Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

सत्तारूढ़ गठबंधन के नेता और पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन 'विकास की राजनीति' को लेकर ही पहचाने जाते रहे हैं.

#Maldives: मालदीव की सियासत के लिए क्या है उपचुनाव के नतीजों के मायने?
#Maldives: मालदीव की सियासत के लिए क्या है उपचुनाव के नतीजों के मायने?

मालदीव में हाल ही में कोमांडू संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव में सत्तारूढ़ गठबंधन के घटक दल डेमोक्रेटिक पार्टी (MDP) के नेता सीट बचाने में कामयाब रहे. 2008 में बहुदलीय लोकतंत्र बनने के बाद से पहली बार इस उपचुनाव में ऐसी तगड़ी भिड़ंत देखने को मिली. अब सारी नज़रें अगले साल के अंत में होने वाले राष्ट्रपति पद के चुनावों पर टिक गई हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या विपक्षी पीपीएम-पीएनसी अपनी ‘इंडिया आउट’ मुहिम से अलग हटकर ‘विकास की राजनीति’ के रास्ते पर चलने लगेंगे? सत्तारूढ़ गठबंधन के नेता और पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ‘विकास की राजनीति’ को लेकर ही पहचाने जाते रहे हैं. 

53 वर्षीय सांसद हुसैन वाहीद के देहांत की वजह से कोमांडू सीट खाली हुई थी. 5 फ़रवरी को उपचुनाव के लिए मतदान हुआ था.

53 वर्षीय सांसद हुसैन वाहीद के देहांत की वजह से कोमांडू सीट खाली हुई थी. 5 फ़रवरी को उपचुनाव के लिए मतदान हुआ था. मालदीव के चुनाव आयोग द्वारा आधिकारिक तौर पर घोषित नतीजों के मुताबिक एमडीपी के मोहम्मद राशिद को 1,398 वोट (48.5 प्रतिशत) मिले. राशिद के सबसे निकटतम प्रतिद्वंदी विपक्षी प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ़ मालदीव्स (पीपीएम) के मूसा फतूही रहे. उन्हें 1,161 वोट हासिल हुए, जो कुल पड़े वोटों का 40.24 प्रतिशत है. मालदीव नेशनल पार्टी (एमएनपी) के उम्मीदवार अब्दुल हन्नान तीसरे नंबर पर रहे. उन्हें 323 वोट हासिल हुए, जो कुल पड़े वोटों का 11.95 फ़ीसदी है. 3,309 योग्य वोटरों में से 2932 मतदाताओं (88 प्रतिशत) ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया. 47 वोट अवैध पाए गए. मालदीव के हिसाब से अवैध मतों का आंकड़ा अब तक का सबसे बड़ा है. इससे संकेत मिलते हैं कि शायद मतदाताओं में मायूसी का माहौल है. 

उपचुनाव में सभी पक्षों ने ज़ोर शोर से प्रचार किया. राष्ट्रपति इब्राहिम सोलिह और संसद के स्पीकर और सत्तारूढ़ एमडीपी के मुखिया मोहम्मद नशीद भी चुनाव प्रचार में कूदे. दोनों ने तीन द्वीपों में फैले संसदीय क्षेत्र का कई बार दौरा किया. सोलिह सरकार के तक़रीबन हरेक मंत्री, गठबंधन के सांसदों और दूसरे नेताओं ने प्रचार में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया. एमडीपी के गठबंधन सहयोगी भी अंत तक चुनाव प्रचार में जुटे रहे. मजहबी मसलों पर सक्रिय रहने वाली अदालत पार्टी (AP) के गृह मंत्री शेख़ इमरान और जम्हूरी पार्टी (JP) के क़ासिम इब्राहिम ख़ासे सक्रिय रहे. इब्राहिम ने तो इस चुनाव को अपनी निजी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया था. 

बहरहाल एमडीपी के चौथे गठबंधन साथी पूर्व राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम की मामून रिफ़ॉर्म मूवमेंट (एमआरएम) अपने नेता की ग़ैर-मौजूदगी की वजह से इस उपचुनाव से किनारे रही. पार्टी ने चुनावों से पहले एक बयान जारी कर चुनावी भ्रष्टाचार पर चिंता जताई. बहरहाल इस सिलसिले में पार्टी ने किसी का नाम नहीं लिया. हालांकि इसके साथ ही उन्होंने संसद में दिए राष्ट्रपति सोलिह के सालाना भाषण का स्वागत किया और उसमें उठाए गए मुद्दों का समर्थन किया. 

विपक्षी पीपीएम-पीएनसी गठबंधन का कहना है कि एमडीपी को इस ‘विनाशकारी विजय’ के लिए शर्मिंदा होना चाहिए. 

यामीन और उनकी पार्टी के कई नेताओं ने संसदीय क्षेत्र का दौरा कर राजधानी माले में कोमांडू के तक़रीबन 700 वोटरों को संबोधित किया. 

खेल बिगाड़ने वाला या खेल का रुख़ बदलने वाला

एमडीपी ने ‘एजेंडा 19‘ घोषणापत्र पर प्रभावी रूप से किए गए अमल को अपनी जीत के पीछे की मुख्य वजह बताया है. 2019 के संसदीय चुनावों में पार्टी ने ये घोषणापत्र जारी किया था. पीपीएम-पीएनसी गठबंधन ने चुनाव में मिली शिकस्त को स्वीकार किया है. हालांकि दोनों ही पार्टियों ने उपचुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किए जाने के आरोप लगाने में देरी नहीं की. इसके अलावा उन्होंने सत्तारूढ़ गठबंधन की जीत के पीछे ऐन चुनाव के वक़्त वोटरों के लिए नौकरियों के अवसर और बजट से बाहर की परियोजनाओं को दी गई मंज़ूरियों को ज़िम्मेदार ठहराया है. विपक्षी पीपीएम-पीएनसी गठबंधन का कहना है कि एमडीपी को इस ‘विनाशकारी विजय’ के लिए शर्मिंदा होना चाहिए. 

पीपीएम-पीएनसी गठजोड़ ने धांधली के आरोपों के साथ कई बार चुनाव आयोग तक मामला पहुंचाया. इसके अलावा संवैधानिक भ्रष्टाचार विरोधी आयोग (एसीसी) के पास भी कई शिकायतें दर्ज कराई हैं. हालांकि सभी सदस्यों के इस्तीफ़ा दे देने की वजह से ये आयोग फ़िलहाल निष्प्रभावी बना हुआ है. तीसरे पायदान पर रहने वाली पार्टी एमएनपी ने भी ऐसे ही आरोप लगाए हैं. उसने चुनाव आयोग पर शिकायतों पर ध्यान नहीं देने का इल्ज़ाम भी लगाया है.  

अतीत में नशीद को छोड़कर एमडीपी के ज़्यादातर नेताओं ने इस विचार पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं की है. गठबंधन के बाक़ी तीन दलों और यामीन खेमे ने इस क़दम का विरोध किया है.

​हालांकि आंकड़ों के हिसाब से देखें तो एमडीपी को हासिल 1398 वोट 2019 के संसदीय चुनावों में हासिल 1553 वोटों से कहीं कम हैं. प्रतिद्वंदी दल भले ही तीसरी पार्टी एमएनपी को खेल बिगाड़ने वाला या वोट कटवा कहते हों लेकिन प्रभावी तौर पर एमएनपी के उम्मीदवार ने इस उपचुनाव में खेल का रुख़ मोड़ने वाली भूमिका निभाई. पार्टी को इस बात का विश्लेषण करना होगा कि वैचारिक रूप से बंटे मतदाताओं के किस पक्ष के वोट उसे हासिल हुए. उसे इस बात पर भी विचार करना होगा कि कहीं ये कोई उभरता हुआ रुझान तो नहीं है, जो 2023 में राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनावों और 2024 के संसदीय चुनावों में दिखाई दे सकते हैं. 

​एमएनपी के संस्थापक कर्नल मोहम्मद नाज़िम (रिटायर्ड) यामीन के मातहत एक बार देश के रक्षा मंत्री रह चुके हैं. यामीन से उनकी अनबन हो गई थी. ऐसे में राष्ट्रपति चुनावों के पहले दौर में नाज़िम के किस्मत आज़माने के पूरे आसार है. अगर दूसरा दौर होता है तो उसके लिए उनकी ओर से जमकर सौदेबाज़ी किए जाने की संभावना रहेगी. इसकी वजह ये है कि विजेता को 50 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल करने होंगे. दो उम्मीदवारों के रहते दूसरे दौर की प्रतिस्पर्धा में भी ये नियम अमल में रहेगा. 

दोबारा वही बहस

​एमडीपी के नेता नशीद की दलील है कि 50 प्रतिशत से भी कम वोट हासिल कर उनका दल प्रशासन के फ़र्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट संसदीय योजना के चलते ही सत्ता पर पकड़ बनाए रखने में कामयाब रहा. दरअसल ये योजना नशीद की पसंदीदा योजनाओं में से एक है. चुनावों से पहले उन्होंने एमडीपी की सत्ता बरकरार रखने के लिए हर मुमकिन कोशिश करने का वादा किया था. उन्होंने ये भी कहा था कि देश के हालात ठीक करने के लिए उन्हें दो और कार्यकाल की ज़रूरत पड़ेगी. पार्टी से जुड़े लोगों ने इसका मतलब ये लगाया था कि नशीद राष्ट्रपति पद पर दूसरे कार्यकाल के लिए सोलिह का समर्थन करेंगे. इसके साथ ही एमडीपी के तीसरे कार्यकाल के लिए उनके द्वारा संसदीय योजनाओं को बढ़ावा देने के भी आसार हैं. 

नशीद की बातों में दम दिखाई देता है. 2018 में चार दलों के साझा उम्मीदवार के तौर पर सोलिह ने 58 प्रतिशत वोट हासिल किए थे. ये अब तक का सर्वोच्च वोट प्रतिशत है. 2008 में मालदीव के बहुदलीय लोकतंत्र बनने के बाद से पहले दौर में राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतने वाले सोलिह पहले नेता हैं. दावों के विपरीत पूर्व राष्ट्रपति यामीन को हासिल 42 प्रतिशत वोटों की भी अहमियत कम नहीं है. 

कुछ ही महीनों बाद संसदीय चुनावों में लगभग अकेले ही अपनी ताक़त आज़माते हुए एमडीपी ने 87 में से 65 सीटों पर जीत दर्ज की थी. हालांकि मतों का प्रतिशत (46 प्रतिशत) थोड़ा कम रहा​. उस वक़्त एमडीपी को छोड़कर बाक़ी सभी दलों (गठबंधन सहयोगियों समेत) को मिले वोट एमडीपी को मिले वोट से ज़्यादा थे. हाल के उपचुनाव में सत्तारूढ़ गठबंधन क़रीब-क़रीब एकजुट रहा. सभी दलों के नेताओं ने प्रचार में कड़ी मशक्कत की. इसके बावजूद गठबंधन का उम्मीदवार (जो इत्तेफ़ाक़ से एमडीपी का ही नेता था) 50 फ़ीसदी वोट की सीमा रेखा से आगे नहीं निकल सका. नशीद ने इशारों में इसी तरफ़ संकेत किया था. ग़ौरतलब है कि राष्ट्रपति चुनावों के लिए 50 फ़ीसदी वोट लाना हर हाल में ज़रूरी है. 

हो सकता है कि इस साल के अंत तक यामीन इन्हीं अदालती पचड़ों में उलझे रहें. ये मसले ट्रायल कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक खिंच सकते हैं. ऐसे में यामीन को वैकल्पिक रणनीति तलाशनी होगी.

​हालांकि नशीद की दलील के पक्ष और विपक्ष में और उपचुनाव में एमडीपी की जीत के संदर्भ में बड़ा सवाल यही है कि क्या ये पर्याप्त है. अतीत में नशीद को छोड़कर एमडीपी के ज़्यादातर नेताओं ने इस विचार पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं की है. गठबंधन के बाक़ी तीन दलों और यामीन खेमे ने इस क़दम का विरोध किया है. हालांकि यामीन इस मसले पर अपने विचार पर डटे हुए हैं. ऐसे में देखना है कि नशीद के विचार और मौजूदा वक़्त में इस बहस को फिर से चालू करने के दांव पर एमडीपी (ख़ासतौर से सोलिह का खेमा) और बाक़ी सहयोगी दलों का क्या रुख़ रहता है. 

राष्ट्रपति चुनाव में अब तक़रीबन एक साल का ही वक़्त रह गया है. ऐसे में सत्तारूढ़ गठबंधन को कोई फ़ैसला लेकर उसे लागू करना होगा. ये बहस काफ़ी अर्से से खिंचती चली आ रही है, इसमें और वक़्त ज़ाया करना मुनासिब नहीं होगा. एमडीपी और शायद उसके घटक दलों के लिए पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक बेहद अहम है. नए अध्यक्ष और संसदीय समूह के नेता के चयन के लिए ये मीटिंग कभी भी आयोजित की जा सकती है. इसी बैठक से भविष्य के लिए दिशा और तेवर तय हो जाने चाहिए. ​

एक झटका?

​उपचुनाव के नतीजे से भारत के दृष्टिकोण से भी चंद सवाल खड़े होते हैं. क्या उपचुनाव में पीपीएम-पीएनसी की हार से अलग-अलग नामों से जाने जाने वाले ‘इंडिया आउट‘ और ‘इंडियन मिलिट्री आउट’ अभियानों को झटका लगा है. यामीन इन मुहिमों को हवा देते रहे हैं. कोमांडू पारंपरिक तौर पर एमडीपी की सीट रही है. बहरहाल उपचुनाव के नतीजों से इतर यामीन खेमा पहले से ही अपने सियासी मुहिम को व्यापक आधार देता आ रहा था. ‘इंडिया आउट’ मुहिम की शुरुआत के बाद शुरुआती दिनों में संसदीय सीट के भीतर और बाहर इस तरह की क़वायद देखी गई थी. 

बहरहाल ‘दोस्ताना राष्ट्रों’ की आलोचना को आपराधिक बनाने का एमडीपी का दांव भारत के लिए शर्मिंदगी का सबब बन सकता है. हालांकि एमडीपी ने इस सिलसिले में भारत का नाम नहीं लिया है. इस पूरे प्रकरण में भारत की कोई ग़लती भी नहीं है. यामीन ने तय किया है कि अगर ये क़ानून पास हो जाता है तो वो इसे जनता के बीच ले जाएंगे. उन्होंने इस नए प्रस्तावित क़ानून की वैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का भी फ़ैसला किया है. ऐसे में आगे बेमियादी वक़्त तक मालदीव की सियासत में भारत को लेकर सिरफुटौव्वल जारी रहने के आसार हैं. ​

एमडीपी के सांसदों, कार्यकर्ताओं और समर्थकों में अपने स्वयंभू लोकतंत्र समर्थक पार्टी के रुख़ को लेकर नाराज़गी का दौर है. उनके मुताबिक किसी भी बुनियाद पर ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ और ‘विरोध के हक़’ को दबाया नहीं जा सकता. यहां ये चिंता भी है कि अगर भविष्य में इस शर्त को अतीत की बुनियाद पर खड़ा किया जाए तो नशीद को भी चीन की लगातार आलोचना करने के चलते परेशानी का सामना करना पड़ सकता है. ग़ौरतलब है कि चीन भी अतीत, वर्तमान और भविष्य के मद्देनज़र मालदीव के ‘दोस्ताना राष्ट्र’ की श्रेणी में आता है. 

अगर ये मान लें कि यामीन 2018 के अपने 40 प्रतिशत से ज़्यादा वोट शेयर को बरकरार रखने में कामयाब रहे हैं,​ तो भी राष्ट्रपति पद दोबारा हासिल करने के लिए ज़रूरी अतिरिक्त 10 प्रतिशत वोट शेयर जुटाने के लिए उन्हें जनता से जुड़े विकास के मुद्दों पर एक बार फिर से ध्यान देना होगा. दरअसल सत्ता में रहते यही मसले उनके सबसे मज़बूत पक्ष थे. ‘इंडिया आउट’ या सीमित तौर पर ‘इंडियन मिलिट्री आउट’ जैसे एक सूत्रीय एजेंडे से शायद उन्हें कोई ख़ास मदद नहीं मिलने वाली. दरअसल मालदीव के तटस्थ मतदाताओं के पास भारत की नेक़दिली का एहसानमंद होने की ढेरों वजहें हैं. दूसरी ओर भारत के कथित शत्रुतापूर्ण बर्ताव की दुहाई देकर इन मतदाताओं को रिझाना शायद आसान नहीं होगा. 

चुनावी रणनीति के तौर पर यामीन के सामने एक और संभावित रुकावट है. पिछले साल यामीन को सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार के आरोपों से बरी किया था. यामीन को ​दो और मामलों में ट्रायल कोर्ट के फ़ैसले का इंतज़ार है. उम्मीद है कि ये फ़ैसले जून के मध्य तक आ जाएंगे. ऐसे में इससे जुड़ा सवाल ये है कि क्या उन्हें आख़िरकार राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने की मंज़ूरी मिलेगी भी या नहीं. 

हो सकता है कि इस साल के अंत तक यामीन इन्हीं अदालती पचड़ों में उलझे रहें. ये मसले ट्रायल कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक खिंच सकते हैं. ऐसे में यामीन को वैकल्पिक रणनीति तलाशनी होगी. उन्हें एक ऐसे क़ाबिल उम्मीदवार की पहचान करनी होगी जिनको वो अपना विशाल समर्पित वोटबैंक ट्रांसफ़र कर सकें. ये वोटबैंक 2019 से उनके साथ बना हुआ है. हालांकि यहां ये सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या कोई दूसरा उम्मीदवार उनकी जगह उनके व्यक्तिगत ‘इंडिया आउट’ मुहिम को अपने कंधों पर उठाकर उसी शिद्दत से आगे बढ़ा पाएगा. साथ ही क्या उस उम्मीदवार के प्रयास उसी तरह के चुनावी लाभ दे पाएंगे?

​ये तमाम मसले अभी भविष्य के गर्भ में हैं. बहरहाल बाहरी पर्यवेक्षकों (भारतीयों समेत) ने इस बात पर ग़ौर किया है कि कोमांडू में प्रचार अभियानों में आंतरिक सुरक्षा और मजहबी आतंकवाद जैसे मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं हुई. ग़ौरतलब है कि पिछले साल 6 मई को माले में नशीद पर हुए आतंकी हमलों के बाद ये देश में हुआ पहला चुनाव था. इसके बावजूद इन मसलों की गूंज चुनाव प्रचार में सुनाई नहीं दी. नशीद ने भी कोमांडू या हाल के महीनों में देश में कहीं भी इस मुद्दे पर कोई बयान नहीं दिया है. 

​इससे राजनीतिक स्थिरता को लेकर मालदीव में जारी बहस को एक नया कोण मिलता है. दूसरी ओर नशीद ने संसदीय योजनाओं को लेकर भी दोबारा बहस शुरू कर दी है. मालदीव के मसलों में लगातार जारी इस तरह की अस्थायी क़वायदों से मालदीव के हालात को लेकर अंतरराष्ट्रीय जगत की सोच पर बुरा असर पड़ सकता है. इसके अलावा इससे एमडीपी और उसके गठबंधन समर्थकों और यहां तक कि ‘ग़ैर-समर्पित’ हमदर्दों पर भी कुप्रभाव पड़ सकता है. इस तरह के वोटरों की तादाद कुल मतदाताओं का 30 प्रतिशत या उससे भी ज़्यादा है. 

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