Published on Jun 02, 2022 Updated 0 Hours ago
प्रधानमंत्री मोदी का यूरोप दौरा, और दुनिया के सामने एक नये आत्मविश्वास से भरे, आत्मनिर्भर भारत की नई छवि!

साल 2022 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना पहला विदेशी दौरा किया. ये दौरा पिछले महीने के दो से चार तारीख़ तक चला.  इस तीन दिवसीय दौरे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबसे पहले जर्मनी पहुँचे, फिर डेनमार्क के साथ द्विपक्षीय वार्ता के बाद वे कोपेनहेगन में इंडिया नॉर्डिक समिट में नॉर्डिक देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ शामिल हुए. वहां से लौटते हुए मोदी पेरिस में फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों से मिलते हुए आए. इस यात्रा और उसकी महत्ता पर ओआरएफ़ के स्टडीज़ और फॉरेन अफेयर्स विभाग में वाइस प्रेसिडेंट हर्ष पंत और सीनियर फेलो नग़मा सह़र ने ओआरएफ़ के वीडियो मैगज़ीन “गोलमेज’’ में चर्चा की थी. उसी बातचीत पर आधारित है ये लेख, जिसे हम लेकर आये हैं अपने पाठकों के लिये. लेख शीर्षक है ‘प्रधानमंत्री मोदी का यूरोप दौरा, कितना कामयाब’

नग़मा सह़र – प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले महीने अपनी तीन दिवसीय यूरोप दौरा जिसमें उन्होंने जर्मनी, डेनमार्क एवं फ़्रांस की यात्रा ऐसे समय में की जब यूरोप युद्ध से ग्रस्त है, ऐसे समय में यात्रा की अहमियत क्या थी एवं इस यात्रा से भारत ने क्या हासिल किया?

हर्ष पंत – यह दौरा एक ऐसे समय में किया गया है जब यूरोप रूस-यूक्रेन युद्ध के संकट से गुज़र रहा है और यूरोप के केंद्र में एक जद्दोजहद चल रही है कि यूरोप का भविष्य क्या होगा. यूरोप ने काफ़ी समय से अपने-आपको भू राजनीति से ऊपर बताया था एवं भू- राजनीति में विश्वास नहीं करता था. लेकिन आज जो परिस्थिति है, यह सबक है उन देशों के लिए जो इतिहास की धारा को मोड़ने का प्रयास करते हैं. क्योंकि इसमें हम वास्तविक मौलिक संरचना के विपरीत जाने की कोशिश करते हैं तो इसमें कई तरह की समस्या आ जाती है जिसका सामना करने के लिए हम तैयार नहीं होते, यूरोप इसी बड़ी परेशानी से जूझ रहा है कि उसका भविष्य क्या होगा. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जिस तरह से यूरोप ने अपना मूल्य एवं अपनी पहचान बनाई और केंद्र में लाने की कोशिश की और यह सराहनीय पहल भी रही है, लेकिन यूरोप ने बार-बार यह कहा कि वो अन्तरराष्ट्रीय राजनीति नहीं करना चाहता जिसमें भू-राजनीति का अंश हो. उसमें यूरोप की योग्यता आज कम नज़र आती है जिसमें यूक्रेन का संकट उभर कर सामने आ रहा है एवं चीन एक बड़ी शक्ति के साथ खड़ा हो रहा है एवं केंद्रीय शक्ति हिन्द प्रशांत की तरफ जा रहा है, ऐसे में यूरोप का सीमांत होना तय था तभी आज पश्चिम की रणनीति हम देख पा रहे हैं.

विश्व युद्ध के बाद जिस तरह से यूरोप ने अपना मूल्य एवं अपनी पहचान बनाई और केंद्र में लाने की कोशिश की और यह सराहनीय पहल भी रही है, लेकिन यूरोप ने बार-बार यह कहा कि वो अन्तरराष्ट्रीय राजनीति नहीं करना चाहता जिसमें भू-राजनीति का अंश हो. उसमें यूरोप की योग्यता आज कम नज़र आती है

जो भारत एवं हिन्द प्रशांत के प्रति सक्रियता हम देख पा रहें है. यह सब यूरोप की अपनी भूमिका का सवाल है जिससे वह स्वयं जूझ रहा है, अतः प्रधानमंत्री का यूक्रेन संकट के समय वहाँ जाना अपने आप में एक उपलब्धि है एवं महत्वपूर्ण घटना है. क्योंकि यूक्रेन को लेकर भारत एवं यूरोप के विचारों में मतभेद है एवं उनका ज़िक्र भी हमने खुले रूप से किया है. लेकिन मतभेद के बावजूद प्रधानमंत्री का यूरोप को चुनना, वहाँ जाकर यूरोप के पटल पर अपनी बात कहना अपने आप में विश्वास सिखाता है कि मतभेद के बावजूद भारत-यूरोप के सामरिक विचारों में कोई क़वायद नहीं आयी और प्रधानमंत्री ने भारत की तरफ से संदेश दिया है कि यूक्रेन को लेकर जो मतभेद है वो हम अपने बीच में नहीं आने दे रहें है. तो प्रधानमंत्री का यह दौरा अपने आप में एक पहल करता है कि भारत मतभेदों के बावजूद यूरोप के साथ उन क्षेत्रों में काम करने के लिए तैयार है जिनके दूरगामी परिणाम होंगे और जो 21वीं शताब्दी के महत्वपूर्ण मुद्दे हैं.

नग़मा सह़र – रायसीना संवाद के मंच द्वारा भी यूक्रेन को लेकर स्पष्ट मत रहा है कि वो किसी के दबाव में नहीं आएगा ऐसे में भारत और पश्चिम के संबंध में क्या बदलाव आया है एवं भारत का क्या मत है?

हर्ष पंत – पिछले कई दशकों से यह बात सामने आ रही है कि भारत एवं यूरोप प्राकृतिक रूप से साझेदार है, क्योंकि दोनों देश प्रजातांत्रिक देश हैं, एक समान राजनीतिक प्रणाली, राजनीतिक समानता, एवं विविधता पायी जाती है जो भौगोलिक रूप से समान है लेकिन हमारे जो सामरिक संबंध थे वो कहीं पर जाकर अटक जाते थे, वो एक सीमा के बाहर नहीं जा पा रहे थे, एक निश्चित सीमा से बाहर नहीं जा पा रहे थे. यह बार-बार सामने आया, जब यूरोप ने यह स्पष्ट किया कि वो एक नये तरह का अंतरराष्ट्रीय समन्वय बनाना चाहता है, उसमें बार-बार यूरोप ने व्यापार, तक़नीक, परिस्थिति एवं नई खोज का ज़िक्र किया. यूरोप को द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अपने अनुभव के आधार पर यह विचार आया की दुनिया में अपनी एक अलग जगह कैसे बनाई जानी चाहिए. लेकिन इन सब में भारत अलग हो गया था एवं यूरोप यह नहीं समझ पाया की भारत की अपनी अभिव्यक्ति एवं बाध्यताएं क्या है, इन्हीं सब के साथ पाकिस्तान, जम्मू कश्मीर, प्रजातांत्रिक व्यवस्था को लेकर यूरोप में भारत की चर्चा होती थी, कि भारत में किस तरह की व्यवस्था है एवं कितनी कमियां है एवं भारत के समक्ष जो कठिनाई है वो समझने की कोशिश नहीं की गई.

दूसरी तरफ भारत में किस तरह की व्यवस्था है एवं कितनी कमियां है एवं भारत के समक्ष जो कठिनाई है, यूरोप ने वो समझने की कोशिश नहीं की. दूसरी तरफ भारत भी अपना बचाव कर रहा था, पश्चिमी देशों के साथ भारत का जो औपनिवेशिक गठबंधन था, वो बहुत ज्य़ादा था क्योंकि हम उसे अपने अनुभव के साथ जोड़ रहे थे, अतः हम उसे उस तरीके से नहीं जोड़ पाए जो पश्चिमी देश हमसे चाहता था. उसका नतीजा यह हुआ की यूरोप और चीन तो एक होते गए और यूरोप और भारत अलग-अलग दिशा में जाते गए. जब शीत युद्ध समाप्त हुआ तब अमेरिका ने तो भारत के प्रति अपना रुख़ बदला लेकिन यूरोपीय संघ को बहुत समय लगा यह समझने में कि भारत की भूमिका क्या है, क्योंकि भारत की हिंद-प्रशांत क्षेत्र में संतुलन शक्ति एवं वास्तविक संरचना जो उभर कर सामने आ रही थी वो यह समझ नहीं पा रही थी एवं उनको बहुत समय लगा वहाँ तक आने में.

यूरोप यह नहीं समझ पाया की भारत की अपनी अभिव्यक्ति एवं बाध्यताएं क्या है, इन्हीं सब के साथ पाकिस्तान, जम्मू कश्मीर, प्रजातांत्रिक व्यवस्था को लेकर यूरोप में भारत की चर्चा होती थी, कि भारत में किस तरह की व्यवस्था है एवं कितनी कमियां है एवं भारत के समक्ष जो कठिनाई है वो समझने की कोशिश नहीं की गई.

लेकिन अब दो बदलाव हुए हैं, एक तो जो संतुलन शक्ति बन रहा है, हिंद-प्रशांत क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का केंद्र बनता जा रहा है उसमें यूरोप की भूमिका क्या होगी एवं यूरोप की किस तरह की गतिविधि चाहता है? भारत किस तरह की केंद्रीय भूमिका यूरोप के साथ गठबंधन में निभा पाता है, इन विषयों को लेकर एक स्पष्टता आयी है. और इस स्पष्टता का कारण यह है कि यूरोपीय संघ में चीन को लेकर जो विशिष्टतावाद है वो बढ़ता नज़र आ रहा है. चीन की जो भूमिका है, उसकी एक समय में यूरोप के बड़े देश मुरीद हुआ करते थे, किन्तु आज चीन की हर गतिविधि को प्रश्न करते हैं, चाहे वो व्यापार या तकनीक क्षेत्र ही क्यों न हो, जहाँ चीन किस तरह का दुष्प्रचार अभियान कर रहा है, अपने क़मजोर पड़ोसी देशों पर दबाव बना रहा है. किस तरह वो हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में नियामक व्यवस्था को चेतावनी दे रहा है चाहे वो मैरीटाइम सिक्योरिटी हो या क्षेत्रीय अखंडता. लेकिन जब इन सब सवालों का जवाब यूरोपीय संघ खोजने जाता है, तब उसके पास भारत से बेहतर साझेदार नहीं है, अतः जो घनिष्ठता आयी है उसने इन सवालों का जवाब खोजते हुए, भारत एवं यूरोप एक दूसरे के नज़दीक ला खड़ा किया है.

और जो भारत का सवाल है, भारत की जो विकास से जुड़ी प्राथमिकताएं हैं उसमें पश्चिमी देशों की भूमिका का बड़ा होना स्वाभाविक है, क्योंकि भारत की जो विदेश नीति आज है वो सामाजिक आर्थिक विकास से जुड़ी हुई है, जहाँ पर चाहे जलवायु परिवर्तन, तक़नीक या शहरीकरण का सवाल हो, जब इन सभी सवालों का जवाब भारत चाहता है तब पश्चिम में भारत को एक बड़ा महत्वपूर्ण साझेदार नज़र आता है. अतः इन सभी कारणों ने भारत और यूरोप को साथ में लाने की कोशिश की है. और आगे की जो रणनीति है उसमें जिस तरह का निवेश हम देख रहें है, रायसीना संवाद में यूरोपीय संघ प्रमुख उर्सुला वॉन डेर लेयेन आयीं तब उन्होंने टेक टेक्नोलॉजी काउंसिल का गठन किया है वो सिर्फ़ भारत एवं अमेरिका के साथ ही किया है, तो कहीं न कहीं हमारे संबंध में जो गति आयी है उसका कारण यही है कि दोनों देशों ने एक दूसरे की भौगोलिक स्थिति को पहचाना है.

नग़मा सह़र – भारत ने यह खुलकर कहा है कि हमें किसी के दबाव में कार्य करने की जरूरत नहीं है, भारत के रुख़ में जो बदलाव आया है उसकी क्या वजह है?

हर्ष पंत – भारत की विदेश नीति के चिंतन में जो बदलाव आया है वो बहुत महत्वपूर्ण है, इस बात को लेकर की भारत ने अपने आप को एक अलग स्थान पर खड़ा किया है. कुछ वर्षो में यह देखा गया और चर्चा के दौरान कहा भी गया, कि भारत अपने-आप को संतुलन शक्ति न बनाकर प्रमुख शक्ति बनना चाहता है. भारत यह चाहता है की जब वैश्विक शासन में नियमों की चर्चा हो तो उस पर बहस करें न कि उन नियमों को स्वीकार किया जाये. जो यह बदलाव आया है कि भारत बढ़-चढ़कर वैश्विक शासन में हिस्सा लेना चाहता है और ज़िम्मेदार हितधारक की भूमिका निभाना चाहता है, और दूसरा यह की भारत को अपनी बात रखने का जो आत्मविश्वास है, उसमें भी बड़ा बदलाव आया है. अगर हम यूक्रेन का मुद्दा देखें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहा भी है कि इस युद्ध में कोई विजेता नहीं है, सभी की हार होगी और भारत जैसा देश यह देखता है कि भारत अपने हितों की रक्षा करना चाहता है तो उसकी प्राथमिकता, आर्थिक विकास है, उसकी गति धीमी न हो और उसे बल मिलता रहे लेकिन यदि यह युद्ध चलता रहा तो महंगाई, ऊर्जा मूल्यों में उछाल, इन सबको लेकर जो आर्थिक समावेश बन रहा है उससे भारत को बड़ी परेशानी झेलनी पड़ेगी. यूक्रेन-रूस के साथ-साथ वैश्विक व्यवस्था को भी  परेशानी हो रही है क्योंकि कोई भी देश इससे बच नहीं पाएगा.

भारत ने इस बात को रेखांकित कर दिया है कि भारत किसी दबाव में आकर काम नहीं करेगा, भारत अपने हितों को देखते हुए स्पष्टता से अपनी बात दुनिया के सामने रखेगा जैसे और देश अपनी बात रखते हैं, वैसे ही भारत भी अपनी बात कहेगा. अतः अब दूसरे देश भी हमारी बात को वो महत्व दें पाते है, जो पहले नहीं देते थे क्योंकि भारत की रणनीति में जो आत्मविश्वास झलकता है, वो शायद पहले नहीं दिखता था

दूसरी बात भारत ने अपनी बात बड़ी स्पष्टता के साथ रखी है की यह केवल भारत की जिम्मेदारी नहीं है की वो रक्षा एवं ऑयल, गैस की खपत को कम करने के लिए कहें. यदि हम गौर करें तो जो यूरोपीय संघ है उसके सदस्य भी रूस से जुड़े हुए हैं और गैस आयात कर रहे हैं, भारत तो एक प्रतिशत से भी कम गैस लेता है. तो कहीं ना कहीं यह समझा जाने लगा था कि भारत रूस को बल देने में ज़िम्मेदार है, अतः भारत ने इसके वैश्विक स्तर पर खंडन किया. आज भारत के पास आत्मविश्वास है कि हम जो बात रख रहें है उसे पश्चिमी देश  सुन रहे हैं और स्वीकार भी कर रहे हैं. वे ये समझ रहे हैं कि भारत की वैध शिकायत एवं वैध हित है और जो भारत के साथ उनकी साझेदारी है वो वैध हितों को मान्यता देने के बाद ही आगे बढ़ सकती है. अतः हम देखेंगे कि जब यूक्रेन संकट शुरू हुआ तो यह मुद्दा बन गया था कि भारत व यूरोप के मध्य दूरी बढ़ेगी लेकिन हम पिछले कुछ हफ्तों की ही बात करें तो जिस तरह से राजनायिक यात्रा हो रही है, उससे संबंध और प्रगाढ़ होते जा रहे हैं. चाहे वो बोरिस जॉनसन की यात्रा हो, उर्सुला वॉन डेर लेयेन की यात्रा हो या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा हो, इन सब के अलावा यूरोपियन यूनियन के सदस्यों की भी भारत की यात्रा हुई है, गत हफ्त़े इटली के विदेश मंत्री भी भारत में ही आये हुए थे. तो कहीं पर जो लगातार वार्ता हो रही है, भारत अपनी बात स्पष्टता से कह पा रहा है, अपनी बात समझा पा रहा एवं भारत ने इस बात को रेखांकित कर दिया है कि भारत किसी दबाव में आकर काम नहीं करेगा, भारत अपने हितों को देखते हुए स्पष्टता से अपनी बात दुनिया के सामने रखेगा जैसे और देश अपनी बात रखते हैं, वैसे ही भारत भी अपनी बात कहेगा. अतः अब दूसरे देश भी हमारी बात को वो महत्व दें पाते है, जो पहले नहीं देते थे क्योंकि भारत की रणनीति में जो आत्मविश्वास झलकता है, वो शायद पहले नहीं दिखता था, क्योंकि उन्हें यह लगता था दबाव में आकर भारत उनके हिसाब से कार्य करें. यह बहुत महत्वपूर्ण है, और प्रधानमंत्री की यात्रा जो ऐसे समय में हुई, यदि हम उसे मानक कूटनीति की नज़र से देखे तो वो ऐसे समय हुई, जो सामान्यतः कोई राष्ट्र प्रमुख ऐसे समय में यात्रा नहीं करता है जब रक्षा संबंधि सामने हो, यह ऐसे समय में की जाती है जब वह पीछे की तरफ हो अतः प्रधानमंत्री ने यात्रा के दौरान अपनी बात कही और जिस तरह का सम्मान उनको मिला वो इस बात को ज़हिर करता है की यूरोपीय संघ, पश्चिमी देश भारत के साथ आगे बढ़ने के लिए तत्पर है और भारत भी इस अवसर का लाभ उठाने के लिए तैयार है.

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Authors

Harsh V. Pant

Harsh V. Pant

Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...

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Naghma Sahar

Naghma Sahar

Naghma is Senior Fellow at ORF. She tracks India’s neighbourhood — Pakistan and China — alongside other geopolitical developments in the region. Naghma hosts ORF’s weekly ...

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