Published on Aug 09, 2023 Updated 0 Hours ago

वैश्विक महामारी की बरसी के मौक़े पर चीन ने एक बार फिर अपने चांगचुन शहर में भारी-भरकम लॉकडाउन का एलान कर दिया. बढ़ते संक्रमण पर क़ाबू पाने के लिए 90 लाख लोगों की आबादी वाले इस शहर में तालाबंदी कर दी गई

#कोविड19 के बाद: 24 महीनों के बाद, क्या है कोरोना वायरस जनित वैश्विक महामारी की दशा-दिशा!
#कोविड19 के बाद: 24 महीनों के बाद, क्या है कोरोना वायरस जनित वैश्विक महामारी की दशा-दिशा!

ये लेख रायसीना फ़ाइल्स 2022 सीरीज़ का हिस्सा है.


11 मार्च 2022 को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा नए कोरोना वायरस को वैश्विक महामारी घोषित करने के 2 साल पूरे हो गए. चीन के वुहान से शुरू हुई इस बीमारी ने विकराल रूप धारण कर लिया. पिछले 2 सालों में कोई भी देश इस वायरस को अपनी सरहदों के बाहर रोक पाने में कामयाब नहीं रहा. कोई भी राष्ट्र (या वहां की जनता) इस महामारी से निपटने के उपायों के प्रभावों (स्थानीय से लेकर वैश्विक) से बच नहीं पाया है. ये सही मायनों में एक आधुनिक, वैश्विक घटना साबित हुई है. धरती पर मौजूद हरेक इंसान को इस महामारी से नुक़सान पहुंचा है. उसकी सेहत और बेहतरी के सामने एक नया ख़तरा आ गया है. द इकॉनोमिस्ट के आकलन के मुताबिक इस वायरस और महामारी के चलते अबतक तक़रीबन 2.4 करोड़ लोगों की जान चली गई है. कोविड-19 से मारे गए लोगों के आधिकारिक आंकड़ों से ये संख्या चार गुणा ज़्यादा है. इस वायरस से मरने वालों की संख्या दिनबदिन बढ़ती जा रही है. अब ये मौतें ज़्यादातर निम्न और मध्यम आय वाले देशों में हो रही हैं.[i] मौतों के अलावा इस संक्रमण के दीर्घकालिक नुक़सान (‘लॉन्ग कोविड’) और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव अब भी पूरी तरह से साफ़ नहीं हैं. हालांकि इंसानी सेहत पर ऐसे प्रभाव निश्चित रूप से पड़ रहे हैं. सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और दूसरे नुक़सानों के संदर्भ में दस्तक देने वाले प्रभाव आने वाले कई सालों तक महसूस किए जाएंगे. देशों के भीतर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर- ख़ासतौर से कमज़ोर और नाज़ुक तबकों पर- इसका असर बदस्तूर जारी रहेगा.

द इकॉनोमिस्ट के आकलन के मुताबिक इस वायरस और महामारी के चलते अबतक तक़रीबन 2.4 करोड़ लोगों की जान चली गई है. कोविड-19 से मारे गए लोगों के आधिकारिक आंकड़ों से ये संख्या चार गुणा ज़्यादा है. इस वायरस से मरने वालों की संख्या दिनबदिन बढ़ती जा रही है. अब ये मौतें ज़्यादातर निम्न और मध्यम आय वाले देशों में हो रही हैं. 

वैश्विक महामारी की बरसी के मौक़े पर चीन ने एक बार फिर अपने चांगचुन शहर में भारी-भरकम लॉकडाउन का ऐलान कर दिया. बढ़ते संक्रमण पर क़ाबू पाने के लिए 90 लाख लोगों की आबादी वाले इस शहर में तालाबंदी कर दी गई.[ii] टीके, बड़ी तादाद में टेस्टिंग और मौतों की चंद घटनाओं के बावजूद लॉकडाउन जैसे सख़्त उपाय दोहराए जा रहे हैं. इसकी एक वजह तो यही है कि लोग अब भी संक्रमण फैला रहे हैं. साथ ही चीन एक और वैश्विक लहर या अपनी धरती से किसी नए वेरिएंट की उत्पत्ति को रोकना चाहता है ताक़ि विश्व स्तर पर उसके दर्जे को और नुक़सान न पहुंचे. बहरहाल, ऐसा लगता है कि यूरोप और अमेरिका में भी संक्रमण और अस्पताल में दाखिले की एक नई लहर शुरू हो चुकी है. दरअसल, यहां के देशों ने सामान्य हालात बहाल करने के मक़सद से बीमारी पर क़ाबू पाने से जुड़ी तमाम पाबंदियों को हटा लिया था.[iii]

कोरोना महामारी की दूसरी बरसी से चंद दिनों पहले रूस ने यूक्रेन पर धावा बोल दिया. इससे महामारी से परेशान दुनिया में शरणार्थियों से जुड़ा संकट और बढ़ गया. साथ ही यूरोप में युद्ध के लंबा खिंचने या बदतर नतीजे देने की आशंकाएं बढ़ने लगी हैं. रूस की आक्रमणकारी हरकत से विश्व व्यवस्था अस्थिर हो गई है. बड़ी भूराजनीतिक ताक़त के तौर पर रूस का दर्जा कठघरे में है. रूस और वहां का रईस तबका अलग-थलग पड़ चुका है. वहां आंतरिक असंतोष सतह पर आ गया है और धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है. यूक्रेन के परे बाकी देशों पर उसके ख़तरे बेरोकटोक नहीं रहेंगे. दरअसल महामारी से निपटने की हमारी क़वायदों से भूराजनीति में बेतरतीबी आ गई है. संयुक्त राष्ट्र (UN) और दूसरे अंतरराष्ट्रीय संगठन हाशिए पर चले गए हैं. साथ ही जी7 और व्यापक रूप से जी20 के देशों में विभाजनकारी आंतरिक राजनीति बदतर होती चली गई है. यूक्रेन पर रूसी चढ़ाई और उसके लिए चुने गए वक़्त को इन तमाम बदलावों से जोड़कर देखना निहायत ज़रूरी है.

काफ़ी हद तक विश्व की मौजूदा हालत के लिए इंसानी स्वास्थ्य को लेकर व्यापक रूप से अपनाया गया नज़रिया ज़िम्मेदार है. अंतरराष्ट्रीय संबंधों और राष्ट्रीय राजनीति के स्तर पर मानव स्वास्थ्य को लगातार नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है. इतना ही नहीं इसे लेकर तमाम तरह की ग़लतफ़हमियां भी रही हैं. दशकों तक हमारी विकास यात्रा का ज़ोर मोटे तौर पर अर्थनीति (वृद्धि, व्यापार, वित्त), सुरक्षा, सांस्कृतिक युद्धों और लोकलुभावनी नीतियों पर रहा है. मिसाल के तौर पर जाने-माने अर्थशास्त्री और ‘हाइपर-ग्लोबलाइज़ेशन’ से जुड़ी समस्याओं के विश्लेषक डेनी रॉड्रिक ने सार्वजनिक स्वास्थ्य (स्वास्थ्य सेवाओं से अलग विषय के तौर पर) की परिकल्पना से पहली बार 2020 से जुड़ना और उसे सराहना शुरू किया.[iv] शिक्षा जगत से इतर राज्यसत्ता से जुड़ी बड़ी हस्तियों- जैसे मिखाइल गोर्वाचेव[v], मेडेलिन ऑलब्राइट[vi] और हेनरी किसिंजर[vii] भी एक संक्रामक रोग के आंतरिक स्थिरता, बहुपक्षीयवाद और उदारवादी विश्व व्यवस्था के लिए ख़तरा बनकर उभरने से भौंचक्के रह गए.

तेज़ गति से कोविड-19 टीकों के विकास को सरकार समर्थित वैश्विक विज्ञान और सहयोग की भारी कामयाबी के तौर पर आगे बढ़ाया गया. हालांकि इस क़वायद से जी-7 और दुनिया के सबसे ग़रीब देशों के बीच वैश्विक तनाव और गहरा हो गया है. इससे अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक बार फिर नस्लवाद का विचार सबके सामने आ गया है.

पिछले 2 सालों में इस महामारी से निपटने में दुनिया के ज़्यादातर देशों, संयुक्त राष्ट्र समेत तमाम अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों, निगमों, अंतरराष्ट्रीय ग़ैर सरकारी संगठनों और कुछ अरबपति ‘दिग्गजों’ द्वारा की गई क़वायदों को नाकामी के तौर पर ही परिभाषित किया जा सकता है. वैश्विक स्तर पर कोविड-19 से निपटने में राजनीतिक नेताओं और दूसरे किरदारों द्वारा अपनी गतिविधियों को सकारात्मक रंग दिए जाने के बावजूद हक़ीक़त कुछ और ही है. तेज़ गति से कोविड-19 टीकों के विकास को सरकार समर्थित वैश्विक विज्ञान और सहयोग की भारी कामयाबी के तौर पर आगे बढ़ाया गया. हालांकि इस क़वायद से जी-7 और दुनिया के सबसे ग़रीब देशों के बीच वैश्विक तनाव और गहरा हो गया है. इससे अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक बार फिर नस्लवाद का विचार सबके सामने आ गया है. टीकों और दवाओं के मोर्चे पर कामयाबियों के ज़रिए महामारी से होने वाले नुक़सानों का निकट भविष्य में ख़ात्मा करने को लेकर हम आश्वस्त नहीं हो सकते. हो सकता है कि दुनिया के समृद्ध देश और दुनिया भर में फैले रईस लोग इस महामारी से सुरक्षित हो जाएं पर उनको छोड़कर बाक़ी वर्गों के बारे में इस तरह का इत्मीनान नहीं हो सकता. वायरस के नए स्वरूपों का ख़तरा तो बना ही रहेगा. ये मान लेना कि ज़बरदस्त नाकामियों और मौजूदा बेतरतीबी के बावजूद हम और हमारे नेता अगली वैश्विक महामारी या छोटे स्तर की संक्रामक बीमारियों से बेहतर तरीक़े से निपट सकेंगे, ख़ुद को मुग़ालते में रखने जैसा होगा.

वैक्सीन से जुड़ी ख़ुशक़िस्मती के बावजूद अब भी हम इस महामारी के अंत के नज़दीक नहीं पहुंचे हैं. साथ ही किसी अगली महामारी की मार झेलने के लिए भी हम कतई तैयार नहीं हैं. दो सिद्धांतों के ज़रिए इसे आसानी से समझा जा सकता है:

  1. संक्रामक रोगों का उभार और प्रसार या आम तौर पर स्वास्थ्य से जुड़े मसले (व्यक्तिगत, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय या वैश्विक स्तर पर) कभी भी सिर्फ़ जीव विज्ञान से जुड़ी घटनाएं नहीं होती. लिहाज़ा महज़ जीववैज्ञानिक समाधानों से इनसे पार नहीं पाया जा सकता;
  2. महामारियों (और स्थानीय स्तर पर संक्रामक रोगों के प्रसार) से निपटने से जुड़ी तैयारियां जनसंख्या के स्तर पर स्वास्थ्य में बेहतरी लाए बिना एकाकी तौर पर नहीं की जा सकतीं. इन तैयारियों के बग़ैर ख़ासतौर से समाज के सबसे ग़रीब तबकों के स्वास्थ्य की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की जा सकती.

जैव चिकित्सा का मोह और अधूरापन

2020 के शुरुआती दौर में दुनिया का ध्यान इस वायरस से जुड़े जीव विज्ञान और महामारी से संबंधित पहलुओं पर था. ये वायरस किस प्रकार का है? ये आगे कैसे फैलता है? ये कितना घातक है? ये कितना संक्रामक है? दरअसल महामारी की मार से प्रभावी तौर से निपटने के लिए इन सवालों के जवाब ढूंढना बेहद अहम है. एड्स, इबोला, टीबी, ज़ीका जैसी तमाम बीमारियों को लेकर हाल के वक़्त में बेहिसाब तजुर्बे और सबक़ हासिल हुए हैं. इसके बावजूद विभिन्न स्तरों पर मानवीय विविधता और सामाजिक शक्तियों के द्वारा देशों के भीतर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संक्रमण के प्रसार को समझने और अपनी प्रतिक्रियाओं में इन्हें जोड़ने की काफ़ी कम कोशिशें की गई हैं. ये वाक़ई हैरानी की बात है. आसान भाषा में कहें तो महामारी को सिर्फ़ जीव विज्ञान से जुड़ी समस्या के तौर पर देखने का प्रचलित और तंग नज़रिया और उसी हिसाब से उसका सिर्फ़ जैव चिकित्सीय समाधान ढूंढना विनाशकारी साबित हुआ है. वैक्सीन को लेकर जारी असमानता, जैव चिकित्सा के तंग नज़रिए को लेकर इस दीवानगी का केवल एक लक्षण मात्र है.

संक्रामक रोग दरअसल एक सामाजिक घटना है. संक्रमण सामाजिक संपर्कों के ज़रिए व्यक्ति से व्यक्ति तक फैलता है. ये काफ़ी हद तक लोगों की जीव-विज्ञान संबंधी विविधताओं से निर्धारित होता है. उनके बर्तावों का भी इस पूरी क़वायद पर बड़ा असर पड़ता है. ये तमाम हालात सामाजिक और क़ुदरती वातावरणों से तय होते हैं.

संक्रामक रोग दरअसल एक सामाजिक घटना है. संक्रमण सामाजिक संपर्कों के ज़रिए व्यक्ति से व्यक्ति तक फैलता है. ये काफ़ी हद तक लोगों की जीव-विज्ञान संबंधी विविधताओं (आयु, लिंग, दूसरी बीमारियों, गर्भावस्था, सोचने-समझने की शक्ति आदि) से निर्धारित होता है. उनके बर्तावों का भी इस पूरी क़वायद पर बड़ा असर पड़ता है. ये तमाम हालात सामाजिक और क़ुदरती वातावरणों से तय होते हैं. दशकों तक अन्य संक्रामक रोगों और महामारियों के प्रकोप से जूझने के चलते हमें इस तरह का ज्ञान हासिल हुआ है. महज़ वायरस से जुड़े जीव-विज्ञान पर तवज्जो देने और व्यक्ति-विशेष को निष्क्रिय जैविक इकाई के तौर पर देखने से अधूरी तस्वीर सामने आती है. ख़ासतौर से व्यक्ति-विशेष के शरीर से बाहर के कारकों के बारे में हमारा अध्ययन आधा-अधूरा रह जाता है. इससे रोग के सामाजिक वितरण से जुड़े रुझानों (असमानताओं) से हमारा ध्यान हट जाता है. नतीजतन हमारा जवाब अपर्याप्त और ग़लत दिशाओं वाला हो जाता है. तंग नज़रिए के दबदबे और मानवीय विविधता और सामाजिक विश्लेषण की अनदेखी करने से जुड़े तीन अहम लम्हे हमारे सामने हैं: इनमें चीन में शुरुआती दौर में लगा लॉकडाउन, यूके में इस बीमारी को लेकर शुरुआती दौर में नमूनों का अध्ययन (modelling), और दुनिया के देशों को WHO द्वारा दिया गया “टेस्ट-ट्रेस-आइसोलेट” का मंत्र शामिल हैं.

संक्रमण के शुरुआती दौर में चीनी सरकार ने करोड़ों लोगों की आबादी वाले शहरों में लॉकडाउन लागू कर दिया. ये न सिर्फ़ पैमानों के लिहाज़ से अभूतपूर्व था बल्कि वैज्ञानिक तौर पर भी ये बिलकुल अनजान और बिना किसी प्रमाण वाला क़दम था. ऐतिहासिक रूप से संक्रामक रोगों के प्रकोप से ‘रोकथाम और नियंत्रण’ वाले रुख़ से निपटा जाता रहा है. जो लोग संक्रमण की चपेट में आ चुके हैं या जिनके संक्रमित होने की आशंका रहती है उन्हें बाक़ी लोगों से अलग कर संक्रमण के प्रसार को रोकने की क़वायद होती है. छोटे और स्थानीय प्रकोपों के मामले में इस रुख़ को तत्काल प्रयोग में लाना प्रभावी हो सकता है क्योंकि इसमें कम लोग शामिल होते हैं. प्रकोप के तुरंत बाद वायरस से संक्रमित हो चुके इंसानी शरीरों की तत्काल पहचान कर उन्हें अलग-थलग कर देने से इसके प्रसार पर प्रभावी रूप से रोक लगाई जा सकती है. बहरहाल आबादी, वक़्त और भूगोल के हिसाब से संक्रमण का प्रसार व्यापक होने पर संक्रमण के पीछे की वजह सिर्फ़ हानिकारक विषाणु ही नहीं रह जाता. संक्रमण के फैलाव में मानवीय बर्ताव (सांस्कृतिक, वैधानिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि) ज़बरदस्त प्रभाव डालने लगते हैं. ऐसे में बीमारी के प्रसार और जनसंख्या के वितरण पर संक्रमण के फैलाव को लेकर मानवीय विविधता और सामाजिक शक्तियों (स्थानीय से लेकर वैश्विक) के प्रभावों की पहचान करना ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है. इससे हासिल जानकारियों को रोकथाम से जुड़े उपायों के साथ जोड़ना लाज़िमी होता है. जवाबी प्रतिक्रियाओं में संक्रमण के प्रसार को बढ़ाने वाले जैविक और सामाजिक कारकों के निपटारे की क़वायद को शामिल करना निहायत ज़रूरी है. चूंकि संक्रमण एक से दूसरे व्यक्ति तक फैलता है लिहाज़ा उससे निपटने की कोशिशों में सामाजिक तालमेल की दरकार होती है.

चीन में तेज़ी से फैलते संक्रमण के बीच शहरों में तालाबंदी की नीति अपनाई गई. इस क़वायद से मानवीय विविधता और सामाजिक कारकों की अहमियत को पूरी तरह से ख़ारिज करने का भाव सामने आता है. हक़ीक़त ये है कि यही कारक संक्रमण के दौरान इंसानी बर्तावों पर असर डालते हैं. चीनी अधिकारियों की सोच थी कि छोटे स्तर के प्रकोपों में चंद लोगों पर अपनाई जाने वाली रणनीति, करोड़ों लोगों पर भी लागू की जा सकती है. उन्हें लग रहा था कि इस रणनीति के नतीजे भी वैसे ही होंगे. यही वो मुकाम है जहां जैव-चिकित्सीय नज़रिया चारों खाने चित हो जाता है. मुमकिन है कि क्वारंटीन करने की क़वायदों से कुछ हद तक संक्रमण पर लगाम लगी हो लेकिन इसने संक्रमण को बाहर यानी दूसरे देशों की ओर फैलाने का काम किया. दरअसल क्वारंटीन की क़वायद के चलते सैकड़ों (या शायद हज़ारों) संक्रमित लोग चीन से भाग खड़े हुए.

चीनी अधिकारियों की सोच थी कि छोटे स्तर के प्रकोपों में चंद लोगों पर अपनाई जाने वाली रणनीति, करोड़ों लोगों पर भी लागू की जा सकती है. उन्हें लग रहा था कि इस रणनीति के नतीजे भी वैसे ही होंगे. यही वो मुकाम है जहां जैव-चिकित्सीय नज़रिया चारों खाने चित हो जाता है. मुमकिन है कि क्वारंटीन करने की क़वायदों से कुछ हद तक संक्रमण पर लगाम लगी हो लेकिन इसने संक्रमण को बाहर यानी दूसरे देशों की ओर फैलाने का काम किया. 

दूसरा अहम लम्हा भी 2020 की शुरुआत में ही देखने को मिला. लंदन के इंपीरियल कॉलेज में संक्रामक रोगों के गणितीय नमूने तैयार करने वाले विशेषज्ञों ने यूके और अमेरिका में बड़े पैमाने पर मौतों की भविष्यवाणी कर दी.[viii] वुहान में फैले वायरस और मरीज़ों की शुरुआती जैविक सूचनाओं के आधार पर इन विशेषज्ञों ने यूके और अमेरिका में कोविड-19 से जुड़े महामारी विज्ञान के संभावित रुझान (दख़ल और बग़ैर किसी दख़ल के) हासिल करने की कोशिश की. हालांकि इन विशेषज्ञों का अध्ययन इस धारणा पर आधारित था कि सभी लोगों को संक्रमण का एक समान ख़तरा होगा. दूसरे शब्दों में संक्रमण के जड़ जमाने, गंभीर बीमारी में तब्दील होने और बाद में मौत की वजह बनने का एक समान रुझान होने के अनुमान पर ये अध्ययन किया गया. संक्रमण और मौत को लेकर व्यक्तियों और समूहों की नाज़ुक स्थितियों पर अलग-अलग सामाजिक संदर्भों का प्रभाव पड़ता है. बहरहाल, लंदन में हुई क़वायद में मानवीय विविधता या भेदों से जुड़े कारकों को शामिल नहीं किया गया. चीन में बड़े पैमाने पर शहरों में क्वारंटीन किए जाने की रणनीति को बुनियाद बनाकर किए गए इस अध्ययन में बड़ी तादाद में मौतों (यूके में 5 लाख और अमेरिका में 20 लाख) का पूर्वानुमान लगाया गया. इससे यूके और अमेरिका में भी राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन लगाने की प्रेरणा मिली. इसके बाद दुनिया भर में इसी तरह के फ़ैसले लिए जाने लगे.

इन अध्ययनों से ऐसी तस्वीर सामने आई कि इस बीमारी से किसी की भी जान जा सकती है. राजनेताओं और समाचारों की सुर्ख़ियों में भी यही बात दोहराई जाती रही. संक्रामक रोगों के किसी मंझे हुए, तजुर्बेकार विशेषज्ञ को 2020 की शुरुआत में ही ये पता चल चुका होगा कि कोरोनावायरस सबसे ख़तरनाक विषाणुओं में से नहीं है. यानी ये वो वायरस नहीं है जो संक्रमण की चपेट में आए किसी भी शख़्स की जान ले ले. बड़े-छोटे पैमाने की दूसरी महामारियों के इतिहास और ताज़ा अनुभवों से हमें ये मालूम है कि संक्रामक रोग उन लोगों को प्रभावित करेंगे जिनके पास जैविक और व्यावहारिक तौर पर अपनी हिफ़ाज़त करने की सबसे कम क्षमता होती है.

तीसरा अहम लम्हा वैश्विक स्तर पर आया जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने “टेस्ट-ट्रेस-आइसोलेट” (और बाद में “मदद”) से जुड़े अपने मंत्र का दुनिया के कोने-कोने में रोज़ प्रसारण शुरू कर दिया. इस मंत्र का आधार छोटे प्रकोपों से निपटने में अपनाए जाने वाला ‘रोकथाम और नियंत्रण’ से जुड़ा वही पुराना जाना-माना सिद्धांत था. देशों में शुरुआती दौर में छोटी तादाद में संक्रमित लोगों के घुसने को स्थानीय प्रकोप के तौर पर समझा गया. ये सोच कुछ हद तक सही भी हो सकती है. अधिकारी देशों की सरहदों पर ऐसे लोगों की तुरंत पहचान कर उन्हें अलग-थलग कर सकते थे. यहां एक और शक्तिशाली विचार काम कर रहा था. माना जाता है कि जैविक विज्ञान और प्राकृतिक विज्ञान, सभी इंसानों और सभी स्थानों पर समान रूप से लागू होते हैं. मिसाल के तौर पर दुनिया के किसी हिस्से के लोगों पर किए गए मेडिकल रिसर्च के नतीजों को अक्सर दूसरे हिस्से के लोगों पर लागू किया जाता है. इसी तरह दुनिया के किसी एक हिस्से में भौतिकी के सिद्धांत दूसरे हिस्सों के लिए भी समान होते हैं. चूंकि ‘रोकथाम और नियंत्रण’ से जुड़ा रुख़ वैज्ञानिक सोच पर आधारित है लिहाज़ा ये समझा गया कि इसे दुनिया में कहीं भी इस्तेमाल में लाया जा सकता है.

टेस्ट-ट्रेस-आइसोलेट से जुड़ा मंत्र पर्याप्त नहीं था. संक्रमण के प्रसार से जुड़े ग़ैर-जैविक वाहकों के सिलसिले में एक अहम मसला उठता है. क्या विश्व स्वास्थ्य संगठन व्यक्तिगत स्तर से परे जैव-चिकित्सीय कारकों के सेहत से जुड़े ख़तरों की पहचान कर पाने की क्षमता रखता है या फिर उसे इन ख़तरों की पहचान करने की छूट मिली है. दरअसल, जैविक विविधता और अपना बचाव कर पाने की क्षमता में अंतर की वजह से हरेक देश में कुछ लोग संक्रमण का शिकार बनने को लेकर नाज़ुक अवस्था में रहते हैं.

बहरहाल WHO के मंत्र में एक ख़ास तथ्य को नज़रअंदाज़ या गुल कर दिया गया. दरअसल ये महामारी अपने-आप नहीं आई थी और न ही छोटे राष्ट्रीय इकाइयों में इत्तेफ़ाक़न या इक्का-दुक्का प्रकोप के स्तर पर थी. बड़े पैमाने पर वैश्वीकृत दुनिया में सभी देश एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. देशों के आर-पार सामाजिक संपर्कों और हमारे द्वारा तैयार किए गए संदर्भों की वजह से संक्रमण दुनिया भर में फैल रहा था. उस समय WHO की पूरी क़वायद का ज़ोर देशों के भीतर, व्यक्तियों के स्तर पर सरकारों द्वारा उठाए जा सकने वाले क़दमों पर रखा गया. ऐसे में राष्ट्रों के आर-पार और वैश्विक स्तर पर घटने वाली घटनाओं और कार्रवाइयों की ज़रूरतों पर से सबका ध्यान हट गया. मिसाल के तौर पर वायरस से संक्रमित हज़ारों लोग चीन से प्रमुख हवाई मार्गों के ज़रिए दुनिया भर के शहरों की यात्रा कर रहे थे. आगे चलकर इस संक्रमण के छोटे शहरों और अपेक्षाकृत कम जुड़ावों वाले देशों तक फैलना तय था. आवागमन के इन मार्गों की भूमिका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैधानिक, आर्थिक, राजनीतिक और दूसरे कारकों के अहम उदाहरण हैं. इन्हीं की वजह से दुनिया भर में संक्रमण का प्रसार हो रहा था. ज़ाहिर है WHO के मंत्र में सोच से जुड़ी उसी ग़लती को दोहराया गया कि जो क़वायद चंद लोगों के स्तर पर की जा सकती है उसे लगातार बढ़ते पैमाने पर उन्हीं नतीजों के साथ अमल में लाया जा सकता है.

ज़ाहिर है टेस्ट-ट्रेस-आइसोलेट से जुड़ा मंत्र पर्याप्त नहीं था. संक्रमण के प्रसार से जुड़े ग़ैर-जैविक वाहकों के सिलसिले में एक अहम मसला उठता है. क्या विश्व स्वास्थ्य संगठन व्यक्तिगत स्तर से परे जैव-चिकित्सीय कारकों के सेहत से जुड़े ख़तरों की पहचान कर पाने की क्षमता रखता है या फिर उसे इन ख़तरों की पहचान करने की छूट मिली है. दरअसल, जैविक विविधता और अपना बचाव कर पाने की क्षमता में अंतर की वजह से हरेक देश में कुछ लोग संक्रमण का शिकार बनने को लेकर नाज़ुक अवस्था में रहते हैं. WHO के मंत्र से इस बात को रेखांकित करने में भी कोई मदद नहीं मिली. ज़ाहिर है दुनिया के देशों में संक्रमण का प्रसार करने वाले वैश्विक सामाजिक कारकों के निपटारे में इस मंत्र से कोई कामयाबी नहीं मिली. एक और बात ये है कि इससे व्यक्तियों के स्तर पर जैव-चिकित्सीय तवज्जो से इतर किसी तरह की सोच बनाने में भी कोई मदद नहीं मिल पाई.

चीन में शुरुआती दौर में लगाया गया लॉकडाउन, बीमारी के नमूने स्थापित करने से जुड़ा शुरुआती अध्ययन और WHO के रोकथाम और नियंत्रण वाला मंत्र- इन सभी में वायरसों और व्यक्तिगत इंसानी शरीरों से जुड़े जीवविज्ञान पर ही तंग नज़रिए के साथ तवज्जो दिया गया. दुनिया के सभी देशों में तेज़ी के साथ लॉकडाउन लगाए जाने की क़वायद में इस सोच का बड़ा हाथ रहा. महामारी की शुरुआत में कड़ाई के साथ लगाए गए लॉकडाउन (जैसे चीन में) दरअसल “रोकथाम और नियंत्रण” से जुड़े रुख़ को बड़े पैमाने पर और पूरी आबादी पर अपनाने की क़वायद थी. इस तरह की क़वायद की न तो इससे पहले कोई मिसाल थी और न ही ये वैज्ञानिक रूप से प्रामाणिक थी. ऊपर बताई गई तीन घटनाओं का व्यक्तिगत स्तर पर जैव-चिकित्सीय हस्तक्षेपों (वैक्सीन) और दूसरी वस्तुओं (जैसे टेस्ट, पीपीई, मास्क और मेडिकल इलाजों) पर ज़ोर दिए जाने की नीति के आग़ाज़ में भी हाथ रहा. इसमें कोई शक़ नहीं है कि जैवचिकित्सीय स्तर पर होने वाले इन तमाम हस्तक्षेपों का महामारी से निपटने में बहुत अहम रोल है. हालांकि ये समाधान का एक हिस्सा भर हैं. मानवीय विविधता और संक्रमण के वैश्विक और स्थानीय प्रसार के गूढ़ विश्लेषण और सामाजिक वितरण से जुड़े रुझानों की बेहतर मॉडलिंग से लॉकडाउन से जुड़ी बेहतर नीतियों की जानकारी मिल सकती थी. साथ ही सामाजिक सहयोग की अहमियत पर भी ज़ोर दिया जा सकता था. ख़ासतौर से सरकारों पर सबसे नाज़ुक और कमज़ोर तबक़ों (बुज़ुर्गों, जैविक और मनोवैज्ञानिक रूप से लाचार लोग, सामाजिक रूप से अलग-थलग किए गए समूह आदि) की हिफ़ाज़त करने के लिए और भी ज़्यादा दबाव बनाया जा सकता था. इस क़वायद के अभाव में सरकारी नीतियों का ज़ोर औसत स्वस्थ नागरिकों के बचाव पर ही बना रहा.

इसे दूसरे तरीक़े से समझते हैं- मान लीजिए शुरुआती दौर में संक्रमण से प्रभावित कुछ देशों को ये पता चल जाता कि संक्रमण से ज़्यादतर बुज़ुर्ग लोगों (और जैविक और सामाजिक रूप से नाज़ुक तबके के लोगों) की मौत होगी तो क्या वो लॉकडाउन लगाते या उस तरीक़े से उसपर अमल करते जैसा उन्होंने किया? रोकथाम और नियंत्रण से जुड़े रुख़ के पीछे व्यक्तिगत स्तर की जैव-चिकित्सीय दलील को समूची आबादी पर अमल में नहीं लाया जा सकता. इससे हमें सामाजिक वितरण के रुझानों या उन रुझानों के पीछे की वजहों के बारे में भी कोई जानकारी नहीं मिल पाती.

बीमारियों का इलाज बनाम वजहों का निपटारा

आज की तारीख़ में वैक्सीन से जुड़ी असमानता और महामारी से मौतों का सिलसिला लगातार जारी है. ये महज़ दवा उद्योग की लालच, विश्व व्यापार संगठन जैसे संयुक्त राष्ट्र से जुड़े निकायों की नाकामी या मदमस्त हो चुके पूंजीवाद का ही नतीजा नहीं है. संक्रमण के निपटने के आदर्श समाधान के तौर पर जैव-स्वास्थ्य से जुड़े हस्तक्षेप (मतलब वैक्सीन) को लेकर दुनिया की दीवानगी ने कुछ राष्ट्रीय नेताओं को वैक्सीन के विकास और उनके जुगाड़ को एक प्रतिस्पर्धा की तरह देखने के लिए प्रेरित किया. साफ़ तौर से ट्रंप और उनके प्रशासन ने तो महामारी से पहले ही ये स्थापित कर दिया था कि अमेरिका के राष्ट्रीय हित बाक़ी तमाम मसलों से ऊपर हैं. इसी तरह 2020 के शुरुआती दिनों में अमेरिका के सबसे क़रीबी साथियों की ओर भी ट्रंप के बर्ताव से इस बात को लेकर गंभीर आशंकाएं पैदा हो गईं कि अमेरिका कोविड-19 से निपटने को लेकर किसी भी तरह की जानकारी या असल टीके को उनसे साझा करेगा भी नहीं. दरअसल अमेरिका ने मास्क, वेंटिलेटर्स और पीपीई की वैश्विक आपूर्ति केवल अपने लिए सुरक्षित करने की ज़िद ठान ली थी. ऐसे में यूके के सामने एक विकट समस्या खड़ी हो गई. वो न तो इन सामानों के लिए अमेरिका के ही आसरे रह सकता था और न ही उस यूरोपीय संघ पर निर्भर हो सकता था जिससे वो लड़-झगड़ कर बाहर निकला था. लिहाज़ा जैव-चिकित्सा के तंग नज़रिेए (जिसमें व्यक्तिगत स्तर पर जैव-चिकित्सीय हस्तक्षेप के उपाय किए जाते हैं) और जी7 के देशों के बीच भी गलाकाट प्रतिस्पर्धा और अविश्वास के मिले-जुले स्वरूप के चलते वैक्सीन के विकास और आंतरिक स्तर पर विनिर्माण की होड़ पैदा हो गई. वैक्सीन के विकास और भिन्न-भिन्न प्रकार के टीकों की ख़रीद पर सार्वजनिक कोष से अरबों डॉलर, पाउंड्स और जर्मन यूरो ख़र्च कर दिए गए. निश्चित रूप से काफ़ी कम समय में प्रभावी टीके की खोज एक विशाल और हैरान कर देने वाली उपलब्धि है. बहरहाल, इसके पीछे का जैव-चिकित्सीय नज़रिया ज़रूरतमंदों के लिए जैव-स्वास्थ्य समाधान तक पहुंच सुनिश्चित कराने को लेकर पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं कराता.

आज की तारीख़ में वैक्सीन से जुड़ी असमानता और महामारी से मौतों का सिलसिला लगातार जारी है. ये महज़ दवा उद्योग की लालच, विश्व व्यापार संगठन जैसे संयुक्त राष्ट्र से जुड़े निकायों की नाकामी या मदमस्त हो चुके पूंजीवाद का ही नतीजा नहीं है. संक्रमण के निपटने के आदर्श समाधान के तौर पर जैव-स्वास्थ्य से जुड़े हस्तक्षेप (मतलब वैक्सीन) को लेकर दुनिया की दीवानगी ने कुछ राष्ट्रीय नेताओं को वैक्सीन के विकास और उनके जुगाड़ को एक प्रतिस्पर्धा की तरह देखने के लिए प्रेरित किया

मौजूदा हालातों के बावजूद इस बात के विश्वसनीय संकेत ना के बराबर हैं कि जो लोग विश्व को अगली महामारी के लिए तैयार करना चाहते हैं वो अब भी जैवस्वास्थ्य के नज़रिए से जुड़े उसी जाल में क़ैद नहीं हैं. मिसाल के तौर पर कोएलिशन फ़ॉर एपिडेमिक प्रीपेयर्डनेस इनोवेशंस ने हाल ही में विभिन्न सरकारों और दानदाताओं से 1.5 अरब अमेरिकी डॉलर की रकम इकट्ठा की है. इसका उद्देश्य ये सुनिश्चित करना है कि अगली महामारी या संक्रामक बीमारियों के प्रकोप के 100 दिनों के भीतर उनके पास सुरक्षित और प्रभावी वैक्सीन उपलब्ध हो जाएं.[ix] भले ही ये टीके कितने भी अहम क्यों न हों, लेकिन इस क़वायद के ज़रिए अगली महामारी के मूल कारणों का निपटारा करने की कोशिश तक नहीं हो रही है. इसके तहत सिर्फ़ अगली महामारी या स्थानीय स्तर पर फैलने वाले संक्रामक रोगों के लिए महज़ जैवचिकित्सीय समाधान प्रस्तुत करने का लक्ष्य है. साफ़ तौर से इस स्वरूप के तहत तैयारी समस्या का आंशिक हल ही पेश करती है.

वुहान में एक नए वायरस का उभार और आगे चलकर उसका प्रकोप कोई क़ुदरती, आकस्मिक या विशुद्ध जैविक घटना नहीं थी. इस वायरस की उत्पत्ति के पीछे की वजह नीतिगत स्तर पर अपनाए गए तमाम विकल्प और इंसान और जानवरों के मेलजोल वाली जगहों (“wet markets”) को लेकर की जा रही तमाम तरह की अनदेखियां थीं. दूसरी ओर संक्रमण का प्रसार उस सामाजिक संदर्भ में हुआ जहां सूचनाओं के मुक्त प्रवाह (ख़ासतौर से सरकारी एजेंसियों के दायरों में नुक़सानों से जुड़ी) को जबरन दबाया जाता है. संक्रमण के व्यापक रूप से फैल जाने के बाद जवाबी तौर पर इसकी रोकथाम को लेकर संघीय सरकार का रुख़ ताक़त के ज़ोर पर करोड़ों लोगों को अलग-थलग करने से जुड़ा था. इससे ये संक्रमण दूसरे देशों तक फैल गया. प्रमुख अंतरराष्ट्रीय उड़ान मार्गों के ज़रिए ये वायरस दुनिया के बड़े महानगरों तक पहुंच गया. यहां से वो तमाम छोटे शहरों और छोटे-छोटे देशों के प्रमुख शहरों तक पहुंच गया.

वुहान में एक नए वायरस का उभार और आगे चलकर उसका प्रकोप कोई क़ुदरती, आकस्मिक या विशुद्ध जैविक घटना नहीं थी. इस वायरस की उत्पत्ति के पीछे की वजह नीतिगत स्तर पर अपनाए गए तमाम विकल्प और इंसान और जानवरों के मेलजोल वाली जगहों को लेकर की जा रही तमाम तरह की अनदेखियां थीं. दूसरी ओर संक्रमण का प्रसार उस सामाजिक संदर्भ में हुआ जहां सूचनाओं के मुक्त प्रवाह को जबरन दबाया जाता है.

देशों के भीतर, ख़ासतौर से शुरुआती दौर में प्रभावित अमेरिका, यूके और इटली जैसे बड़े देशों में प्रशासन की गुणवत्ता, सार्वजनिक वित्त, सार्वजनिक संस्थाओं के कामकाज और संघीय ढांचों का संक्रमण के प्रसार पर भारी असर पड़ा. जवाबी नीतियां भी इनसे अछूती नहीं रहीं. आगे चलकर बुज़ुर्गों और शारीरिक रूप से कमज़ोर लोगों और समाज में हाशिए पर पड़े तबकों के व्यक्तियों की मौत की घटनाएं सामने आने लगीं. इन मौतों को तभी ग़ैर-आनुपातिक बताया जा सकता है जब हमें ये मालूम न हो कि संक्रामक बीमारियां समाज को कैसे प्रभावित करती हैं. दरअसल संक्रामक रोग व्यक्तिगत जैविक विविधता और ख़ुद के शरीर और बर्तावों पर नियंत्रण पाने की क्षमताओं में समाज द्वारा उत्पन्न भेदों के हिसाब से फैलते हैं. जैविक रूप से अधिक नाज़ुक और ज़्यादा से ज़्यादा सामाजिक कारकों की वजह से अपना बचाव कर पाने की क्षमता में जितनी अधिक रुकावटें आएंगी, किसी व्यक्ति के संक्रमित होने और पीड़ित होने का जोख़िम भी उतना ही ज़्यादा होगा. अगली संक्रामक लहर या महामारी की रोकथाम के लिए इन जैविक कमज़ोरियों में सुधार की दरकार है. उन सामाजिक वातावरणों को बदलने की ज़रूरत है जो लोगों को अपना बचाव कर पाने की क्षमता हासिल करने से रोकते हैं. इसके साथ ही देशों के बीच संक्रमण का प्रसार करने वाले बर्तावों के जैविक-सामाजिक वाहकों का भी निपटारा करना आवश्यक है. इसके लिए जैव-चिकित्सीय हस्तक्षेपों (मसलन स्वास्थ्य सेवाओं तक व्यापक पहुंच) के साथ-साथ स्वास्थ्य पर प्रभाव डालने वाले अहम सामाजिक कारकों (जैसे स्थानीय से वैश्विक स्तर पर सुशासन) पर भी ध्यान देना होगा. सौ बात की एक बात ये है कि राष्ट्रीय सरकारों और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में चिंता के एक प्रमुख कारक के रूप में स्वास्थ्य का दर्जा ऊपर उठाना होगा. शायद आज दुनिया को इसी क़वायद की सबसे ज़्यादा दरकार है.


[i] “The pandemic’s true death toll,” The Economist, March 12, 2022.

[ii] China locks down city of 9 million amid new spike in cases, AP News, March 11, 2022.

[iii] Bruce Y. Lee, “New Covid-19 Coronavirus Wave In Europe May Have Already Begun, Data Suggests, Forbes, March 12, 2022.

[iv] Dani Rodrik, “Globalisation after Covid-19: my plan for a rewired planet, Prospect, May 4, 2020.

[v] Mikhail Gorbachev, “Mikhail Gorbachev: When the Pandemic is Over, the World Must Come Together, Time, April 15, 2020.

[vi] Madeleine Albright, “Madeleine Albright on authoritarianism and the fight against the virus, The Economist, May 18, 2020.

[vii] Henry A. Kissinger, “The Coronavirus Pandemic Will Forever Alter the World Order, The Wall Street Journal, April 3, 2020.

[viii] David Adam, “Special report: The simulations driving the world’s response to COVID-19,” Nature, Vol 580, Issue 7803 (Nature Publishing Group, 2020), 316-318, doi:10.1038/d41586-020-01003-6.

[ix] CEPI, “Global community comes together in support of 100 Days Mission and pledges over $1.5 billion for CEPI’s pandemic busting plan,” CEPI.

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