Author : Sushant Sareen

Expert Speak Raisina Debates
Published on Apr 01, 2025 Updated 0 Hours ago

जैसे जैसे पाकिस्तान की फ़ौज अपनी दमनकारी कार्रवाई और सख़्त करती जा रही है, वैसे वैसे बलोचिस्तान का संकट बढ़ता जा रहा है. पाकिस्तानी फ़ौज अधिकार कार्यकर्ताओं को दबाने में जुटी है और सियासी समाधान के बजाय बर्बर ताक़त को तरज़ीह दे रही है.

‘पाकिस्तान की ‘सख़्त रियासत’ वाली रणनीति: समाधान के बजाय दमन पर ज़ोर’

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पाकिस्तान के मानव अधिकार कार्यकर्ता आई. ए. रहमान ने इस लेखक से कहा था: भारत अपने यहां उग्रवाद की समस्या का समाधान राजनीति से करता है; पाकिस्तान अपने सियासी मसलों को हल करने के लिए फ़ौज का इस्तेमाल करता है. 1971 में पाकिस्तान के सैन्य तंत्र को इस बात का यक़ीन था कि पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) को राजनीतिक रियायतें देने के बजाय, उसके मसलों का एक ही हल था कि बंगालियों की आकांक्षों का फौजी नरसंहार वाली नीतियों से दमन किया जाए. आधी सदी से भी ज़्यादा वक़्त गुज़र जाने के बावजूद, आज भी पाकिस्तानी फ़ौज की रणनीति में कोई ख़ास तब्दीली देखने को नहीं मिल रही है. उस वक़्त, फ़ौज कहा करती थी कि, ’20 हज़ार बंगालियों को मार दो और सब कुछ ठीक हो जाएगा’. आज, बलोचों के प्रतिरोध से निपटने के लिए भी ज़ोर फ़ौजी ताक़त के इस्तेमाल पर ही है. पाकिस्तानी फ़ौज के समर्थन से बलोचिस्तान सूबे के मुख्यमंत्री पद पर बैठे, सरफ़राज़ बुगती का कहना है कि, ‘अब वक़्त आ गया है कि किसी भी तरह की ग़फ़लत को परे धकेलकर आतंकवाद के संपूर्ण नाश का अभियान छेड़ा जाए.’ सरफ़राज़ बुगती ने ऐसे हुक्म जारी किए हैं, जिनको लागू किया जाता है, तो बलोचिस्तान पूरी तरह से पुलिस राज्य में परिवर्तित हो जाएगा.

 जनरल मुनीर का मानना है कि पाकिस्तान के मसलों का हल, ‘हार्ड स्टेट’ या सख़्त रियासत बनने में है, ताकि प्रशासन की कमियों को ‘फ़ौज के ख़ून से’ दूर किया जा सके. हालांकि, जनरल मुनीर की नज़र में ये कड़वी सच्चाई नहीं आई कि बलोचिस्तान में कुशासन के पीछे तो पाकिस्तानी फ़ौज का ही हाथ रहा है.

जब से बलोचिस्तान लिबरेशन आर्मी (BLA) के गुरिल्ला लड़ाकों ने दुस्साहस दिखाते हुए जाफ़र एक्सप्रेस को अगवा किया था, तब से ही बलोचिस्तान के राजनीतिक कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ दमनकारी अभियान शुरू किए जाने के अंदेशे जताए जा रहे थे. पाकिस्तानी फ़ौज के प्रवक्ता ने एलान किया था कि, ट्रेन को अगवा किए जाने के बाद से ‘खेल के नियम बदल गए हैं’. वैसे पाकिस्तान के सुरक्षा बलों ने बलोचिस्तान में कभी भी नियमों के हिसाब से काम नहीं किया. बल्कि उन्होंने तो हमेशा ही बड़ी ख़ुशी ख़ुशी और खुलेआम हर नियम क़ानून की धज्जियां उड़ाईं. वहीं, पाकिस्तानी मीडिया ने बड़ी आसानी से बलोचिस्तान के आम नागरिकों को संविधान से मिले अधिकारों की अनदेखी कर दी. बलोचिस्तान में चल रही उठा-पटक का पंजाबियों के दबदबे वाली पाकिस्तानी फ़ौज हमेशा से एक समाधान देखती आई है कि बेरोक-टोक ज़ुल्म ढाए जाएं. ये बात उस वक़्त साफ़ हो गई जब राष्ट्रीय सुरक्षा पर पाकिस्तान की संसदीय समिति की बैठक हुई. पाकिस्तानी सेना के आला अधिकारियों ने भी समिति के सदस्यों को पूरे हालात की जानकारी दी.

 

ख़बरों के मुताबिक़, इस बैठक में पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल आसिम मुनीर ने संदिग्धों को अगवा करने/ गिरफ़्तार करने के मामले में ख़ुफ़िया एजेंसियों को पूरी क़ानूनी छूट मांगी. ये अधिकार सुरक्षा बलों को एक्शन इन एड ऑफ सिविल पावर के तहत दिए जाने वाली भयानक रियायतें हैं, जिनके अंतर्गत (संभवत: किसी संदिग्ध को बिना किसी आरोप और क़ानूनी रास्ता अपनाए हुए अनिश्चित समय के लिए ‘हिरासत’ में रखा जाता है). इसके अलावा, जनरल आसिम मुनीर ने सरकार से मांग की कि वो सैन्य अदालतों को आतंकवाद से जुड़े मामलों में खुली छूट दे. दूसरे शब्दों में कहें तो पाकिस्तानी फ़ौज ऐसी ग़ैरक़ानूनी कार्रवाइयों के लिए, क़ानूनी सुरक्षा कवच की मांग कर रही थी, जिसका फ़ायदा तो वो पहले से ही उठा रही थी. जनरल मुनीर का मानना है कि पाकिस्तान के मसलों का हल, ‘हार्ड स्टेट’ या सख़्त रियासत बनने में है, ताकि प्रशासन की कमियों को ‘फ़ौज के ख़ून से’ दूर किया जा सके. हालांकि, जनरल मुनीर की नज़र में ये कड़वी सच्चाई नहीं आई कि बलोचिस्तान में कुशासन के पीछे तो पाकिस्तानी फ़ौज का ही हाथ रहा है. जनरल मुनीर और उनके साथियों को ख़ुश करने के लिए सियासी नेताओं ने फ़ौरन ही, पाकिस्तान को हार्ड स्टेट बनाने के लिए ‘हार्डेन दि स्टेट’ कमेटी का गठन कर दिया.

 

ज़ुल्म-ओ-सितम की कार्यनीति

ये बिल्कुल साफ़ था कि पाकिस्तानी फ़ौज, जो सबको पता है कि असली सत्ताधारी ताक़त है, उसकी नज़र में राजनीतिक रास्ता अपनाने या फिर आतंकवादियों के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई के साथ साथ नाख़ुश और नाराज़ बलोचों के वास्तविक प्रतिनिधियों के साथ राजनीतिक संवाद का कोई मतलब नहीं बनता है. पाकिस्तानी फ़ौज की नज़र में हर समस्या एक कील है, और उसका हल हथौड़े से उसे ठोककर ही निकाला जा सकता है. चूंकि, आम राजनेता जनरलों की कही हर बात पर मुहर लगाने को बेक़रार रहते हैं. ऐसे में बलोचिस्तान को लेकर पाकिस्तान में किसी नई सोच के पनपने की कोई उम्मीद नहीं है. हमेशा एक ही विकल्प रहता है कि ताक़त का इस्तेमाल करके, ज़ुल्म-ओ-सितम की रणनीति अपनाकर, ज़िद्दी बलोचों को अपनी बात मानने के लिए मजबूर किया जाए.

 बलोचिस्तान की आम जनता ने सूबे की बेहद अलोकप्रिय हुकूमत की बर्बर नीतियों के आगे झुकने से इनकार कर दिया और, माहरंग बलोच की गिरफ़्तारी के विरोध में बलोचिस्तान के बलोच बहुल इलाक़ों में ज़बरदस्त विरोध प्रदर्शन होने लगे.

ऐसे में इस बात पर कोई हैरानी नहीं हुई, जब ये दिखाने के लिए कि पाकिस्तान एक ‘हार्ड स्टेट’ बनने जा रहा है, पाकिस्तानी फ़ौज ने मशहूर बलोच राजनीतिक कार्यकर्ता माहरंग बलोच और बलोच यकजहती कमेटी (BYC) के दूसरे साथियों को गिरफ़्तार कर लिया और उनके ऊपर क़त्ल, आतंकवाद और देशद्रोह के मुक़दमे लाद दिए. BYC के कार्यकर्ता, अज्ञात क़ब्रों में बड़े पैमाने पर अनजान लाशों को दफ़्न करने के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे थे और वो मांग कर रहे थे कि पाकिस्तानी फ़ौज उन आतंकवादियों की लाशें उनके हवाले करे, जिनके बारे में फ़ौज ये दावा कर रही थी कि उन्हें अगवा जाफर एक्सप्रेस को छुड़ाने के अभियान के दौरान मार गिराया गया था. बलोच यकजहती कमेटी के मुताबिक़, पाकिस्तानी सेना ने अपनी अवैध कस्टडी वाले उन लोगों बड़ी बेरहमी से मार डाला था, जिन्हें ‘लापता’ क़रार दिया गया था. इसके बाद फ़ौज ने उन्हीं लाशों को दिखाकर ये दावा कर दिया था कि वो अगवा ट्रेन छुड़ाने के दौरान मारे गए थे.

 

बलोचिस्तान की आम जनता ने सूबे की बेहद अलोकप्रिय हुकूमत की बर्बर नीतियों के आगे झुकने से इनकार कर दिया और, माहरंग बलोच की गिरफ़्तारी के विरोध में बलोचिस्तान के बलोच बहुल इलाक़ों में ज़बरदस्त विरोध प्रदर्शन होने लगे. बलोच जनता की नाराज़गी तब और बढ़ गई, जब कराची में पुलिस ने बलोच यकजहती कमेटी के ऊपर ज़ुल्म ढाए और इस सितम की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हो गईं. बलोचिस्तान के पूर्व मुख्यमंत्री अख़्तर मेंगल जैसे सम्मानित बलोच नेताओं ने महिला कार्यकर्ताओं के साथ हुई बदसलूकी के ख़िलाफ़ लॉन्ग मार्च निकालने का एलान कर दिया. अख़्तर मेंगल ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी और उनके बेटे बिलावल ज़रदारी को चेतावनी भी दी कि बलोच महिलाओं का ये अपमान कभी भी नहीं भुलाया जाएगा.

 ऐसे में हैरानी की बात नहीं है कि पाकिस्तानी फौज के जनरल और राजनेताओं को लगता है कि इन बलोच कार्यकर्ताओं को उनकी औक़ात बताने का समय आ गया है. चूंकि, इन चर्चित कार्यकर्ताओं को न तो मारा जा सकता है और न ही अगवा किया जा सकता है.

वहीं, लाहौर और इस्लामाबाद में पंजाबियों के दबदबे वाले मीडिया ने या तो बलोच विरोध प्रदर्शन की पूरी तरह से अनदेखी कर दी, या फिर इन विरोध प्रदर्शनों को लेकर तमाम तरह के झूठ का प्रचार किया. बलोच कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ दुश्मनों जैसा भाव दिखाते हुए उनके बारे में तमाम तरह के दुष्प्रचार भी किए गए. मिसाल के तौर पर एक्सप्रेस ट्रिब्यून अख़बार की एक भ्रामक हेडलाइन थी कि, ‘बलोच लिबरेशन आर्मी के मोहरों ने ट्रेन पर हमले का लाभ उठाया’. पाकिस्तानी फौज के मोहरे या फिर नज़दीकी सहयोगी माने जाने वाले सोशल मीडिया हैंडलों ने बलोच यकजहती कमेटी के नेताओं के ख़िलाफ़ झूठे इल्ज़ाम लगाकर बदनाम करने का अभियान चलाना शुरू कर दिया और उन्हें BLA के राजनीतिक मोहरों के तौर पर पेश करने लगे. कइयों ने तो बलोच नेताओं पर ये इल्ज़ाम तक लगा दिया कि वो भारत के इशारे पर चलते हैं और दूसरी विदेशी ताक़तों से पैसे लेकर पाकिस्तान के ख़िलाफ़ काम करते हैं. मुख्यधारा के लगातार अप्रासंगिक होते जा रहे नेताओं जैसे कि बेहद लोकप्रिय ‘फ्रंटियर गांधी’ ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान के पड़पोते ऐमल वली को आगे करके, बलोच यकजह कमेटी या फिर पश्तून तहाफ़ुज़ मूवमेंट (PTM) जैसे जनता के आंदोलनों को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है. हालांकि, ज़मीनी स्तर पर इसका बिल्कुल भी असर नहीं हो रहा है. इनमें से कोई भी दांव नया नहीं है; नया बस ये है कि बदनाम करने के इन अभियानों का अब बलोचिस्तान पर कोई असर नहीं हो रहा है. इसके उलट, पाकिस्तानी फौज की ट्रोल ब्रिगेड ने अपनी हरकतों से आम बलोच जनता को और भी नाराज़ कर दिया है.

 

मिसाल कायम करने की ख़ब्त

पाकिस्तानी सेना की योजना न केवल, बलोच उग्रवादियों पर सख़्ती करने की है, बल्कि उसका इरादा डॉक्टर माहरंग बलोच और BYC जैसे संगठनों के दमन का भी है. उसकी ये नीयत इस हक़ीक़त के बावजूद है कि बलोच यकजहती कमेटी के सदस्यों ने हमेशा शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन किए हैं. कभी भी हिंसा की वकालत नहीं की और न ही कभी भी खुलकर अलगाववाद का समर्थन किया है. इसके बजाय यकजहती कमेटी के लोग, पाकिस्तान के संविधान की सीमाओं के दायरे में रहते हुए अपने क़ानूनी, संवैधानिक और मानव अधिकारों की मांग कर रहे हैं. जबकि ख़ुद पाकिस्तानी फ़ौज संविधान की धज्जियां उड़ाती रही है और उसका दुरुपयोग करती रही है. लेकिन, अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाना भी पाकिस्तानी फ़ौज की नज़र में जुर्म है. फ़ौज चाहती है कि उसके हाई स्कूल पास जनरल जो भी फ़ैसला करें, उसके पाकिस्तान की जनता मुल्क की बेहतरी का क़दम मानते हुए बस सिर झुकाकर स्वीकार कर ले. कोई आवाज़ न उठाए. पाकिस्तानी सेना का परेड ग्राउंड या फौजी अधिकारियों की ट्रेनिंग वाला ये नुस्खा, उस जटिल और अराजक राजनीतिक दुनिया में चलने लायक़ नहीं है, जहां करोड़ों लोग एक दूसरे से टकराने वाली मांगें कर रहे हैं. लेकिन, ये सीधी सी बात भी पाकिस्तानी जनरलों की समझ में नहीं आ रही है.

 शायद अब समय आ गया है कि बलोचिस्तान में जो कुछ चल रहा है उस पर मानव अधिकार संगठन और अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठन बारीक़ी से नज़र डालें.

अभी तो पाकिस्तानी सेना ने फ़ैसला किया है कि वो डॉक्टर माहरंग बलोच जैसी कार्यकर्ताओं से ऐसा सुलूक करेगी, जो सबके लिए मिसाल बन जाए. वो शायद अब वैसा भी न करें, जैसा 2009 में उन्होंने बलोच नेशनल मूवमेंट (BNM) के तीन नेताओं के साथ किया था, जब उन्हें उनके वकील के दफ़्तर से दिनदहाड़े अगवा कर लिया गया था और कुछ दिनों बाद गोलियों से छलनी उनकी लाशें जंगल में पड़ी मिली थीं. अंतरराष्ट्रीय मीडिया में कवरेज की वजह से माहरंग और कुछ दूसरे बलोच नेता बहुत चर्चित हो चुके हैं. माहरंग की गिरफ़्तारी के बाद, पाकिस्तान के दूसरे अधिकार कार्यकर्ता उनके समर्थन में आगे आए हैं, और माहरंग की गिरफ्तारी की मांग कर रहे हैं. ऐसे में हैरानी की बात नहीं है कि पाकिस्तानी फौज के जनरल और राजनेताओं को लगता है कि इन बलोच कार्यकर्ताओं को उनकी औक़ात बताने का समय आ गया है. चूंकि, इन चर्चित कार्यकर्ताओं को न तो मारा जा सकता है और न ही अगवा किया जा सकता है. इसलिए अब उनके ऊपर संसद द्वारा बनाए गए बेहद कड़े क़ानूनों के तहत मुक़दमे दर्ज किए जा रहे हैं. जबकि ये क़ानून पारित करने वाले सांसद ख़ुद भी अगर पूरी तरह से फ़र्ज़ी नहीं, तो काफ़ी संशय वाले जनादेश के तहत चुनाव जीतकर आए हैं.

 

पाकिस्तानी सेना को लगता है कि मुल्क के भीतर उस पर लगाम लगाने वाला कोई है नहीं. उसके पंजों से बचाव के लिए लोगों के पास न तो कोई क़ानूनी सुरक्षा कवच है, न इंसाफ़ करने वाली न्यायिक व्यवस्था है, न कोई संवैधानिक बाधा है, और न ही उनके असंवैधानिक क़दमों को चुनौती देने के लिए मीडिया और राजनीतिक दलों की तरफ़ से विरोध के सुर उठने हैं. सोशल मीडिया पर उठ रही आवाज़ों को एक्स (पहले ट्विटर) जैसे प्लेटफॉर्म को इकतरफ़ा तरीक़े से बंद करके या फिर पत्रकारों पर हुकूमत के ख़िलाफ़ काम करने का केस दायर करके दबाया जा रहा है. पाकिस्तानी फ़ौज को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पूरी छूट हासिल है, यूरोपीय संघ (EU) अपनी ही समस्याओं से जूझ रहा है. वैसे भी EU ने पाकिस्तानी सेना को कभी भी आम नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन करने से रोकने के लिए कोई ख़ास क़दम नहीं उठाए. यूरोप के नेता नैतिकता वाले बयान तो देते हैं, पर कुछ और नहीं करते. पाकिस्तानियों को बख़ूबी पता है कि यूरोपीय संघ (EU) की अनदेखी करने से उसको कोई नुक़सान नहीं होगा. 



अमेरिका की नई सरकार अपने आप में इस क़दर उलझी और लेन-देन पर ज़ोर देने वाली है कि उसको हज़ारों किलोमीटर दूर पाकिस्तान में बलोचों या फिर दूसरे जातीय या धार्मिक अल्पसंख्यकों के मानव अधिकारों के भयंकर उल्लंघन से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है. रूसी, चीनी और अरब सरकारों के इस मुद्दे पर बोलने की कोई संभावना नहीं दिखती है. बल्कि, चीन तो पाकिस्तानी फौज को उकसावा ही देगा कि वो बलोचों के ऊपर दमन का ऐसा कोड़ा चलाए कि वो ख़ामोश होकर बैठ जाएं. ऐसे में पाकिस्तानी फौज पर लगाम लगाने का कोई ज़रिया नहीं नज़र आता है.

 

समस्या बस एक ही है कि पाकिस्तान पिछले 80 साल से बलोचिस्तान में ऐसा ही करता आया है और ये नुस्खा अब तक कारगर नहीं साबित हुआ है. शायद अब समय आ गया है कि बलोचिस्तान में जो कुछ चल रहा है उस पर मानव अधिकार संगठन और अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठन बारीक़ी से नज़र डालें. उन्हें शायद ये पता चल जाए कि बलोचिस्तान, सामरिक रूप से दुनिया के सबसे अहम इलाक़ों में से एक है. वो न सिर्फ़ अपनी भौगोलिक स्थिति के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है, बल्कि वहां खनिजों के विशाल भंडार भी हैं. ये ऐसी चीज़ है जिसमें शायद अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति की भी दिलचस्पी हो. बलोच जनता मज़हबी उन्मादी नहीं हैं. बल्कि, वो प्रगतिशील और सेक्युलर मुसलमान हैं. ऐसे में उनमें दिलचस्पी लेने का तर्क और भी मज़बूत हो जाता है.

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Sushant Sareen

Sushant Sareen

Sushant Sareen is Senior Fellow at Observer Research Foundation. His published works include: Balochistan: Forgotten War, Forsaken People (Monograph, 2017) Corridor Calculus: China-Pakistan Economic Corridor & China’s comprador   ...

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