परमाणु अप्रसार 6 दशक से अधिक समय से दुनिया के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है, लेकिन इस दौरान इस समस्या के रूप बदलते गए हैं. ख़ासतौर पर शीत युद्ध के ख़त्म होने के बाद से इसमें काफ़ी बदलाव आया है. ग्लोबल न्यूक्लियर ऑर्डर के स्थापित होने के बाद से संभावित ख़तरों और सत्ता के संतुलन में व्यापक परिवर्तन हुआ और इस वजह से पहले की तुलना में परमाणु अप्रसार आज कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण बन गया है. दस साल पहले से तुलना करें तो आज दुनिया में संघर्ष की आशंका बढ़ी है और क्षेत्रीय टकराव के कारण भी असुरक्षा बढ़ रही है. इस लेख में हम इसकी पड़ताल करेंगे कि वैश्विक और क्षेत्रीय संघर्षों का परमाणु अप्रसार पर क्या असर हो रहा है और इसकी बुनियाद में अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच कौन सी सर्वसम्मति है.
हमें इस सच्चाईको स्वीकार करना होगा कि ज़्यादातर देशों के लिए परमाणु हथियार अंततः उनकी सुरक्षा से जुड़े हैं और परमाणु अप्रसार व्यवस्था की पेशकश को कमियों के बावज़ूद इसलिए स्वीकार किया गया क्योंकि इससे दुनिया ख़ुद को अधिक सुरक्षित महसूस करती है. इसके साथ इस पर भी ग़ौर करना होगा कि परमाणु अप्रसार के बारगेन का असर कम होने के साथ ऐसे देशों की संख्या बढ़ी है, जो परमाणु हथियार की क्षमता हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं. शीत युद्ध के दौर में इस मामले में सिर्फ़ अमेरिका और सोवियत संघ की होड़ को लेकर आशंका रहती थी और लगता था कि इस वजह से वैश्विक परमाणु युद्ध शुरू हो जाएगा. हालांकि, आज इस ख़तरे में वेपंस ऑफ मास डिस्ट्रक्शन (WMD) यानी सामूहिक विनाश के हथियार, उनके डिलीवरी मैकेनिज्म यानी उन्हें छोड़ने वाली व्यवस्था-तकनीक और परमाणु आतंकवाद भी शामिल हो गए हैं. इस संदर्भ में चीन और पाकिस्तान के बीच परमाणु और मिसाइल के क्षेत्र में सहयोग और उत्तर कोरिया व ईरान में मिसाइल से जुड़ी गतिविधियों का ज़िक्रकरना भी ज़रूरी है. इनमें से हरेक का असर एशिया में सैन्य संतुलन पर पड़ा है.
परमाणु अप्रसार ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सांस्थानिक स्तर पर तरक्की रुक गई है.[1] वैसे यह वैश्विक सुरक्षा के ढांचे की बुनियाद बना हुआ है, लेकिन इस मामले में सांस्थानिक स्तर पर ज़्यादातर प्रगति परमाणु अप्रसार व्यवस्था के पहले तीन दशकों में हुई थी. पिछले दो दशकों में इस क्षेत्र में मामूली प्रोग्रेस हुई है. 1970 से लेकर 1990 के बीच इस क्षेत्र में कई पहल हुईं. न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (NSG) की स्थापना इस दौरान की गई. परमाणु तकनीक को नियंत्रित करने के लिए कदम उठाए गए. इसके साथ इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी और अन्य प्रोटोकॉल के ज़रिये निगरानी व्यवस्था को मज़बूत बनाया गया. न्यूक्लियर ट्रांसफर को पूरी तरह सुरक्षित बनाने के लिए NSG रूल्स तक में बदलाव किए गए.[2]
इसके बाद अमेरिका में बुश सरकार के कार्यकाल के दौरान यह ग़लत फ़ैसला लिया गया कि परमाणु अप्रसार के लिए एकतरफ़ा कदम कहीं कारगर साबित होंगे. इससे परमाणु अप्रसार की वैश्विक व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई. अमेरिका ने परमाणु और जनसंहार के हथियार रखने के बहाने को लेकर इराक के खिलाफ़ युद्ध शुरू किया और उसके बाद से परमाणु अप्रसार की वैश्विक व्यवस्था पहले की तरह काम नहीं कर पाई. इराक मामले की वजह से अमेरिका की वैचारिक और मैटीरियल पावर कम हुई, जिसके नतीजे आज तक महसूस किए जा रहे हैं. परमाणु अप्रसार व्यवस्था के किरदारों में भी बहुत बदलाव नहीं हुआ है. ये दुनिया के ताक़तवर देश हैं, ख़ासतौर पर P-5, जो N-5 यानी परमाणु हथियार संपन्न देश भी हैं. उनका परमाणु हथियार रखना वैध है. इस बीच, विकासशील देशों और ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, इंडिया, चीन और साउथ अफ्रीका) और IBSA (इंडिया, ब्राजील और साउथ अफ्रीका) जैसे समूहों के उभार के बावज़ूद परमाणु अप्रसार व्यवस्था पर P-5 का नियंत्रण बना हुआ है.[3]
बीच-बीच में कुछ अन्य किरदारों को भी इसमें जगह मिलती रही है, जैसा कि ईरान के साथ परमाणु मामले पर बातचीत के दौरान हुआ था. हालांकि, ये किरदार विंडो-ड्रेसिंग के लिए ही लाए जाते हैं. ये संजीदा प्लेयर नहीं होते. हालांकि, आने वाले दशकों में यह स्थिति बदल सकती है. वैश्विक सत्ता संतुलन में बदलाव और मौजूदा परमाणु अप्रसार व्यवस्था के और कमजोर होने से ऐसा होगा. क्या ऐसी स्थिति में नई परमाणु अप्रसार व्यवस्था बनाने के बारे में सोचा जाएगा? इस सवाल का जवाब तो भविष्य ही देगा, लेकिन ऐसी व्यवस्था बनाए जाने पर संदेह होता है. इस बीच, वैश्विक परमाणु अप्रसार व्यवस्था की हालत बेहद ख़राब है, जिसकी गवाही परमाणु अप्रसार समझौते (NPT) का हाल भी दे रहा है. दिलचस्प बात यह है कि वैश्विक परमाणु अप्रसार व्यवस्था के केंद्र में यही समझौता है. आइए इस पर एक नज़र डालते हैं.
एनपीटी: इवोल्यूशन और चुनौतियां
यह समझौता 1968 में हुआ था. परमाणु अप्रसार में यह कितना कारगर साबित हुआ है, इस पर सवालिया निशान लगा हुआ है. हालांकि कई लोग इसे लेकर पॉजिटिव राय रखते हैं. उनका मानना है कि यह संधि असरदार भूमिका निभा सकती है. NPT समर्थकों का कहना है कि यह समझौता अपने मक़सद में सफल रहा है क्योंकि परमाणु हथियार बनाने वाले देशों की संख्या सीमित है.[4] अक्सर यह दलील भी दी जाती है कि NPT एकमात्र संधि है, जिसमें पांच न्यूक्लियर वेपन स्टेट्स (NWS)[5]यानी परमाणु हथियार से लैस देशों के साथ अन्य कई देशों की भागीदारी रही है. इस संधि के आर्टिकल VI के प्रति प्रतिबद्धता के ज़रिये परमाणु अप्रसार एजेंडे में बना हुआ है. हालांकि, इसे लेकर नॉन-न्यूक्लियर वेपन स्टेट्स (NNWS) के बीच, ख़ासतौर पर इजिप्ट जैसे देशों और NWS के बीच मतभेद रहे हैं. हर पांच साल पर होने वाले रिव्यू कॉन्फ़्रेंस में (रेवकॉन) में ये मतभेद सामने आते हैं. 2015 के NPT रिव्यू कॉन्फ़्रेंस में भी ऐसा ही हुआ था.[6] परमाणु हथियार संपन्न देशों का मानना रहा है कि स्थिति जस की तस बनाए रखी जाए. वे परमाणु हथियारों को ख़त्म करने की दिशा में कोई पहल नहीं करना चाहते. यहां तक कि वे इसके लिए लंबी अवधि की योजना बनाने तक को राजी नहीं हैं. इससे संकेत मिलता है कि इनमें से कई देश परमाणु हथियारों को ‘ज़रूरी’, ‘जायज़’ और ‘सही’ मानते हैं.[7]
जब तक ये चुनिंदा देश अपने पास परमाणु हथियार रखने को सही ठहराते रहेंगे तो इसी आधार पर दूसरों को भी ऐसा कहने और करने का मौक़ा मिलता रहेगा. नॉन-न्यूक्लियर देशों में से कुछ जायज़ सुरक्षा ख़तरों के कारण परमाणु हथियार बनाना और उसकी क्षमता हासिल करना चाहते हैं. ऐसे में पहले तो यह स्वीकार करना होगा कि NPT में कुछ ख़ामियां हैं. इस समझौते को मज़बूत बनाने की दिशा में यह पहला और ज़रूरी कदम होना चाहिए.[8] मिसाल के लिए, ईरान और उत्तर कोरिया के संदर्भ में व्यवस्था की कमज़ोरी सामने आ जाती है. इससे यह भी पता चलता है कि NPT के ज़रिये इन देशों पर लगाम लगाने में सफलता नहीं मिली है.
यह बात सही है कि दुनिया के कुछ ताक़तवर देश मिलकर जॉइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लान ऑन एक्शन (JCPOA) बनाने में सफल रहे, लेकिन इस डील को लेकर बातचीत और सहमति NPT फ्रेमवर्क के दायरे से बाहर बनी. इससे साफ तौर पर NPT की कमज़ोरी जाहिर होती है. उत्तर कोरिया के मामले में भी इस संधि की असफलता जगजाहिर है. 1990 के दशक में एकतरफ़ा अमेरिकी डील को कोरियाई परमाणु विवाद का स्थायी समाधान माना गया था, लेकिन इसके एक दशक बाद उत्तर कोरिया ने NPT से अलग होकर परमाणु हथियार बनाने का फ़ैसला किया. परमाणु अप्रसार संधि की चुनौतियां छिपी हुई नहीं हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इसे मज़बूत बनाने की कोशिश छोड़ दी जाए.[9] इसके साथ परमाणु अप्रसार पर वैश्विक पहल को व्यापक नजरिया अपनाना होगा और उसे भारत जैसे देशों को साथ लाने के लिए इनोवेटिव रास्ते तलाशने होंगे. भारत परमाणु अप्रसार के विचार का हमेशा से समर्थक रहा है और वह इंटरनेशनल न्यूक्लियर ऑर्डर और एक्सपोर्ट कंट्रोल रिजीम के साथ जुड़ रहा है. ऐसे कदम जोरशोर से उठाए जाने चाहिए ताकि वैश्विक परमाणु अप्रसार माध्यमों की अहमियत को फिर से स्थापित किया जा सके.[10]
वैश्विक परमाणु अप्रसार व्यवस्था के सामने ईरान और उत्तर कोरिया जैसे संकट कोई पहली बार खड़े नहीं हुए हैं और ना ही वे इस तरह से आखिर संकट हैं. पहले जब भी इस तरह की समस्या खड़ी हुई, तब बड़ी ताक़तों ने इस व्यवस्था की समीक्षा की और उसे मज़बूत बनाया. NSG ने जिस तरह से शक्ल ली और जैसे उसकी स्थापना हुई, यह उसकी एक मिसाल है. भारत के 1974 में पहला परमाणु परीक्षण करने के बाद ग्लोबल न्यूक्लियर कम्युनिटी ने परमाणु अप्रसार के लिए नियम और कड़े किए. इसी तरह से जब यह पता चला कि इराक गोपनीय तरीके से परमाणु हथियार प्रोग्राम पर काम कर रहा है, तब परमाणु अप्रसार की ख़ातिर नियमों को दुरुस्त किया गया और इससे 1990 के दशक की शुरुआत में एडिशनल प्रोटोकॉल लागू हुए. इसी तरह से उत्तर कोरिया के NPT से बाहर निकलने के बाद इस पर चर्चा चल रही है कि क्या सभी देशों के लिए यह रास्ता बंद कर दिया जाए और किसी के पास संधि से पीछे हटने का अधिकार न रहे. हालांकि, अभी तक इस पर बहुत काम नहीं हुआ है. इधर, दुनिया की बड़ी ताक़तों के बीच गहरे मतभेद के कारण परमाणु अप्रसार व्यवस्था के सामने बड़ा जोख़िम पैदा हो गया है. ये देश परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के लिए एक दूसरे के साथ पर्याप्त सहयोग नहीं कर रहे हैं और उसकी वजह यह है कि अधिक ताक़तवर बनने के लिए उनके बीच मुकाबला चल रहा है.
पावर पॉलिटिक्स की वापसी
ताकत के इस खेल से मौजूदा परमाणु प्रसार व्यवस्था प्रभावित हो रही है. इसमें मुख्य चुनौती यह है कि इस खेल में नए देशों के पावर हासिल करने के साथ परमाणु अप्रसार से जुड़ी बहस कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाती है. नई वैश्विक व्यवस्था में होड़, प्रतिद्वंद्विता, अराजकता और संघर्ष बढ़ रहे हैं. अभी तक हम जिस वैश्विक राजनीतिक और सामरिक व्यवस्था को देखते आए हैं, उसकी खास बात कई देशों के बीच गठजोड़, नियम आधारित एंगेजमेंट और अंतराष्ट्रीय कानून का सम्मान रहा है, लेकिन अब इन पर दबाव बढ़ रहा है. दुनिया समझती थी कि अंतरराष्ट्रीय उदार व्यवस्था उसका अधिकार है, जो कि सच नहीं है. जब तक इसे मौजूदा सिद्धांतों और व्यवस्था के आधार पर मज़बूत नहीं बनाया जाता और बरकरार रखने की कोशिश नहीं होती, तब तक इसके ख़त्म होने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. इस इंटरनेशनल लिबरल ऑर्डर को बनाए रखने के लिए सोची-समझी रणनीति बनाकर उस पर काम करना होगा. अगर अमेरिका कमजोर होता है तो वह कई देशों के लिए अच्छा नहीं होगा. अगर उसकी जगह चीन लेता है तो उससे हलचल मचना तय है क्योंकि वह इस अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के मौजूदा नियमों को चुनौती देना चाहेगा. हालांकि, आज परमाणु अप्रसार व्यवस्था जिन चुनौतियों का सामना कर रही है, उसके लिए सिर्फ़ चीन को दोष देना भी ठीक नहीं होगा.
वह नहीं चाहता कि यह व्यवस्था कमजोर हो. चीन इससे पैदा होने वाले ख़तरों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है और ना ही उसे ये मंज़ूर हैं. उसकी वजह यह है कि चीन दुनिया को पावर-सेंट्रिक नज़रिये से देखता है.
भारत को NSG का सदस्य बनाए जाने को लेकर चीन का जो रवैया रहा है, इसे उससे भी समझा जा सकता है. इस ग्रुप में भारत के शामिल होने की राह में चीन सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है. भारत की NSG मेंबरशिप की दावेदारी का चीन ने भले ही तकनीकी भाषा में विरोध किया हो, लेकिन सच तो यह है कि वह राजनीतिक कारणों से ऐसा कर रहा है.[11] इस विरोध की वजह चीन की परमाणु अप्रसार के प्रति प्रतिबद्धता नहीं है और न ही इसके सिद्धांतों और व्यवस्था को बनाए रखने में उसकी दिलचस्पी है. असल में चीन को लगता है कि अगर भारत को NSG की सदस्यता मिल जाती है तो वह उसकी बराबरी पर आ जाएगा. और अभी तक जो दुनिया भारत को पाकिस्तान से जोड़कर देखती आई है, वह ऐसा करना बंद कर देगी.
यह बात छिपी नहीं है कि दुनिया की सारी बड़ी ताक़तों की दिलचस्पी अपने हितों को बढ़ाने में है. ख़ासतौर पर ग्लोबल गवर्नेंस के मंचों पर वे इसी इरादे के साथ काम करते हैं. भले ही ये देश अपने राष्ट्रीय हित में काम कर रहे हों, लेकिन अपनी भलाई की उनकी सोच को अगर इस तरह से मोड़ा जा सके, जिससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय का भी हित सधे तो उससे अच्छी बात भला क्या होगी. यही वजह है कि शीत युद्ध के दौर में जब सोवियत रूस और अमेरिका के बीच मुकाबला चरम पर था, तब भी दोनों ने परमाणु अप्रसार के क्षेत्र में मिलकर काम किया. दोनों ही देशों ने वैश्विक परमाणु अप्रसार व्यवस्था का समर्थन किया. हालांकि, संकीर्ण राष्ट्रीय हितों को अंतरराष्ट्रीय समुदाय की बेहतरी में बदलने की अहमियत अभी तक चीन के नेतृत्व ने नहीं समझी है. एक और बात है, जो बदलती अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था से जुड़ी है. अमेरिका भले ही आज भी दुनिया का सबसे ताक़तवर देश बना हुआ है, लेकिन पहले की तुलना में उसकी पावर घटी है. इसका इस पर असर पड़ेगा कि परमाणु अप्रसार को लेकर वह दुनिया का नेतृत्व करने में कितनी दिलचस्पी रखता है. भले ही परमाणु अप्रसार संधि कई देशों की साझा पहल है, लेकिन इसे मज़बूत बनाने और आगे बढ़ाने के लिए किसी एक देश के नेतृत्व की जरूरत है. ऐसे में अगर परमाणु अप्रसार को विश्वसनीय लीडरशिप नहीं मिलती है तो भविष्य में इस व्यवस्था को मज़बूत बनाने में दिक़्क़त होगी.[12] कई लोगों को लगता है कि ट्रंप सरकार के आने के बाद दुनिया का नेतृत्व करने की अमेरिका की क्षमता कमजोर हुई है, जबकि सच यह है कि इसके संकेत पहले से ही मिलने शुरू हो गए थे. इस ट्रेंड की शुरुआत बराक ओबामा के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के साथ हुई थी, जो सत्ता में मल्टीलेटरलिज्म के नारे के साथ आए थे. इससे एक हद तक इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका को सैन्य मौजूदगी घटाने में मदद भी मिली. हालांकि, ओबामा सरकार के साथ दिक़्क़त यह थी कि उसने इस सोच को बेहद गंभीरता से लेना शुरू कर दिया. इसका नतीजा यह हुआ कि चीन जैसी अन्य ताक़तों को दबदबा बढ़ाने का मौक़ा मिला.[13] अमेरिका के कमजोर होने की इस अवधारणा को ट्रंप सरकार ने भी बढ़ावा दिया. इससे उसकी लीडरशिप को लेकर आशंकाएं बढ़ीं. ख़ासतौर पर अमेरिका के सहयोगी देशों के मन में संदेह पैदा हुआ. इनमें से कइयों के पास परमाणु हथियार बनाने की तकनीकी और औद्योगिक क्षमता है, लेकिन अभी तक सुरक्षा के लिए वे अमेरिका पर आश्रित थे. उन्होंने यह फ़ैसला सोच-समझकर लिया था क्योंकि इसकी लागत कम थी और यह सुरक्षित दांव भी था. ओबामा सरकार से शुरू हुई और ट्रंप सरकार के दौरान बरकरार इस नीति से कई क्षेत्रीय ताक़तों को लग रहा है कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया है और उन्हें अपनी सुरक्षा ज़रूरतों का ख़ुद ही ख्याल करना पड़ेगा. अगर सहयोगी देशों के सुरक्षा की अमेरिकी गारंटी और कमजोर पड़ती है तो उन देशों को इसके लिए ख़ुद पहल करनी पड़ेगी और वे परमाणु हथियार बनाने के बारे में भी सोच सकते हैं. अगर ऐसा हुआ तो इससे परमाणु अप्रसार व्यवस्था और कमजोर होगी.
दूसरी तरफ, परमाणु सुरक्षा ऐसा क्षेत्र है, जिसे लेकर दुनिया की बड़ी ताक़तों और कुछ हद तक ओबामा के शासनकाल के दौरान अमेरिकी नेतृत्व ने एडजस्टमेंट किया है. अमेरिकी लीडरशिप के कारण ही चार सफल परमाणु सुरक्षा सम्मेलन हुए. सम्मेलनों की प्रक्रिया अब पूरी हो चुकी है और न्यूक्लियर सिक्योरिटी पर सहयोग जारी रहेगा. इससे परमाणु अप्रसार के उपायों को भी जोड़ा जा सकता है, जिससे वैश्विक परमाणु अप्रसार पहल का प्रभाव और बढ़ सकता है.[14]
सत्ता के संतुलन में बदलाव के कारण परमाणु अप्रसार व्यवस्था प्रभावित हुई है और इस मामले में तीसरी चुनौती खड़ी हो गई है. यह चुनौती परमाणु हथियारों को दी जा रही अहमियत के कारण खड़ी हुई है. NWS की रणनीति और परमाणु योजना में यह स्पष्ट तौर पर दिख रहा है. यूं तो परमाणु हथियारों की संख्या में नाटकीय ढंग से बढ़ोतरी नहीं हो रही है, लेकिन NWS की ओर से इससे दूर जाने की पहल भी नहीं हुई है. इस क्लब में शामिल सभी देश अपने परमाणु हथियार को आगे भी बनाए रखने पर आमादा हैं. दूसरी तरफ, चीन, रूस और अमेरिका[15] अपने परमाणु हथियारों को आधुनिक और अधिक सक्षम बनाने पर भी काम कर रहे हैं. नई मिसाइलें और वॉरहेड बनाए जा रहे हैं. न्यूक्लियर स्ट्रैटेजी को लेकर भी एक किस्म का दुस्साहस दिख रहा है. मिसाल के लिए, यूं तो चीन ने पहले परमाणु हथियार का इस्तेमाल नहीं करने का सिद्धांत अपनाया हुआ है, लेकिन वह लगातार ऐसे नए हथियार और उसे सपोर्ट देने वाला इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार कर रहा है. इस बीच, चीन में ‘नो फर्स्ट यूज’ पॉलिसी को लेकर अंदरूनी बहस भी छिड़ी हुई है. ऐसे में उसके न्यूक्लियर प्लान से बेचैनी बढ़ना स्वाभाविक है.[16]
इसी तरह, रूस भी अपनी सामरिक तैयारियों में परमाणु हथियारों पर जोर बढ़ा रहा है.[17] इंटरमीडियट-रेंज न्यूक्लियर फोर्सेज (INF) संधि को लेकर रूस के ‘छल’ की वजह से अब अमेरिका को भी जवाब देने को मजबूर होना पड़ा है. परमाणु हथियारों को नियंत्रित करने के लिहाज़ से यह सफल संधियों में से एक रही है. इसकी वजह से न्यूक्लियर वेपन की एक पूरी कैटिगरी ख़त्म हो गई. ऐसा भी नहीं है कि INF के साथ कोई समस्या नहीं है. इसे ऐसे समय में मूर्त रूप दिया गया था, जब चीन और उसके परमाणु हथियारों को खतरा नहीं माना जाता था. इसलिए इस संधि के दायरे में चीन के परमाणु हथियार नहीं आते. ना ही किसी अन्य देश के परमाणु हथियार इस समझौते के दायरे में आते हैं. INF अमेरिका और सोवियत रूस के बीच हुई द्विपक्षीय संधि थी. शीत युद्ध ख़त्म होने के बाद अमेरिका और रूस ने परमाणु हथियारों की संख्या घटाई है और इस बीच चीन की परमाणु क्षमता और ताकत बढ़ी है. वह बिना किसी रुकावट के इंटरमीडियट रेंज की मिसाइलें तैनात कर रहा है और यह अमेरिका और रूस दोनों के लिए चिंता का विषय रहा है. इसके बावज़ूद अगर INF संधि को ख़त्म कर दिया जाता है तो इससे फायदे के बजाय कहीं अधिक नुकसान होगा. ख़ासतौर पर यह देखते हुए कि NNWS की दिलचस्पी अपने परमाणु हथियारों को ख़त्म करने में नहीं है. दूसरी तरफ, अगर चीन की भागीदारी वाली INF आर्म्स रेस शुरू होती है तो इससे दूसरे देशों की परमाणु हथियारों की क्षमता हासिल करने में दिलचस्पी और बढ़ सकती है.
चौथी चुनौती ताक़तवर देशों के बीच सत्ता के संतुलन में बदलाव से खड़ी हुई है. कई देशों की राष्ट्रीय सुरक्षा की रणनीति में आज परमाणु हथियारों की अहमियत बढ़ रही है. हालांकि, अभी तक यह अधिक परमाणु हथियार तक सीमित रही है. फिलहाल, भारी संख्या में परमाणु हथियार हासिल करने पर उन देशों का जोर नहीं रहा है. इसके लिए कुछ हद तक NWS और चार परमाणु क्षमता से लैस देश भी दोषी हैं, जो अपनी सुरक्षा ज़रूरतों और योजनाओं में इन हथियारों पर लगातार जोर दे रहे हैं. क्षेत्रीय संघर्षों की वजह से भी न्यूक्लियर वेपन में दिलचस्पी बढ़ रही है. दरअसल, दुनिया के कई इलाकों में पारंपरिक सैन्य क्षमता के लिहाज़ से असंतुलन बढ़ रहा है. ख़ासतौर पर पश्चिम एशिया के साथ ऐसी दिक़्क़त दिख रही है. अगर ईरान भी परमाणु क्षमता हासिल कर लेता है तो पश्चिम एशिया में परमाणु हथियारों का प्रसार और बढ़ सकता है. तब सऊदी अरब जैसे देशों की दिलचस्पी इसमें बढ़ सकती है.
पूर्वी एशिया में क्षेत्रीय होड़ का नतीजा हथियारों की रेस के रूप में सामने आ रहा है. 2006 में उत्तर कोरिया ने पहला परमाणु विस्फोट किया था. उत्तर कोरिया दुनिया का इकलौता देश है, जो परमाणु हथियार बनाने के लिए NPT से अलग हो गया था. उसकी मिसाइल और परमाणु गतिविधियों के साथ चीन से बढ़ते ख़तरे का इस क्षेत्र के सामरिक मामलों पर महत्वपूर्ण असर हो सकता है. उत्तर कोरिया के साथ अमेरिका की बीच-बीच में होने वाली बातचीत से आगे चलकर शायद कभी कोरियाई महाद्वीप के परमाणु हथियार मुक्त होने की राह निकले, लेकिन अभी जो स्थिति दिख रही है, वह अच्छी नहीं है. अगर उत्तर कोरिया अपने परमाणु हथियार बनाए रखता है तो इससे जापान जैसे देशों के अपने नॉन-न्यूक्लियर स्टैंड पर पुनर्विचार करने का दबाव बढ़ सकता है. अगर जापान परमाणु हथियार बनाने का फ़ैसला करता है तो दक्षिण कोरिया भी बहुत पीछे नहीं रहेगा.[18] इसलिए क्षेत्रीय संघर्ष भी परमाणु हथियारों के प्रसार का जरिया बन रहे हैं. ख़ासतौर पर ऐसी स्थिति में जब एक देश के पास परमाणु हथियार हो और दूसरों के पास न हो. परमाणु हथियारों में दिलचस्पी दिखाने वाले कई देश ऐसे हैं, जो अभी तक परमाणु विरोधी ताक़तों के केंद्र रहे हैं.
इसमें भी कोई शक नहीं है कि परमाणु अप्रसार और सहयोगी देशों को अमेरिका की तरफ से मिली सुरक्षा गारंटी को संदेह की नज़र से देखा जा रहा है. परमाणु हथियारों की क्षमता से लैस देशों की संख्या बढ़ने में अभी वक्त लगेगा, लेकिन दुनिया की बड़ी ताक़तों को इस चुनौती को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है.
इनमें से कई देश अमेरिका के साथ हो गए थे, लेकिन जैसा कि ऊपर बताया गया है कि अब उनमें यह डर बढ़ रहा है कि अमेरिका दूरदराज के सहयोगी देशों का वहां के क्षेत्रीय संघर्ष से पैदा होने वाली चुनौतियों से शायद बचाव न करना चाहे. जर्मनी जैसे देशों में भी परमाणु हथियारों को लेकर बहस तेज हो रही है, जिसकी कुछ साल पहले तो कल्पना तक नहीं की जा सकती थी. इन बातों का मतलब यह नहीं है कि परमाणु हथियारों और क्षमता से लैस देशों की संख्या में बहुत बढ़ोतरी होने जा रही है, लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं है कि परमाणु अप्रसार और सहयोगी देशों को अमेरिका की तरफ से मिली सुरक्षा गारंटी को संदेह की नज़र से देखा जा रहा है. परमाणु हथियारों की क्षमता से लैस देशों की संख्या बढ़ने में अभी वक्त लगेगा, लेकिन दुनिया की बड़ी ताक़तों को इस चुनौती को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है.
निष्कर्ष
दुनिया की बड़ी ताक़तों के बीच आज इस मुद्दे पर सर्वसम्मति नहीं है. परमाणु अप्रसार को बढ़ावा देने और उसे जारी रखने को लेकर उनके बीच टकराव बढ़ रहा है. यह दुनिया में सत्ता के संतुलन में आए बदलाव की वजह से हो रहा है.[19] वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर ‘बैलेंस ऑफ पावर’ में बदलाव का मतलब यह है कि इस मामले पर सबके बीच सहमति बनाने में और मुश्किल होगी. यानी नियमों पर आधारित परमाणु अप्रसार व्यवस्था के लिए खतरा बढ़ रहा है. पिछले कुछ दशकों से परमाणु अप्रसार व्यवस्था इस मर्ज का शिकार रही है. दुनिया की बड़ी ताक़तों के बीच इस मुद्दे पर सहमति न बन पाने से इस व्यवस्था को मज़बूत बनाने की प्रक्रिया प्रभावित हुई है. परमाणु अप्रसार के शुरुआती दिनों में भी कई संकट खड़े हुए थे. तब बड़ी ताक़तें इस व्यवस्था को मज़बूत बनाने के लिए आपसी मतभेद को अलग रखने को तैयार थीं. आज के राजनीतिक माहौल में ऐसी स्थिति नहीं दिख रही है, जबकि ताक़तवर देशों ने माना है कि इस मामले में उनके आधिकारिक रुख में कई कमियां हैं. हालांकि, वे ठोस रणनीति बनाकर उन्हें दूर करने में असफल रहे हैं. यह समस्या सिर्फ़ परमाणु अप्रसार से ही नहीं जुड़ी है, लेकिन सिर्फ़ इसी वजह से हम हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठ सकते.
अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी देशों और रूस-चीन का खेमा इसके लिए किसी भी नीति पर आम सहमति बनाने में असफल रहा है. इससे अनिश्चितता की स्थिति बनी है और फैसले नहीं हो रहे हैं. मिसाल के लिए, दुनिया की बड़ी ताक़तों के बीच न्यूक्लियर ऑर्डर में भारत की स्थिति क्या होगी, इसे लेकर मतभेद हैं. 2000 के दशक के मध्य में अमेरिका ने भारत के स्टेटस को लेकर अपनी नीति बदली थी. उसने भारत के साथ न्यूक्लियर डील की, जिसे चीन को छोड़कर दुनिया की दूसरी सभी बड़ी ताक़तों ने स्वीकार किया था. इससे न सिर्फ़ चीन और भारत के संबंध प्रभावित हुए बल्कि अमेरिका और चीन के रिश्तों पर भी इस फैसले की आंच पड़ी. परमाणु अप्रसार व्यवस्था पर अभी भी दुनिया के ताक़तवर देशों का दबदबा है. इसलिए मौजूदा मुश्किलों का हल निकालने की ज़िम्मेदारी भी उन पर है. हालांकि, सत्ता के संतुलन में होने वाले बदलावों और इसके बीच अपने हितों की रक्षा की कोशिशों के कारण वे ख़ुद ही पीड़ित बन गए हैं. ऐसे में अगर उन्हें N-5 से बाहर निकलकर दूसरे पक्षों को जोड़ना होगा. इसके अलावा, परमाणु अप्रसार की मौजूदा समीक्षा व्यवस्था में भी ख़ामियां हैं. NPT रिव्यू कॉन्फ़्रेंस हर पांच साल पर होती है. इसका मतलब यह है कि अगर दो सौ देश परमाणु अप्रसार व्यवस्था की प्रक्रिया में किसी बदलाव की कोशिश करते हैं तो उसके सफल होने की संभावना बहुत कम होगी.[20] इसका एक हल यह हो सकता है कि N-5, चार नॉन-NPT परमाणु हथियार संपन्न देश और दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों की कुछ बड़ी ताक़तों- जैसे जापान, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, अर्जेंटीना और मेक्सिको साथ आएं. उन्हें मिलकर यह तय करना चाहिए कि परमाणु अप्रसार व्यवस्था को किस तरफ ले जाना है. वे मौजूदा समस्याओं का ऐसा हल निकाल सकते हैं, जो सबको मंज़ूर हो. यह रास्ता भले ही बहुत लोकतांत्रिक न हो, लेकिन रिव्यू कॉन्फ़्रेंस से बाहर इस तरह की पहल से परमाणु अप्रसार को लेकर एक नई सोच सामने आ सकती है.
सच कहें तो ब्रिक्स देश इसकी अगुवाई कर सकते हैं क्योंकि इसमें N-5 देशों में से दो यानी रूस और चीन शामिल हैं. उनके अलावा दो नॉन-न्यूक्लियर पावर ब्राजील और साउथ अफ्रीका और एक नॉन-NPT परमाणु हथियार रखने वाला भारत भी शामिल है. इस तरह के आइडिया को लेकर पहले पहल हुई थी, लेकिन अभी तक उस पर गंभीरता से काम नहीं हुआ है और न ही उसमें तेजी आई है.[21] नए सिरे से बातचीत शुरू हो तो उसमें NPT से संबंधित कुछ मुश्किल मसलों का समाधान निकालने की कोशिश की जानी चाहिए. ऐसा एक मसला आर्टिकल VI के तहत परमाणु हथियारों को ख़त्म करने से जुड़ा है. हालांकि, इसी आर्टिकल के तहत आने वाले न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी के ट्रांसफर कमिटमेंट की पड़ताल करने की भी जरूरत है. इसके अलावा, परमाणु हथियार रखने वाले चार नॉन-NPT देशों के स्टेटस पर भी विचार किया जा सकता है. ऐसी चर्चा आसान नहीं होगी, लेकिन परमाणु अप्रसार व्यवस्था को बनाए रखने के लिए यह बहुत ज़रूरी है.
यह लेख पहले रायसीना फाइल्स में प्रकाशित हो चुका है
Endnotes
[1] By institutionalisation, I refer here to the formal and informal arrangements that form part of the non-proliferation order. This includes NPT itself, the Safeguards Arrangement under the IAEA, and technology control regimes, such as the Nuclear Suppliers Group (NSG), Missile Technology Control Regime (MTCR), Australia Group (AG), and Wassenaar Arrangement (WA).
[2] James A. Glasgow, Elina Teplinsky, and Stephen L. Markus, “Nuclear Export Controls: A Comparative Analysis of National Regimes for the Control of Nuclear Materials, Components and Technology”, Pillsbury Winthrop Shaw Pittman LLP, Washington DC, October 2012.
[3] Even though the BRICS grouping has two of the N-5 powers, it has made very little progress in real. The challenge could continue in the future due to some of the inherent problems— whether and how China would respond to India’s quest for instance to become part of the global nuclear architecture including membership into export control regimes such as the NSG. So far, BRICS has tried to focus more on the civil nuclear energy aspects for cooperation. See Sergei Uyanaev, “The Nuclear Agenda and BRICS,” Russia International Affairs Council, November 14, 2012, https://bit.ly/2RcJnok and Sverre Lodgaard, Nuclear Disarmament and Non-Proliferation: Towards A Nuclear Weapons-free World? (London and New York: Routledge, 2011).
[4] For the strengths and weaknesses of the NPT, see “The Global Nuclear Nonproliferation Regime”, Council on Foreign Relations, May 21, 2012.
[5] Nuclear Weapon States (NWS) are the five nuclear weapons states recognised under the Nuclear Non-Proliferation Treaty (NPT).
[6] Henrik Salander, “Reviewing a Review Conference: Can There Ever be a Successful NPT RevCon?”, European Leadership Network, June 8, 2015.
[7] “Nuclear Non-Proliferation Treaty, Unimplemented, Becomes ‘Place-Holder’ for States to ‘Insert Disarmament Measures Here’, First Committee Told,” GA/DIS/3507, General Assembly First Committee, Sixty-Ninth Session, 13TH Meeting, October 21, 2014.
[8] Rajeswari Pillai Rajagopalan and Arka Biswas, “India and the NPT Need Each Other”, The Diplomat, August 18, 2015.
[9] “Question #1: Why is the Non-Proliferation Treaty important? —John P. Holdren”, Press Release, Belfer Center for Science and International Affairs, Harvard University, April 26, 2005.
[10] On India’s efforts and the merits and demerits of New Delhi’s integration with the international nuclear order, see Rajeswari Pillai Rajagopalan and Arka Boswas, “Locating India within the Global Non-Proliferation Architecture: Prospects, Challenges and Opportunities”, ORF Monograph, 2016.
[11] Rajeswari Pillai Rajagopalan, “India’s NSG Quest: A Reality Check”, Science, Technology & Security Forum, November 30, 2016; Rajeswari Pillai Rajagopalan and Arka Biswas, “India’s Membership to the Nuclear Suppliers Group”, ORF Issue Brief No. 141, May 2016.
[12] Rebecca Davis Gibbons, “Nuclear Nonproliferation is Under Threat, and So is American National Security”, Washington Post, February 14, 2015.
[13] Alexandra Homolar, “Multilateralism in Crisis? The Character of US International Engagement under Obama,” Global Society 26, no. 1, (2012): 103-122.
[14] Sarah Shirazyan, “Counterproliferation: ‘Synergies of Strengths’: A Framework to Enhance the Role of Regional Organizations in Preventing WMD Proliferation”, Arms Control Today, September 2018.
[15] See Scot Paltrow, “Special Report: In modernizing nuclear arsenal, U.S. stokes new arms race”, Reuters, November 21, 2017, Peter Huessy “As Russia looms, modernizing US nuclear arsenal is non-negotiable”, The Hill, January 1, 2018; Nick Whigham and AFP, “Trump goes nuclear: US pentagon plans to upgrade nuclear weapons program to counter adversaries’ ‘mistaken confidence’”, news.com.au, January 19, 2018.
[16] On China’s evolving nuclear strategies and modernisation of its nuclear capabilities, see Nan Li, “China’s Evolving Nuclear Strategy: Will China Drop “No First Use?”, China Brief, 18, no. 1, January 12, 2018; Ben Lowsen, “Is China Abandoning Its ‘No First Use’ Nuclear Policy?”, The Diplomat, March 21, 2018; James Samuel Johnson, “Chinese Evolving Approaches to Nuclear “War-Fighting”: An Emerging Intense US-China Security Dilemma and Threats to Crisis Stability in the Asia Pacific,” Asian Security, 2018, 1-18; and Gregory Kulacki, “China’s Nuclear Force: Modernizing from Behind”, Union of Concerned Scientists, January 2018.
[17] See Pavel Podvig, “Russia’s Current Nuclear Modernization and Arms Control”, Journal of Peace and Nuclear Disarmament 1, no. 2(2018): 256-267; Hans M. Kristensen and Robert S. Norris, Russian nuclear forces, 2018, Bulletin of the Atomic Scientists 74, no. 3 (2018): 185-195.
[18] Lami Kim, “South Korea’s Nuclear Hedging?,” Washington Quarterly, vol. 41. no. 1. (Spring 2018): 115-133; Sayuri Romei, “Japan’s Shift in the Nuclear Debate: A Changing Identity?”, Working Paper, The Center for International Security and Cooperation, Stanford University; Masaru Tamamoto, “The Emperor’s New Clothes: Can Japan Live without the Bomb?”, World Policy Journal 26, no. 3 (2009): 63-70.
[19] Differing perspectives and differing priorities among great powers make the decision-making process extremely challenging in nuclear non-proliferation. For these and other challenges facing enforcement of norms in this area, see Jeffrey W. Knopf, “After diffusion: Challenges to Enforcing Nonproliferation and Disarmament Norms,” Contemporary Security Policy 39, no. 3 (2018): 367-398.
[20] The last RevCons have had very poor results. See Henrik Salander, “Reviewing a Review Conference: Can There Ever be a Successful NPT RevCon?”, European Leadership Network, June 8, 2015; Robert Einhorn, “The NPT Review Process: Time to Try Something New”, Issue Brief, Center for Nonproliferation Studies, Middlebury Institute for International Studies, Monterey, April 2016.
[21] Groups such as BRICS have tried to pursue the nuclear agenda but it is yet to make any meaningful influence. See Richard Weitz, “How BRICS can Advance Global Non-Proliferation Agenda”, April 13, 2014.
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