Published on Dec 30, 2022 Updated 0 Hours ago

भवनों में कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए पर्याप्त नीतिगत परिवर्तनों को अपनाने की आवश्यकता है.

निर्मित संरचनाओं से कार्बन निकालना

भारत को काफी किफायत से बनाया गया है. शहरी क्षेत्रों की वैश्विक स्तर पर सैटेलाइट मैपिंग, प्रति व्यक्ति 170 क्यूबिक मीटर का औसत शहरी निर्मित क्षेत्र दिखाती है, जिसमें महत्वपूर्ण भिन्नता भी साफ दिखाई देती है - एक ओर जहां यूएस में 600 क्यूबिक मीटर क्षेत्र दिखता हैं, वहीं बांग्लादेश में 20 क्यूबिक मीटर का निर्मित क्षेत्र है. वैश्विक दक्षिण में निर्मित क्षेत्र का औसत 108 क्यूबिक मीटर है,  जो वैश्विक उत्तर के 300 क्यूबिक मीटर के औसत का एक तिहाई है. भारत का औसत 50 क्यूबिक मीटर के आसपास है. ऐसे में इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि 1990 के दशक के उत्तरार्ध से ही निर्मित संरचनाओं से उद्योग में और फिर व्यावसायिक भवनों में से कार्बन निकालना शुरू में ऊर्जा उपयोग की दक्षता में सुधार करने तक ही सीमित रहा है.

भारत में होने वाला तीन चौथाई उत्सर्जन, ऊर्जा के उपयोग की वजह से है, जिसमें 12 प्रतिशत हिस्सा परिवहन क्षेत्र का है. इसी वजह से सरकार का फोकस परिवहन के विद्युतीकरण और नवीकरणीय ऊर्जा को प्रोत्साहित करने पर है.

कार्बन उत्सर्जन को रोकने के लिए ऊर्जा को डीकार्बोनाइज करें

भारत में होने वाला तीन चौथाई उत्सर्जन, ऊर्जा के उपयोग की वजह से है, जिसमें 12 प्रतिशत हिस्सा परिवहन क्षेत्र का है. इसी वजह से सरकार का फोकस परिवहन के विद्युतीकरण और नवीकरणीय ऊर्जा को प्रोत्साहित करने पर है.  विशेष रूप से हमारी आबादी के सापेक्ष एकमात्र ‘‘प्राकृतिक ऊर्जा संसाधन’’, सौर ऊर्जा पर है, जो हमारे पास प्रचुर मात्र में हैं. भारत को उम्मीद है कि उसकी इन्सटॉल्ड कैपेसिटी अर्थात स्थापित क्षमता में जल और परणाणु ऊर्जा समेत, नवीकरणीय ऊर्जा (आरई) का हिस्सा अक्टूबर 2022 के 35 प्रतिशत से 2030 तक बढ़कर नियोजित 50 प्रतिशत पहुंच जाएगा. बिजली आपूर्ति में आरई की हिस्सेदारी अक्टूबर 2022 की 28 प्रतिशत से बढ़कर 2030 तक 40 प्रतिशत हो जाएगी. भारत की डीकार्बोनाइजेशन योजना अनूठी नहीं है. 1980 के दशक में, कोयले या ईंधन तेल के लिए एक स्वच्छ विकल्प और हाल तक परमाणु ऊर्जा की तुलना में सस्ती, प्राकृतिक गैस की प्रचुर मात्रा में आपूर्ति के कारण ही यूरोप में कार्बन उत्सर्जन में बहुत कमी देखी गई थी.

समाविष्ट कार्बन को कोयले से इमारतों में स्थानांतरित करना बंद करें

वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में बिल्डिंग्स् अर्थात इमारतों का योगदान 39 प्रतिशत के आसपास का है. समाविष्ट उत्सर्जन - जो खनन, परिवहन और निर्माण सामग्री के निर्माण से बनता हैं - इसमें ईंट, सीमेंट, स्टील, और कांच का योगदान लगभग एक-तिहाई होता है, जबकि दो-तिहाई उत्सर्जन प्रकाश व्यवस्था , हीटिंग, एयर कंडीशिनंग, वेंटिलेशन, और रखरखाव, जैसी रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी परिचालन आवश्यकताओं की वजह से  होता है. भारत में, परिचालन ऊर्जा की अधिकांश आवश्यकता रोशनी और ठंडा करने के लिए बिजली के उपयोग से जुड़ी हुई है.

भारतीय संदर्भ में, कम परिचालन ऊर्जा खपत को देखते हुए निर्मित स्टॉक से कार्बन उत्सर्जन का हिस्सा वैश्विक औसत से भी अधिक, संभवत: उच्च दोहरे अंकों में, हो सकता है. लेकिन इस तरह के अनुमानित उत्सर्जन की नियमित निगरानी और सत्यापन के लिए कोई तंत्र नहीं होने की वजह से फिलहाल हमारे पास अभी तक ऐसे उत्सर्जन की कोई इनवेंटरी अर्थात सूची नहीं है. उत्सर्जन की निगरानी और नियमन करने की जिम्मेदारी, ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशियंसी अर्थात ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई) की है. ऊर्जा संरक्षण कानून, 2001 के तहत उसे जो अधिकार सौंपा गया था, उसमें दिसंबर 2022 में किए गए संशोधन के बाद और बढ़ाया गया है. अब इसमें ऊर्जा की परिभाषा को बदलकर इसमें ऊर्जा के सभी रूपों को शामिल किया गया है. लेकिन क्या इसमें परमाणु ऊर्जा भी शामिल होगी, यह अभी स्पष्ट नहीं है, क्योंकि परमाणु ऊर्जा, अपने सुरक्षा निहितार्थों के कारण एक विशेष स्थान रखती है.

बीईई, अब न केवल ऊर्जा का उपयोग करने वाले उपकरणों और वाहनों बल्कि समुद्री जहाजों, औद्योगिक इकाइयों, प्रतिष्ठानों और न्यूनतम 100 किलोवाट के लोड के साथ जुड़ी इमारतों के लिए ऊर्जा संरक्षण और कार्बन उत्सर्जन मानकों को निर्धारित कर उसकी निगरानी करेगा. यह संभवत: उत्सर्जन की स्वीकृति योग्य मात्रा से कम ऊर्जा का उपयोग करने वाली संस्थाओं को ऊर्जा बचत प्रमाणपत्र (ईएससी) भी जारी करेगा. केंद्र सरकार ने अभी ईएससी ट्रेडिंग योजना की घोषणा नहीं की है.

खनिजों और धातुओं के स्वीकृत ‘‘हार्ड टू अबेट’’ अर्थात ‘‘मुश्किल से कम होने वाले’’ जैसे क्षेत्रों से इमारतों में समाविष्ट उत्सर्जन को फ़ीड करने अर्थात भरने वाले क्षेत्रों, में उत्सर्जन को कम करने की चिंता क्यों की जाए? कार्बन कैप्चर और उपयोग या भंडारण और हरित हाइड्रोजन जैसे व्यावसायिक रूप से व्यवहार्य प्रौद्योगिकियों के 2040 से पहले उपलब्ध होने की संभावना नहीं है, जबकि  न्यूक्लियर फ्यूजन अर्थात परमाणु संलयन अभी एक दूर की कौड़ी है. जब हमारे लिए नेट जीरो का लक्ष्य केवल 2070 तक प्राप्त किया जा सकता है, तो अल्प सार्वजनिक धन का इतनी जल्दी डीकार्बोनाइजेशन के लिए उपयोग करना क्या फायदेमंद है. विशेष रूप से उस स्थिति में जब मुद्रास्फीती तय मानक से अधिक है. और कुल मांग कम करने वालों में नकदी-विवश उपभोक्ता हैं, जिसमें 250 मिलियन परिवारों का 60 प्रतिशत शामिल है.

उद्योग और इमारतों के डीकार्बोनाइजिंग के चार चालक

सबसे पहला, अगले तीन दशकों में जनसंख्या में अनुमानित 50 प्रतिशत की वृद्धि की वजह से अधिक निर्मित क्षेत्र की मांग बढ़ेगी.  दूसरा, जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था 2075 के 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर - यह जीडीपी के वर्तमान स्तर से तीन गुना वृद्धि को दर्शाता है- के लक्ष्य की ओर बढ़ेगी, वैसे-वैसे प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होगी और इसके साथ ही अधिक निर्मित क्षेत्र की मांग होने लगेगी. यदि हम पहले से ही 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था वाले चीन के पथ का अनुसरण करते हैं, तो निर्मित क्षेत्र में 50 से लगभग 200 क्यूबिक मीटर अर्थात प्रति व्यक्ति-चार गुना की वृद्धि होगी. तीसरा, औद्योगिक डीकार्बोनाइजेशन की प्रक्रिया का समर्थन करने वाली ऊर्जा प्रौद्योगिकियां और औद्योगिक प्रक्रियाओं को अभी भी विश्व स्तर पर विकसित ही किया जा रहा हैं. ऐसे में हमारे सार्वजनिक और निजी निगमों के पास अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग करने, प्रौद्योगिकी हासिल करने, कौशल विकसित करने और औद्योगिक डीकार्बोनाइजेशन के लिए संस्थागत और व्यावसायिक ढांचा तैयार करने का एक सुनहरा अवसर है.

अंत में, निर्यात में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए मैन्यूफैक्र्चड प्रॉडक्ट्स अर्थात विनिर्मित उत्पाद महत्वपूर्ण हैं. युरोपियन यूनियन (ईयू) ने 2030 से सीमेंट और स्टील आयात पर कार्बन टैक्स लगाने का फैसला किया है. हमारे संरक्षित घरेलू बाजार का पैमाना, अक्सर उत्पाद उन्नयन की कीमत पर, भारतीय उद्योग को आसानी से मिलने वाला धन प्रदान करता है. हमारे बढ़ते कार्यबल के लिए बिना प्रतिस्पर्धी निर्यात के आवश्यक ‘‘अच्छे रोजगार’’ सृजित करना असंभव साबित होगा.

2019-20 अर्थात महामारी पूर्व के पिछले सामान्य वर्ष में स्टील और स्टील एवं लोहे का निर्यात 76.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर था. यह आंकड़ा हमारे 313.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर के निर्यात का लगभग एक-चौथाई है. वर्तमान में सीमेंट का उत्पादन अधिकांशत: घरेलू बाजार के लिए ही किया जाता है. ऐसे में बड़े पैमाने पर, निर्यात-उन्मुख विनिर्माण भी हमारे चालू खाते में पारंपरिक असंतुलन को कम कर सकता है. लेकिन निर्यात से अधिक आयात है. ऐसे में उसके लिए भुगतान की व्यवस्था कैसे की जाए? घरेलू आर्थिक विकास को नुकसान पहुंचाने की कीमत पर भी, यह हमारी ब्याज दरों को ऊपर की ओर समायोजित करने की मजबूरी को कम कर सकता है. ऐसा करना वैश्विक अल्पकालिक रुझानों के साथ तालमेल बिठाना होगा, ताकि सुरक्षित देशों की ओर जा रही पूंजी को रोका जा सके.

डीकार्बोनाइजेशन के लिए संस्थागत ढांचे का अभाव

ऊर्जा संरक्षण अधिनियम 2001 (ईसीए) को स्थायी रूप से ऊर्जा संक्रमण की उभरती ज़रूरतों के लिए पुन:संयोजित करने की बजाय, एक नया कार्बन प्रबंधन अधिनियम ज़्यादा उपयोगी साबित होता. इस तर्क में वज़न तो हैं.

ईसीए के लिए कार्यान्वयन निकाय बीईई है, जो हाल ही में केवल विद्युत मंत्रालय से संबद्ध रही एक इकाई है. भारत में ऊर्जा-कोयला, नई नवीकरणीय ऊर्जा, तेल और गैस, और परमाणु ऊर्जा से संबंधित अन्य चार मंत्रालय जो अलग से यह काम देखते हैं. सभी चार ऊर्जा मंत्रालयों में, विशेष रूप से कार्बन को कम करने और कार्बन उत्सर्जन के लिए बाजार को विनियमित करने के लिए एक नया कार्बन प्रबंधन अधिनियम, स्वायत्त नियामक प्रदान कर सकता है. एक और विकल्प यह भी है कि चारों मंत्रालयों को समाहित कर एक नया ऊर्जा मंत्रालय बना दिया जाए. परन्तु इसकी संभावना नहीं के बराबर है, क्योंकि ऐसा होने पर एक ऊर्जा ज़ार अर्थात ऊर्जा सम्राट में विशाल आर्थिक शक्ति निहित होगी जो आईएनआर 6 ट्रिलियन से अधिक के मार्केट कैप वाले बारह सूचीबद्ध, बड़े, ऊर्जा सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को नियंत्रित करने लगेगा.

केंद्रीय सूची में शामिल तेल और गैस को लेकर केंद्रीय कानून लागू हैं, लेकिन संविधान की समवर्ती सूची में शामिल कोयले एवं बिजली के लिए राज्यों को केंद्र की ओर से होने वाले विधायी संशोधनों को अपनाने की आवश्यकता है. राज्य सूची में आने वाले कृषि, पशु कल्याण और भूमि उपयोग तथा समवर्ती सूची में आने वाले वन का कार्बन उत्सर्जन में 18 प्रतिशत हिस्सा है. इन परिस्थितियों में, नए कानून को पारित करने की लंबी प्रक्रिया को देखते हुए रेट्रोफिटिंग अर्थात पुन:संयोजन यदि सबसे अच्छा विकल्प नहीं है तो भी उसे एक अच्छा विकल्प कहा ही जा सकता है. इसके अलावा, भारत के पास दिसंबर 2022 से जी20 की अध्यक्षता की ज़िम्मेदारी भी आ रही है. उस भूमिका में विश्वसनीयता हासिल करने के लिए उत्सर्जन के प्रबंधन की दिशा में कठोर कदम उठाकर भारत को एक ‘‘टीम प्लेयर’’ के रूप में देखा जा सकता है.

सभी चार ऊर्जा मंत्रालयों में, विशेष रूप से कार्बन को कम करने और कार्बन उत्सर्जन के लिए बाजार को विनियमित करने के लिए एक नया कार्बन प्रबंधन अधिनियम, स्वायत्त नियामक प्रदान कर सकता है. एक और विकल्प यह भी है कि चारों मंत्रालयों को समाहित कर एक नया ऊर्जा मंत्रालय बना दिया जाए.

उद्योग में कार्बन की कमी

औद्योगिक कार्बन उत्सर्जन में कटौती को प्रोत्साहित करने का भारत के पास पूर्व अनुभव है. बिजली क्षेत्र में, प्रशासनिक रूप से विद्युत मंत्रालय के अधीन, केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग, व्यापार योग्य नवीकरणीय खरीद दायित्वों (आरपीओ) - एक प्रॉक्सी अर्थात प्रतिपत्र कार्बन उत्सर्जन कमी प्रमाण पत्र, के लिए बाजार को नियंत्रित करता है. खुदरा बिजली वितरण संस्थाओं के लिए बाजार से आरई या आरपीओ की न्यूनतम मात्रा खरीदना बाध्यकारी है.  2012 से 13 क्षेत्रों में आने वाले 1,073 ऊर्जा-गहन उद्योगों के लिए लागू परफॉर्म अचीव एंड ट्रेड स्कीम के तहत निर्धारित मानकों से परे थर्मल दक्षता में सुधार के लिए ऊर्जा बचत प्रमाणपत्र (ईएससी) अर्जित किए जाते हैं. संचयी CO2 उत्सर्जन में कमी 70 मिलियन टन है. ईएससी 2017 से ट्रेडेबल अर्थात व्यापार योग्य है. अब प्रॉक्सी कार्बन ट्रेडिंग में इस अनुभव का लाभ संशोधित ईसीए के तहत उठाने की मांग की गई है.

बिजली की आपूर्ति को हरित बनाने के साथ ऊर्जा उपयोग दक्षता में सुधार करने के साथ भारत कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए उत्पादकों और उपभोक्ताओं को प्रोत्साहित करके, प्रति व्यक्ति आधार पर कम कार्बन उत्सर्जन वाली अर्थव्यवस्था बने रहने के लिए सक्रिय कदम उठा रहा है. कार्बन क्रेडिट के व्यापार के लिए बाज़ारों का समेकन और विस्तार, वैश्विक सर्वोत्तम अभ्यास, विकास और कार्बन न्यूनीकरण के बीच चलने की मुश्किल राह के साथ संरेखित है. इस संक्रमण के प्रबंधन के लिए संस्थागत व्यवस्था, विशेष रूप से इमारतों और औद्योगिक उत्सर्जन जैसे कठिन-से-कम क्षेत्रों में विकासशील ही कही जाएगी.

केंद्र सरकार संचालित कार्बन विनियमन नई संभावनाएं पैदा कर सकता है. लेकिन हमारे महत्वाकांक्षी विकास लक्ष्य के अनुरूप कार्बन कमी के पैमाने को बढ़ाने के लिए घरेलू सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों को वैश्विक भागीदारों के सहयोग से कार्बन कैप्चर और पुन: उपयोग और कम कार्बन विनिर्माण प्रौद्योगिकी विकसित करने की आवश्यकता है. मानकों और मानदंडों का बेहतर अमल भी अहम है. उत्सर्जन मानकों के कार्यान्वयन और निगरानी का काम राज्य सरकारों का है. विशेषत: ऐसे शहर जहां आवश्यकता पड़ने पर ही विकास कार्य पर ध्यान दिया जाता है, वे 1992 के संवैधानिक संशोधनों के बावज़ूद अशक्त बने हुए हैं. यदि ‘‘साउंड एंड फ्यूरी’’ अर्थात ‘‘भारी आवाज और हंगामा’’ मचाने वाले प्रगतिशील कानून के लाभों को धरातल पर महसूस किया जाना है तो इमारतों और उद्योगों में कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए इन एजेंसियों की क्षमता और प्रेरणा को बढ़ाने के लिए तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है.

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