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2021 का रायसीना डायलॉग उस ‘वायरल दुनिया’ के बारे में है, जिसमें हम आज जी रहे हैं.
कोविड-19 की महामारी ने हमारी ज़िंदगी के हर पहलू पर असर डाला है. इस महामारी के चलते इस साल ‘रायसीना डायलॉग’ भी पूरी तरह से डिजिटल और वर्चुअल संस्करण में आपके सामने आ रहा है. रायसीना डायलॉग के इस संस्करण में जिन विषयों को शामिल किया गया है, उसके बारे में ओआरएफ हिंदी के पाठकों लिए, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के चेयरमैन संजय जोशी और नग़मा सह़र ने परिचर्चा की, जिसपर ये लेख आधारित है.
वर्ष 2020 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया. समस्त देशों को बीते साल ने यदि कोई सबक़ दिया तो वह यह कि अहंकार व्यर्थ है. वर्ष 2021 के रायसीना डायलॉग में इसी ‘वायरल दुनिया’ की चर्चा है, जिसमें हम आज जी रहे हैं. ये समय, गत वर्ष की उन यादों का है, जिनसे एक ओर मानवता के कुछ बेहतरीन पहलू सामने आए. पर साथ ही हमें ग़ौर करना होगा उन कमज़ोरियों को जिन्होंने हमारी व्यवस्थाओं की पोल खोल दी है.
कोविड-19 की महामारी ने हमारी ज़िंदगी के हर पहलू पर असर डाला है. इस महामारी के चलते इस साल ‘रायसीना डायलॉग’ भी पूरी तरह से डिजिटल और वर्चुअल संस्करण में आपके सामने आ रहा है.
कुछ ने तो अपनी कमियों पर विचार किया, ताकि वे उन अनुभवों से सीख सकें. पर कईयों ने इस वायरल दुनिया में अवसर देखा, एक ऐसा अवसर जिसमें वो अपनी सीमाएँ, और उन सीमाओं के साथ-साथ अपने एजेंडे को आगे बढ़ा सकें.
इस बार का रायसीना डायलॉग पाँच मूलभूत स्तंभों पर आधारित है, जिनके माध्यम से हम समझने की कोशिश करेंगे कि 21 वीं सदी की यह सर्व-साधन सम्पन्न दुनिया आख़िरकार इस तरह लड़खड़ा कर चलने को क्यों मजबूर हुई.
i. हमारा पहला स्तंभ है वही पुराना बहुपक्षवाद जिसकी ढपली तो सब बजाते हैं, तारीफ़ तो सभी करते हैं, पर मैं नहीं जानता. लेकिन, सवाल रह जाता है — किसका बहुपक्षवाद, किस पक्ष का बहुपक्षवाद?
ii. इसी से दूसरा अहम सवाल उठता है कि यदि विश्व में व्यवस्था वाकई में व्याप्त है तो जिसकी लाठी उसकी भैंस की नियमावली पर चले ख़लनायकों को कैसे सही रास्ते लाएँ? कैसे जवाबदेही बने? ये रायसीना डायलॉग का दूसरा स्तंभ है.
आज ये दोनों सवाल इसलिए उठ रहे हैं, क्योंकि संकट काल में अनेक वैश्विक संस्थान अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह करने में ऐसे समय असफल रहे हैं जब उनकी सबसे अधिक ज़रूरत थी. एक ओर हमने पाया कि दुनिया भर के रिसर्चर आपस में सहयोग कर, रिकॉर्ड समय में कोरोना वायरस की अलग-अलग वैक्सीन तैयार कर पाने में सफ़ल हो गये – इस अप्रत्याशित उपलब्धि का ताज वर्ष 2020 को ही जाता है. पर वहीं दूसरी तरफ़, हमने पाया उन्हीं वैक्सीन को लेकर देशों के बीच उभरता घिनौना राष्ट्रवाद.
iii. रायसीना डायलॉग का तीसरा स्तंभ दुनिया की बेहद नाज़ुक आपूर्ति श्रृंखलाओं के बारे में है, जिनके तार इस दुनिया को आपस में जोड़े है. कैसे हम अधिक विविधतापूर्ण और बेहतर आपूर्ति श्रृंखलाओं का निर्माण करें, जो हमें हमारी ज़रूरत के वक़्त निराश न करें.
iv. चौथा स्तंभ है जलवायु परिवर्तन — एक ऐसी समस्या जो विश्व के सभी देशों के सामने मुंह खोले खड़ी है क्या आज इसका निदान ग्रीन स्टिमुलस से संभव है. क्या ये असरदार साबित होगा? क्या ये महामारी हमें टिकाऊ विकास की प्रक्रियाएं अपनाने को बाध्य करेगी, या फिर हम फ़ौरी लाभ के लिए, जलवायु परिवर्तन की चुनौती की अनदेखी करते हुए, धरती के लिए हानिकारक प्रक्रियाओं वाला पुराना रास्ता ही चुनेंगे ?
v. रायसीना डायलॉग का हमारा पांचवां स्तंभ है सूचना की उस भयानक महामारी जिसने हमारे पैरों के नीचे की ज़मीन को हिलाकर रख दिया है. सूचना की बाढ़ के चलते आज हम एक ऐसे डिजिटल तमस युग में प्रवेश पा चुके हैं जिसका कोई छोर नहीं दिखता. और जिसके अंधकार में सच बहुरूपिया बना खड़ा है.
इस प्रकार इस साल रायसीना डायलॉग के केंद्र में हैं — बहुपक्षीयवाद जिसे आज विश्व भर में उभरते राष्ट्रवाद ने चुनौती दी है.
वास्तव में इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी है कि जिस वायरस के लिए राष्ट्रीय सरहदों और सीमाओं का कोई वजूद ही नहीं उस के आघात से तमाम देशों ने अपने आप को राष्ट्रीय सीमाओं में बंद कर विभाजित कर लिया. आज हम एक नया नस्लवाद देख रहे हैं जिसने मानवता को बाँट दिया है वैक्सीन-युक्त और वैक्सीन-मुक्त समाजों में.
एक तरफ कुछ देश ताबड़तोड़ वैक्सीन के जख़ीरे जुटा उन पर कुंडली मार कर बैठे हैं दूसरी और कोरोना वायरस के नए-नए स्ट्रेन सारी राष्ट्रीय सीमाओं की बाधाएँ तोड़ हर देश पर धावा बोल रहे हैं, वास्तव वायरस इस संकीर्ण राष्ट्रवाद की गाल पर तमाचा है जिसे देश के नेता देश-भक्ति मान रहे हैं.
ऐसी स्थिती में – जब कोरोना से कोई सुरक्षित नहीं, और यदि सब सुरक्षित नहीं है तब, कुछ देशों के द्वारा वैक्सीन की इस जमाखोरी का क्या लाभ? यह कैसा फूहड़ रंग-भेद है?
एक तरफ कुछ देश ताबड़तोड़ वैक्सीन के जख़ीरे जुटा उन पर कुंडली मार कर बैठे हैं दूसरी और कोरोना वायरस के नए-नए स्ट्रेन सारी राष्ट्रीय सीमाओं की बाधाएँ तोड़ हर देश पर धावा बोल रहे हैं, वास्तव वायरस इस संकीर्ण राष्ट्रवाद की गाल पर तमाचा है जिसे देश के नेता देश-भक्ति मान रहे हैं.
यह मौक़ा था, जब दक्षिण अफ्रीका और भारत द्वारा की गई माँग का समर्थन कर विश्व भर में कोरोना वायरस की समस्त वैक्सीन पर से, बौद्धिक संपदा का पर्दा उठाकर सभी को मुक्त रूप से वैक्सीन उत्पादन करने की छूट प्रदान कर देनी चाहिए थी. नए-नए स्ट्रेन के चलते विपदा पर सफल और सक्षम नियंत्रण तभी कारगर होता जब सभी के पास कोविड-19 के विभिन्न टीकों का मुक्त विकल्प उपलब्ध करा दिया जाता. विश्व व्यापार संगठन के नियमों के अनुसार भी आपातकाल में ऐसा किया जा सकता था लेकिन ऐसा किया नहीं गया क्योंकि इसका अमेरिका जैसे देशों ने विरोध किया था.
अगर कोविड-19 भी मानवता के सामने आपातकालीन चुनौती नहीं है, तो अब कौन सी कयामत का इंतज़ार दुनिया के नेताओं को है? यदि कोविड-19 जैसी वैश्विक चुनौती का सामना करने के लिए समस्त राष्ट्र एकजुट नहीं हो सकते हैं, तो सोचिए वही नेता जलवायु परिवर्तन जैसी इससे भी बड़ी समस्या से मुक़ाबला करने के लिए कैसे एकजुट हो सकते हैं?
2021 में विश्व भर के देश कोरोना वायरस की एक दूसरी अथवा तीसरी लहर से जूझ रहे हैं. प्रश्न उठता है की बार-बार लौट कर आने वाली इस विपत्ति की मार से डूबती अर्थव्यवस्था को कैसे पटरी पर लाया जाए. जिस प्रकार वायरस ने संक्रमण के इस तार से पूरी दुनिया के हर इंसान को बांध दिया है ठीक वैसे ही आर्थिक अनिश्चितता के चलते दरिद्रता की महामारी का संकट पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले सकता है.
कोरोनाकाल ने देशों के बीच भयानक आर्थिक विषमताओं को पुनः उजागर किया है. समस्या से निपटने के लिए कुछ देशों ने हर तरह से मुमकिन असीमित धन इस वायरस रूपी आग के परिणामों से निजात पाने में झोंक दिया है. एक ओर अमीर देश अपनी अर्थव्यवस्था में नई जान डालने के लिए ख़रबों डॉलर के स्टिमुलस पैकेज की घोषणा किए जा रहे हैं. दूसरी ओर कम विकसित देश मानो रेटिंग एजेंसियों के आतंक के साये तले न ही अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था और न ही अपनी जनता को राहत पहुंचाने की स्थिती में देखे गए. अब कोरोना संकट के लगातार गहराने से गरीब देश कर्ज का और बोझ सह नहीं पाएंगे.
बहुपक्षीय वित्तीय संगठनों को अपना ढर्रा बदलना होगा और क़र्ज़ देने के लिए अपनी शर्तों में ढील देनी होगी. जब लगातार कोरोना के निरंतर बढ़ने से स्वास्थ्य सेवाएँ चरमरा रही हैं, लॉकडाउन से लोगों की रोजी-रोटी का सवाल मुंह खोले खड़ा है तब किसी भी देश को वित्तीय मदद देने के लिए उस पर ख़र्चे घटाने का दबाव बनाना कितना उचित होगा?
ऐसे में आवश्यक है विश्व स्तर पर गरीब देशों के क़र्ज़ों में रियायत के अभूतपूर्व उपायों की. बहुपक्षीय वित्तीय संगठनों को अपना ढर्रा बदलना होगा और क़र्ज़ देने के लिए अपनी शर्तों में ढील देनी होगी. जब लगातार कोरोना के निरंतर बढ़ने से स्वास्थ्य सेवाएँ चरमरा रही हैं, लॉकडाउन से लोगों की रोजी-रोटी का सवाल मुंह खोले खड़ा है तब किसी भी देश को वित्तीय मदद देने के लिए उस पर ख़र्चे घटाने का दबाव बनाना कितना उचित होगा?
आज हम आपूर्ति श्रृंखलाओं में विविधता लाकर उन्हें लचीला बनाने की सख़्त आवश्यकता महसूस करते है. आपूर्ति के लिए पूरी दुनिया का सिर्फ़ चीन पर निर्भर रहना स्वस्थ नहीं कहा जा सकता. कोरोना संकट ने हमें वैकल्पिक व्यवस्थाओं का मूल्य सिखाया. यह खुद में स्पष्ट संकेत है कि आज की दुनिया 1990 के दशक की एशियाई आर्थिक संकट के समय की दुनिया नहीं रह गई है. चाहे-अनचाहे विश्व भर में मायाजाल की तरह फैली आपूर्ति श्रृंखलाओं ने समस्त देशों और उनमें रहने वाले लोगों को एक दूसरे जोड़ रखा है. कोरोना वायरस की तरह ही किसी भी एक देश पर आई आर्थिक विपत्ति का प्रभाव उसकी सीमाओं में बंद नहीं रह सकता. उसका परिणाम सब को झेलने होगा. यदि विश्व ने आने वाले आर्थिक संक्रमण का मिल कर सामना नहीं किया तो राष्ट्रीय कर्ज निभा पाने में असमर्थ देशों की सुनामी पूरी विश्व आर्थिक व्यवस्था को अपनी चपेट में ले लेगी.
आखिर प्रश्न उठता है की बाकी सब महामारीयों के बीच हम ‘असत्य’ की उस महामारी का क्या करें जिसने सूचना युग से जूझ रही दुनिया को अपनी गिरफ़्त में लिया हुआ है.
आज आम आदमी के लिए और भी भयानक ख़तरा तब पैदा हो जाता है जब सत्ता और अर्थ का ऐसा गठजोड़ बने जिसके सामने आम नागरिक की स्वायत्तता या फिर वजूद तक न बचे.
आज टेक्नोलॉजी के माध्यम, कुछ देश और बहुराष्ट्रीय कंपनियां के पास अभूतपूर्व क्षमता मौजूद है आंकड़ों और सूचनाओं के संग्रह की. इस क्षमता ने उनको अप्रत्याशित रूप से शक्ति संपन्न बना दिया है और वे इस शक्ति का दुरूपयोग कर आम नागरिकों के अधिकारों का हनन करने की ताकत रखती हैं. इस शक्ति के दुरुपयोग से आम नागरिकों को कैसे बचाया जा सकता है? इतना ही कहीं, आज आम आदमी के लिए और भी भयानक ख़तरा तब पैदा हो जाता है जब सत्ता और अर्थ का ऐसा गठजोड़ बने जिसके सामने आम नागरिक की स्वायत्तता या फिर वजूद तक न बचे.
कोरोना काल के साये में हो रहे रायसीना डायलॉग में इस प्रकार इस वर्ष चर्चा होगी कोविड-19 के अलावा कई और प्रकार के संक्रमणों की जो न सिर्फ़ देशों को बल्कि मानवता और मानव रचित सभ्यता को चुनौती देते खड़े हुए हैं. कैसे ऐसी व्यवस्थाओं का हम निर्माण कर सकें जिनके सहारे मिलकर हम दोनों को सुरक्षित रख सकें.
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Sunjoy Joshi has a Master’s Degree in English Literature from Allahabad University, India, as well as in Development Studies from University of East Anglia, Norwich. ...
Read More +Naghma is Senior Fellow at ORF. She tracks India’s neighbourhood — Pakistan and China — alongside other geopolitical developments in the region. Naghma hosts ORF’s weekly ...
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