Published on Mar 31, 2023 Updated 0 Hours ago

मूल्यों, हितों और सुरक्षा के प्रश्नों ने पूर्वी यूरोप के देशों को चीन के बारे में नए सिरे से विचार करने को मजबूर किया है.

व्यवहारिकता से प्रभावित करने में नाकामी तक: चीन के साथ पूर्वी यूरोप के बदलते रिश्ते

जैसे जैसे यूक्रेन संकट आगे बढ़ा है, वैसे वैसे चीन के साथ पूर्वी यूरोप के देशों के रिश्तों की अधिक बारीक़ी से पड़ताल हो रही है. वैसे तो शुरुआत में इन देशों ने ख़ुद को ‘चीन के लिए यूरोप के द्वार’ के तौर पर आगे बढ़ाया था. लेकिन, चीन ने ‘बेहिसाब दोस्ती’ के झंडे तले जिस तरह यूक्रेन युद्ध में रूस का अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन किया है, उसकी अनदेखी पूर्वी यूरोप के देश नहीं कर सके हैं. फरवरी 2022 में शी जिनपिंग और पुतिन की मुलाक़ात के बाद जो साझा बयान जारी किया गया था, उसमें इस बात को रेखांकित किया गया था कि चीन, ‘रूसी गणराज्य द्वारा यूरोप के लिए पेश की गई क़ानूनी तौर पर बाध्यकारी दूरगामी सुरक्षा गारंटी से हमदर्दी रखता है और उसका समर्थन करता है.’ पूर्वी यूरोप के देशों में इसे चीन द्वारा उस प्रस्ताव का समर्थन माना गया था, जिसके तहत नाटो को अपना विस्तार समेटकर, 1997 के पहले की अपनी सीमा की ओर वापस जाने को कहा जा रहा था. रूस ने दिसंबर 2021 के प्रस्ताव में यही मांग रखी थी. इस प्रस्ताव से क्षेत्र के नाज़ुक सुरक्षा संतुलन में परिवर्तन हो जाता. हालांकि, चीन के साथ नज़दीकी रिश्तों को लेकर पूर्वी यूरोपीय देशों का उत्साह, यूक्रेन संकट से काफ़ी पहले से कम होने लगा था. इस लेख में हम चीन के साथ पूर्वी यूरोप के बदलते रिश्तों के कुछ कारणों पर नज़र डालेंगे.

इस प्रस्ताव से क्षेत्र के नाज़ुक सुरक्षा संतुलन में परिवर्तन हो जाता. हालांकि, चीन के साथ नज़दीकी रिश्तों को लेकर पूर्वी यूरोपीय देशों का उत्साह, यूक्रेन संकट से काफ़ी पहले से कम होने लगा था. इस लेख में हम चीन के साथ पूर्वी यूरोप के बदलते रिश्तों के कुछ कारणों पर नज़र डालेंगे.

पूर्वी यूरोप और चीन के रिश्तों की खिसकती ज़मीन

राजनीतिक स्थिरता और यूरोपीय संघ के साथ आर्थिक एकीकरण के कारण पूर्वी यूरोप में विकास और समृद्धि आई थी. इसके बाद से ही पूर्वी यूरोप के देश नए बाज़ारों और साझेदारियों के लिए यूरोप से बाहर नज़रें दौड़ाने लगे थे. ऐसे में चीन, पूर्वी यूरोप का प्रमुख साझीदार बनकर उभरा. इसकी सबसे बड़ी वजह उसकी तेज़ी से तरक़्क़ी कर रही अर्थव्यवस्था थी. पूर्वी यूरोपीय देशों और चीन के बीच संवाद के लिए 16+1 की व्यवस्था बनाई गई. चीन ने वादा किया कि वो पूर्वी यूरोप में निवेश बढ़ाएगा और इन देशों को मौक़ा देगा कि वो यूरोपीय बाज़ार पर अपनी निर्भरता कम करें और उसमें विविधता लाएं. हालांकि, चीन को लेकर उभरते मोहभंग के कारण इन देशों को चीन के साथ अपनी साझेदारी के पुनर्मूल्यांकन को मजबूर कर दिया है. पूर्वी यूरोपीय देशों के चीन से दूरी बनाने के मुख्य कारण कुछ इस तरह से है:

16+1 से 17+1 और फिर 14+1 तक

चीन और पूर्वी एवं मध्य यूरोपीय देशों ने मिलकर 2012 में 16+1 की व्यवस्था बनाई थी, ताकि इस क्षेत्र के मूलभूत ढांचे में चीन का निवेश आकर्षित किया जा सके और तकनीकी सहयोग बढ़ाया जा सके. 2019 में यूनान के शामिल होने के कारण ये व्यवस्था बढ़कर 17+1 हो गई. संवाद की ये रूपरेखा यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के लिए चिंता का विषय बन गई. क्योंकि, यूरोपीय संघ इसे चीन के संघ की एकता में बाधा डालने के प्रयास के तौर पर देखता है. यूरोपीय संघ ने अपनी चिंताएं चीन पर अपनी रणनीति में भी रेखांकित की. इस रणनीति में कहा गया कि यूरोपीय संघ के सभी सदस्य देशों की व्यक्तिगत रूप से और 16+1 जैसे उप-क्षेत्रीय सहयोग के मंचों के सदस्य के तौर पर ये ज़िम्मेदारी है कि वो EU के क़ानूनों, नियमों और नीतियों से समानता सुनिश्चित करें.

यूरोपीय संघ के सभी सदस्य देशों की व्यक्तिगत रूप से और 16+1 जैसे उप-क्षेत्रीय सहयोग के मंचों के सदस्य के तौर पर ये ज़िम्मेदारी है कि वो EU के क़ानूनों, नियमों और नीतियों से समानता सुनिश्चित करें.

हालांकि, पूर्वी यूरोप के भीतर चीन से मोहभंग मुख्य रूप से इसलिए बढ़ता जा रहा है क्योंकि चीन से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश कभी भी प्रस्तावित स्तर तक नहीं पहुंच सका. 2021 में पूर्वी यूरोप को चीन के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का केवल तीन प्रतिशत हिस्सा प्राप्त हुआ था. जबकि नीदरलैंड, जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे पश्चिमी यूरोपीय देशों को अधिकतम निवेश प्राप्त हुआ था. चीन से सुरक्षा के बढ़ते ख़तरे के कारण बहुत से देशों को चीन के प्रति अपनी सोच के नए सिरे से मूल्यांकन के लिए मजबूर होना पड़ा. मतभेद के पहले संकेत तब मिले, जब 2021 में लिथुआनिया ने ख़ुद को 16+1 से अलग कर लिया. इसके बाद अगस्त 2022 में एस्टोनिया और लैटविया भी इससे अलग हो गए, जिसके बाद इस मंच की संख्या 14+1 हो गई. ऐसी ख़बरें भी आई थी कि चेक गणराज्य की संसद ने एक प्रस्ताव पारित करते हुए अपने विदेश मंत्रालय से कहा है कि वो 14+1 मंच से अलग होने के तरीक़े तलाश करे. वैसे तो इस क्षेत्र के बहुत से देश चीन से अलग होकर अपने रिश्तों में विविधता लाने का प्रयास कर रहे हैं, या फिर चीन के बर्ताव को लेकर उनकी चिंताएं बढ़ रही हैं. फिर भी कई देश ऐसे भी हैं जो चीन के साथ अपनी साझेदारी और मज़बूत बना रहे हैं. इस मामले में सबसे अलग रवैया हंगरी का है. जिसने अगस्त 2022 में चीन के साथ निवेश का सबसे बड़ा समझौता किया था, जिससे हंगरी में 7.3 अरब यूरो का निवेश आने की उम्मीद की जा रही है.

BRI के अधूरे वादे

चीन से पूर्वी यूरोप के मोहभंग के प्रमुख कारणों में से एक उसके बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत मूलभूत ढांचे में निवेश के वादे पूरे न करना रहा है. मोटे तौर पर अपनी भू-सामरिक स्थिति के कारण इन देशों के बारे में कहा जा रहा था कि वो चीन को बाक़ी यूरोपीय महाद्वीप से जोड़ने में पुल का काम करेंगे. हालांकि ठोस नतीजों और निवेश के अभाव के कारण इन देशों को अपनी अपेक्षाएं कम करनी पड़ी हैं. क्योंकि ज़्यादातर परियोजनाएं या तो रद्द कर दी गई है या अलग अलग कारणों से उन्हें फिलहाल टाल दिया गया है. जबकि, क़र्ज़ के भारी बोझ के कारण कुछ परियोजनाएं आलोचना की शिकार हो गए हैं. मिसाल के तौर पर 2020 में रोमानिया की सरकार ने दो परमाणु बिजली घर बनाने के लिए चीन के जनरल न्यूक्लियर पावर कॉरपोरेशन के साथ चल रही वार्ता रद्द कर दी थी. इसके बाद रोमानिया ने सुरक्षा संबंधी चिंताओं के कारण चीन की हुआवेई कंपनी को अपने 5G नेटवर्क से प्रतिबंधित कर दिया था; और 2021 में रोमानिया ने एक ज्ञापन पारित करके मूलभूत ढांचे के विकास में ग़ैर यूरोपीय संघ के संचालकों पर पाबंदियां लगा दी थी. इसके साथ साथ BRI बुडापेस्ट और सर्बिया की राजधानी बेलग्रेड के बीच हाई स्पीड रेल संपर्क परियोजना के 2025 में जाकर शुरू होने की संभावना जताई जा रही है. इन सबमें एक उल्लेखनीय अपवाद, क्रोएशिया का पेलम साक पुल है, जिसे 2021 में खोल दिया गया था. इन देशों में चीन द्वारा चलाई जा रही परियोजनाओं में से पूरी होने का ये अपवाद मात्र है.

इससे भी बड़ी बात ये कि इस वक़्त BRI से जुड़ी तमाम परियोजनाओं के कारण क़र्ज़ के नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त बोझ को लेकर भी चर्चा तेज़ हो गई है. क्योंकि, इस क्षेत्र की छोटी अर्थव्यवस्थाओं के क़र्ज़ के इस बोझ तले दम तोड़ देने का डर है. इसका एक उदाहरण मोंटेनीग्रो में चीन द्वारा निर्मित राजमार्ग परियोजना है. इस परियोजना के कारण मोंटेनीग्रो पर उसके GDP के 100 प्रतिशत से भी अधिक क़र्ज़ लद गया. इस क्षेत्र में वैसे तो हंगरी और सर्बिया जैसे कई देश हैं, जो चीन के उत्साही साझीदार है. लेकिन, ज़्यादातर देश इस बात को लेकर आशंकित हैं कि चीन अपनी आर्थिक ताक़त और BRI को इस क्षेत्र में राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है. रूस और यूक्रेन के युद्ध को लेकर चीन के रुख़ ने इन चिंताओं को और बढ़ा दिया है.

चीन और रूस का गठजोड़

यूक्रेन संकट की शुरुआत के बाद से ही पूर्वी यूरोपीय देश, इस युद्ध से यूरोपीय संघ के मुक़ाबले की अगुवाई कर रहे है. यूरोप के सुरक्षा ढांचे को 1997 के दौर में वापस ले जाने की रूस की मांग का चीन द्वारा समर्थन करने के कारण, उसके इरादों को लेकर आशंकाएं बढ़ गई है. पूर्वी यूरोपीय देशों के लिए नाटो उनके आत्मरक्षा के ढांचे का अहम हिस्सा और सुरक्षा की गारंटी देने वाला है; और रूस के साथ उनके अपने इतिहास को देखते हुए इन देशों के लिए इस मामले पर कोई समझौता कर पाना नामुमकिन है. इस संकट के कारण पूर्वी यूरोपीय देशों के सैन्य ख़र्च और तैयारियों में बहुत बड़ा बदलाव आया है. वैसे तो पूर्वी यूरोपीय देश, चीन को एक प्रमुख आर्थिक शक्ति मानते है. लेकिन, जिस तरह चीन ने रूस के दावों का समर्थन किया है, उससे बहुत से देश चीन के साथ अपने रिश्तों का नए सिरे से मूल्यांकन करने को मजबूर हुए हैं. वो अब इस साझेदारी के साथ जुड़े राजनीतिक और सुरक्षा संबंधी जोखिमों का आकलन करने में जुट गए है.

चीन और रूस की ‘असीमित दोस्ती’ से इन देशों की जनता के बीच भी चीन के प्रति नकारात्मक राय बन रही है. चीन को लेकर लोगों की राय बदलने के कारणों का पता लगाने के लिए किए गए एक ओपिनियन पोल के मुताबिक़ 66 प्रतिशत लोगों ने रूस के साथ उसकी साझेदारी और समर्थन को कारण बताया है; दिलचस्प बात ये है कि इसमें शामिल 40 प्रतिशत लोगों की राय ये थी कि चीन ने यूक्रेन पर हमले का समर्थन किया और उसमें मदद की; ओपिनियन पोल के मुताबिक़ कुल मिलाकर, चीन के प्रति 61 प्रतिशत लोगों की राय अच्छी नहीं थी.

ताइवान भी एक वजह?

चीन के साथ साझेदारी से ठोस नतीजे के अभाव के कारण ये देश अपना ध्यान ताइवान पर केंद्रित कर रहे हैं. 2021 में जब लिथुआनिया ने अपने यहां ताइवान के राजनीतिक प्रतिनिधि का दफ़्तर खोलने देने का फ़ैसला किया, तो चीन ने उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए, उसके सामान का बहिष्कार कर दिया और लिथुआनिया से अपने कूटनीतिक संबंध का दर्जा भी घटा दिया. यूरोप में खुला ताइवान का ये पहला कार्यालय है, जिसे ताइपे की जगह ताइवानी कहा जा रहा है. चीन की इस प्रतिक्रिया के बाद 2022 में यूरोपीय संघ को भी ऐसे प्रस्ताव लाने को मजबूर होना पड़ा, जिससे किसी तीसरे देश द्वारा आर्थिक दबाव बनाने का मुक़ाबला किया जा सके. हालांकि अभी इन प्रस्तावों को यूरोपीय संसद से मंज़ूरी नहीं मिली है.

चीन और पूर्वी यूरोप के बीच बढ़ती दूरी का एक और उदाहरण, चेक गणराज्य ने नवनिर्वाचित राष्ट्रपति पेत्रो पावेल का हाल ही में दिया गया बयान है. पावेल ने कहा था कि, ‘चीन और उसकी हुकूमत इस वक़्त दोस्ताना रवैये वाले नहीं हैं. उनके सामरिक लक्ष्य और सिद्धांत पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों के साथ मेल नहीं खाते हैं’ और वो ‘किसी अवसर पर ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग वेन से मिलने के लिए तैयार हैं और ताइवान के साथ अधिक मज़बूत रिश्तों के समर्थक हैं.’ चेक गणराज्य के राष्ट्रपति का ये बयान उनकी ताइवान की राष्ट्रपति के साथ फोन पर बातचीत के बाद आया. इस बातचीत के दौरान चेक राष्ट्रपति ने स्वतंत्रता, लोकतंत्र और मानवाधिकारों के साझा मूल्यों पर काफ़ी ज़ोर दिया था. इस पर प्रतिक्रिया देते हुए चीन ने कहा था कि, नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ने ‘चीन की लक्ष्मण रेखा को पार कर दिया’ है. चेक गणराज्य के चैंबर ऑफ़ डेप्यूटीज़ का 150 सदस्यों वाले एक प्रतिनिधिमंडल ने मार्केटा पेकारोवा एडामा की अगुवाई में 25 से 30 मार्च के बीच ताइवान का दौरा किया था. प्रतिनिधिमंडल के दौरे का मुख्य ज़ोर आपसी व्यापार, अनुसंधान शिक्षा और सांस्कृतिक संबंधों का विस्तार करने पर था.

CEIAS द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़, पूर्वी यूरोप के देश यूरोपीय संघ और ताइवान के बदलते रिश्तों के अगुवा हैं और दोनों पक्षों के बीच कुल संवाद में इनकी हिस्सेदारी क़रीब 60 प्रतिशत है. 2019 से 2022 के बीच यूरोपीय संघ की ताइवान से संबंधित गतिविधियां 23 से बढ़कर 167 पहुंच गईं.

CEIAS द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़, पूर्वी यूरोप के देश यूरोपीय संघ और ताइवान के बदलते रिश्तों के अगुवा हैं और दोनों पक्षों के बीच कुल संवाद में इनकी हिस्सेदारी क़रीब 60 प्रतिशत है. 2019 से 2022 के बीच यूरोपीय संघ की ताइवान से संबंधित गतिविधियां 23 से बढ़कर 167 पहुंच गईं. इनमें सरकारी, संसदीय और संवाद स्तर के मंचों पर बातचीत शामिल है. इस क्षेत्र के देशों में लिथुआनिया, स्लोवाकिया, चकिया और पोलैंड सबसे सक्रिय सदस्य है. ताइवान से सहयोग को लेकर पूर्वी यूरोप के इन देशों के उत्साह के प्रमुख कारण, चीन के साथ रिश्तों में हताशा है, जो साझेदारी की पूरी नहीं हो सकी संभावनाओं के कारण पैदा हुई है; इसके अन्य कारणों में चीन की आलोचना करने वाले नेतृत्व के उभार; और ताइवान के साथ कारोबार, ख़ास तौर से व्यापार, विज्ञान, उच्च तकनीक और सेमीकंडक्टर के मामले में अधिक संभावनाओं का होना है. निवेश को बढ़ावा देने, कारोबार निर्माण और आपूर्ति श्रृंखलाओं का लाभ उठाने के लिए ताइवान ने मार्च 2022 में केंद्रीय एवं पूर्वी यूरोप के लिए 20 करोड़ डॉलर की शुरुआती पूंजी के साथ एक निवेश फंड शुरू किया था. इस फंड के लिए लक्षित देशों में लिथुआनिया, चेक गणराज्य और स्लोवाकिया शामिल है. इन गतिविधियों से पता चलता है कि चीन और पूर्वी यूरोप के संबंध अब बदल रहे हैं और पूर्वी यूरोप का झुकाव ताइवान की ओर बढ़ रहा है.

निष्कर्ष

पूर्वी यूरोप के साथ अपने संबंधों में बढ़ती असहजता का एहसास करते हुए चीन ने मध्य और पूर्वी यूरोप के साथ सहयोग के लिए विदेश मंत्रालय के विशेष प्रतिनिधि हुओ युजेन के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल, पूर्वी यूरोप के आठ देशों (चेक गणराज्य, स्लोवाकिया, हंगरी, क्रोएशिया, स्लोवेनिया, एस्टोनिया, लैटविया और पोलैंड) के दौरे पर भेजा था. ताकि इन देशों में चीन और रूस के साथ उसकी ‘असीमित दोस्ती’  को लेकर पैदा हो रही आशंकाओं को दूर किया जा सके. हालांकि, चीन के प्रतिनिधिमंडल को इस दौरे में सीमित सफलता ही मिली और वो इन देशों की सरकारों के आला अधिकारियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में असफल रहा.

वैसे तो चीन के निवेश को लेकर पूर्वी यूरोप के देशों का उत्साह रूस के आक्रमण से पहले से ही कमज़ोर पड़ने लगा था. लेकिन, यूक्रेन संकट ने इन देशों को चीन से और भी दूर कर दिया है. इस क्षेत्र के देशों ने BRI के तहत आने वाली परियोजनाओं पर पहले ही रोक लगा दी है और अब वो दूरसंचार एवं मूलभूत ढांचे के क्षेत्र में चीन की कंपनियों की भागीदारी को रद्द करने के क़दम उठा रहे है और चीन के प्रति अपनी विदेश नीति को लेकर सख़्त रुख़ अपनाते जा रहे है. लंबे समय से चीन और पूर्वी यूरोप के रिश्ते व्यावहारिकता, संवाद और आर्थिक आवश्यकताओं के आधार पर चल रहे थे. हालांकि, जैसा कि आज दिखाई दे रहा है कि व्यावहारिकता और अर्थव्यवस्था की ज़रूरतों की जगह मूल्यों, हितों और उससे भी अहम सुरक्षा के सवालों ने ले ली है. यही कारण है कि पूर्वी यूरोप के देश, चीन के साथ अपने संबंधों का नए सिरे से मूल्यांकन कर रहे है.

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