Author : Mona

Published on Oct 17, 2022 Updated 0 Hours ago

जनजातीय समुदायों में तकनीक की समझ रखने वालों की तादाद अभी भी बहुत कम है. डिजिटल साक्षरता की कमी अभी भी चिंता का विषय बनी हुई है. जंगल के अधिकारों को मंज़ूरी की दर अभी भी चिंता का विषय बनी हुई है क्योंकि ये दर अभी भी 50 से 70 फ़ीसद के बीच अटकी है.

प्रवाति नाइक: आदिवासी समुदायों का ‘डिजिटल सशक्तिकरण’

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तीस बरस की प्रवाति नाइक का दिन, एक के बाद एक घरेलू काम निपटाने से शुरू होता है. इसके बाद वो अपनी दोपहिया गाड़ी से अपने गांव के आस-पास के दस गांवों का दौरा करती हैं, जो ओडिशा के मयूरभंज ज़िले में पड़ते हैं. इस दौरान प्रवाति पहाड़ी इलाक़ों में [i]  लगभग 35 किलोमीटर तक गाड़ी चलाती हैं. जिन सड़कों से होकर प्रवाति गुज़रती हैं, वो उत्तरी ओडिशा के सिमलीपाल नेशनल पार्क के घने जंगलों के बेहद क़रीब हैं. वहां की आब-ओ-हवा बहुत सख़्त है और उन सड़कों से लोगों की ज़्यादा आवाजाही नहीं होती है. जंगल के क़रीब होने से जंगली जानवरों का ख़तरा तो हमेशा ही बना रहता है. लेकिन, प्रवाति इन रोज़मर्रा की चुनौतियों का डटकर सामना करती हैं. ज़ाहिर है, प्रदान में प्रवाति के सहयोगी भी उन्हें बहादुर और साहसी कहते हैं. प्रदान एक नागरिक संगठन (CSO) है.

आदिवासियों की कई पीढ़ियां, जंगलों के साथ अपनी ज़िंदगी का तालमेल बनाकर रहती आई हैं. लेकिन, जैसे जैसे इस इलाक़े में औद्योगीकरण बढ़ रहा है, तो बहुत से अनुसूचित इलाक़ों में रहने वालों के लिए अपनी पुश्तैनी ज़मीन से बेघर होने और खाद्य असुरक्षा का जोखिम बढ़ रहा है.

मयूरभंज ज़िला एक संरक्षित अनुसूचित इलाक़ा a, [ii] है. संरक्षित अनुसूचित इलाक़ा उसे कहा जाता है, जहां पर अनुसूचित जनजातियों b  और जंगलों में रहने वाले अन्य समूहों का बहुमत आबाद हो इसकी कोशिश है. क़ुदरती और खनिज संसाधनों के बीच रहने के बावुजूद ये समूह तरक़्क़ी के आधुनिक पैमानों, जैसे कि पढ़ाई-लिखाई, रोज़गार के मौक़ों और सेहत के मामलों में बहुत पिछड़े हुए हैं. आदिवासियों की कई पीढ़ियां, जंगलों के साथ अपनी ज़िंदगी का तालमेल बनाकर रहती आई हैं. लेकिन, जैसे जैसे इस इलाक़े में औद्योगीकरण बढ़ रहा है, तो बहुत से अनुसूचित इलाक़ों में रहने वालों के लिए अपनी पुश्तैनी ज़मीन से बेघर होने और खाद्य असुरक्षा का जोखिम बढ़ रहा है. 2006 का जंगल अधिकार क़ानून, जंगल में रहने वालों को सुरक्षा और अपनी ज़मीन की हिफ़ाज़त और मालिकाना हक़ देने की दिशा में बहुत बड़ा क़दम था. c

प्रदान के ओडिशा के नेटवर्क में प्रवाति इकलौती महिला ज़मीन साथी d  हैं. प्रवाति, ArcGIS सर्वे123 और CADASTA कलेक्टर जैसे बेहद आधुनिक मोबाइल ऐप का बख़ूबी इस्तेमाल कर लेती हैं. वो तकनीकी हुनर और वैज्ञानिक नज़रिया अपनाने में बहुत गर्व महसूस करती हैं. उन्होंने ये सब कुछ अपनी मेहनत और इच्छाशक्ति से सीखा है. ये मोबाइल ऐप पार्वती को बहुत तेज़ी और सटीक तरीक़े से ज़मीन की पैमाइश करने, उससे जुड़े आंकड़े जुटाने और उनके विश्लेषण में मदद करते हैं. [iii]

ओडिशा में महिलाओं (15 से 49 वर्ष आयु) का तकनीकी सशक्तिकरण
जिन महिलाओं के पास मोबाइल है और वो उसका इस्तेमाल ख़ुद करती हैं 50.1%
जिन महिलाओं के पास अपना मोबाइल फोन है उनमें से वो महिलाएं जो SMS पढ़ सकती हैं 68.3%
मोबाइल से पैसों का लेन-देन करने वाली महिलाओं की तादाद 17.3%
जिन महिलाओं ने कभी न कभी इंटरनेट का इस्तेमाल किया है 24.9%

स्रोत: National Family Health Survey, 2019-213

प्रवाति कहती हैं कि, ‘पहले समुदाय की ज़मीन की पैमाइश करना बहुत टेढ़ा काम होता था. पुराने काग़ज़ पर बने नक़्शों की मदद से किसी ज़मीन की सही जगह तय करने में दस दिन लग जाते थे और वो पैमाइश सटीक भी नहीं होती थी. लेकिन अब मुझे फोन की मदद से ज़मीन की माप करने और उसकी बिल्कुल सही जगह और आकार का पता लगाने में एक से दो दिन लगते हैं. मेरा काम देखकर गांव के बुज़ुर्ग हैरान रह जाते हैं. उन्हें मेरे इस हुनर को स्वीकार करने में कुछ वक़्त ज़रूर लगा. लेकिन अब उन्होंने मेरे काम पर यक़ीन करना सीख लिया है.’

वैसे तो तकनीक ने जनजातीय लोगों के निजी और सामुदायिक वन अधिकारों के दावों (IFRs और CFRs) को तय करने की प्रक्रिया तेज़ और आसान बना दिया है. हालांकि, जनजातीय समुदायों में तकनीक की समझ रखने वालों की तादाद अभी भी बहुत कम है. डिजिटल साक्षरता की कमी अभी भी चिंता का विषय बनी हुई है. जंगल के अधिकारों को मंज़ूरी की दर अभी भी चिंता का विषय बनी हुई है क्योंकि ये दर अभी भी 50 से 70 फ़ीसद के बीच (Figure-1 और 2 देखें) अटकी है. प्रदान की मदद से प्रवाति ने 108 निजी वन अधिकार और 10 सामुदायिक वन अधिकार के दावे दाख़िल किए हैं. अपने स्मार्टफ़ोन का इस्तेमाल करके प्रवाति ने लोगों और ख़ास तौर से ठाकुरमुंडा ब्लॉक की महिलाओं के लिए जॉब कार्ड e  के, राशन कार्ड और विधवा पेंशन के लिए अर्ज़ी देना और उन्हें हासिल करना भी काफ़ी आसान बना दिया है. क्योंकि, पहाड़ी इलाक़ा होने और नेटवर्क की दिक़्क़त के चलते यहां के लोगों के लिए बुनियादी सुविधाओं, सेवाओं और जानकारी को हासिल करना बहुत दुश्वार है. जहां तक जंगल की ज़मीन का अंदाज़ा लगाकर उसकी डिजिटल पैमाइश का सवाल है, तो प्रवाति कहती हैं कि प्लॉटिंग में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी और अपने समुदाय का समर्थन मिलने पर उन्हे बहुत तसल्ली होती है. प्रवाति कहती हैं कि, ‘हम (आदिवासी समुदाय के सदस्य) हमेशा क़ुदरत के नज़दीक रहे हैं. ये जंगल हमारे अपने हैं. अब जब हम इन ज़मीनों को क़ानूनी तौर पर इस्तेमाल कर पाते हैं, तो इससे हम आज सशक्त होते हैं. हमारा भविष्य सुरक्षित होता है और इससे पिछली कई सदियों से हमारे पुरखों द्वारा इन जंगलों की देख-भाल में किए गए योगदान को भी पहचान मिलती है.’

प्रवाति कहती हैं कि प्लॉटिंग में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी और अपने समुदाय का समर्थन मिलने पर उन्हे बहुत तसल्ली होती है. प्रवाति कहती हैं कि, ‘हम (आदिवासी समुदाय के सदस्य) हमेशा क़ुदरत के नज़दीक रहे हैं. ये जंगल हमारे अपने हैं. अब जब हम इन ज़मीनों को क़ानूनी तौर पर इस्तेमाल कर पाते हैं, तो इससे हम आज सशक्त होते हैं.

तकनीक के इस्तेमाल और इसके फ़ायदों से प्रवाति का साबक़ा बहुत धीरे धीरे पड़ा और इसमें कई बरस लग गए. प्रवाति का जन्म मयूरभंज के पड़ोसी ज़िले क्योंझर f  में हुआ था. वो तीन बहनों और दो भाइयों के साथ पली बढ़ीं. परिवार के पास संसाधन बहुत कम थे. प्रवाति के पिता परिवार के इकलौते कमाऊ सदस्य थे. उनकी मौत से प्रवाति के परिवार की आर्थिक स्थिति और ख़राब हो गई. उस वक़्त प्रवाति की उम्र लगभग 17 बरस थी. बारहवीं का इम्तिहान पास करने के बाद प्रवाति की पढ़ाई बंद हो गई. हालांकि उनका सपना आगे पढ़ाई करने का था. 18 साल की उम्र में प्रवाति की शादी हो गई. उनके मायके में अब पांच लोगों का परिवार है. अपने माता-पिता के घर से जुड़ी प्रवाति की किशोर उम्र की यादों में सबसे अहम एक बेसिक की-पैड वाले फ़ोन का आना था. वो लोग उस फ़ोन से अपने रिश्तेदारों से बातें किया करते थे. उस मोबाइल फ़ोन ने प्रवाति को तकनीक के फ़ायदों से परिचित कराया. हालांकि उसका बहुत सीमित इस्तेमाल ही हो पाता था. उसके क़रीब दस साल बाद जाकर (लगभग 2017 या 2018 की बात है) प्रवाति ने अपनी पहली तनख़्वाह से ख़ुद का स्मार्टफ़ोन ख़रीदा था. हालांकि, उनके ससुराल वालों को ये बात पसंद नहीं आई थी; प्रवाति के ससुर ने स्मार्टफ़ोन को ‘बेवजह का ख़र्च’ बताकर उसे ख़रीदने का विरोध किया था. ससुराल की दूसरी महिलाओं ने प्रवाति को ‘कुछ ज़्यादा ही फ़ैशनेबल’ कहकर उनका मज़ाक़ उड़ाया था. लेकिन, ये बातें प्रवाति के मज़बूत इरादों को तोड़ नहीं सकीं.

सामुदायिक नेतृत्व का पहला मौक़ा प्रवाति को 2011 के आस-पास मिला था, जब उन्होंने घरेलू गैस सिलेंडर के रूप में स्वच्छ ईंधन की मांग के लिए अपने गांव की महिलाओं को एकजुट किया था. प्रवाति कहती हैं कि, ‘क़स्बे में LPG कनेक्शन देने वालों ने हमसे, सब्सिडी के सिलेंडर के लिए ज़्यादा पैसे लेने की कोशिश की थी. क्योंकि हम आदिवासी समुदाय से हैं और दूर दराज़ के इलाक़ों में रहते हैं.’ तब प्रवाति ने एक टैक्सी किराए पर ली और हर सिलेंडर पहुंचाने के बदले में मामूली रक़म लेकर, सिलेंडर लोगों के घर पहुंचाने शुरू कर दिए.

हालांकि, इस दौरान प्रवाति को सरकारी व्यवस्था की चुनौतियों का सामना करना पड़ा. लेकिन, उन्हें पता था कि गांव को इस सुविधा की ज़रूरत है. प्रवाति कहती हैं कि, ‘पहले हमें अपने दिन का आधा हिस्सा जंगलों से लकड़ी जुटाने में ख़र्च करना पड़ता था. इसमें जोखिम भी था और हमें अपने जंगलों के पेड़ भी काटने पड़ते थे. अब गैस सिलेंडर होने से हम लकड़ी के ज़हरीले धुएं से बीमार बी नहीं पड़ते और बच्चों के साथ बिताने के लिए हमारे पास ज़्यादा वक़्त भी रहता है.’ प्रवाति ने अपने गांव के 230 में से 130 परिवारों को गैस के चूल्हे का इस्तेमाल करने के लिए मना लिया था. ये उनकी पहली जीत थी, जो बहुत यादगार है.

प्रवाति ने अपनी पहली तनख़्वाह से ख़ुद का स्मार्टफ़ोन ख़रीदा था. हालांकि, उनके ससुराल वालों को ये बात पसंद नहीं आई थी; प्रवाति के ससुर ने स्मार्टफ़ोन को ‘बेवजह का ख़र्च’ बताकर उसे ख़रीदने का विरोध किया था. ससुराल की दूसरी महिलाओं ने प्रवाति को ‘कुछ ज़्यादा ही फ़ैशनेबल’ कहकर उनका मज़ाक़ उड़ाया था. लेकिन, ये बातें प्रवाति के मज़बूत इरादों को तोड़ नहीं सकीं.

अपने समुदाय से मिली इस मदद के चलते, प्रवाति सेंटर फॉर यूथ ऐंड सोशल डेवेलपमेंट में शिक्षिका बन गईं और 2015 से 2019 तक वो CSO रहीं. इस दौरान प्रवाति लगातार आदिवासियों के बीच जागरूकता फैलाने और अपने अधिकारों की मांग के लिए मोबाइल के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की वकालत करती रहीं. तमाम परियोजनाओं के लिए काम करते हुए, प्रवाति ने समुदायों को बच्चों से मज़दूरी कराने पर उनकी पढ़ाई में होने वाले नुक़सान के प्रति जागरूक किया और अपने स्मार्टफ़ोन की मदद से अपने समुदाय को गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चों की सेहत की अच्छे से देखभाल के तौर-तरीक़ों की जानकारी भी दी. 2019 में प्रदान से जुड़ने के बाद से प्रवाति ने और भी आगे क़दम बढ़ाए हैं. अब वो अपनी निगरानी में कई पंचायतों के बीच समुदायों के वन अधिकारों के प्रबंधन की समितियों के काम-काज में मदद करती हैं और ये सुनिश्चित करती हैं कि सरकार द्वारा तय की गई सीमा के मुताबिक़, फ़ैसले लेने में एक तिहाई महिलाओं की भागीदारी [iv]  ज़रूर हो. वन और राजस्व विभाग के ब्लॉक स्तर के प्रशासनिक अधिकारी प्रवाति को जानते हैं और उनका बहुत सम्मान भी करते हैं. प्रवाति को एहसास हो गया है कि पास में सही जानकारी और इसे हासिल करने का माध्यम होने के साथ साथ अगर अगुवाई करने वालों में हमदर्दी हो, तो उनके समुदाय को सशक्त बनाया जा सकता है. इसीलिए, पिछले एक दशक से अपने समुदाय के बीच काम करके जो भरोसा प्रवाति ने कमाया उसके बूते पर उन्होंने 2022 में ग्राम पंचायत g  का चुनाव लड़ा. हालांकि वो पुराने और मंझे हुए नेताओं से ये चुनाव हार गईं, लेकिन प्रवाति के इरादों की मज़बूती में कोई कमी नहीं आई है. [v]

डिजिटल माध्यमों से जंगल से जुड़े समुदायों और ख़ास तौर से महिलाओं का सशक्तिकरण करना अभी भी प्रवाति का मुख्य मिशन है. वो हाल ही में सतकोसिया में हुई एक घटना को याद करते हुए बताती हैं कि वो हाल ही में गुज़रे एक व्यक्ति के जंगल के निजी अधिकार देने के लिए तहत, ज़मीन की डिजिटल पैमाइश कर रही थीं. भाइयों ने मृतक की पत्नी को ज़मीन के मालिकाना हक़ से वंचित कर दिया था और ज़मीन पर सिर्फ़ अपना हक़ जता रहे थे. लेकिन, प्रवाति ने इस मामले में बहुत कड़ा रुख़ अपनाया और कहा कि या तो ज़मीन पर चारों का हक़ होगा या फिर किसी का नहीं. प्रवाति ने सुनिश्चित किया कि ज़मीन पर एक चौथाई हिस्सा, मृतक की पत्नी के नाम हो और उस महिला के तीन बच्चों के नाम भी मां पर निर्भर लोगों के रूप में दर्ज किए गए. प्रवाति कहती हैं कि, ‘ज़मीन लोगों को सशक्त बनाने वाली संपत्ति होती है और मैं हमेशा ये सुनिश्चित करती हूं कि तकनीक का सामरिक इस्तेमाल करके अकेली महिलाओं को उनका वाजिब हक़ दिलाया जाए’. आज ओडिशा की 36.6 प्रतिशत महिलाएं या तो ज़मीन पर अपना हक़ रखती हैं या दूसरों के साथ उनके भी साझा अधिकार हैं. प्रवाति जैसे लोगों की मदद से ये तादाद आने वाले समय में और भी बढ़ने की उम्मीद है. [vi]

मुख्य सबक़

  • ऑनलाइन माध्यम और प्रक्रियाएं जंगल पर निजी और सामुदायिक अधिकारों की अर्ज़िया दाख़िल करना आसान बना देते हैं और इनसे आदिवासी और जंगल में रहने वाले समुदायों को वन अधिकार क़ानून के प्रावधानों, उनके अधिकारों और सुविधाओं के बारे में बताया जा सकता है.
  • डिजिटल मैपिंग और ज़मीन की पैमाइश के काम में महिलाओं की भागीदारी का एक बड़ा फ़ायदा ये भी हो सकता है कि इनसे वैसे नागरिक समूहों का विकास करने में मदद दी जा सकती है, जो जंगल के अधिकारों के क्षेत्र में काम कर रहे हैं और इन समूहों के ज़रिए ज़मीन पर महिलाओं का मालिकाना हक़ और ज़मीन से जुड़े अधिकार देने में इज़ाफ़ा सुनिश्चित किया जा सकता है.

NOTES

[i] Thakurmunda Block, Mayurbhanj District, Odisha, https://gisodisha.nic.in/District/mayurbhanj/mayurbhanjpdf/Blocks/Thakurmunda%20Block/Thakurmunda_GP%20Map.pdf

[ii] Namita Wahi and Ankit Bhatia, The Legal Regime and Political Economy of Land Rights Of Scheduled Tribes in the Scheduled Areas of India, Centre for Policy Research, 2018, https://cprindia.org/briefsreports/the-legal-regime-and-political-economy-of-land-rights-of-scheduled-tribes-in-the-scheduled-areas-of-india/

[iii] National Family Health Survey (NFHS-5), 2019–21, http://rchiips.org/nfhs/NFHS-5Reports/NFHS-5_INDIA_REPORT.pdf

[iv] Ministry of Tribal Affairs, “Monthly Progress Reports on the implementation of the Scheduled Tribes and Other Traditional Forest Dweller (Recognition of Forest Rights) Act 2006”, Government of India, https://tribal.nic.in/FRA.aspx

[v] National Family Health Survey (NFHS-5), 2019–21, http://rchiips.org/nfhs/NFHS-5Reports/NFHS-5_INDIA_REPORT.pdf 7 Ministry of Panchayati Raj, Government of India,

[vi] Projects, Centre for Youth and Sustainable Development, https://www.cysd.org/previous-projects/

a- According to the Indian Constitution, Scheduled Areas refers to those geographical regions where the central (or federal) government directly intervenes to safeguard the identity and cultural-economic interests of the resident tribal groups. Nearly 13 percent of India’s geographical area falls under this category.
b- Under Article 342 of the Constitution, scheduled tribes is an umbrella term used for the many tribal groups that may be classified as such based on certain attributes, such as geographical isolation, shyness of contact with the larger community, backwardness, and distinctive culture. Currently, India has 750 such identified tribes, 62 out of which are in Odisha.

c- The Forest Rights Act 2006 allows for two kinds of rights—individual forest rights (IFR) and community forest rights (CFR). IFR allows legal rights of the forest land to an individual belonging to a scheduled tribe if the family has lived/used that land since before December 2005, and if the person belongs to any other forest dwelling category, the family must prove that at least three generations have occupied that plot of land. The ownership can only be transferred to an immediate family member or offspring. It allows them freedom to use the produce from the land. On the other hand, CFR is granted to a dedicated village for common activities, such as livestock grazing and constructing schools.

d- Jamin sathi is a trained field surveyor who is responsible for mobilising communities to claim lands, conducting geoplotting, and assisting beneficiaries in land documentation.

e- A job card is an entitlement card issued to every household where an adult member has sought employment under Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee Act and has shown willingness to do casual manual labour. Every job card holder is entitled to 100 days of casual manual labour.

f- Also known as Kendujhar

g- A gram panchayat is the most basic unit of India’s Panchayati Raj system of governance. It is a democratic body consisting of a cluster of surrounding villages led by a sarpanch (head of the five-member executive body). Its primary responsibility is the welfare of its constituent

villages and population. Although the government reserves one-third of its positions for women, the adherence to this rule has been poor

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