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Published on Nov 08, 2024 Updated 0 Hours ago

सुरक्षा से लेकर भू-राजनीति तक, अर्थव्यवस्था से व्यापार करों और मीडिया के विनियमन तक: हम ट्रंप के दूसरे कार्यकाल से क्या क्या अपेक्षाएं कर सकते हैं?

अमेरिका: राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के राज का अगला चार साल!

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दुनिया के सबसे ताक़तवर देश के राष्ट्रपति के तौर पर डॉनल्ड जे. ट्रंप की वापसी के साथ बहुत सारी अपेक्षाएं भी जुड़ी हुई हैं. अमेरिका के दुनिया से मुंह मोड़कर घरेलू अर्थव्यवस्था पर ज़ोर देने से अंतरराष्ट्रीय भू-राजनीतिक रुख़ में तब्दीली से पैदा होने वाली उथल-पुथल तक, अगले चार साल ट्रंप का राष्ट्रपति के तौर पर दूसरा कार्यकाल ऐसा रहने वाला है, जिसके बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है.

 

इसके बावजूद, हाल के दिनों में वैश्विक राजनीति में आ रहे बदलावों को देखते हुए, ऐसे ही नतीजे आने की उम्मीद लगाई जा रही थी. जो बात शीशे की तरह साफ़ है कि, दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देशों की जनता वामपंथ और उनके दूर दूर तक फैले दबदबे से उकता गई है. यहां, वामपंथ के उग्रवादियों को एजेंडा चलाने वाली सरकारों और विचारधारा से प्रेरित मीडिया ने जैसी छूट दे रखी थी, उसी वजह से दक्षिणपंथ की जीत मुमकिन हुई है.

 यूरोपीय संघ (EU) से लेकर अमेरिका तक, वामपंथियों के पुराने पड़ चुके एजेंडे को चुनावी जंगों में बार बार ख़ारिज किया जा रहा है. यूरोप और अमेरिका की जनता ने जिस तरह एक सुर में दक्षिणपंथ को जनादेश दिया है, उसके केंद्र में इन देशों की सरकारों का अवैध अप्रवासियों द्वारा मचाई जा रही तबाही से निपटने की अनिच्छा रही है. 

यूरोपीय संघ (EU) से लेकर अमेरिका तक, वामपंथियों के पुराने पड़ चुके एजेंडे को चुनावी जंगों में बार बार ख़ारिज किया जा रहा है. यूरोप और अमेरिका की जनता ने जिस तरह एक सुर में दक्षिणपंथ को जनादेश दिया है, उसके केंद्र में इन देशों की सरकारों का अवैध अप्रवासियों द्वारा मचाई जा रही तबाही से निपटने की अनिच्छा रही है. आर्थिक सुस्ती और रोज़गार की कमी के साथ साथ यूक्रेन और रूस के युद्ध की वजह से महंगाई की ऊंची दर, लोगों की चिंता की एक और वजह रही है.

 

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत का मामला अनूठा है: तमाम नैरेटिव गढ़े जाने के बावजूद, भारत की जनता वामपंथ और दक्षिणपंथ के झमेले में पड़ने से परहेज़ करती रही है. भले ही प्रधानमंत्री मोदी को तीसरे कार्यकाल के लिए मिले जनादेश को ‘दक्षिणपंथ की जीत’ कहा जा रहा है. अब मोदी के साथ ट्रंप को भी लोकतंत्र विरोधी कहा जाएगा, जबकि दोनों ही नेताओं के लोकतांत्रिक देशों की जनता ने ही अपने वोट से उन्हें फिर से सत्ता की कमान दी है. मोदी को तीसरी बार और ट्रंप को दूसरी बार.

 

इन सुर्ख़ियों से परे बड़े सवाल खड़े हैं कि ट्रंप का दूसरा औऱ अंतिम कार्यकाल कैसा रहने वाला है और उनके मतदाता और बाक़ी दुनिया ट्रंप से क्या अपेक्षा कर सकती है. अपने ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के चुनावी नारे के तहत ट्रंप ने जनता से 20 वादे किए हैं. इनमें अमेरिका की सरहदों को बंद करना, आउटसोर्सिंग को ख़त्म करना और अमेरिका को मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की महाशक्ति बनाने से लेकर, बोलने की आज़ादी की रक्षा करने के साथ साथ यूरोप और पश्चिमी एशिया में शांति बहाल करना, दुनिया की रिज़र्व मुद्रा के तौर पर डॉलर का दबदबा बनाए रखा, महिलाओं के खेल से पुरुषों को अलग रखना और हमास समर्थक कट्टरपंथियों को देश से बाहर निकालने के साथ ही कॉलेज कैंपसों को फिर से ‘सुरक्षित और देशभक्त बनाने’ के वादे शामिल हैं.

 

सुरक्षा और भू-राजनीति

 

इन 20 मुख्य वादों में से कइयों के पीछे ये सोच है कि अमेरिका की ताक़त कम होती जा रही है और अब ट्रंप इस बदलाव को रोकने की कोशिश करेंगे. ऐसे में राष्ट्रपति बनने पर उनके जो कुछ शुरुआती फ़ैसले होंगे, वो सुरक्षा और भू-राजनीति के इर्द गिर्द होंगे. रूस और यूक्रेन के युद्ध, जिसे रूस और पश्चिमी देश दोनों ही ख़त्म करने की इच्छा रखते हैं, उसमें ट्रंप ज़बरन शामिल होंगे और अपनी बात मनवाने की कोशिश करेंगे. एक नए समझौते के तहत एक नया सौदा हो सकता है, जिसमें नई लक्ष्मण रेखाएं तय होंगे, जिससे उस इलाक़े में एक असहज शांति क़ायम होगी. हो सकता है कि यूक्रेन को अपने कुछ इलाक़े छोड़ने पड़ें और रूस को अपनी इज़्ज़त बचाने का मौक़ा मिले. वहीं, यूरोपीय संघ हाथ मलते रहने के साथ साथ शांति सम्मेलन आयोजित करता रहेगा.

 

ट्रंप, यूरोपीय संघ पर अपनी पुरानी मांग भी थोपने की कोशिश करेंगे कि यूरोप अपनी सुरक्षा का ख़र्च ख़ुद उठाए. अब तक यूरोप की सुरक्षा का बोझ अमेरिका उठाता रहा है. अपने पहले कार्यकाल में ट्रंप ने साफ़ कर दिया था कि यूरोपीय संघ (EU) को अपनी सुरक्षा का ख़र्च ख़ुद उठाना होगा, जो GDP के 2 प्रतिशत के बराबर होगा. उम्मीद है कि ट्रंप अपनी इस मांग को फिर उठाएंगे और यूरोप से मांग करेंगे कि वो अपनी सेनाओं का विस्तार करे. उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (NATO) में अमेरिका की मौजूदगी इसी बात पर निर्भर करेगी कि यूरोपीय देश अमेरिका की ये शर्त कहां तक मानते हैं. जर्मनी ने तो नए हालात से निपटने की शुरुआत पहले ही कर दी है और वहां अनिवार्य सैन्य सेवा को लेकर चर्चाएं तेज़ हो गई हैं. अन्य देश भी इसी रास्ते पर चलेंगे.

 अपने पहले कार्यकाल में ट्रंप ने साफ़ कर दिया था कि यूरोपीय संघ (EU) को अपनी सुरक्षा का ख़र्च ख़ुद उठाना होगा, जो GDP के 2 प्रतिशत के बराबर होगा. उम्मीद है कि ट्रंप अपनी इस मांग को फिर उठाएंगे और यूरोप से मांग करेंगे कि वो अपनी सेनाओं का विस्तार करे. 

इज़राइल और हमास व हिज़्बुल्लाह के बीच चल रहा दूसरा युद्ध जिसमें ईरान और हूती इज़राइल के ख़िलाफ़ हैं, उसको लेकर ट्रंप का रवैया अलग रहने वाला है. संभावना यही है कि मध्य पूर्व से संवाद करते हुए ट्रंप, हमास को नैतिक समर्थन देने की मांग की अनदेखी करेंगे. ‘हमास समर्थक कट्टरपंथियों’ को देश से बाहर निकालने की बात कहना तो आसान है, लेकिन, इसे लागू करना मुश्किल होगा. वहीं, ट्रंप की सत्ता में वापसी का असर ईरान पहले से ही महसूस करने लगा है क्योंकि उसकी मुद्रा रियाल, ट्रंप की जीत की ख़बर आते ही धड़ाम हो गई; अब वित्तीय स्थिति सुरक्षा के मसले पर कितना असर डालेगी, ये देखने वाली बात होगी.

 

अपने पहले कार्यकाल में ट्रंप ने चीन को जमकर निशाने पर लिया था. अब जबकि उनका दूसरा कार्यकाल शुरू होने वाला है, तो चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग पहले ही दोस्ताना ताल्लुक़ात वाली ज़ुबान बोलने लगे हैं और ट्रंप के साथ क़दमताल करने का प्रयास कर रहे हैं. शी जिनपिंग ने कहा कि, ‘इतिहास ने दिखाया है कि चीन और अमेरिका सहयोग से फ़ायदे में रहते हैं और टकराव से दोनों को नुक़सान होता है.’ अपनी ओर से ट्रंप, चीन का मुक़ाबला करना जारी रखेंगे. लेकिन, उनका रवैया लेन-देन वाला ही रहने वाला है.  

 

उनके इस तरीक़े का असर भारत पर भी पड़ेगा. अपने पहले कार्यकाल में ट्रंप ने भारत को हथियारों की बिक्री के साथ साथ रक्षा साझेदारियों को बढ़ावा दिया था. ये सिलसिला जारी रहने की संभावना है. यहां लेन-देन का मोर्चा हिंद महासागर का क्षेत्र है. ऐसे में ऊपरी तौर पर दिखने वाले बदलावों को छोड़ दें, तो क्वॉडिलैटरल सिक्योरिटी डायलॉग (QUAD) का सिलसिला जारी रहेगा.

 

इस क्षेत्र में मुख्य सलाहकार मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाला बांग्लादेश भी है. बांग्लादेश के बारे में ट्रंप के कड़ा रवैया अपनाने की ज़रूरत है. वो हिंदुओं का समर्थन करने और हिंदुओं के ख़िलाफ़ ‘बर्बर हिंसा’ को लेकर सख़्त रवैया अपनाएंगे; हिंसा नहीं निपटकर मुहम्मद यूनुस ने ‘शांति, सौहार्द, स्थिरता और सबकी समृद्धि’ का संदेश दिया है. हालांकि, ये सारी बातें हिंदुओं के ख़िलाफ़ हिंसा रोकने का काम कैसे करती हैं, ये देखने वाली बात होगी और इस पर बारीक़ी से नज़र रखी जाएगी. और, हिंदू समुदाय को ट्रंप का समर्थन क्या कनाडा में हमले के शिकार हो रहे हिंदुओं को भी मिलेगा, ये देखने वाली बात होगी. क्योंकि कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो तो हमलावरों के अपराधों पर पर्दा डालने में जुटे हुए हैं.

 

कारोबार और विनियमन

 

लंबे समय से ट्रंप के समर्थक और दुनिया के सबसे अमीर शख़्स एलन मस्क अमेरिका में नियम क़ायदों की भरमार और उनसे जुड़े जुर्मानों की ‘क़ानूनी जंग’ कहकर आलोचना और शिकायत करते रहे हैं. संभावना है कि एलन मस्क सरकारी कुशलता बढ़ाने के आयोग के अध्यक्ष होंगे. इस आयोग की ज़िम्मेदारी होगी कि वो अमेरिका के 6.75 ट्रिलियन डॉलर के संघीय बजट में से 2 ट्रिलियन डॉलर की कमी लाएं. ये सब एक बार में तो होगा नहीं. लेकिन अमेरिका ये उम्मीद कर सकता है कि ये आयोग तुरंत कुछ सुझाव देगा और उन पर अमल भी जल्दी होगा. इस व्यवस्था से अभी फ़ायदा उठा रहे लोगों को कुछ नुक़सान तो होगा, लेकिन मध्यम अवधि में अमेरिका को इसका फ़ायदा होगा और इसके नतीजे ट्रंप का कार्यकाल ख़त्म होने से पहले नज़र आने लगेंगे.

 

विनियमन के ढांचे में बदलाव और उथल-पुछल मचाने वालों की अगुवाई में अमेरिका में तेज़ आर्थिक वृद्धि देखने को मिलेगी. ये ऐसा क़दम है, जिसकी शुरुआत भारत ने मोदी के दूसरे कार्यकाल में कर दी थी, जब संसद ने जनविश्वास (संशोधन और प्रावधान) विधेयक को अगस्त 2023 में मंज़ूरी दी थी, जिसके तहत कुछ आर्थिक जुर्मों में जेल की सज़ा का प्रावधान ख़त्म कर दिया गया था. लेकिन, ये क़दम तो आगे किए जाने वाले सुधार की रूप-रेखा मात्र था. कारोबार करने से जुड़े नियमों में सज़ा वाले 26 हज़ार 134 प्रावधानों में से केवल 113 को ही इस विधेयक के ज़रिए ख़त्म किया गया था. जनविश्वास विधेयक 2.0 पर काम चल रहा है.

 

केंद्र सरकार के स्तर पर ये काम बहुत बड़ा नहीं है. केवल 5,239 धाराओं में ही बदलाव करना है. एक बार ये काम होने से अफ़सरशाही जो भारत का अंदरूनी डीप स्टेट है और बदलने के लिए तैयार नहीं है, उसकी हफ़्ता वसूली बंद हो जाएगी. अब ये तो वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल की ज़िम्मेदारी है कि वो इसका बीड़ा उठाएं और बदलाव लाएं, न कि इन चुनौतियों का बोझ केवल उद्योग के सिर पर डाल दें. पीयूष गोयल के पास आंकड़े हैं. उनके पास जनादेश है और उनकी नीयत में भी कोई कमी नहीं है. लेकिन, ऐसा लगता है कि इस सब कुछ पर निष्क्रियता हावी है. हो सकता है कि एलन मस्क का तरीक़ा, केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल के लिए प्रेरणास्रोत बन जाए.

 

ट्रंप अमेरिका को मैन्युफैक्चरिंग की सुपरपावर बनाना चाहते हैं, लेकिन इसका एक ऐसा नतीजा भी निकल सकता है, जिसकी किसी को अपेक्षा नहीं होगी. इसका अर्थ होगा कि अमेरिका सिर्फ़ अपने तक सीमित रह जाने वाली आर्थिक शक्ति बन जाएगा. ट्रंप की कोशिश होगी कि वो अमेरिका को पूरी दुनिया के उद्यमियों, ख़ास तौर से उन्नत तकनीक वाले उद्योगों के लिए आकर्षक बनाएं. लेकिन, इससे श्रमिकों को ज़्यादा मज़दूरी कैसे मिलेगी, ये स्पष्ट नहीं है. भारत और वियतनाम जैसे देश जो अपने यहां के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का विस्तार करना चाहते हैं, उनके लिए इसका मतलब सीधे तौर पर अमेरिका से मुक़ाबला करना होगा.

 ट्रंप अमेरिका को मैन्युफैक्चरिंग की सुपरपावर बनाना चाहते हैं, लेकिन इसका एक ऐसा नतीजा भी निकल सकता है, जिसकी किसी को अपेक्षा नहीं होगी. इसका अर्थ होगा कि अमेरिका सिर्फ़ अपने तक सीमित रह जाने वाली आर्थिक शक्ति बन जाएगा.

अपने में सीमित अर्थव्यवस्था का मतलब व्यापार करों को तार्किक बनाना भी होगा. इस मामले में भारत जैसे देश बैकफुट पर होंगे. अपने पहले कार्यकाल में और चुनाव अभियान के दौरान भी ट्रंप ने भारत को ‘व्यापार कर का दुरुपयोग करने वाला’ क़रार दिया था. दोनों लोकतांत्रिक देशों के लिए आसानी से सहमति बनाने वाला एक विकल्प ये होगा कि व्यापार कर को लेकर अहम बातचीत करें. अमेरिका, भारत का दूसरा सबसा बड़ा व्यापारिक साझीदार है. व्यापार दोनों देशों को जोड़ने वाली सबसे अहम कड़ी है.

 

लेकिन, 4 ट्रिलियन डॉलर वाली भारत की अर्थव्यवस्था के लिए अमेरिका से 118 अरब डॉलर का कारोबार है, जो उस मकाम से बहुत दूर है, जहां वास्तव में उसे होना चाहिए. जब भारत 10 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बने, तो अमेरिका के साथ उसका कारोबार स्वाभाविक रूप से 300 अरब डॉलर का होना चाहिए. हालांकि चुनौती इसे 1 ट्रिलियन डॉलर तक ले जाने की है. ऐसे में द्विपक्षीय वार्ताओं में व्यापार कर से जुड़े विवादों का निपटारा सबसे अहम होगा. दोनों देशों को व्यापार और अर्थशास्त्र के लिए व्यापक रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाना होगा, जिसके तहत सुरक्षा तकनीक और रणनीति को आर्थिक परिचर्चा का हिस्सा बनाना होगा.

 

अंत में...

 

ट्रंप की आर्थिक नीति का आख़िरी हिस्सा क्रिप्टोकरेंसी को वैध बनाने का होगा. ये काम जितना कहना आसान है, उतना करना नहीं है. क्रिप्टोकरेंसी के साथ अपनी चुनौतियां जुड़ी हैं. तकनीकी रूप से इतना उन्नत देश अमेरिका भी अपने लोगों को नुक़सान पहुंचाए बग़ैर ये तब्दीली नहीं ला सकेगा. क्रिप्टोकरेंसी को वैध बनाने का काम बड़े ज़ोर-शोर से जारी तो रहेगा, लेकिन, इससे देश की मुद्रा व्यवस्था में कोई तब्दीली आने की संभावना कम ही है.

 

दुनिया की रिज़र्व करेंसी के तौर पर डॉलर की ताक़त और उसकी विश्वसनीयता तो उसी दिन ख़त्म हो गई थी, जब पश्चिमी देशों (अमेरिका और यूरोपीय संघ) ने रूस को स्विफ्ट (SWIFT) से बाहर कर दिया था. इसके उलट, बाक़ी दुनिया ने उसी के बाद से विकल्प तलाशने शुरू कर दिए. जैसे कि ब्रिक्स देशों की साझा मुद्रा बनाना. क्रिप्टोकरेंसी अपनाने भर से ही विश्वसनीयता दोबारा बहाल नहीं होगी; रूस को दोबारा स्विफ्ट में शामिल करने से शायद ऐसा हो सके. ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में ऐसा होने की उम्मीद काफ़ी है.

 

आख़िर में वीसा जैसे अन्य मसले भी हैं. यहां ट्रंप का लक्ष्य ‘अप्रवास के हमले को रोकना’ है. लेकिन, भारतीय नागरिकों के लिए इसमें काफ़ी बेहतर संभावनाएं हैं. ट्रंप अप्रवासियों को अमेरिका आने से नहीं रोकना चाहते, या उनको बाहर नहीं निकालना चाहते. वो अवैध अप्रवासियों के ख़िलाफ़ हैं. भारत के ज़्यादातर नागरिक, अमेरिका क़ानूनी तरीक़े से जाते हैं. अप्रवासियों को लेकर नीति में मामूली बदलाव ज़रूर हो सकते हैं. लेकिन, अमेरिका के दरवाज़े प्रतिभाओं के लिए खुले रहेंगे और भारतीय इसमें आगे हैं.

 भारत के ज़्यादातर नागरिक, अमेरिका क़ानूनी तरीक़े से जाते हैं. अप्रवासियों को लेकर नीति में मामूली बदलाव ज़रूर हो सकते हैं. लेकिन, अमेरिका के दरवाज़े प्रतिभाओं के लिए खुले रहेंगे और भारतीय इसमें आगे हैं.

सबसे बड़ी बात, ट्रंप की सत्ता में वापसी दिखाती है कि किस तरह मुख्यधारा का मीडिया अपने तमाम पूर्वाग्रहों, व्याख्यानोौं और विचारधारों के बावजूद, जनादेशों के लिहाज़ से अप्रासंगिक हो चुका है. अमेरिका का मुख्यधारा का मीडिया डेमोक्रेटिक पार्टी को समर्थन देने में बहुत व्यस्त रहने, एक कट्टर वामपंथी भविष्य को लेकर सनक की हद तक आश्वस्त रहने और ज़मीनी आवाज़ों (और पॉडकास्ट) के प्रति कान बंद करने की वजह से उन मतदाताओं की आलोचना करता रहेगा, जो सब एक साथ अपनी तमाम परिचर्चाओं को लेकर एक्स पर चले गए हैं और जिसे एलन मस्क ने ‘वास्तविक समय में सच जानने का स्रोत’ बताया है.

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