नीतियों और निजी क्षेत्र के निवेश की ज़रूरत होगी. इन विकासशील देशों (Global South) में निश्चित रूप से हौसला बढ़ाने वाली प्रगति देखने को मिल रही है. तकनीकी संसाधनों के उपयोग से इथियोपिया के किसानों को अब मौसम के पूर्वानुमान की जानकारी आसानी से हो जाती है. सिएरा लियोन में इबोला वायरस के प्रकोप के आंकड़े आसानी से जुटाए जा रहे हैं. पूरे एशिया में ई-कॉमर्स का विकास करने और ब्राज़ील के शहरीकरण में भी तकनीक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है.[12]
पिछले साल तक, दुनिया भर में 4.1 अरब लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे थे. ये संख्या दुनिया की कुल आबादी से बस थोड़ी ही ज़्यादा है. आज मोबाइल कनेक्शन की उपलब्धता बढ़ते और मोबाइल और डेटा सस्ते होने का फ़ायदा ये हुआ है कि दुनिया के सभी क्षेत्रों में इंटरनेट की सुविधा कंप्यूटर के बजाय मोबाइल के ज़रिए पहुंचाई जा रही है.[13]एक मोटे अनुमान के मुताबिक़, आज दुनिया में पांच अरब स्मार्टफ़ोन हैं. स्मार्टफ़ोन के इस बाज़ार पर सैमसंग, हुवावे और एप्पल के मोबाइल फोन का दबदबा है. वर्ष 2025 तक दुनिया में स्मार्टफ़ोन की संख्या बढ़कर सात अरब तक पहुंचने की संभावना है. इन नए स्मार्टफ़ोन उपभोक्ताओं में से दो तिहाई एशिया प्रशांत और अफ्रीका के सहारा क्षेत्र के देशों से जुड़ेंगे.[14]ये आंकड़े बताते हैं कि डिजिटल भविष्य असल में मोबाइल ही है.
फिर भी, इस पूर्वानुमान के बावजूद, आज भी सबसे कम मोबाइल फ़ोन (ज़रूरी नहीं कि वो स्मार्टफ़ोन ही हो) कनेक्शन का औसत दक्षिण एशिया और अफ्रीका में ही देखने को मिलता है. इसकी वजह ये है कि मोबाइल रखने का सीधा संबंध आमदनी के स्तर से जुड़ा है. दुनिया के अलग-अलग इलाक़ों में मोबाइल फ़ोन कनेक्शन और इंटरनेट का वितरण बहुत असमान है. आज इंटरनेट से महरूम दुनिया की ज़्यादातर आबादी सबसे कम विकसित देशों में ही रहती है, जो मुख्य तौर पर अफ्रीका और दक्षिण एशिया में हैं. इसके अलावा, मोबाइल ब्रॉडबैंड के बंडल पैकेज, जिनमें वॉयस और डेटा प्लान शामिल हैं, वो अन्य देशों की तुलना में अफ्रीका में ज़्यादा महंगे हैं.[15]
डेटा से परिवर्तन लाने की संभावना तभी उत्पन्न होती है, जब ये उन लोगों के काम आ सके, जिन विविध समाजों से ये डेटा एकत्रित किया जाता है. ऐसे लोगों की नुमाइंदगी अभी बहुत कम है. जब भी लोग अपने से जुड़े डेटा किसी बड़ी कंपनी को सौंप देते हैं, तो उसके बाद उनके अपने व्यक्तित्व की महत्ता और अधिकार ख़त्म हो जाते हैं.
ये डिजिटल विभाजन और गंभीर तस्वीर अख़्तियार कर लेता है, जब हम इसकी तुलना अलग-अलग देशों की आबादी के लिहाज़ से करते हैं. आज दुनिया की 61 प्रतिशत आबादी एशिया में निवास करती है.[16]एशिया में भी सबसे ज़्यादा जनसंख्या चीन और भारत में आबाद है. लेकिन, 10 करोड़ या इससे ज़्यादा आबादी वाले दुनिया के 13 देशों में से सात देश भी एशिया के ही हैं.[17]इस सदी के आख़िर के आते आते, संभावना ये है कि दुनिया की 90 प्रतिशत आबादी यूरोप और उत्तरी अमेरिका से बाहर रह रही होगी. इनमें से ज़्यादातर लोग एशिया और अफ्रीका के सहारा क्षेत्र के देशों में रह रहे होंगे.
अब अगर दुनिया की अधिकतर आबादी विकासशील देशों में रह रही है, और यही देश डिजिटल उत्पादों और सेवाओं के सबसे तेज़ी से बढ़ रहे बाज़ार हैं, तो निश्चित रूप से इन लोगों की संख्या के अनुपात में इनके पास तकनीक की उपलब्धता भी होनी चाहिए? इन लोगों के पास ये तय करने का भी बराबरी से अधिकार होना चाहिए कि तकनीक किस तरह से इनके जीवन में बदलाव ला सकती है, या उसे ऐसे तरीक़े से बदलाव लाना चाहिए. इसके साथ-साथ, ये अपेक्षा करना भी उचित होगा कि तकनीक से जुड़े नियम-कायदे और अंतरराष्ट्रीय क़ानूनी फ्रेमवर्क भी इस तरह से बनाया जाना चाहिए, जो दुनिया की बहुसंख्यक आबादी की अपेक्षाओं और उनके जीवन मूल्यों संबंधी दृष्टिकोण को दर्शाए. लेकिन, अभी जो हालात हैं, वो इस सच से बिल्कुल परे हैं.
यहां दो अलग-अलग विषय मिले हुए हैं, जिन्हें हमें अलग-अलग देखना चाहिए. पहली चिंता तो विकासशील देशों में तकनीक का उपभोग और डेटा निर्माण की है. दूसरा सवाल तकनीक और डेटा के नियमन के लिए बने अंतरराष्ट्रीय प्रशासनिक ढांचे का है. सवाल इस बात का भी है कि डेटा का इस्तेमाल किस तरह से किया जाना चाहिए और ये भी कि इसके नियम कौन तय करेगा?
चीन और भारत को छोड़ दें, तो ज़्यादातर विकासशील देशों में तकनीक का उत्पादन न के बराबर होता है. ये देश तकनीक के उपभोक्ता अधिक हैं. इसीलिए, विकासशील देशों के आकार और उनकी आबादी, और मोबाइल तक बढ़ती पहुंच के कारण, एल्गोरिदम की प्रक्रिया और डेटा जुटाने के लिहाज़ से एक शानदार अवसर मुहैया कराते हैं. ये डेटा भलाई का एक मज़बूत माध्यम बन सकता है. लेकिन, डेटा से परिवर्तन लाने की संभावना तभी उत्पन्न होती है, जब ये उन लोगों के काम आ सके, जिन विविध समाजों से ये डेटा एकत्रित किया जाता है. ऐसे लोगों की नुमाइंदगी अभी बहुत कम है. जब भी लोग अपने से जुड़े डेटा किसी बड़ी कंपनी को सौंप देते हैं, तो उसके बाद उनके अपने व्यक्तित्व की महत्ता और अधिकार ख़त्म हो जाते हैं. इसके बाद बड़ी तकनीकी कंपनियों के हाथ में मौजूद इस डेटा का इस्तेमाल कैसे होगा, इस पर डेटा के स्रोत बनने वाले विविध समुदायों के लोगों की भूमिका ख़त्म हो जाती है. उनकी आवाज़ अनसुनी कर दी जाती है.[19]इसी वजह से डेटा को लेकर, ‘देशों के विकास और नीति नियंताओं व विकास की कोशिशों पर निजी बड़ी कंपनियों के तुलनात्मक रूप से अधिक प्रभाव को लेकर चिंताएं भी जताई जाती हैं.’[20]
चीन की प्रगति और तकनीकी रेस में अब तक आगे चलते रहे अमेरिका से मुक़ाबले की आशंका ने डिजिटल दुनिया के प्रशासन को लेकर चिंताएं बढ़ा दी हैं. तकनीकी मानक तय करने का काम अब तक पारंपरिक रूप से अमेरिकी और यूरोपीय खिलाड़ी करते आए थे. अब चीन के उभार के कारण इस क्षेत्र में एक नया प्रतिद्वंदी विश्व मंच पर खड़ा हो गया है
उदाहरण के लिए, अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कंपनियों (MNCs) जैसे कि माइक्रोसॉफ्ट और सिस्को कई दशक से विकासशील देशों में कारोबार कर रही हैं.[21]बहुत से देशों में, इन कंपनियों और इनके उत्पादनों ने ही पिछले कई वर्षों के दौरान डिजिटल क्षमता बढ़ाई है, रोज़गार के अवसर पैदा किए हैं. लेकिन, ‘बहुराष्ट्रीय कंपनियां स्थानीय श्रम और वैश्विक राजस्व के बीच परस्पर निर्भरता के संबंधों का विकास नहीं करती हैं, जबकि ये संबंध ही प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के अनुरूप ढाले जाते हैं.’[22]इसके अलावा, अमेरिका की बड़ी तकनीकी कंपनियों के माध्यम से स्थानीय लोगों की निगरानी के भी इल्ज़ाम लगते रहे हैं. वर्ष 2013 में अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के लीक से ये बात बिल्कुल साफ हो गई थी.[b]इसके अलावा, सोशल मीडिया की विशाल कंपनियों, जैसे कि गूगल और फ़ेसबुक की प्रगति ने न केवल डेटा के दोहन की प्रक्रिया को न केवल नई धार और रफ़्तार दे दी है, बल्कि इन कंपनियों के चलते आज लोगों के बर्ताव की वैश्विक व्यवस्था में भी बदलाव आ गया है. आज इन सोशल मीडिया कंपनियों के ऊपर, एक नए तरह के उपनिवेशवाद के विस्तार के भी इल्ज़ाम लगने लगे हैं.[23]स्टैटिस्टा के जुलाई 2020 के आंकड़ों के मुताबिक़, फ़ेसबुक के दुनिया के दस बड़े बाज़ार वाले देश विकासशील राष्ट्र ही हैं. इनमें भी 29 करोड़ फ़ेसबुक यूज़र्स के साथ भारत पहले स्थान पर आता है.[24]
माइकल क्वेट तर्क देते हैं कि नेटवर्क, सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर के स्तर पर इस डिजिटल ढांचे पर कुछ कंपनियों के प्रभुत्व ने उपनिवेशवाद को पांच तरीक़ों से फिर से जन्म दे दिया है-
किराए और निगरानी के ज़रिए संसाधनों का दोहन
डिजिटल इको-सिस्टम का नियंत्रण और फिर इसके ज़रिए से कंप्यूटर को माध्यम बनाकर लोगों के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन को नियंत्रित करना
निजता का हनन और बिग डेटा के माध्यम से इन अमेरिकी कंपनियों के हाथ में आर्थिक शक्ति का केंद्रीकरण
निजी क्षेत्र और ख़ुफ़िया एजेंसियों के बीच सांठ-गांठ से विकासशील देशों में बड़े पैमाने पर लोगों की निगरानी और
अमेरिका से कुलीन वर्ग की ये सोच कि दुनिया भर के समाजों को अमेरिका की अपनी डिजिटल दुनिया की परिकल्पना को अपनाना चाहिए, जो तकनीकी दादागिरी पर आधारित है.[25]
ये चिंताएं अभी भी बनी हुई हैं और तकनीकी क्षेत्र में नए खिलाड़ियों, ख़ास तौर से चीन की कंपनियों के विकासशील देशों में प्रवेश करने के बाद और बढ़ गई हैं. चीन द्वारा अफ्रीकन यूनियनन के मुख्यालय की जासूसी का फ्रांसीसी अख़बार ले मॉन्डे ने जो पर्दाफ़ाश किया था, वो तो बस इसकी एक मिसाल भर है.[26]जिस तरह से चीन के बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव के माध्यम से चीन की बड़ी बड़ी कंपनियां अपना विस्तार कर रही हैं, दूसरे देशों मे पैठ बना रही हैं, उसे लेकर भी आशंकाएं जताई जा रही हैं. जैसा चीन से पहले आने वाली पश्चिमी देशों की कंपनियों ने किया था, वैसे ही चीन की बड़ी-बड़ी कंपनियां, जो सरकारी हों या निजी, वो आज अंतरिक्ष से लेकर (नैविगेशन सैटेलाइट सिस्टम), साइबर स्पेस (नेटवर्क, हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर एप्लिकेशन), ज़मीन (रेलवे लाइन, बंदरगाह और हाइवे) और समुद्र (पानी के भीतर अंतरराष्ट्रीय संचार केबल) तक अपनी पहुंच बना चुकी हैं.
चीन का घरेलू बाज़ार ख़ुद में इतना बड़ा है कि उससे चीन की आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) के विकास और इस क्षेत्र में वर्ष 2030 तक वैश्विक शक्ति बनने की महत्वाकांक्षा को बढ़ावा मिले. सरकार के नेतृत्व वाली नीतियों और स्थानीय औद्योगिक समुदाय के आविष्कार के सहयोग से चीन ने आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को आज स्वास्थ्य क्षेत्र और ई-कॉमर्स के एप्लिकेशन से लेकर, लोगों के बर्ताव की निगरानी और जनता की आवाज़ दबाने में इस्तेमाल करने की शुरुआत कर दी है. आज चीन द्वारा बाहरी पक्षों के साथ मिलकर ढेर सारे आंकड़े जुटाने के कई साझा प्रोजेक्ट चला रखे हैं. जैसे कि चीन-आसियान डिजिटल ट्रेड सेंटर, चीन-आसियान इन्फ़ॉर्मेशन हार्बर और चीन व पश्चिमी एशिया/मध्य पूर्व के देशों के साथ साझा ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म को विकसित करने से चीन को डेटा माइनिंग और एल्गोरिदम बेहतर बनाकर तकनीक के दोहरे इस्तेमाल के अवसर प्राप्त होंगे. उदाहरण के लिए ज़िम्बाब्वे में इकट्ठे किए गए आंकड़ों को चीन की क्लाउड वाक टेक्नोलॉजी को भेजा जाएगा. चीन की इस कंपनी को ज़िम्बाब्वे में फेशियल रिकॉन्गिशन को बडे़ पैमाने पर लागू करने का ठेका मिला है. जब ज़िम्बाब्वे में इकट्ठे किए गए आंकड़े चीन स्थित क्लाउड वाक के सर्वर को भेजे जाएंगे, तो कंपनी के एल्गोरिदम को अश्वेत का सांवली रंगत वाले लोगों को पहचानना सीखने की ट्रेनिंग दी जा सकेगी.[27]चीन की निगरानी करने वाली तकनीक को कई अन्य अफ्रीकी देशों को भी बेचा गया है. इनमें अंगोला, केप वर्ड, दक्षिण अफ्रीका और युगांडा शामिल हैं. इन देशों को चीन, निगरानी के लिए प्रशिक्षण देने के साथ-साथ, मूलभूत तकनीकी ढांचा भी उपलब्ध करा रहा है. इससे निगरानी वाली तकनीक के दुरुपयोग को लेकर काफ़ी चिंताए जताई जा रही हैं.[28]लेकिन, इससे भी बड़ी चिंता की एक और बात है. चीन के BRI प्रोजेक्ट के तहत उसकी कंपनियां पूरी दुनिया में बंदरगाह, रेल लाइनें, हाइवे, संचार केबल क्लाउड स्टोरेज और डिजिटल प्लेटफॉर्म के विकास के काम में जुटी हैं. इसके कारण आशंका ये जताई जा रही है कि आर्थिक और विकास संबंधी इस रणनीति को आगे चल कर चीन एक हथियार के तौर पर भी इस्तेमाल कर सकता है. क्योंकि, विकास के ये अधिकतर प्रोजेक्ट चीन क़र्ज़ के माध्यम से चला रहा है. इसकी वजह से जिन देशों में चीन के प्रोजेक्ट तैयार कर रहा है, वो अब चीन के साथ परस्पर रूप से निर्भरता के रिश्ते में नहीं हैं, बल्कि पूरी तरह चीन पर निर्भर हो गए हैं.[29]
चीन की प्रगति और तकनीकी रेस में अब तक आगे चलते रहे अमेरिका से मुक़ाबले की आशंका ने डिजिटल दुनिया के प्रशासन को लेकर चिंताएं बढ़ा दी हैं. तकनीकी मानक तय करने का काम अब तक पारंपरिक रूप से अमेरिकी और यूरोपीय खिलाड़ी करते आए थे. अब चीन के उभार के कारण इस क्षेत्र में एक नया प्रतिद्वंदी विश्व मंच पर खड़ा हो गया है. क्योंकि, चीन घरेलू स्तर पर तकनीकी नियमों के जो मानक तय कर रहा है, उसे वो अपने BRI प्रोजेक्ट में साझीदार देशों में भी लागू कर रहा है. यानी चीन के तकनीकी मानक दुनिया के कई देशों में लागू हो रहे हैं. इस वजह से वैश्विक मानक तय करने वाले संस्थानों में चीन की दिलचस्पी भी बढ़ रही है.[30]मानक तय करने वाली संस्थाओं जैसे कि थर्ड जेनरेशन पार्टनर प्रोजेक्ट और इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशन यूनियन में चीन के नेतृत्व प्रदान करने के कारण, इन संस्थाओं को भी तकनीकी मानकों के विकास में चीन का मार्गदर्शन मिल रहा है.[31]इस बीच, सूचना और दूरसंचार के क्षेत्र से जुड़ी अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में, संयुक्त राष्ट्र के ग्रुप ऑफ़ गवर्नमेंट एक्सपर्ट्स ऑन डेवेलपमेंट्स (GGE) में चीन की भागीदारी और वैश्विक डेटा सुरक्षा इनिशिएटिव जैसे चीन के सबसे हालिया प्रस्ताव, जिसे अमेरिका के क्लीन नेटवर्क इनिशिएटिव के उत्तर के तौर पर पेश किया गया था, से साइबर दुनिया में एजेंडा तय करने वाली अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में चीन की बढ़ती भूमिका बिल्कुल स्पष्ट है.[32]
दुनिया की आबादी के संकेतों को देखें, तो एशिया और अफ्रीका के देशों को चाहिए कि वो अपने विशिष्ट संदर्भों के अनुसार मौजूदा विचारों से प्रेरणा लेते हुए नए विचारों को जन्म दें और तकनीक को लेकर चल रही परिचर्चाओं में अपना योगदान दें.
अपने तमाम अंतरराष्ट्रीय प्रस्तावों में चीन बड़ी चतुराई से वो तर्क शामिल करता है, जो विकासशील देशों की अपनी आवाज़ से मिलते हैं. जैसे एकपक्षीय व्यवस्था के बजाय बहुपक्षीयता को बढ़ावा देना, विशिष्टता के बजाय सहयोग, साम्राज्यवाद की जगह संप्रभुता. ये बातें, ग्लोबल साउथ के उन देशों के अपने अनुभवों से मेल खाती हैं, जो उपनिवेशवाद के बाद के दौर में विकसित देशों की दादागीरी, प्रभाव और अधिक पहुंच की समस्या से जूझ रहे हैं. इन देशों के लिहाज़ से डिजिटल भविष्य ऐसा नहीं होना चाहिए कि एक शक्तिशाली समूह की जगह कोई और देश दादागिरी करना शुरू कर दे, और न ही ये देश यही चाहते हैं कि दो बड़े देश या साम्राज्य, उन्हें अपना संरक्षण प्रदान करने के नाम पर आपस में संघर्ष करने लगें. इसके अलावा जो एक और अहम बात है, वो ये है कि दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाले क्षेत्रों एशिया और अफ्रीका के लोग ये नहीं चाहते हैं कि उनके डिजिटल भविष्य का फ़ैसला कैलिफ़ोर्निया में बैठे कुछ गोरे मर्द करें. इस बात को नेटफ्लिक्स की सीरीज़- द सोशल डायलेमा में बख़ूबी दिखाया गया है.
स्वतंत्रता?
देशों के लिए अपना स्वतंत्र डिजिटल भविष्य हासिल करना शायद संभव ही नहीं है. इस बात की परिकल्पना हक़ीक़त से परे है कि किसी देश के डिजिटल भविष्य पर किसी एक सरकार या निजी क्षेत्र की कंपनियों का नियंत्रण न हो और किसी अन्य देश की सरकार या कंपनी उनका शोषण न करे. इसकी बड़ी वजह देशों के आकार, उनकी क्षमता, राजनीतिक शक्ति और तकनीकी क़ुव्वत में बड़ी असमानता है. एक और चुनौती जो डिजिटलीकरण की प्रक्रिया के दौरान आगे चलकर आएगी वो ये होगी कि किसी अन्य देश की तकनीक या कंपनी पर अपनी निर्भरता कम से कमतर रखना, और इसके साथ-साथ अन्य देशों के बुनियादी ढांचे और तकनीकी मंचों के साथ सामंजस्य बनाए रखना. इसके पीछे कारण ये है कि पश्चिमी और अन्य तकनीकी कंपनियां अक्सर अपने साथ पूरा बुनियादी ढांचा, सॉफ्टवेयर, और डेटा विश्लेषण के पैकेज ले कर आते हैं.
भविष्य में अधिक जानकारी वाले, स्वायत्त और अर्थपूर्ण सहयोग के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नीचे जो सुझाव दिए गए हैं, उनके तहत तीन तरीक़ों का प्रस्ताव रखा गया है, जो विश्व के नए उभरते भौगोलिक सामरिक मंज़र में उचित मालूम पड़ते हैं.
पहलासुझाव तो ये है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकासशील या कम विकसित देशों के लिए तकनीक पर चल रहे मौजूदा संवाद का हिस्सा बनना ज़रूरी है, फिर चाहे वो नई तकनीक के आविष्कार हों या नहीं. छोटे हों या फिर बड़े, विश्व के डिजिटल भविष्य में हर देश की अपनी भागीदारी है, क्योंकि ये सभी देश आने वाले तकनीकी भविष्य का ही हिस्सा होंगे, और इसीलिए इन देशों को इस बात का अधिकार भी है और इन पर ये ज़िम्मेदारी भी है कि वो भविष्य की दुनिया को गढ़ने में अपनी भूमिका और अपना दायित्व निभाएं. दुनिया की आबादी के संकेतों को देखें, तो एशिया और अफ्रीका के देशों को चाहिए कि वो अपने विशिष्ट संदर्भों के अनुसार मौजूदा विचारों से प्रेरणा लेते हुए नए विचारों को जन्म दें और तकनीक को लेकर चल रही परिचर्चाओं में अपना योगदान दें. उनकी अवधारणाओं के भौगोलिक सामरिक पहलू होने के बावजूद, GGE और इसके समानांतर चल रही प्रक्रिया का मौजूदा दृष्टिकोण, सूचना और संचार के क्षेत्र में ओपेन एंडेड वर्किंग ग्रुप ऑन डेवेलपमेंट (OEWG) जो अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी विषय पर आधारित है, उसने मुद्दों के प्रति जागरूकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. इसकी मदद से देशों के दृष्टिकोण व्यापक हुए हैं और देशों की भागीदारी में भी विविधता आई है.[33]
आज दुनिया की ज़्यादातर आबादी ग्लोबल साउथ के देशों यानी विकासशील या कम विकसित देशों में रहती है. इन लोगों के लिए अधिकार, प्रतिनिधित्व और स्पष्ट विकल्प का चुनाव कर पाने की क्षमता ही द्विध्रुवीय विश्व में इनकी स्वायत्तता के संरक्षण की धुरी होगी
OEWG ने एक ऐसा मंच प्रदान किया है जहां अधिक से अधिक लोगों की बातों को सुना जाता है, विचारों का आदान-प्रदान किया जाता है. ये वो पक्ष होते हैं जो परिचर्चा के भागीदार होते हैं. लेकिन, जो इससे पहले आम तौर पर परिचर्चाओं का हिस्सा नहीं बनाए जाते थे. ये बात स्पष्ट रूप से तब देखने को मिली थी, जब दिसंबर 2019 में OEWG का अनौपचारिक सलाह मशविरे का सत्र आयोजित किया गया था.[34]जिन देशों को GGE में प्रतिनिधित्व अब तक नहीं मिला है, उन देशों के लिए OEWG के रूप में एक ऐसा मंच मिला है, जहां पर वो अहम मुद्दों जैसे कि साइबर दुनिया में अंतरराष्ट्रीय क़ानून लागू करने पर अपने हितों और नज़रियों को सामने रख सकते हैं. OEWG में ज़्यादा से ज़्यादा देशों को अपनी बात कह पाने का मौक़ा मिल पाता है, ऐसे में संभावना इसी बात की है कि OEWG को भी वैश्विक संवाद का हिस्सा बनाने की मांग को समर्थन और बढ़ेगा.[35]
दूसरी बात ये है कि तमाम देशों के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा संचालित और अन्य अंतरराष्ट्रीय प्रक्रियाओं का अधिक से अधिक लाभ लेने के लिए, अपने यहां कैपेसिटी बिल्डिंग के लिए, उनके सामने एक बात बिल्कुल साफ़ होनी चाहिए कि उनकी प्राथमिकताएं क्या हैं और उनके हित किन बातों में निहित हैं. परिचर्चाएं तब ही सबसे अधिक सार्थक होती हैं, जब उसमें शामिल सभी पक्ष जागरूक हों और सबको अपनी बात रखने का मौक़ा मिले. सरकारों, उद्योगों और नागरिक समूहों के बीच, घरेलू स्तर पर जो नियमित रूप से विचारों का आदान प्रदान होता रहता है, वो तब और सार्थक हो सकता है, जब इस संवाद में एक तरफ तो तकनीक के आविष्कारक और निर्माता हों और दूसरी तरफ तकनीक के यूज़र और उपभोक्ताओं के बीच संवाद हो. इन परिचर्चाओं से तकनीक संबधी दृष्टिकोण विकसित करने, इसकी दशा दिशा तय करने में उन देशों के भीतर आत्मनिर्णय के अधिकार की बुनियादें मज़बूत होती हैं, जो क्षेत्रीय या वैश्विक स्तर पर अपने आपको शक्तिशाली महसूस नहीं करते हैं.
तीसरा सुझाव ये है कि राजनीतिक स्तर के नीचे की साझेदारियां तभी अधिक अर्थपूर्ण होती हैं, जब संचार के माध्यम खुले हों और दोनों ही पक्षों के बीच सहयोग की इच्छाशक्ति मज़बूत हो. ऐसी साझेदारियां जो अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में होती हैं, जैसे कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में भागीदारी, इसमें अधिकतर अमेरिकी पक्ष ही शामिल हैं. इसमें अमेरिकी थिंक टैंक, नागरिक समूह, विद्वान, अंतरराष्ट्रीय संगठन और यहां तक कि चीन की तकनीकी कंपनी बायदू शामिल है. इससे साफ़ पता चलता है कि भौगोलिक तकनीकी दरारों को भरने की किस कदर आवश्यकता है. परस्पर निर्भरता के अभाव में भी देशों और पक्षों के बीच सहयोग को बढ़ाया जा सकता है.
ऐसा नहीं है कि अमेरिका और चीन के बीच तकनीकी दुश्मनी को नियति ने पहले से ही तय कर दिया था, और अन्य देशों को दोनों पक्षों में से किसी एक का चुनाव करने की मजबूरी ही हो जाए, ऐसा भी ज़रूरी नहीं. ऐंग युएन कहती हैं कि जहां तक चीन की बात है, तो वो ‘तकनीक का इस्तेमाल करके बिज़नेस मॉडल, जैसे कि ई-कॉमर्स और वित्तीय तकनीक, को बेहतर बनाने का महारथी है, वहीं अमेरिका आज भी बुनियादी वैज्ञानिक रिसर्च का वर्ल्ड लीडर है, और ये बुनियादी वैज्ञानिक रिसर्च ही है जो आज की उन्नत तकनीक की बुनियाद बनती है. चीन और अमेरिका की तुलनात्मक तकनीकी बढ़त अलग-अलग क्षेत्रों में है, और इसीलिए ये किसी एक को चुनने का मामला नहीं है. एक राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ आगे बढ़ें, तो अमेरिका और चीन के बीच का ये अंतर, किसी देश के लिए फ़ायदे का सौदा भी बनाया जा सकता है. एक उम्मीद वाला नज़रिया अपनाएं तो दो महाशक्तियों के बीच इस संघर्ष में आगे चलकर युद्ध विराम होने की भी उम्मीद लगाई जा सकती है. अगर ऐसा होता है, तो बाक़ी के अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर अमेरिका और चीन के संघर्ष से पड़ रहा दबाव भी कम हो जाएगा.
लेकिन, यहां ध्यान रखने वाली बात ये है कि उम्मीद कोई रणनीति नहीं होती. आने वाले समय में तनाव और बढ़ना तय है क्योंकि आज तकनीक ही किसी देश की ताक़त निर्धारित करने का प्रमुख माध्यम बन चुकी है. आने वाले समय में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम कंप्यूटिंग और छठवीं पीढ़ी के वायरलेस नेटवर्क के विकास पर तकनीक के राजनीतिकरण का प्रभाव पड़ना तय है. ऐसा होने पर बाज़ार तक पहुंच और प्रभुत्व, और इसके साथ तकनीकी मानक तय करने के क्षेत्र में भी प्रतिद्वंदिता बढ़ने की आशंका है.
आज दुनिया की ज़्यादातर आबादी ग्लोबल साउथ के देशों यानी विकासशील या कम विकसित देशों में रहती है. इन लोगों के लिए अधिकार, प्रतिनिधित्व और स्पष्ट विकल्प का चुनाव कर पाने की क्षमता ही द्विध्रुवीय विश्व में इनकी स्वायत्तता के संरक्षण की धुरी होगी. भले ही आज विश्व में तकनीकी परस्पर निर्भरता में ख़लल पड़ गया है, लेकिन तकनीकी स्वतंत्रता न तो उचित है और न ही इसे हासिल कर पाना संभव है. ऐसे में विकासशील देशों द्वारा किसी एक विश्व शक्ति पर निर्भरता से बचने की हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए. आज तकनीक के क्षेत्र में सबकी भागीदारी, पारदर्शिता और जवाबदेही बेहद महत्वपूर्ण हो गई है. हमें इन्हीं मूल्यों पर विश्वास करना चाहिए. बाक़ी सब कुछ तो बस राजनीति है.
Endnotes
[1]United Nations,The Age of Digital Interdependence, Report of the United Nations Secretary-General High-Level Panel on Digital Cooperation, June 2019.
[2]“The Age of Digital Interdependence, June 2019”
[11]Both India’s and Vietnam’s rural populations are estimated at over two-thirds of their total population (63 and 66 per cent, respectively). The World Bank’s figures are based on the United Nations Population Division’s World Urbanization’s Prospects: 2018 Revision. The World Bank, “Rural population (% of total population),” 2019.
[17]In order of current population size, the thirteen countries are China, India, the United States, Indonesia, Brazil, Pakistan, Nigeria, Bangladesh, Russia, Mexico, Japan, Ethiopia, and the Philippines. Max Roser, “The map we need if we want to think about how global living conditions are changing”, OurWorldInData.org, September 12, 2018.
[19]See, g., Payal Arora, “The Bottom of the Data Pyramid: Big Data and the Global South,” International Journal of Communication 10, 2016, 1681-1699; Martin Hilbert, “Big Data for Development: From Information-to-Knowledge Societies,” available at SSRN, January 15, 2013.
[22]Oleg Abdurashitov, “The Obsolecing Bargain Model and the Digital Economy,” Kaspersky, September 17, 2020.
[23]According to some statistics, Facebook owns four of the six social media platforms that claim more than one billion monthly active users each. See, e.g., “Global Social Media Overview,” Datareportal, July 2020. Nick Couldry and Ulises A. Mejias, The Costs of Connection, (Stanford: Stanford University Press, 2019); Shoshana Zuboff, The Age of Surveillance Capitalism: The Fight for a Human Future at the New Frontier of Power, (New York: PublicAffairs, 2019).
The initiative was launched by Chinese State Councillor and foreign minister, Wang Yi, at an international seminar on “Seizing digital opportunities for cooperation and development.” Wang Wen Wen and Zhang Hui, “China launches data security initiative, respects data sovereignty,” Global Times, September 8, 2020.
[32]United Nations General Assembly, Resolution adopted by the General Assembly,A/RES/73/27, Seventy-third session, Agenda item 96, New York, December 11, 2018. The 2019-2021 GGE proposal was led by the United States while the 2019-2020 OEWG proposal was led by Russia.
[33]United Nations cyber consultations with all stakeholders, UNHQ New York, December 2-4, 2019.
[a]As a concept, a zero-trust network eliminates the reliance on trust within a network. It, in fact, assumes breach from within and beyond a network. Network access, therefore, is severely limited and constant verification is a requirement. Zero-trust is considerably stricter than the trust-but-verify model which assumes trust
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