प्रस्तावना
आज जब भूमंडलीकरण और वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन को लेकर अनिश्चितताएं बढ़ती जा रही हैं, तो दुनिया के हितों की रक्षा करने और उन्हें बढ़ावा देने के लिए स्वास्थ्य कूटनीति की सक्रिय भूमिका और इस क्षेत्र में पहल करना महत्वपूर्ण होता जा रहा है. विदेश नीति, बौद्धिक संपदा, विकास, राष्ट्रीय सुरक्षा और व्यापार समझौतों के मामलों में जनता पर केंद्रित वार्ताओं के उभरते अंतरराष्ट्रीय मंच की वजह से वैश्विक स्वास्थ्य कूटनीति के लिए ख़ास तरह की क़ाबिलियत की ज़रूरत होती है. इसके लिए राजनयिकों के बीच नए कौशल के विकास की ज़रूरत महसूस की जा रही है, जिससे वो अन्य आपसी टकराव वाले हितों को देखते हुए स्वास्थ्य पर ज़ोर देकर वार्ता कर सकें. कोविड-19 महामारी, जलवायु परिवर्तन और संघर्षों के सेहत और सुरक्षा पर पड़ रहे असर को देखते हुए, ये बिल्कुल स्पष्ट होता जा रहा है कि जो मुद्दे या चिंताएं पहले राष्ट्रीय नीतियों तक सीमित रहते थे, वो अब वैश्विक प्रभाव और चिंता के विषय बन गए हैं.
सेहत के मामले में सामूहिक प्रयासों और कूटनीतिक संवाद की अहमियत पर 2007 में ओस्लो की मंत्रिस्तरीय घोषणा और 2008 और 2012 में संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) के प्रस्तावों के ज़रिए बल दिया गया था. इन सबने सेहत के मामले में बेहतर नतीजे हासिल करने के लिए स्वास्थ्य और विदेश नीति की आपस में निर्भरता को स्वीकार किया गया था, और देशों को मशविरा दिया गया था कि वो अपनी विदेश नीतियों के ऐसे प्रमुख तत्वों की पड़ताल करें, जिनका सेहत पर प्रभाव पड़ता हो. 2020 में संयुक्त राष्ट्र की 75वीं महासभा के दौरान, ‘वैश्विक स्वास्थ्य और विदेश नीति: सबके लिए सस्ती स्वास्थ्य सेवा के ज़रिए स्वास्थ्य व्यवस्था के लचीलेपन को मज़बूती देने’ के नाम से एक प्रस्ताव का मसौदा तैयार किया गया था. इसमें विदेश नीति संबंधी बातचीत में स्वास्थ्य को मिलाने की ज़रूरत को दोहराया गया था. पूर्वी भूमध्य सागर में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के क्षेत्रीय कार्यालय ने भी तमाम देशों के लिए, स्वास्थ्य कूटनीति की महत्ता और प्रासंगिकता संबंधी सक्षमता को दोहराया गया था.
वैश्विक स्वास्थ्य कूटनीति में भाग लेने से देशों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एकजुट होने, वैश्विक स्वास्थ्य के मसलों की वकालत करने, भरोसा और सद्भावना क़ायम करने, और मज़बूत कूटनीतिक रिश्ते बनाने में मदद मिलती है. अमेरिका, चीन, जापान, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, तुर्की, ब्राज़ील, कनाडा, स्विट्जरलैंड और दूसरे यूरोपीय देश, वैश्विक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं से निपटने और अंतरराष्ट्रीय सहयोग को मज़बूती देने के लिए स्वास्थ्य कूटनीति पर अमल करते रहे हैं. मिसाल के तौर पर, अमेरिका ने ब्यूरो ऑफ ग्लोबल हेल्थ सिक्योरिटी ऐंड डिप्लोमेसी की शुरुआत की है, ताकि वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा को मज़बूती देने के लिए राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और बहुस्तरीय मंचों पर सहयोग को बढ़ावा दिया जा सके. ऑस्ट्रेलिया में डिपार्टमेंट ऑफ फॉरेन अफेयर्स ऐंड ट्रेड (DFAT) एक अहम संस्था है जो स्वास्थ्य संबंधी कूटनीति में शामिल है. इस विभाग में एक ग्लोबल हेल्थ डिवीज़न है, जिसमें इंडो-पैसिफिक सेंटर फॉर हेल्थ सिक्योरिटी भी आता है. इस बीच, चीन तो कई दशकों से संस्थागत तरीक़े से स्वास्थ्य कूटनीति पर चलता रहा है. 2002 में सार्स CoV-1 वायरस का संक्रमण फैलने के बाद चीन ने सुरक्षा के लिए ग़ैर पारंपरिक ख़तरों की अहमियत को स्वीकार किया था. चीन के चाइनीज़ अफ्रीकन को-ऑपरेशन (FOCAC), बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI), हेल्थ सिल्क रोड (HSR) इनिशिएटिव, स्वास्थ्य क्षेत्र में सहयोग के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ उसका सहमति पत्र (MoU) पर दस्तख़त करने और ‘हेल्दी चाइना 2030’ अभियान ने वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन में चीन के प्रभाव को बढ़ाया है, और चीन स्वास्थ्य कूटनीति के ज़रिए अपनी सॉफ्ट पावर का इस्तेमाल करके अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में सुधार की कोशिशें कर रहा है.
स्वास्थ्य संबंधी कूटनीति की ये पहलें, विदेश नीति में सेहत को शामिल करने के मामले में हुई प्रगति को दर्शाती हैं. लेकिन, इस मामले में अपनी मज़बूत आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक इच्छाशक्ति की वजह से विकसित देश ज़्यादा प्रभावी रहे हैं. दुनिया में सेहत के प्रशासन से जुड़े संस्थानों के मुख्यालय ग्लोबल साउथ के बजाय ग्लोबल नॉर्थ के ज़्यादा क़रीब रहे हैं. ऐसे में विकासशील देशों और निम्न एवं मध्यम आमदनी वाले देशों (LMICs) की आवाज़ों को उतनी गंभीरता से नहीं सुना जाता है. मिसाल के तौर पर कोविड-19 महामारी के दौरान, दवाओं, टीकों और जांच पड़ताल के संसाधनों तक सबकी पहुंच के मसलों पर विकसित देशों की मौजूदा नीतियों, आयात निर्यात के प्रतिबंधों, आर्थिक नीतियों, भू-राजनीतिक संघर्षों और व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा के अधिकारों का गहरा असर दिखता रहा. ऐसे में भारत जैसे उभरती अर्थव्यवस्था और सभी ताक़तों से तालमेल की नीति पर चलने वाले देशों को चाहिए कि वो वैश्विक स्वास्थ्य कूटनीति में नेतृत्व की भूमिकाएं अपनाने का लक्ष्य अपनाएं, ताकि भविष्य के संकटों के दौरान अधिक समतावादी और व्यापक नज़रिया अपनाया जा सके.
भारत की स्वास्थ्य कूटनीति संबंधी पहलें
भारत के वैश्विक स्वास्थ्य कूटनीति में अधिक सक्रियता से भाग लेने की भू-राजनीतिक प्रासंगिकता ऐसे मौक़े पर ज़ाहिर हो रही है, जब भारत डिजिटल पब्लिक इन्फ्रास्ट्रक्चर (CoWIN), आपूर्ति श्रृंखलाओं के प्रबंधन, सस्ती दवाएं और टीके बनाने वाले अपने फार्मास्यूटिकल सेक्टर (दुनिया का दवाखाना), मेडिकल टूरिज़्म, आयुष (AYUSH), ग्लोबल सेंटर फॉर ट्रेडिशनल मेडिसिन, टेलीकंसल्टेशन, आपदा प्रबंधन और अन्य मामलों में अपनी ताक़त का बख़ूबी इस्तेमाल कर सकता है. अपनी इन क्षमताओं का इस्तेमाल करके, भारत अंतरराष्ट्रीय संबंधों में और गहराई ला सकता है, वैश्विक स्वास्थ्य नीतियों पर अपना असर दिखा सकता है और स्वास्थ्य के मामले में समता की वकालत कर सकता है.
कोविड-19 महामारी, जलवायु परिवर्तन और संघर्षों के सेहत और सुरक्षा पर पड़ रहे असर को देखते हुए, ये बिल्कुल स्पष्ट होता जा रहा है कि जो मुद्दे या चिंताएं पहले राष्ट्रीय नीतियों तक सीमित रहते थे, वो अब वैश्विक प्रभाव और चिंता के विषय बन गए हैं..
हिंद प्रशांत क्षेत्र में 38 देश, दुनिया की 64 प्रतिशत आबादी और 62 प्रतिशत वैश्विक GDP शामिल है. इस इलाक़े में अपनी सामरिक भौगोलिक स्थिति की वजह से भारत अपने पास-पड़ोस में एक अहम भू-राजनीतिक हस्ती बन जाता है. मिसाल के तौर पर महामारी के दौरान भारत ने क्वाड वैक्सीन पार्टनरशिप और वैक्सी एक्सपर्ट्स ग्रुप के सदस्य के तौर पर टीकों के बड़े पैमाने पर निर्माण का बीड़ा उठाया था. जबकि अन्य भागीदार देशों ने पैसे देने और आपूर्ति श्रृंखला की आख़िरी कड़ी जोड़ने की ज़िम्मेदारी उठाई थी. इसके अतिरिक्त, प्रशांत क्षेत्र के द्वीपीय देशों को ख़ास तरह की ट्रेनिंग देने और क्षमता के निर्माण की ज़रूरतें पूरी करने के लिए भारत ने सागर अमृत के नाम से जो पहल की है, वो भी इस क्षेत्र के विकास में योगदान दे सकता है.
2019 से 2022 के बीच भारत का मेडिकल टूरिज़्म सेक्टर 110 प्रतिशत बढ़ गया है. इनमें से ज़्यादातर लोग अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और मालदीव समेत अन्य पड़ोसी देशों से आए थे. हाल ही में कोविड-19 की महामारी के दौरान, भारत उन शुरुआती देशों में शामिल था, जिन्होंने इस क्षेत्र में सामूहिक प्रयास करने की ज़रूरत पर बल देते हुए, दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (SAARC) के लिए 1 करोड़ डॉलर के कोविड-19 इमरजेंसी फंड का भी ऐलान किया था. कोविड-19 का प्रसार रोकने और इसकी कार्य योजना तैयार करने के लिए भारतीय सेना के डॉक्टर नेपाल, मालदीव और कुवैत भेजे गए थे.
जब भारत ने कोविड-19 के टीके पड़ोसी देशों को देने का ऐलान किया था, वैक्सीन मैत्री की पहल और नेबरहु़ड फर्स्ट की नीति की काफ़ी चर्चा हुई थी. भारत ने कोरोना के टीके की एक लाख ख़ुराक सबसे पहले मालदीव और फिर डेढ़ लाख टीके भूटान को दिए थे. इसके बाद श्रीलंका को पचास हज़ार, नेपाल को दस लाख, म्यांमार को 15 लाख और बांग्लादेश को कोरोना के टीकों की बीस लाख ख़ुराकें दी गई थीं. भारत की इस कोशिश का मक़सद इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते भू-आर्थिक और भू-राजनीतिक प्रभाव से निपटना भी था. भारत ने विदेशों को अपने टीकों की कुल आपूर्ति का लगभग एक चौथाई हिस्सा दक्षिण एशियाई देशों के बीच ही बांटा ता. इसके अलावा, 25 अफ्रीकी देशों को भी मेडिकल और वैक्सीन कूटनीतिक पहलों के ज़रिए दवाएं और स्वास्थ्य संबंधी मदद दी गई थी.
भारत ने जब विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) में सुधार के लिए अपनी नौ सूत्रीय योजना पेश की थी, जिसमें हाल में आई महामारी के बाद स्वास्थ्य संबंधी अंतरराष्ट्रीय नियमों पर काफ़ी ज़ोर दिया गया था. दक्षिण अफ्रीका के साथ मिलकर भारत ने कोविड-19 महामारी की रोकथाम, उससे बचाव इलाज के लिए बौद्धिक संपदा के अधिकारों के व्यापार संबंधी पहलुओं में रियायतें देने की आवाज़ उठाई थी. इसके अलावा भारत, स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफ़ी मानवीय पूंजी का भी निर्माण करता है. जैसे कि भारत में हर साल 78 हज़ार नए डॉक्टर बनते हैं, और ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस में काम करने वाले विदेशी मूल के डॉक्टरों में भारत के डॉक्टर दूसरे नंबर पर हैं, और अमेरिका की अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ फिजियिशंस ऑफ इंडियन में कुल मिलाकर 80 हज़ार सदस्य भारतीय मूल के हैं.
वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन में भारत की भागीदारी और नेतृत्व करने वाली छवि के लिहाज़ से 2023 में भारत की G20 अध्यक्षता काफ़ी अहम रही है. वसुधैव कुटुम्बकम (एक धरती, एक परिवार, एक भविष्य) की अपनी परंपरा से तालमेल बिठाते हुए भारत सरकार ने मुक्त APIs और इंडिया स्टैक के ई-प्रशासन के औज़ार दुनिया से साझा किए हैं. भारत ने अपने Co-WIN प्लेटफॉर्म को विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ साथ, ऐसे सभी देशों को WHO के C-TAP इनिशिएटिव के ज़रिए मुहैया कराने का प्रस्ताव भी दिया है, जो इसमें दिलचस्पी रखते हैं. 50 से ज़्यादा देशों ने Co-WIN प्लेटफॉर्म में दिलचस्पी दिखाई है. इनमें अन्य देशों के अलावा कनाडा, मेक्सिको और नाइजीरिया भी शामिल हैं. भारत ने G20 के मंच पर विकासशील देशों की चिंताएं व्यक्त करके ग्लोबल साउथ की ज़िम्मेदारी भी उठाई है, जिसमें स्वास्थ्य इस क्षेत्र के अहम मसलों में से एक है. वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट के दौरान भारत ने ‘आरोग्य मैत्री’ की पहल शुरु की थी, ताकि विकासशील देशों में किसी आपदा के दौरान उन्हें मेडिकल और ज़रूरी सामानों की आपूर्ति करके भारत सबसे पहले सहायता पहुंचाने की अपनी क्षमता को बढ़ावा दे सके. पहले सम्मेलन की कामयाबी को आगे बढ़ाते हुए, दूसरे वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट के दौरान दक्षिण (DAKSHIN) यानी डेवेलपमेंट एंड नॉलेज शेयरिंग इनिशिएटिव की शुरुआत की गई थी, ताकि ग्लोबल साउथ के देशों के बीच सहयोग को मज़बूती दी जा सके.
इस शाखा की संरचना, प्रक्रिया, तालमेल की व्यवस्थाओं और सेहत के पेशेवरों और राजनयिकों के लिए स्वास्थ्य कूटनीति के क्षेत्र में क्षमता निर्माण कार्यक्रमों के स्पष्ट लक्ष्य तय किए जाने चाहिए.
आगे का रास्ता
स्वास्थ्य प्रशासन के मामले में भारत के वैश्विक नेता बनने के बढ़ते दांव के बीच ये ज़रूरी हो गया है कि बौद्धिक संपदा के अधिकार से जुड़े मसलों, डेटा शेयरिंग और उनकी हिफ़ाज़त, स्वास्थ्य और नियामक व्यवस्था को मज़बूती देने, निगरानी की व्यवस्थाओं को सुधारने, स्वास्थ्य उत्पादों के सुरक्षित और असरदार होने को सुनिश्चित करने और भू-राजनीतिक उथल-पुथल के बीच अपनी स्थिति बेहतर बनाने के लिए संभावित चुनौतियों से निपटना काफ़ी अहम हो गया है. इन चिंताओं से निपटने के लिए, भारत सरकार द्वारा स्वास्थ्य कूटनीति को समर्पित एक शाखा स्थापित करना ज़रूरी हो गया है. वैश्विक मसलों पर अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं में विदेश मंत्रालय की क्षमताओं का इस्तेमाल करते हुए भारत, अन्य विभागों और मंत्रालयों के बीच राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तालमेल करके स्वास्थ्य कूटनीति की पहलों को आगे बढ़ा सकता है.
स्वास्थ्य कूटनीति की शाखा को प्रभावी तरीक़े से लागू करके असरदार ढंग से चलाया जाए, इसके लिए इस विंग को राष्ट्रीय स्तर पर संस्थागत बनाने की ज़रूरत है. इसके लिए इस शाखा की संरचना, प्रक्रिया, तालमेल की व्यवस्थाओं और सेहत के पेशेवरों और राजनयिकों के लिए स्वास्थ्य कूटनीति के क्षेत्र में क्षमता निर्माण कार्यक्रमों के स्पष्ट लक्ष्य तय किए जाने चाहिए. राजनयिकों और अन्य पेशेवरों को प्रशिक्षण देने के वर्तमान संस्थानों में स्वास्थ्य की कूटनीति को शामिल करने से भारत को वैश्विक स्वास्थ्य कूटनीति के अग्रणी मोर्चे पर खड़ा करने की कोशिशों को मज़बूती मिलेगी. इस पहल को अकादेमिक क्षेत्र, नागरिक संगठनों और उद्योगों के बीच सामरिक सहयोग से और मज़बूती दी जा सकती है. इस तरह, भारत के राजनयिकों को भविष्य के लिए तैयार करने के लिए स्वास्थ्य कूटनीति की एक शाखा स्थापित करने से शुरुआत करके, क्षमता निर्माण को बढ़ावा देकर और तमाम भागीदारों के साथ सहयोग करना, एक सामरिक शुरुआती बिंदु साबित हो सकता है.
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