प्रोजेक्ट-75 (इंडिया) या P-75I कार्यक्रम के तहत भारतीय नौसेना के लिए छह अत्याधुनिक डीज़ल-इलेक्ट्रिक पनडुब्बियां तैयार करने की दौड़ से रूस अलग हो गया है. इस तरह मौलिक उपकरण निर्माण करने वाले (OEM) छह में से पांच निर्माताओं ने इस परियोजना से अपने हाथ खींच लिए हैं. दक्षिण कोरियाई OEM अब इस प्रक्रिया में इकलौता विक्रेता बच गया है. उसके पास इस कार्यक्रम के तहत बताई गई मुख्य ज़रूरत यानी फ़्यूल सेल एयर-इंडिपेंडेंट प्रॉपल्शन (AIP) सिस्टम प्रामाणिक रूप से मौजूद है. ज़ाहिर है कि इकलौते विक्रेता के तौर पर कोरियाई कंपनी के बच जाने से भारत के महत्वाकांक्षी पनडुब्बी ख़रीद कार्यक्रम पर अनिश्चितता के बादल मंडराने लगे हैं.
पहले जर्मनी का OEM, P-75I का ठेका हासिल करने की दौड़ में सबसे आगे था. वो भी अपने फ़्यूल सेल AIP ढांचे का प्रदर्शन कर चुका था. बहरहाल घरेलू सामग्री से जुड़ी अव्यावहारिक शर्तों और विदेशी तकनीकी साझेदार पर असीमित देनदारियों का हवाला देकर जर्मन OEM ने पिछले साल इस कार्यक्रम से पल्ला झाड़ लिया.
भारतीय नौसेना P-75I श्रेणी की पनडुब्बियों में प्रामाणिक ढांचे के प्रयोग पर ज़ोर दे रही है. दरअसल घरेलू AIP अभी प्रायोगिक तौर पर विकास के विभिन्न चरणों से गुज़र रही है. ऐसे में P-75I पनडुब्बियों में घरेलू AIP स्थापित किए जाने की संभावना न के बराबर है.
P-75I पनडुब्बियों में घरेलू स्तर पर विकसित फ़्यूल सेल AIP के प्रयोग के पक्ष में दलील देना लुभावना लग सकता है. हालांकि P-75I पनडुब्बियों से पहले तैयार होने वाले कलवरी-श्रेणी की पनडुब्बियों में इस घरेलू तकनीक को स्थापित किए जाने के ज़्यादा आसार हैं. भारतीय नौसेना P-75I श्रेणी की पनडुब्बियों में प्रामाणिक ढांचे के प्रयोग पर ज़ोर दे रही है. दरअसल घरेलू AIP अभी प्रायोगिक तौर पर विकास के विभिन्न चरणों से गुज़र रही है. ऐसे में P-75I पनडुब्बियों में घरेलू AIP स्थापित किए जाने की संभावना न के बराबर है.
रूस की विदाई
कार्यक्रम से रुख़सती के अपने फ़ैसले का ऐलान करते हुए रूस ने साफ़ कर दिया कि भारतीय नौसेना द्वारा मांगी जा रही पनडुब्बी, दुनिया में किसी भी नौसैनिक शक्ति के पास मौजूद नहीं है. ऐसे में पनडुब्बी की संरचना और उसका निर्माण एकदम नए सिरे से शुरू करने की ज़रूरत होगी. मॉस्को में आर्मी 2022 रक्षा प्रदर्शनी में बोलते हुए रूसी OEM के उप महानिदेशक ने बताया कि “सबसे पहले स्वीडन ने इस परियोजना से हाथ खींचा, फिर जर्मनी ने और अब फ्रांस ने भी मना कर दिया है. हम भी इसमें हिस्सा नहीं ले रहे.” जहाज़ और पनडुब्बियों की संरचना में रूसी OEM के 120 साल पुराने इतिहास की चर्चा करते हुए उन्होंने साफ़ किया कि हमेशा पहले जलयान का निर्माण ही सबसे मुश्किल सबब होता है. उनके मुताबिक P-75I कार्यक्रम के अनुरोध प्रस्ताव (RFP) में बहुत छोटी समयसीमा दी गई है, जिसमें इसे पूरा करना नामुमकिन होगा.
रूस के वरिष्ठ अधिकारी ने आगे बताया कि “RFP में एक अहम शर्त ये है कि पनडुब्बी का निर्माण भारत में ही करना होगा. अगर समयसीमा का पालन नहीं हुआ तो जुर्माना काफ़ी ज़्यादा है. शुरुआत से ही हम ये कहते आ रहे हैं कि इतने कम वक़्त में पहली पनडुब्बी का निर्माण मुमकिन नहीं है. इस बात पर तवज्जो न देते हुए, RFP जारी कर दिया गया. लिहाज़ा रूस ने इस कार्यक्रम में हिस्सा न लेने के अपने फ़ैसले की सूचना भारतीय नौसेना को दे दी.” उन्होंने ये भी बताया कि पनडुब्बी के साथ जोड़ी जाने वाली कई प्रणालियों (AIP और प्रॉपल्शन मोटरों समेत) का अभी भारत में निर्माण या परीक्षण होना बाक़ी है. ऐसे में बताई गई समयसीमा हासिल कर पाना और मुश्किल है.
AIP के पक्ष में दलील
AIP से जुड़ी शर्त भारतीय नौसेना के लिए बेहद अहम मालूम होती है. इससे पारंपरिक रूप से संचालित पनडुब्बियों को पानी के नीचे ज़्यादा देर तक डटे रहने की ताक़त मिलेगी. ये तकनीक इन डीज़ल-इलेक्ट्रिक पनडुब्बियों को क़रीब एक पखवाड़े तक पानी के अंदर टिके रहने के क़ाबिल बना देगी. फ़िलहाल पारंपरिक पनडुब्बियां महज़ 2 से 3 दिन ही पानी के भीतर रह सकती हैं. दरअसल भारतीय नौसेना की क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धी पाकिस्तानी नेवी के पास भी AIP क्षमता वाली फ़्रासीसी मूल की तीन अगोस्टा 90B पनडुब्बियां हैं. इसके अलावा चीन उसे AIP से लैस टाइप 039 समूह की 8 पनडुब्बियां सप्लाई करने वाला है. मौजूदा दशक के आख़िरी हिस्से में चीन द्वारा इनकी आपूर्ति शुरू हो जाएगी.
दरअसल भारतीय नौसेना की क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धी पाकिस्तानी नेवी के पास भी AIP क्षमता वाली फ़्रासीसी मूल की तीन अगोस्टा 90B पनडुब्बियां हैं. इसके अलावा चीन उसे AIP से लैस टाइप 039 समूह की 8 पनडुब्बियां सप्लाई करने वाला है.
इंडिया मेरिटाइम फ़ाउंडेशन के उपाध्यक्ष कमोडोर अनिल जय सिंह (रि.) ने ऑपरेशनों और युद्ध के दौरान AIP की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है. उनका कहना है कि पनडुब्बियों के ख़िलाफ़ घने जंगी माहौलों में इसकी ज़रूरत ख़ासतौर से बढ़ जाती है. अतीत में भी उनकी स्पष्ट राय यही थी कि टेंडर में हिस्सा ले रहे हरेक विदेशी OEM के लिए AIP से जुड़ी क़ाबिलियत को प्रामाणिक रूप से पेश किया जाना ज़रूरी होना चाहिए. कमोडोर सिंह के मुताबिक “2030 के दशक की शुरुआत से पहले P-75I पनडुब्बियों के नौसेना में प्रवेश की संभावना ना के बराबर है. उस वक़्त तक प्रौद्योगिकी और आगे बढ़ चुकी होगी और AIP के ज़रिए एसिड बैटरी मिश्रण की बजाए AIP-लीथियम-ऑयन बैटरी का दौर आ जाएगा. इससे पनडुब्बियों को अतिरिक्त क्षमता हासिल हो जाएगी.”
ख़ामियां
जैसा कि ऊपर बताया गया है AIP प्रणाली पनडुब्बियों को लंबे कालखंड तक पानी के नीचे रहने की ताक़त देगी. हालांकि इस प्रणाली के इस्तेमाल से जुड़ी कुछ ख़ामियां भी हैं. दरअसल AIP मॉड्यूल जोड़ने के लिए पनडुब्बी की लंबाई बढ़ानी पड़ती है. इससे जलयान का वज़न बढ़ जाता है और उसकी रफ़्तार घट जाती है. इतना ही नहीं AIP प्रणाली में दोबारा ईंधन भरने की क़वायद को घरेलू बंदरगाह पर मौजूद ख़ास परिसरों में ही अंजाम दिया जा सकता है. इसका मतलब ये है कि हवाई सुविधाओं के विपरीत AIP प्रणालियों के डिस्चार्ज हो जाने के बाद उन्हें समंदर में चार्ज नहीं किया जा सकता. ज़ाहिर है इससे इन पनडुब्बियों द्वारा संचालित गतिविधियां काफ़ी हद तक सीमित हो जाती हैं. इस तरह ये जलयान मोटे तौर पर तटरक्षा में इस्तेमाल आने वाले औज़ार बनकर रह जाते हैं.
फ़्यूल सेल का इस्तेमाल करने वाली इकाइयों के अलावा AIP के सभी ढांचों में कई गतिशील हिस्से होते हैं. इनसे शोर मचता है, लिहाज़ा चोरी-छिपे वार करने की पनडुब्बी की क्षमता कमज़ोर पड़ जाती है. इस सिलसिले में हम पाकिस्तानी नौसेना की अगोस्टा 90B पनडुब्बियों की मिसाल ले सकते हैं. इनमें क्लोज़्ड-साइकल टर्बाइन आधारित फ़्रेंच MESMA AIP प्रणाली लगी है. ये ढांचा पानी के भीतर तेज़ रफ़्तार मुहैया कराता है. हालांकि इसकी कार्यकुशलता कम होती है, इसमें ऑक्सीजन का उपभोग तेज़ गति से होता है और इसमें व्यवस्थागत पेचीदगी भी ज़्यादा होती है.
फ़्यूल सेल का इस्तेमाल करने वाली इकाइयों के अलावा AIP के सभी ढांचों में कई गतिशील हिस्से होते हैं. इनसे शोर मचता है, लिहाज़ा चोरी-छिपे वार करने की पनडुब्बी की क्षमता कमज़ोर पड़ जाती है.
स्टर्लिंग साइकल इंजनों का उपयोग करने वाले AIP के तरोताज़ा ढांचों से भी पनडुब्बियों को लीथियम-ऑयन बैटरियों के बराबर की डूब क्षमता हासिल होती है. इनमें जापान की सोरयू श्रेणी और चीन की युआन श्रेणी शामिल हैं. भले ही फ़्यूल सेल AIP से स्टर्लिंग इंजनों के मुक़ाबले बेहतर डूब क्षमता हासिल होती है, लेकिन लीथियम-ऑयन बैटरियों के ऊंचे ऊर्जा उत्पाद से पनडुब्बियों में पानी के भीतर तेज़ रफ़्तार से लंबी मियाद तक सफ़र करने की क़ाबिलियत आ जाती है. ग़ौरतलब है कि सतह पर मौजूद लक्ष्यों को निशाना बनाने के बाद जवाबी हमलों से बचने के लिए ये बेहद अहम योग्यता होती है.
अक्सर लीथियम-ऑयन बैटरियों में “अचानक ठप पड़ जाने”, ज़रूरत से ज़्यादा गरम हो जाने और आग पकड़ लेने के रुझान देखे जाते हैं. पनडुब्बियों में सैकड़ों बैटरियां बेहद नज़दीकी से जुड़ी होती है. ऐसे में इस तरह की समस्याएं गंभीर चिंता का सबब बन सकती हैं. जापान ने इस सिलसिले में बेहतर सुरक्षा और निर्भरता सुनिश्चित करने के लिए भारी-भरकम निवेश किया है. उन्नत बैटरी-सेल प्रणालियों के इस्तेमाल से ये कामयाबी हासिल हुई है. इनमें कठोर वाहकों और स्थिर रसायनों के साथ-साथ स्वचालित अग्निशमन यंत्रों का इस्तेमाल किया गया है. लाज़िमी तौर पर भविष्य में लीथियम-ऑयन प्रॉपल्शन के तकनीकी पहलुओं में और सुधार की उम्मीद की जा सकती है. भले ही फ़्यूल सेल AIP में कई ख़ासियतें हैं, लेकिन स्टर्लिंग इंजन जैसे AIP ढांचों के मुक़ाबले इनकी ख़रीद, उपयोग और रखरखाव काफ़ी महंगा होता है. मिसाल के तौर पर डीज़ल की आसान उपलब्धता के चलते स्टर्लिंग इंजनों में दोबारा ईंधन भराई की लागत फ़्यूल सेल्स के मुक़ाबले नीची होती है.
सौ बात की एक बात ये है कि फ़्यूल सेल AIP प्रणाली की प्रामाणिक क्षमता सिर्फ़ 2 OEMs के पास है. इनमें से एक P-75I की प्रतिस्पर्धा से बाहर निकल गया है. दरअसल, भारतीय नौसेना की पनडुब्बी से जुड़े ठेके की शर्तें अव्यावहारिक हैं, लिहाज़ा इकलौते बचे OEM द्वारा भी इन्हें पूरा किए जाने की संभावना ना के बराबर है.
आगे की राह
भारतीय नौसेना AIP ढांचे पर ज़ोर दे रही है. इससे ऐसा लगता है कि दुश्मन फ़ौज पर हमले के बाद पहचाने जाने से बचने के लिए वहां से तेज़ी से भागने की बजाए लंबे अर्से तक पानी के भीतर बने रहने की क़ाबिलियत को ज़्यादा अहमियत दी जा रही है. ऊपर बताई गई क़वायदों में क़ुदरती तौर पर ये माना गया है कि, प्रौद्योगिकी के बूते कम से कम अगले दो दशकों में पनडुब्बियों को अनुपयोगी होने से बचाया जा सकेगा. इसके लिए इन्हें फ़्यूल सेल-आधारित समाधानों पर ही निर्भर होना पड़ेगा. इस सिलसिले में वैश्विक स्तर पर महज़ 2 प्रामाणिक विकल्प मौजूद हैं. इसी वजह से एकल विक्रेता वाले हालात पैदा हुए हैं.
प्रौद्योगिकी के बूते कम से कम अगले दो दशकों में पनडुब्बियों को अनुपयोगी होने से बचाया जा सकेगा. इसके लिए इन्हें फ़्यूल सेल-आधारित समाधानों पर ही निर्भर होना पड़ेगा. इस सिलसिले में वैश्विक स्तर पर महज़ 2 प्रामाणिक विकल्प मौजूद हैं. इसी वजह से एकल विक्रेता वाले हालात पैदा हुए हैं.
लिहाज़ा भारतीय नौसेना को बुनियादी सवाल पर फिर से ग़ौर करना होगा- क्या वो सबसे नया AIP ढांचा चाहती है या सबसे ताज़ा प्रॉपल्शन प्रौद्योगिकी. ग़ौरतलब है कि लीथियम-ऑयन बैटरी आधारित प्रॉपल्शन प्रौद्योगिकी में हाल ही में काफी उन्नति हुई है. आगे भी इस दिशा में भरपूर संभावनाएं मौजूद हैं. P-75I कार्यक्रम का भविष्य इसी सवाल के जवाब में छिपा हो सकता है.
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