काबुल से अमेरिका के हड़बड़ी में लौटने के बाद पैदा हुआ संकट काफ़ी परेशान करने वाला है क्योंकि ऐसी परिस्थितियों को पैदा होने से रोका जा सकता था, लेकिन ये काफ़ी हद तक रणनीतिक था. बल्कि रणनीतिक दृष्टिकोण से देखें तो अफ़ग़ानिस्तान में राष्ट्र-निर्माण के अमेरिकी प्रयासों की विफलता को क़रीब 15 साल पहले मेरी किताब “एथिकल रियलिज़्म”, जिसे मैंने अनातोल लिवेन के साथ लिखा था, में विदेशी नीति के जानकारों ने बहुत पहले ही भांप लिया था. इसमें हमने उदारवादी, हस्तक्षेपवादी, नव-रूढ़िवादी डेमोक्रेटिक-रिपब्लिकन गठजोड़ (liberal interventionist-neoconservative Democratic-Republican alliance) को आड़े हाथों लेते हुए उन्हें विदेश नीति निर्माण में आपराधिक स्तर की कार्रवाई के लिए ज़िम्मेदार ठहराया था. हमने ये पूर्वानुमान लगाया था कि इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान दोनों देशों के साथ युद्ध केवल बर्बादी के कगार पर ले जायेगा, जिसे अब हम वर्तमान में देख रहे हैं. हां, वापिस लौटने की कार्रवाई और अधिक सावधानी और देखभाल के साथ किए जाने की जरूरत थी. उदाहरण के लिए, वापिस लौटने की प्रक्रिया के दौरान एयरपोर्ट पर अपना मज़बूत नियंत्रण बनाए रखने की आवश्यकता थी. अमेरिका के पास काबुल के उत्तर में बगराम एयर बेस था, जो पूरे क्षेत्र में सबसे अच्छे हवाई अड्डों में से एक था, जिसमें दो-रनवे क्षमता, राजधानी तक आसान पहुंच और क्षेत्र का लंबे समय से सैन्य नियंत्रण था. बजाय इस सुरक्षित क्षेत्र से निकलने के, अमेरिका ने बेवजह 4 जुलाई को आधी रात में सामरिक रूप से महत्त्वपूर्ण इस क्षेत्र को बिना अफ़ग़ानी सरकार को सूचना दिए छोड़ दिया.
कुछ ही हफ्तों के बाद, काबुल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के आस पास मची अफरातफरी के माहौल के बीच, एक जरूरी सवाल तो रह जाता है: अमेरिका ने बगराम हवाई अड्डे को इस प्रयोजन के लिए इस्तेमाल क्यों नहीं किया?
कुछ ही हफ्तों के बाद, काबुल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के आस पास मची अफरातफरी के माहौल के बीच, एक जरूरी सवाल तो रह जाता है: अमेरिका ने बगराम हवाई अड्डे को इस प्रयोजन के लिए इस्तेमाल क्यों नहीं किया? ये आपराधिक स्तर की गलती थी, और इस मुश्किल वापसी की कार्रवाई के दौरान ये कोई इकलौती गलती नहीं थी.
हालांकि हमें मुख्य रणनीतिक बिंदु पर अपनी नज़र बनाए रखना चाहिए. दिल दहला देने वाली तस्वीरों और संकट भरे हालातों के बीच इन परिस्थितियों को अमेरिकी विदेश मंत्रालय एक बहाने के तौर पर पेश कर रहा है, जबकि उन्होंने ही इस मुसीबत को जन्म दिया है, ताकि वे अफ़ग़ान युद्ध की विफलता से जुड़ी अपनी सारी जवाबदेही से पीछा छुड़ा सकें, एक ऐसी विफलता जो बहुत पहले ही आते हुए दिख गई थी. उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए हमें अफ़ग़ान समस्या से कुछ महत्वपूर्ण सबकों को सीखना होगा, ताकि ऐसी तबाही दुबारा न आए.
- अफ़ग़ानिस्तान, अमेरिका की पूरे विश्व में राष्ट्र-निर्माण से जुड़ी विफल गतिविधियों (सोमालिया, हैती, इराक़, लीबिया, अफ़ग़ानिस्तान) से जुड़े एक बहुत पड़े परिदृश्य का एक छोटा सा हिस्सा है. वे जो राष्ट्र निर्माण नीतियों के उदारवादी हस्तक्षेपवादी/नव-रूढ़िवादी समर्थक हैं, वे ये नहीं सोचते कि हमारी याददाश्त कमजोर है बल्कि उन्हें ये लगता है कि हम चेतनाशून्य हैं यानी हम सब कुछ ही भूल चुके हैं. काबुल की विफलता समस्या नहीं है. बल्कि ये सोमालिया, हैती, इराक़, लीबिया और अफ़ग़ानिस्तान में राष्ट्र निर्माण की असफल सामरिक रणनीति जैसी एक बहुत बड़ी समस्या का एक छोटा सा अंग है.
अमेरिकी हस्तक्षेप
सोमालिया में अमेरिका ने हस्तक्षेप किया, फिर कुछ मामूली हिंसा की घटनाओं के बाद वापिस लौट आया, क्योंकि वहां से वॉशिंगटन के हित नहीं जुड़े थे. अमेरिकी हस्तक्षेप ने सोमालिया के भीतर लगातार जारी गृह युद्ध, आतंक और अराजक परिस्थितियों को रोकने के लिए कुछ नहीं किया. पिछले सौ सालों में अमेरिका ने हैती में लगभग दर्जन बार हस्तक्षेप किया है लेकिन वो आज तक वुडू, कट्टरता और ग़रीबी से ग्रस्त है और आर्थिक रूप से निर्भर है. इराक़ में भी ऐसी ही विफलता की तस्वीर सामने आई. लीबिया में अमेरिकी हस्तक्षेप (जिसे अमेरिका के अशक्त यूरोपीय सहयोगियों द्वारा शुरू किया गया), जैसा कि बराक ओबामा स्पष्ट रूप से कहा, कि यह ‘सबसे मूर्खतापूर्ण काम था’. लीबिया एक तानाशाह (गद्दाफी) के नेतृत्व में एक स्थिर देश की अपनी स्थिति से गृह युद्ध की आग में जलता हुआ एक विफल देश बन गया, जहां आईएसआईएस फिर से अपनी जड़ें जमा लेने में सफल हो गया. लीबिया यूरोप के दक्षिणी हिस्से के लिए एक बहुत बड़े रिफ्यूजी संकट का सबब बन चुका है, जो उसकी स्थिरता को भंग करने का बहाना भर है. अफ़ग़ानिस्तान का मामला अलग नहीं है. ये बस अमेरिका की कई पीढ़ियों से चली आ रही असफल राष्ट्र-निर्माण गतिविधियों का सबसे नया मामला है.
सोमालिया में अमेरिका ने हस्तक्षेप किया, फिर कुछ मामूली हिंसा की घटनाओं के बाद वापिस लौट आया, क्योंकि वहां से वॉशिंगटन के हित नहीं जुड़े थे.
2) आप ऐसे किसी देश में राष्ट्र-निर्माण से जुड़ा कोई काम नहीं कर सकते, जिसके बारे में आप कुछ नहीं जानते. जो कोई भी अफ़ग़ानिस्तान के बारे में कुछ भी जानता है, उसे पता है कि वहां ऐसा कोई राष्ट्र नहीं है जिसे स्थापित किया जा सके. सिकंदर के समय से ही अफ़ग़ानिस्तान एक भौगोलिक पहचान भर रहा है. राजनीतिक हकीकत ये है कि उसे सरल रूप में कई जनजातियों (पश्तून, हाजरा, उज़्बेक, ताजिक आदि) के समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो केवल किसी विदेशी शोषक को हटाने के लिए अस्थाई रूप से संगठित होते हैं और बाद में आपस में संघर्ष करने लगते हैं. जिस किसी को उस क्षेत्र के बारे में थोड़ी भी जानकारी है वो ऐसी किसी नीति का समर्थन नहीं करेगा, यही सबसे मुख्य बात है. पिछले दो दशकों में व्हाइट हाउस के किसी अधिकारी को अफ़ग़ानिस्तान के बारे में इतनी बुनियादी जानकारी भी नहीं थी जो राष्ट्र निर्माण को साकार करने के लिए अहम होती है
जानकारी की कमी की समस्या को इराक़ मामले में भी देखा गया. तब मुझे जल्दी ही इराक़ के प्रशासन का भार उठाने जा रहे एक वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी को सुन्नी, शिया और कुर्द के बीच मामूली अंतर के बारे में उन्हें समझाने की जिम्मेदारी दी गई थी. यहीं पर इराक़ युद्ध की हार तय हो गई थी, कैसे राष्ट्र-निर्माण गतिविधियां सफल होंगी जब वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी ये तक नहीं जानते कि कुर्द कौन हैं, आप ये तो भूल ही जाइए कि वे इन भिन्न भिन्न गुटों के इतिहास, संस्कृति, धार्मिक झुकाव और रणनीतिक महत्वाकांक्षाओं के बारे में जानते होंगे.
जैसा कि लॉरेंस ऑफ अरबिया और द ट्वेंटी सेवन आर्टिकल्स टी. ई. लॉरेंस ने स्पष्ट किया है कि स्थानीय संस्कृतियों के साथ सफलतापूर्वक काम करने के लिए उन्हें लगातार पढ़ना और समझना जरूरी है. ये केवल अफ़ग़ानिस्तान मामले में ही नहीं बल्कि तत्कालीन किसी भी राष्ट्र निर्माण गतिविधियों के उदाहरणों के लिए भी सत्य है.
पिछले दो दशकों में व्हाइट हाउस के किसी अधिकारी को अफ़ग़ानिस्तान के बारे में इतनी बुनियादी जानकारी भी नहीं थी जो राष्ट्र निर्माण को साकार करने के लिए अहम होती है
4) वापिस लौटकर आने में हमेशा ही बुरा होना था लेकिन इसके कारण अनिश्चित समय तक रुका नहीं जा सकता है.
जैसा कि मेरी सबसे नई किताब “टू डेयर मोर बोल्डली: द ऑडेशियस स्टोरी ऑफ पॉलिटिकल रिस्क” में कहा गया था कि नीति निर्माताओं की बुनियादी मनोवैज्ञानिक समस्या को ‘लूजिंग गैंबलर्स सिंड्रोम (हारे जुआरी की बीमारी)’ का नाम दिया जा सकता है, जो एक ऐसी बौद्धिक त्रुटि है के
जो किसी खिलाड़ी को लगातार हारने के बावजूद भी खेलने के लिए उकसाता है, इस तरह से लगातार खेलने के लिए एक असंगत तर्क को खोज लिया जाता है. इसी आधारभूत बौद्धिक असंगति के चलते अमेरिका वियतनाम के सर्वनाश की ओर बढ़ा और समकालीन रूप से देखें तो इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में वो ‘हमेशा युद्ध’ की स्थिति में फंस गया.
अफ़ग़ानिस्तान में 20 सालों की असफलता के पीछे मानवतावादी हस्तक्षेपवादी-नवरूढ़िवादी केवल लूजिंग गैंबलर्स सिंड्रोम का तर्क ही दे सकते हैं; दो दशकों बाद एक लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर (1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर), और 2500 अमेरिकियों की मौत के बाद हमें वहां रुकना था, चूंकि वहां बहुत कुछ हमने निवेश किया था. ये जरूर है कि इस बुरे तर्क की माने तो लगातार बलिदान और लगातार विफलता की हकीकत अमेरिका को उसकी जमीन को कभी नहीं छोड़ने को उकसाती. जो बाइडेन इस मनोवैज्ञानिक भ्रम से अमेरिका को निकालने और वहां से लौटने का फैसला बिल्कुल सही था.
युद्ध हारना एक ऐसी परिस्थिति है जो अपने मूल रूप में हमेशा ही बुरे और परेशान करने वाले हालात (हालांकि अभी हमने उसका असली रूप भी नहीं देखा है) और उसके साथ साथ बदनामी लेकर आएगी. बाइडेन ने एक सही काम गलत तरीके से किया. लेकिन हमें हस्तक्षेपवादियों को इतिहास को फिर से लिखने, उसे बदलने से रोकना होगा; दो दशकों के बाद अफ़ग़ानिस्तान में रुकने का कोई तार्किक कारण नहीं था, हम अपनी गलतियों को और आगे बढ़ाते हुए, लगातार हार झेलते हुए (अमेरिकी धन और मानव संपदा की लागत पर) वहां नहीं रुक सकते थे जबकि हमारे पास जीत का कोई मौका नहीं था.
5) अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ में ‘हमेशा युद्ध’ की रणनीति को ख़त्म करना अमेरिका के लिए बहुत अच्छी बात है, चूंकि इससे उसे हिंद-प्रशांत की ओर बढ़ने और चीन जैसे प्रतिद्वंदी का सामना करने की ओर प्रशस्त करेगा, बजाय इसके कि अमेरिका अपने लिए कम महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में अपना खून बहाए और धन लुटाए.
ये अभियान क्यों विफल रहे?
विदेश नीति के गंभीर अध्ययन का पहला नियम ये है कि सभी देशों के अपने हित होते हैं और उनके अपने हित ही उन्हें अपनी विदेश नीतियों के निर्माण के लिए निर्देशित करते हैं. जैसे, संयुक्त राज्य अमेरिका या वास्तव में किसी अन्य देश के लिए सभी देशों और सभी क्षेत्रों का समान महत्व नहीं है. अमेरिकी राष्ट्र-निर्माण गतिविधियों में एक पूरी पीढ़ी जितना समय बिताने के पीछे का एक बहुत बड़ा कारण ये था कि जब ऐसा उसने लिया तब हम एक ऐसे अनुकूल भू-रणनीतिक दुनिया में रहते थे, जब अमेरिका पूरे विश्व में इकलौता महाशक्ति देश था और वो बिना रणनीतिक परिणाम की चिंता के किसी भी राष्ट्र-निर्माण जैसी सनक में लिप्त हो सकता था.
अगर यह स्थिति यह स्पष्ट करती है कि राष्ट्र-निर्माण की कार्रवाईयां क्यों हुईं, तो इन सभी देशों के रणनीतिक महत्व की कमी ये बताती है कि ये अभियान क्यों विफल रहे. सोमालिया, हैती, लीबिया, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान एक दूसरे एकदम अलग अलग देश हैं लेकिन उनमें सिर्फ़ बात समान है: ये सभी अमेरिका के लिए गौण रूप से महत्व रखते हैं. जब हालात कठिन हो जाते हैं, तब लौटना रुकने की तुलना में कहीं अधिक तर्कपूर्ण मालूम पड़ता है, द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी और जापान के उदाहरणों से इतर, ये क्षेत्र अमेरिका के राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर प्राथमिकता नहीं रखते.
अमेरिकी राष्ट्र-निर्माण गतिविधियों में एक पूरी पीढ़ी जितना समय बिताने के पीछे का एक बहुत बड़ा कारण ये था कि जब ऐसा उसने लिया तब हम एक ऐसे अनुकूल भू-रणनीतिक दुनिया में रहते थे, जब अमेरिका पूरे विश्व में इकलौता महाशक्ति देश था और वो बिना रणनीतिक परिणाम की चिंता के किसी भी राष्ट्र-निर्माण जैसी सनक में लिप्त हो सकता था.
यह और भी सच हो गया है क्योंकि हमारे नए युग की बुनियादी रणनीतिक रूपरेखा निश्चित रूप से बदल गई है; हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जब चीन और अमेरिका के बीच महाशक्ति की प्रतिद्वंदिता चल रही है और जहां भारत, जापान, रूस, यूरोपीय यूनियन और अंग्रेजी भाषी शक्तियों के पास अपनी स्वतंत्र एवं महत्वपूर्ण विदेश नीति बनाने की क्षमता है. एक निरंकुश अमेरिकी शक्ति के दिन लद गए, अब हम शक्तियों को लेकर महान प्रतिद्वंदिता वाले समय में रह रहे हैं, जहां राष्ट्र-निर्माण गतिविधियों में संलग्न होने जैसी नीतियों को व्यर्थ और महत्वहीन समझा जायेगा.
वर्तमान के संकट और शोर-शराबे से हटकर देखें; तो ये अफ़ग़ानिस्तान से मिलने वाले असली सबक हैं. अमेरिकियों को उन लोगों को जवाबदेह ठहराना होगा जिन्होंने हमें राष्ट्र-निर्माण गतिविधियों के न ख़त्म होने वाले कुंए में ढकेल दिया और उन्हें देश की सत्ता दुबारा सौंपने से बचना होगा. कुल मिलाकर इस दुनिया के लिए पुरानी, विफल अमेरिकी विदेश नीतियों की व्यवस्था को जारी रखना बेहद ख़तरनाक है.
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