शहरों और शहरी बसावटों के नवीकरण के लिए दीर्घकालिक भूमि-उपयोग नियोजन में मास्टर प्लान आधार का काम करते हैं. भारत की हाल की भविष्योन्मुखी शहरी नियोजन पहलक़दमियों में जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम), स्मार्ट सिटी मिशन, और कायाकल्प एवं शहरी बदलाव के लिए अटल मिशन (अमृत) शामिल हैं. इसके बावजूद, 2021 की नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि 7933 भारतीय शहरी बसावटों में से 65 फ़ीसद के पास मास्टर प्लान नहीं है. भारतीय नियोजन में एक बड़ा व्यवधान यह है कि शहरी माने जाने वाले आधे से ज़्यादा कस्बे बस ‘जनगणना नगर’ का दर्जा रखते हैं.
74वें संविधान संशोधन अधिनियम ने शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) या नगर सरकारों को सबसे निचली शासन इकाई के रूप में शक्तियां सौंपना बाध्यकारी बना दिया. इसके अलावा, राज्य शहरी नियोजन क़ानून एक यूएलबी के अधिकार क्षेत्र के भीतर या बाहर स्थित किसी अधिसूचित क्षेत्र के लिए संस्थाओं को विशेष नियोजन प्राधिकरण का दर्जा प्रदान करते हैं. इन पहलों के बावजूद, टुकड़ों-टुकड़ों में किये गये हस्तक्षेपों और भारी फ़ासलों ने भारतीय शहरी विकास को क्षति पहुंचाना जारी रखा हुआ है. चंडीगढ़ और गांधीनगर जैसे शहर ज़रूर उदाहरण हैं, लेकिन भारत के बड़े महानगरों का बेतरतीब निर्माण, शहरी फैलाव, पेयजल, बिजली व सफाई के मुद्दों, पर्यावरणीय अवनति व बाढ़ और अन्य मुद्दों से सामना जारी है.
74वें संविधान संशोधन अधिनियम ने शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) या नगर सरकारों को सबसे निचली शासन इकाई के रूप में शक्तियां सौंपना बाध्यकारी बना दिया. इसके अलावा, राज्य शहरी नियोजन क़ानून एक यूएलबी के अधिकार क्षेत्र के भीतर या बाहर स्थित किसी अधिसूचित क्षेत्र के लिए संस्थाओं को विशेष नियोजन प्राधिकरण का दर्जा प्रदान करते हैं.
एक राष्ट्र जो अभी विकासशील हो, वहां ये चिंताएं सामान्य बात लग सकती हैं. फिर भी, भारत की आबादी को देखते हुए, शहरी जीवन की निम्न गुणवत्ता मौजूदा शहरी नियोजन और डिजाइन के दृष्टिकोण में ख़ामियों की गहरी पड़ताल की मांग करती है. 2011 की जनगणना के मुताबिक, ‘शहरी’ शब्द की परिभाषा को धुंधला करते हुए, भारत की वित्तीय राजधानी मुंबई की 42 फ़ीसद आबादी झुग्गी बस्तियों में रहती है. एक तटीय शहर के बतौर, मुंबई पर्यावरण की तबाही और मौसमी बाढ़ भी झेलती है. वहनीय घरों और रोज़गार सृजन पर ध्यान केंद्रित करने की घोषणा के बावजूद, मुंबई की शुरुआती विकास योजना 2034 (डीपी2034) ने जनता का विरोध झेला. यह डीपी पारंपरिक बसावटों और झुग्गी क्षेत्रों की जगह व चौहद्दी का चिह्नीकरण करने में विफल रही, जिसने मौजूदा नियोजन प्रक्रिया की ख़ामियों को प्रकट किया. इसके अलावा, प्रत्येक 20 साल में डीपी को तीन चरणों में संशोधित किया जाता है. इसे वास्तविक रूप में क्रियान्वित करने में कहीं ज़्यादा समय लगता है, तब तक मौजूदा निवासी भूमि-उपयोग में कई सारे बदलाव कर डालते हैं. 2018 में, मुंबई की डीपी2034 ने पहली बार सक्रियता से जनता से सुझाव आमंत्रित किये. हालांकि, बुनियादी ढांचे पर योजना का बहुत ज़्यादा फोकस विभिन्न नागरिक समूहों और हाशिये के समुदायों की ओर से विरोध का सामना करता रहता है, जो इस बार-बार दोहराये जाने वाले कथन की ओर ले जाता है कि पब्लिक इनपुट के लिए ज़्यादा प्रतिक्रिया नहीं मिली.
सहभागी दृष्टिकोण का अभाव नेक मक़सद से किये गये हस्तक्षेपों को भी फीका कर देता है. उदाहरण के लिए, दिल्ली के पुनर्वास कार्यक्रम में, संजय-अमर कॉलोनी के अवैध वासी पुनर्वास में मिले सुरक्षित मकानों को छोड़कर असुरक्षित व अस्वास्थ्यकर स्थितियों में रहने के लिए वापस चले गये, क्योंकि यह कार्यक्रम उनकी आकांक्षाओं और ज़रूरतों को ख़याल में नहीं रख सका. इसी तरह, जेवर में नोएडा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के दूसरे चरण को लेकर किसानों की सहमति लेने के लिए लगाये गये कैंपों को, उचित पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन मुआवजे की मांग पर विरोध का सामना करना पड़ता है.
सिंगापुर, जो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ सुनियोजित शहरों में से एक है, अपने एकीकृत मास्टर प्लान की हर पांच साल पर समीक्षा करता है. यह उसे समकालीन ज़रूरतों के प्रति लचीला बनाता है. शहर की मौजूदा नियोजन प्रणाली में दीर्घकालिक भूमि-उपयोग रणनीतियों के साथ कॉन्सेप्ट प्लान शामिल है, जो मास्टर प्लान को प्रभावित करता है.
यही पैटर्न एक शहर के बाद दूसरे शहर में दोहराया जाता है. यह मौजूदा दृष्टिकोणों को सवालों को घेरे में लाता है और शहरी भ्रंश रेखाओं (फॉल्ट लाइन्स) को स्वत:स्फूर्त, सहभागी और लचीले ढंग से भरने की सख़्त ज़रूरत को पेश करता है.
आदर्श शहरी प्रतिमान
‘स्थान’ एक सीमित संसाधन है, इस मत को मज़बूती देते हुए संयुक्त राष्ट्र का नया शहरी एजेंडा असमानता, भेदभाव और ग़रीबी को कम करने के ज़रिये शहरीकरण को लोगों व समुदायों के लिए एक सकारात्मक परिवर्तनकारी शक्ति मानता है. सिंगापुर, लंदन, सियोल और किगाली जैसे शहरों ने, अपने शहरी स्थान की साफ़ तौर पर कायापलट करते हुए, कामयाब सहभागी विकास मॉडल विकसित किये हैं. हो सकता है कि भारतीय दृष्टिकोण से सीधी तुलना करना उपयुक्त न हो. फिर भी, इन मॉडलों का विश्लेषण शहरी भारत की प्रगति और नया आकार लेने की क्षमता के लिए मानदंड निर्धारण के वास्ते फ्रेमवर्क मुहैया करा सकता है.
सिंगापुर, जो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ सुनियोजित शहरों में से एक है, अपने एकीकृत मास्टर प्लान की हर पांच साल पर समीक्षा करता है. यह उसे समकालीन ज़रूरतों के प्रति लचीला बनाता है. शहर की मौजूदा नियोजन प्रणाली में दीर्घकालिक भूमि-उपयोग रणनीतियों के साथ कॉन्सेप्ट प्लान शामिल है, जो मास्टर प्लान को प्रभावित करता है. इन प्लान्स की नियमित समीक्षा की जाती है, जनता के फीडबैक को समाहित किया जाता है. सिंगापुर के 2019 के मास्टर प्लान ने सार्वजनिक प्रदर्शनियों, फोकस ग्रुप सत्रों, सामुदायिक कार्यशालाओं और हितधारकों की बैठकों के ज़रिये स्थानीय लोगों से जुड़ाव की बहु स्तरीय रणनीतियों को शामिल किया.
इसी तरह, लंदन प्लान स्थानीय स्तर के नियोजन में नागरिकों को शामिल करता है, जो सामाजिक अवसंरचना और धरोहर संरक्षण जैसे पहलुओं को महत्व देते हुए बड़े क्षेत्रीय नियोजन में बदल जाता है. अपने उपनगर (borough) के नियोजन में जन भागीदारी रहवासियों के बीच स्वामित्व और दायित्व बोध निर्मित करती है, जिससे उनके स्थानीय इलाकों का लागत-प्रभावी और टिकाऊ विकास होता है. एक एकीकृत शहर नियोजन प्रणाली के ज़रिये, शहरी नवीकरण की समग्र रणनीति के साथ, इन उपनगरों के प्लान ‘लंदन प्लान’ के साथ बहुत अच्छे ढंग से संरेखित (अलाइन) किये जाते हैं.
2030 के सियोल प्लान का थीम था – ‘संचार एवं सोच-विचार के साथ प्रसन्न नागरिकों का शहर’. यह पांच मुख्य क्षेत्रों और 17 कार्रवाई बिंदुओं पर केंद्रित था. सियोल के विज़न को आकार देने और लागू करने वाले नागरिकों के समूह और उप-समितियों में विशेषज्ञ, योजनाकार और सिविल सोसाइटी के सदस्य शामिल होते हैं.
इसी प्रकार, सियोल नागरिकों को केंद्र में रखने वाली तीन-चरणों की योजना का पालन करता है : शहरी मास्टर प्लान, निवास क्षेत्र योजना और शहरी प्रबंधन योजना. एक मध्यस्थ के रूप में, निवास क्षेत्र योजना छोटी भौगोलिक इकाइयों के लिए है, जो गवर्नेंस और नागरिक भागीदारी के ज़रिये क्षेत्र (रीजन) और उप-क्षेत्र (सब-रीजन) के बीच संतुलन स्थापित करती है. वैधानिक नहीं होने के बावजूद, परिवहन, शिक्षा, फ़ुरसत के लम्हों, मनोरंजन समेत लोगों की रोजमर्रा की ज़िंदगी पर ध्यान केंद्रित करना एक बेहद अहम नया काम हो गया. 2030 के सियोल प्लान का थीम था – ‘संचार एवं सोच-विचार के साथ प्रसन्न नागरिकों का शहर’. यह पांच मुख्य क्षेत्रों और 17 कार्रवाई बिंदुओं पर केंद्रित था. सियोल के विज़न को आकार देने और लागू करने वाले नागरिकों के समूह और उप-समितियों में विशेषज्ञ, योजनाकार और सिविल सोसाइटी के सदस्य शामिल होते हैं.
दूसरी तरफ़, दो दशकों के अंदर किगाली का एक संघर्ष क्षेत्र से एक सुरक्षित राजधानी में बदलना ग्रीनफील्ड प्लानिंग दृष्टिकोण के लिए एक आदर्श मॉडल है. किगाली का मास्टर प्लान वाणिज्यिक और आवासीय ज़ोन की तादाद घटाते हुए लचीले ज़ोनिंग प्लान की पेशकश करता है. इसका मिश्रित-उपयोग विकास ‘हमारा किगाली’ की संकल्पना के अनुरूप है, जो ‘शहर शहरियों के लिए’ के रूप में सहभागी शहर बनाने और इसकी स्थानीय पहचान सहेजने के लिए प्रेरित करता है. सेंट्रल बिजनेस ड्रिस्टिक्ट विकसित करने के साथ ही, शहर की योजना मौजूदा ढांचों की बहाली के लिए पुनर्विकास को रेखांकित करती है.
यहां तक कि आदर्श योजनाएं और सुसंचालित मॉडल भी परिणामकारी नहीं हो सकते अगर वे सहभागी, समावेशी और प्रासंगिक नहीं हैं. सबसे टिकाऊ मॉडलों में से एक, ब्राजीलियाई प्रांत की राजधानी क्यूरीटिबा अपने नवोन्मेषी नियोजन दृष्टिकोण के लिए मशहूर थी. इसमें अनोखी जन परिवहन प्रणाली, सुव्यवस्थित लेन-प्लानिंग, बड़े सार्वजनिक पार्क, बाढ़ से निपटने के लिए घास के मैदान और उन्नत कचरा प्रबंधन शामिल थे. इसके बावजूद, अपने अलग-अलग क्षेत्रों की आकांक्षाओं को सुसंगत ढंग से एकीकृत करने में क्यूरीटिबा की अक्षमता धरातल पर गैर-टिकाऊ व्यवहार की ओर ले गयी, जिसने प्रत्याशित नतीजों को काफ़ी कम किया.
भारत के लिए सबक
भारत का बढ़ता शहरी संकट सम्मान के साथ जीने के अधिकार की भावना के ख़िलाफ़ जाता है. दृष्टिकोण ज़रूरत से ज़्यादा मानकीकृत, क्रियान्वयन संबंधी गड़बड़ियों से ग्रसित रहता है. इसमें बड़ी चिंताएं ख़ास तौर पर उन क्षेत्रों और समुदायों के लिए हैं जिन्हें बिल्कुल तवज्जो नहीं दी जाती या कम दी जाती है. ‘भूमि अधिग्रहण पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन में उचित मुआवजे और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013’ और 74वें संविधान संशोधन अधिनियम जैसे क़ानून कई रचनात्मक समाधान पेश करते हैं और सहभागी दृष्टिकोण को बढ़ावा देते हैं, लेकिन उनका क्रियान्वयन ढीलाढाला रहा है. यहां तक कि जिन मामलों में जन भागीदारी का आग्रह किया गया था, वहां भी यह बिना मन का रहा. इसे पूर्णता तक पहुंचाने के लिए बहुत कम काम किया गया और ज़िम्मेदारी का अभाव रहा. इसने सहभागिता प्रक्रिया में भरोसे का क्षरण किया, जैसा कि मुंबई की डीपी2034 के बाद की घटनाओं का उदाहरण है. एक भरोसेमंद और टिकाऊ सह-सृजन मॉडल निर्मित करने के लिए, रुक-रुक कर चलने वाली प्रक्रियाओं की जगह परिणामोन्मुखी जन भागीदारी (जहां ठोस नतीजे सुझावों का अनुसरण करते हैं) की केंद्रीय भूमिका है. बोझिल पारंपरिक दृष्टिकोण की जगह लागत-प्रभावी दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत है, जो ज़्यादा पारदर्शिता और जवाबदेही की अनुमति देता है.
भूमि और समुद्र का समतापूर्ण उपयोग नागरिकों की उन ज़रूरतों के अनुरूप होना चाहिए, जो प्रासंगिक ज़मीनी सच्चाइयों को प्रदर्शित करें. समृद्ध संस्कृति और विरासत की खूबियों वाले भारत के शहर ऊपर-से-नीचे थोपी गयी तकनीकी और स्थानिक योजनाओं के चलते असहमति का सामना करते हैं. यह संभव है कि भारत जैसे बहु स्तरों में बंटे समाज के मामले में समरूप और जड़ दृष्टिकोण एक विषमरूप शहरी मिश्रण के लिए समाधान पेश न कर पाए. यहां बस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम एक उदाहरण है, जो ज़्यादातर मामलों में सफल नहीं रहा है, जबकि बहुसंख्य आबादी द्वारा सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल किया जाता है.
सफल वैश्विक मॉडल बताते हैं कि शहरी बदलाव को सर्वोत्तम भूमि-उपयोग और ज़ोन संबंधी नियमों के परे जाना होगा तथा सघन सामुदायिक भागीदारी और फीडबैक के महत्व को नियोजन प्रक्रिया का अखंड अंग बनाना होगा.
मास्टर प्लान में बुनियादी ढांचा और गतिशीलता (मोबिलिटी) तो अनिवार्य हैं ही, ज़्यादा मानवीय शहरी डिजाइन की ओर बढ़ने के लिए जीवन की गुणवत्ता, बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच तथा नौकरी, आवास, शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी रोज़मर्रा की ज़रूरतों पर संतुलित ज़ोर होना चाहिए.
मास्टर प्लानों को टिकाऊ और एकीकृत फ्रेमवर्क के ज़रिये उत्साह और सामाजिक भलाई को प्राथमिकता देनी चाहिए. मास्टर प्लान में बुनियादी ढांचा और गतिशीलता (मोबिलिटी) तो अनिवार्य हैं ही, ज़्यादा मानवीय शहरी डिजाइन की ओर बढ़ने के लिए जीवन की गुणवत्ता, बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच तथा नौकरी, आवास, शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी रोज़मर्रा की ज़रूरतों पर संतुलित ज़ोर होना चाहिए. मुंबई में सिविल सोसाइटी द्वारा चालित वर्सोवा कोलीवाड़ा सौंदर्यीकरण परियोजना इस संबंध में एक अच्छा स्थानीय मॉडल है. यह परियोजना मछुआरा समुदाय को अपने तटीय पर्यावासों के बारे में दोबारा सोचने का स्वामित्व देता है. नीचे-से-ऊपर के दृष्टिकोण के बतौर, यह परियोजना समुद्र और आजीविका को अर्थव्यवस्थाओं, खाड़ी (क्रीक), ठोस कचरा प्रबंधन और जलवायु परिवर्तन से जोड़ते हुए, सामुदायिक फीडबैक से चालित है.
विभिन्न शहरों की विकास संबंधी विशिष्ट ज़रूरतों पर विचार करते हुए, स्पष्ट फोकस एरिया के साथ थीम-आधारित मॉडलों को अपनाना भारतीय संदर्भ में काम का हो सकता है. हालांकि, पूरी विकास प्रक्रिया में देरी से बचना और छोटी समयसीमा के साथ व्यापक प्रतिक्रिया कार्यप्रणाली को शामिल करना बेहद अहम है.
विशिष्टता का ध्यान रखे बिना नियोजन से मूल्यवान सार्वजनिक धन पानी में जाता है और बिगड़े को आसानी से बनाया नहीं जा सकता. इसका बाद में होने वाले विकास पर भी सोपानी (कैस्केडिंग) प्रभाव होता है, जिसका नतीजा निरंतर विफलता के रूप में सामने आता है. शहरों को संकटों से जूझने में समर्थ बनाने में सबसे बड़ी चुनौती एक साझा दृष्टि के साथ शहरी योजना विकसित और लागू करने के लिए योजनाकारों, नीति-निर्माताओं तथा नागरिकों के बीच आपसी विश्वास का निर्माण करना है. ये संकल्प शहरी सौंदर्यशास्त्र के परे जाने और शहर के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक ताने-बाने के भीतर के अलग-अलग विचारों को आपस में जोड़ने से आयेंगे. भविष्य के विकास के लिए अवसर मुहैया कराते हुए और एक परिपूर्ण जीवन को संभव बनाते हुए, बहु-हितधारक दृष्टिकोण भारत के शहरों का एकसाथ सक्षम, आकर्षक, अनुकूलन-योग्य और सामाजिक समावेशी होना सृजित, संवर्द्धित और बहाल कर सकता है.
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