Published on Jul 26, 2023 Updated 0 Hours ago

उत्पादों और परिणामों पर ज़ोर देकर भारत को स्वास्थ्य के मोर्चे पर बेहतर संकेतकों की दिशा में आगे बढ़ाया जा सकता है.

Public Spending: सार्वजनिक व्यय: फ़िज़ूलख़र्ची घटाकर विकास के वाहकों पर ख़र्च बढ़ाना ज़रूरी
Public Spending: सार्वजनिक व्यय: फ़िज़ूलख़र्ची घटाकर विकास के वाहकों पर ख़र्च बढ़ाना ज़रूरी

राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं (Economics) में सरकारें ख़र्च करने वाली सबसे बड़ी इकाई होती हैं. IFPRI SPEED 2019 डेटाबेस के मुताबिक 2015 में कृषि (Agriculture), संचार (Communications), शिक्षा (Education),  रक्षा (Defense), स्वास्थ्य (Health), खनन (Mining), सामाजिक सुरक्षा, ईंधन और ऊर्जा के साथ-साथ परिवहन (Transportation) के क्षेत्र में दुनिया के 110 देशों का कुल ख़र्च 19.3 खरब अमेरिकी डॉलर था. ये रकम तात्कालिक दर पर वैश्विक जीडीपी के 26 प्रतिशत के बराबर थी.

2022 तक औसत ख़र्च और ज़्यादा हो गई होगी, क्योंकि विकसित अर्थव्यवस्थाओं में भी राजकोषीय घाटे का स्तर इकाई की ऊपरी संख्या में है. साख बाज़ार अपने ख़र्चों से जुड़े वित्त जुटाने के लिए देनदारों को कर्ज़ बढ़ाते रहने देते हैं. दरअसल इन अर्थव्यवस्थाओं के पास पर्याप्त वित्तीय मज़बूती होने के चलते साख बाज़ारों को ये इत्मिनान रहता है कि उन्हें उनका अतिरिक्त ऋण वापस मिल जाएगा. दिक़्क़त ये है कि बेहिसाब सार्वजनिक व्यय की लत लग जाती है. जनता से वोट की चाह रखने वाली सरकारों के लिए ढीली-ढाली मौद्रिक नीति से पांव वापस खींच पाना बेहद मुश्किल होता है. यहां तक कि मौजूदा दौर के निरंकुश शासक भी विरोधियों को पस्त करने के लिए प्रदर्शनकारियों का मुंह नक़दी से बंद कर देते हैं. ऐसे तानाशाह भी ज़रूरत से ज़्यादा ख़र्च करने की लत के घेरे में रहते हैं.

ताबड़तोड़ ख़र्च करने वाले बड़े-बड़े देश

2015 में वैश्विक स्तर पर सरकारों द्वारा किए जाने वाले ख़र्च का आधा हिस्सा महज़ चार देशों से सामने आया. इनमें से हरेक देश का सालाना व्यय 1 खरब अमेरिकी डॉलर (यूनिकॉर्न सरकारें) से ज़्यादा था. ये देश हैं- अमेरिका, चीन, जर्मनी और फ़्रांस. बाद का 24 प्रतिशत सरकारी व्यय सिर्फ़ 6 देशों के खातों से आया (द बिग सिक्स)- यूनाइटेड किंगडम, इटली, ब्राज़ील, जापान, रूस और स्पेन. इनमें से हरेक देश का ख़र्च 500 अरब अमेरिकी डॉलर से 1 खरब अमेरिकी डॉलर के बीच रहा. 15 अन्य देशों का सरकारी व्यय कुल वैश्विक सरकारी ख़र्च के 18 प्रतिशत के बराबर रहा. इनमें से हर देश का सरकारी व्यय 100 अरब अमेरिकी डॉलर से 350 अरब अमेरिकी डॉलर के बीच रहा. इन देशों में नीदरलैंड्स, भारत और सऊदी अरब शामिल हैं.

2022 तक औसत ख़र्च और ज़्यादा हो गई होगी, क्योंकि विकसित अर्थव्यवस्थाओं में भी राजकोषीय घाटे का स्तर इकाई की ऊपरी संख्या में है. साख बाज़ार अपने ख़र्चों से जुड़े वित्त जुटाने के लिए देनदारों को कर्ज़ बढ़ाते रहने देते हैं.

बाक़ी के 82 देशों (जिनमें से हरेक का सालाना व्यय 100 अरब अमेरिकी डॉलर से नीचे था) का ख़र्च कुल वैश्विक सार्वजनिक व्यय का महज़ 7 प्रतिशत रहा. इन आंकड़ों से सार्वजनिक व्यय करने की शक्ति में असमानतासाफ़ तौर से ज़ाहिर होती है. शीर्ष 25 देशों के पास ही सारी ताक़त केंद्रित है. इससे अनौपचारिक, अंतरराष्ट्रीय सर्वसम्मति और निर्णय प्रक्रिया से जुड़े चुनिंदा समूहों (जैसे G7) के बंद-दरवाज़ों सरीख़े मिज़ाज का ख़ुलासा होता है. 1973 से ही ऐसे समूह भूराजनीति, व्यापार, वित्त और सुरक्षा के तमाम दायरों में सक्रिय हैं. 1999 में तैयार G20 समूह, भले ही इनके मुक़ाबले हाल की क़वायद है लेकिन उसका मिज़ाज भी कुछ ऐसा ही है. वैश्विक व्यय शक्ति में प्रसार लाने के लिए ऐसे समूहों की बनावट में विविधता लानी होगी.

1980 के दशक के आख़िर में शुरू नए सार्वजनिक प्रबंधन के तहत चतुराई भरे कारोबारी तौर-तरीक़ों को धीमे मिज़ाज वाले सार्वजनिक प्रशासन प्रणाली के साथ एकजुट करने की क़वायद की गई. इस दिशा में एक अहम नवाचार सेवा मुहैया कराने वाली श्रृंखलाओं को बेहतर तरीक़े से परिभाषित करना और हरेक कड़ी पर प्रदर्शन के लक्ष्य तय करना था. ये क़वायद,लगाई गई शक्ति या उत्पादक सामग्री (इनपुट) से उत्पादन या उत्पाद (आउटपुट)की दिशा से शुरू होकर आख़िरी नतीजों पर ख़त्म होती है. इस तरह प्रदर्शन की क़रीब से निगरानी की जाती है.

सार्वजनिक सेवा मुहैया कराने वाली श्रृंखला के घटक

इनपुट, वो बुनियादी आधार हैं जो आगे चलकर उत्पाद मुहैया कराते हैं. मिसाल के तौर पर बच्चों तक शिक्षा पहुंचाने के लिए ज़रूरी इनपुट में क़ाबिल शिक्षकों को वक़्त पर किए जाने वाले भुगतान, पठन-पाठन से जुड़ी प्रासंगिक सामग्रियों और उपकरणों के जुगाड़, और बच्चों को शिक्षा देने के लिए स्वच्छ, सुरक्षित और सेहतमंद स्थान देना शामिल है. शिक्षकों और छात्रों की नियमित हाज़िरी और पाठ्यक्रम को पूरा करना मापयोग्य उत्पाद हो सकते हैं. अंतिम उत्पाद उच्च स्तर के परिणाम या परियोजना लक्ष्यों को हासिल किए जाने की क़वायद को मापने के एवज़ी होते हैं. इनमें सालाना परीक्षाएं पास करने वाले छात्रों का अनुपात और उनकी कामयाबियों का स्तर शामिल है. स्कूल से पास होकर निकलने वाले छात्रों में संचार और जीवन कौशल, सभ्य आचार-विचार, नैतिकता, सामाजिक सरोकार और नवाचार के लिए जोश भरा हो और इनके नतीजे उच्च स्तर वाले हों, ये सुनिश्चित करना भी ज़रूरी है. तत्काल इसकी माप करना कठिन होता है, लेकिन अनुसंधान से जुड़े चुनिंदा अध्ययनों के ज़रिए इसका पता लगाया जा सकता है.

इनपुट्स और आउटपुट्स पर ज़ोर, मगर अंतिम परिणामों की अनदेखी

बदक़िस्मती से सरकारेंअब भी परिणामों पर ज़ोर देने वाली क़वायद को स्वीकार नहीं कर पाई हैं. आउटपुट की तुलना में अंतिम परिणामों को केंद्र में लाने की प्रक्रिया अब भी अधूरी है. अंतिम परिणामों पर पर्याप्त ध्यान नहीं देने की बात हमारी बजटीय प्रक्रिया से प्रमाणित होती है. इसमें ”इनपुट्स” के आपूर्ति पक्ष पर ज़ोर दिया जाता है, जिसमें नक़दी, कर्मचारी, फ़र्नीचर, निर्माण और साज़ोसामान समेत कई अन्य तत्व आते हैं. इसके मुक़ाबले अंतिम परिणाम पर ना के बराबर तवज्जो दी जाती है.

बच्चों तक शिक्षा पहुंचाने के लिए ज़रूरी इनपुट में क़ाबिल शिक्षकों को वक़्त पर किए जाने वाले भुगतान, पठन-पाठन से जुड़ी प्रासंगिक सामग्रियों और उपकरणों के जुगाड़, और बच्चों को शिक्षा देने के लिए स्वच्छ, सुरक्षित और सेहतमंद स्थान देना शामिल है.

व्यापक आधार वाले विकास की पड़ताल

आर्थिक विकास ही ऐसा इकलौता उच्च-स्तरीय परिणाम हैजिसकी वैश्विक स्तर पर पूरी शिद्दत के साथ निगरानी की जाती है. हालांकि ये लाखों आर्थिक कारकों का परिणाम होता है, जिनको पुरस्कृत करने की संदर्भित व्यवस्था के ज़रिए प्रोत्साहित किया जाता है. इससे दक्षता, नवाचार औरनेटवर्क आधारित समाधान को बढ़ावा मिलता है. साथ ही कौशल के स्तर को ऊंचा उठाने की प्रक्रिया को जारी रखने में मदद मिलती है. आर्थिक वृद्धि को आगे बढ़ाने वाले कारकों का बिखराव भरा मिज़ाज निगरानी प्रक्रिया और नतीजों को इकट्ठा करने की क़वायद को मुश्किल बना देता है. इस कड़ी में डिफ़ॉल्ट विकल्प विकास प्रक्रिया की ख़ामियों का वक़्त रहते डेटा-आधारित विश्लेषण के रूप में बच जाता है. इस प्रक्रिया में महसूस की गई दिक़्क़त के निपटारे के लिए और ज़्यादा धन लगाया जाता है. डिलिवरी चेन विश्लेषण में अकुशल या बेअसर आवंटनों और ख़र्चों से जुड़े क्षेत्रों को रेखांकित किया जाता है.

इस सिलसिले में ये समझा जाना चाहिए कि नामुनासिब रूप से शिक्षित किए गए बच्चे, उत्पादकता बढ़ाने की क़वायद में विकास का वाहक बनने की बजाए उसके रास्ते की अड़चन बनते हैं. ख़ासतौर से माताओं और बच्चों में ऊंची मृत्यु दर आर्थिक रूप से बर्बादियों भरा सबब हैं. ये भावी पीढ़ियों को टिकाऊ विकास के प्रोत्साहनों से वंचित कर देते हैं.

“K” आकार की वृद्धि से परहेज़

कोविड के बाद आर्थिक वृद्धि में “K” आकार का रुझान विकास के वाहकों का आधार व्यापक बनाने की दिशा में ज़रूरत से कम ध्यान दिए जाने का परिणाम है. आय में हुई बढ़ोतरी को तमाम आय श्रेणियों में लक्षित रोज़गार निर्माण, “कर लगाओ और वितरित करो” रणनीतियों और उत्पादकता में बढ़ोतरी लाने की क़वायदों के ज़रिए न्यायोचित रूप से वितरित किया जाना चाहिए.सकल आर्थिक वृद्धि पर ज़ोर देना, ठीक वैसा ही है जैसे कोई निवेशक निफ़्टी (नेशनल स्टॉक एक्सचेंज इंडेक्स) में व्यापक स्तर वाले बदलावों की पड़ताल करते हुए अपने ख़ुद के स्टॉक पोर्टफ़ोलियो में परिवर्तनों की अनदेखी करता रहे. दरअसल निवेशक का ख़ुद का पोर्टफ़ोलियो उसके कल्याण के साथ सबसे नज़दीकी से जुड़ा होता है, लिहाज़ा वही ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है.

इस सिलसिले में ये समझा जाना चाहिए कि नामुनासिब रूप से शिक्षित किए गए बच्चे, उत्पादकता बढ़ाने की क़वायद में विकास का वाहक बनने की बजाए उसके रास्ते की अड़चन बनते हैं. ख़ासतौर से माताओं और बच्चों में ऊंची मृत्यु दर आर्थिक रूप से बर्बादियों भरा सबब हैं.

आय की विषमता के ऊंचे स्तर सामाजिक मेलजोल और टिकाऊ विकास के लिए घातक हैं. उन अर्थव्यवस्थाओं में जहां आय के अंतर कम होते हैं, वहां अंदरूनी तौर पर व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामुदायिक स्तर की मज़बूती का स्तर कहीं ज़्यादा होता है. इसके उलट अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक वृद्धि के “K” आकार वाले रुझान आय के हिसाब से सबसे नीचे गुज़र बसर करने वाली आबादी की पारिवारिक बचत को लगातार घटाते रहते हैं. दूसरी ओर आय के नज़रिए से सबसे ऊंचे पायदान पर रहने वाले तबक़े की दौलत में सकल रूप से बढ़ोतरी होती जाती है.

भारत में आउटकम बजटिंग- कम इस्तेमाल हुआ औज़ार

भारत में 2006-07 से ही आउटकम बजट पेश किया जाता रहा है. हालांकि इस दिशा में अब भी प्रयोगों का दौर जारी है. ये बजट के प्रस्तावित आवंटनों को तार्किक बनाने की क़वायद ना होकर बजट से जुड़े प्रमुख दस्तावेज़ों के सहायक के तौर पर काम में लाया जाता रहा है. आउटकम बजट में एक तार्किक शक्ति होती है जिसके आधार पर ये बताया जाता है कि आवंटन को क्यों बढ़ाया या घटाया जाना चाहिए. इस सिलसिले में सर्वेक्षणों की मदद से नतीजे हासिल करने में सार्वजनिक व्यय के प्रभाव का आकलन किया जाता है. बहरहाल वित्त मंत्री के बजट भाषण में इन तमाम कारकों का पूरा इस्तेमाल नहीं किया गया है. इसकी वजह साफ़ है. आउटकम बजट में इस्तेमाल किए गए तौर-तरीक़ों में ठोस, तार्किक रूप से जुड़े इनपुट्स, आउटपुट्स और परिणामों को परिभाषित नहीं किया जाता है. ख़र्च के प्रभाव को बढ़ावा देने को लेकर बजटीय या कार्यक्रम संबंधी समायोजनों के लिए इसमें बेहद मामली दिशानिर्देश दिए जाते हैं.

भूखे पेट का सवाल

हाल ही में आयरलैंड और जर्मनी के ग़ैर-सरकारी संगठनों कन्सर्न वर्ल्डवाइड एंड वेल्ट हंगर हिल्फ़ेकी ओर से वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2022 (GHI) जारी किया गया. इसमें भारत की रैंकिंग घटाते हुए उसे 107वें पायदान पर (121 देशों में) रखा गया. 2014 में भारत 99वीं पायदान पर था. इससे भी अहम बात ये है कि सूचकांक में भारत का सकल प्रदर्शन (स्कोर जितना नीचे हो उतना बेहतर होता है) 3.3 प्रतिशत की दर से बदतर होता दिखाया गया. 2014 में ये 28.2 था जो 2021 में 29.1 हो गया.भारत ने तत्काल इसके ख़िलाफ़ अपना विरोध दर्ज कराया.

चार पैमानों में से भारत ने 2 में अपनी रैंकिंग सुधार ली है. 2014 की तुलना मेंताज़ा सूचकांक में बच्चों के विकास में कमी के मामलों में 15 प्रतिशत औरशिशु मृत्यु दर में 26 फ़ीसदी का सुधार आया है. हालांकि अल्प-पोषित आबादी के पैमाने पर हालात 10 प्रतिशत बदतर हुए हैं. दूसरी ओर बच्चों के किसी अंग के कमज़ोर रह जाने के पैमाने पर परिस्थितियां 28 फ़ीसदी बदतर हुई हैं.

प्रदर्शन के ये चार पैमाने कम से कम तीन मंत्रालयों की साझा ज़िम्मेदारी है- उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय (MCAFPD), जो मुफ़्त या रियायती अनाज बांटता है; शिशु मृत्यु दर के लिए स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (MOHFW) और पोषण कार्यक्रमों पर अमल के लिए बाल और महिला विकास मंत्रालय (MCWD). शिशु मृत्यु दर में नियमित सुधार के साथ MOHFW के लिए हालात स्पष्ट थे. 1990 में ये दर 12.6 था जो 2022 तक संतोषजनक गिरावट के साथ 3.3 पर पहुंच गया.

इसके उलट अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक वृद्धि के “K” आकार वाले रुझान आय के हिसाब से सबसे नीचे गुज़र बसर करने वाली आबादी की पारिवारिक बचत को लगातार घटाते रहते हैं. दूसरी ओर आय के नज़रिए से सबसे ऊंचे पायदान पर रहने वाले तबक़े की दौलत में सकल रूप से बढ़ोतरी होती जाती है.

ताज़ा रैंकिंग पर MCWD की ओर से हमला बोला गया. मंत्रालय ने 3000 प्रतिभागियों के सर्वेक्षण के ज़रिए अल्प-पोषण की माप करने से जुड़ी GHI की मैथोडोलॉजी पर सवाल खड़े किए.इसे भारत जैसे विशाल देश के हिसाब से बहुत छोटा नमूनाबताया गया. हालांकि मंत्रालय ने इस प्रक्रिया में इस्तेमाल किए गए साधन (अल्पपोषण की आशंका वाले लोगों से सीधे फ़ीडबैक लेने) पर कोई आपत्ति नहीं जताई. दिलचस्प बात ये है कि MCAFPD ने 2 खरब रु (सकल बजटीय ख़र्च के 5 प्रतिशत के बराबर) के खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के प्रदर्शन पर निगरानी रखने के लिए फ़ीडबैक सर्वे करने के बारे में ख़ुद कभी नहीं सोचा. इसके परिणाम और प्रदर्शन का पैमाना (वित्त वर्ष 2022-23) महज़ एक इनपुट है जो थोक वितरण स्रोतों के पास खाद्यान्न की आपूर्ति तक ही सीमित हो जाता है.

खाद्य की आपूर्ति भी लोगों को रात को भूखे सोने (वांछित परिणाम) से रोक सकती है, लेकिन ऐसा लगता है कि किसी को भी इसपर निगरानी रखने की जवाबदेही नहीं थी. इसके लिए ढीले-ढाले तरीक़े से तैयार आउटकम बजट को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है.

किसी अंग के कमज़ोर रह जाने या बच्चों के कम विकास के पैमाने पर MCWD की दलील ये है कि भुखमरी की पड़ताल के लिए ये ग़ैर-मुनासिब पैमाने हैं. हालांकि पोषण से जुड़े कार्यक्रम “मिशन सक्षम आंगनबाड़ी और पोषण 2.0” को लेकर मंत्रालय के अपने आउटकम बजट में बिलकुल यही पैमाना प्रयोग में लाया जाता है. भरा हुआ पेट लाज़िमी तौर पर भुखमरी ख़त्म नहीं करता. खान-पान में विविधता, पोषण का एक अहम घटक है. अब दुनिया में “छिपी हुई भुखमरी” के ख़िलाफ़ जंग चल रही है. ये सूक्ष्म पोषक तत्वों को ज़रूरत के मुताबिक ग्रहण ना करने और विटामिन की कमी का नतीजा है.

MCWD के आउटकम बजट के साथ एक बुनियादी दिक़्क़त है. इसके विशिष्ट उत्पादों को ग़लत तरीक़े से परिभाषित किया गया है. पीने के पानी, शौचालय, बग़ीचे आदि से लैस आंगनबाड़ी केंद्रों का निर्माण इसका हिस्सा है. दरअसल इनमें से कोई भी आउटपुट नहीं है. ज़्यादा से ज़्यादा, ये परिणाम हासिल करने के लिए ज़रूरी इनपुट भर हैं. विविधतापूर्ण खानपान की ओर रुख़ करने वाले या विटामिन से युक्त पोषक भोजन लेने वाले परिवारों की तादाद इस कड़ी में आउटपुट हो सकती है. बदक़िस्मती से ये क़वायद यहां नदारद है. ऐसे में ताज्जुब की बात नहीं है कि ढीले-ढाले तरीक़े से परिभाषित आउटपुट हासिल करने से कम विकसित और कमज़ोर बच्चों की तादाद घटाने का वांछित परिणाम हासिल करने में कोई मदद नहीं मिलती.

आउटकम बजट, व्यय से हासिल परिणामों में सुधार का साधन है. प्रदर्शन के स्पष्ट और प्रासंगिक पैमाने, ख़ामियों को सतह पर लाकर कार्यक्रम में सुधार लाने के संकेत दे सकते हैं. हो सकता है कि भारत में वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2022 के आकलनों के मुताबिक भूख का संकट मौजूद ही ना हो, लेकिन इस क़वायद ने एक मक़सद ज़रूर पूरा किया है. इससे ये बात उभरकर सामने आई है कि बजट के आवंटन, क्यों और कैसे बेअसर हो रहे हैं. देश के नागरिक बेहतर नतीजों के हक़दार हैं. लिहाज़ा हमें अंपायर के साथ उलझने की बजाए, टेस्ट मैच में जीत हासिल करने पर ध्यान देना चाहिए.

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