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अमेरिका पाकिस्तान के साथ खेल करने में नाकाम रहा लेकिन पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ खेल कर दिया.
अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान के संकट का निष्कर्ष आयरलैंड के मशहूर कवि ऑस्कर वाइल्ड की नामी कहावत से निकाला जा सकता है: “इस दुनिया में सिर्फ़ दो त्रासदी हैं. पहली त्रासदी है किसी को उसकी पसंद के मुताबिक़ कुछ नहीं मिलना और दूसरी त्रासदी है पसंद के मुताबिक़ मिल जाना. दूसरी त्रासदी सबसे ख़राब है, ये असली त्रासदी है.” पिछले 20 वर्षों के दौरान पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का राज लाने की हर मुमकिन कोशिश की है. अब जब पाकिस्तान की चाहत क़रीब-क़रीब पूरी होने जा रही है तो ये शक ज़ाहिर किया जा रहा है कि क्या पूरी तरह तालिबान की जीत न सिर्फ़ अफ़ग़ानिस्तान बल्कि पाकिस्तान के लिए भी आफ़त या एक वास्तविक त्रासदी में तब्दील नहीं हो जाएगी. ये भी कहा जा रहा है कि शायद तालिबान की जीत इस इलाक़े के बाक़ी देशों यहां तक कि पूरी दुनिया के लिए भी त्रासदी बन जाएगी. बेशक पाकिस्तान इस बात से इनकार करता है कि वो अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर तालिबान का एकाधिकार चाहता है. लेकिन क्या पाकिस्तान का इनकार भरोसेमंद है? आख़िर पिछले 20 वर्षों से पाकिस्तान इस बात से भी तो इनकार कर रहा है कि वो तालिबान का समर्थन नहीं करता, तालिबान का प्रायोजक नहीं है, तालिबान को पनाह नहीं देता, यहां तक कि तालिबान के अभियान की देखरेख नहीं करता या उसमें शामिल नहीं होता. इसलिए पाकिस्तान के ताज़ा इनकार को कोई क्यों गंभीरता से ले, ख़ास तौर पर तब जब पाकिस्तान की दलीलें इस इनकार के ख़िलाफ़ हों?
9/11 के बाद अमेरिका की अगुवाई में अफ़ग़ानिस्तान में सैन्य अभियान और ख़ास तौर पर 2004-05 में तालिबान के फिर से मज़बूत होने के बाद से पाकिस्तान की हुकूमत और वहां की सेना- दोनों ने चालाकी दिखाते हुए इस बात की वक़ालत की कि अफ़ग़ानिस्तान की समस्या का कोई सैन्य समाधान नहीं हो सकता. लेकिन तब भी पाकिस्तान की सेना ने तालिबान के ज़रिए अफ़ग़ानिस्तान में सैन्य समाधान थोपने में काफ़ी मेहनत की है. ऐसा नहीं है कि अमेरिका या उसके पश्चिमी सहयोगियों को पाकिस्तान की दोहरी चाल या दोहरी भाषा की जानकारी नहीं है. लेकिन कुछ गुप्त कारणों से दुनिया की सबसे मज़बूत सैन्य और आर्थिक शक्ति वाला देश पाकिस्तान से सिर्फ़ इस बात की गुहार लगाता रहा कि उसे ‘कुछ और’ करना चाहिए. आधे-अधूरे मन, आधी-अधूरी योजना और आधे-अधूरे उपायों से पाकिस्तान को तालिबान का समर्थन रोकने के लिए मजबूर किया गया. लेकिन इन आधी कोशिशों पर भी वास्तव में अमल नहीं किया गया.
अमेरिका पाकिस्तान के साथ खेल करने में नाकाम रहा लेकिन पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ खेल कर दिया.
स्पष्ट रूप से लगता है कि पाकिस्तान को अमेरिका के बारे में अमेरिकियों से ज़्यादा समझ थी. अमेरिका पाकिस्तान के साथ खेल करने में नाकाम रहा लेकिन पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ खेल कर दिया. इसका नतीजा हमारे सामने है. अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की हार हुई- इस वास्तविकता को छिपाया नहीं जा सकता- और अब वो बाहर जा रहा है. अब एक बार फिर पाकिस्तान अमेरिका के साथ खेल करने की कोशिश कर रहा है, इस बार मक़सद ये है कि अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान छोड़ने से पहले जो हासिल करना है, कर ले. अफ़ग़ानिस्तान की पुरानी कहावत- अगर आप आए हैं तो अपने साथ क्या लाए हैं? अगर आप जा रहे हैं तो अपने पीछे क्या छोड़कर जा रहे हैं?- एक बार फिर सही साबित हो रही है. लेकिन इस बार पाकिस्तान इसका फ़ायदा उठाने की कोशिश करेगा. इसके लिए वो पीड़ित बनेगा और इसके साथ-साथ अमेरिका से आर्थिक, सैन्य और राजनीतिक सौदेबाज़ी करेगा.
पाकिस्तान के नज़रिए से देखेंगे तो ये साफ़ है कि तालिबान के पक्ष में एक सैन्य समाधान कम-से-कम मौजूदा वक़्त में सबसे अच्छा नतीजा है. इसके अलावा कोई भी चीज़ या तो अवास्तविक है या ख़राब और इसलिए अस्वीकार्य है, न सिर्फ़ पाकिस्तान को बल्कि तालिबान और अफ़ग़ान हुकूमत को भी.
अफ़ग़ानिस्तान में बातचीत के ज़रिए एक राजनीतिक समाधान की तलाश असल में बेकार की उम्मीद है. तालिबान और पाकिस्तान के लिए ‘राजनीतिक समाधान’ की चर्चा सिर्फ़ अमेरिका और अफ़ग़ान हुकूमत को कसना है, पाकिस्तान के स्थानीय लोगों की बातचीत की भाषा में कहें तो प्रतिद्वंदी की नक़ल करना. अफ़ग़ानिस्तान में किसी भी तरह के राजनीतिक समाधान की उम्मीद हमेशा से बेहद कम रही है क्योंकि ‘इस्लामिक गणराज्य’ और ‘इस्लामिक अमीरात’ के बीच की दरार को पाटना संभव नहीं है. यही वजह है कि कोई ‘सत्ता की साझेदारी वाला समझौता’ कभी काम नहीं करेगा. तालिबान जब सत्ता को पूरी तरह हथिया सकता है तो सत्ता में साझेदारी के लिए तैयार क्यों होगा? तालिबान के युद्ध में थकने की चर्चा बेकार की बातें हैं और इसका कोई सबूत नहीं है. अगर इस आख़िरी दौर में तालिबान सत्ता साझा करने के लिए तैयार हो भी जाए तो वो सिर्फ़ अपनी शर्तों, अपने कब्ज़े के तहत और इस्लामिक गणराज्य की जगह अमीरात के नाम पर ऐसा करेगा. दूसरे शब्दों में कहें तो तालिबान अपने दुश्मनों पर रोटी का छोटा सा टुकड़ा फेंककर अपनी ‘दरियादिली’ दिखाएगा लेकिन वो भी तब जब पूरी तरह तालिबान का अधिकार होगा. ये ऐसी स्थिति है जिसके लिए अफ़ग़ान सरकार शायद ही तैयार होगी, बिना लड़ाई के तो बिल्कुल भी नहीं.
अफ़ग़ानिस्तान में अंतरिम सरकार का विचार भी असंभव है. 1992 में अंतरिम सरकार की कोशिश की गई थी जब सभी पक्षों ने आगे की एक रूप-रेखा पर हस्ताक्षर किए थे. मक्का समेत सभी जगह जो विश्वास दिए गए उनका पालन नहीं किया गया. उस अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री गुलबुद्दीन हिकमतयार कभी काबुल नहीं घुस पाए और फिर उन्होंने अपने पाकिस्तानी आकाओं की मदद से काबुल को बम से तबाह कर दिया. इस तरह की एक और अंतरिम सरकार का वही हश्र होगा. वास्तव में उम्मीद ये भी है कि अगर तालिबान ऐसी सरकार को स्वीकार कर भी लेता है तो वो इसका इस्तेमाल अपने पांव पसारने के लिए करेगा.
तालिबान के युद्ध में थकने की चर्चा बेकार की बातें हैं और इसका कोई सबूत नहीं है. अगर इस आख़िरी दौर में तालिबान सत्ता साझा करने के लिए तैयार हो भी जाए तो वो सिर्फ़ अपनी शर्तों, अपने कब्ज़े के तहत और इस्लामिक गणराज्य की जगह अमीरात के नाम पर ऐसा करेगा.
अगर राजनीतिक समाधान और अंतरिम सरकार बेकार की बातें हैं तो ईरान, चीन, पाकिस्तान, रूस, मध्य एशियाई देशों और भारत को शामिल करके क्षेत्रीय समाधान की चर्चा न सिर्फ़ पूरी तरह से अवास्तविक है बल्कि ये त्रासदी की वजह भी बन सकता है. 1990 के दशक से इस तरह के क्षेत्रीय समाधान की कोशिश कई बार की जा चुकी है. ये उस वक़्त काम नहीं आया, अब भी काम नहीं आएगा. हर क्षेत्रीय ताक़त का अपना स्वार्थ है जो न सिर्फ़ एक या एक से ज़्यादा क्षेत्रीय ताक़त के हितों के ख़िलाफ़ है बल्कि अफ़ग़ानिस्तान या अफ़ग़ान लोगों के हितों से भी मेल नहीं खाता.
राजनीतिक और कूटनीतिक समाधान असंभव या अव्यावहारिक होने के साथ ये स्पष्ट है कि पिछले एक दशक से ज़्यादा समय से चल रहा गृह युद्ध अब और भी ज़्यादा क्रूरता के साथ लड़ा जाएगा. जब तक अफ़ग़ान सरकार अमेरिकी सैनिकों की पूरी तरह वापसी के कुछ हफ़्तों के भीतर झुक नहीं जाती तब तक गृह युद्ध महीनों तक खिंचता रहेगा, हो सकता है कि कई वर्षों तक युद्ध चलता रहेगा. अफ़ग़ानिस्तान में लंबे समय तक गृह युद्ध साफ़ तौर पर पाकिस्तान के हित में नहीं है. अफ़ग़ानिस्तान में गृह युद्ध लंबा छिड़ने पर कनेक्टिविटी और मध्य एशियाई व्यापार और रास्ते का केंद्र बनने, चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर को अपना ख़र्च चलाने के लिए सक्षम बनाने और दोस्ताना और शांतिपूर्ण अफ़ग़ानिस्तान होने के कारण राजनीतिक और सामरिक तौर पर फ़ायदा उठाने की पाकिस्तान की लंबी-चौड़ी योजना नाकाम हो जाएगी. इससे भी ख़राब बात ये है कि अफ़ग़ानिस्तान में एक लंबा और ख़ूनी गृह युद्ध पाकिस्तान तक फैल जाएगा. उस हालत में शरणार्थी पाकिस्तान में पहुंच जाएंगे और अफ़ग़ानिस्तान की अस्थिरता का असर पाकिस्तान की सुरक्षा पर भी पड़ेगा.
इस परिस्थिति से बचने के लिए पाकिस्तान के पास दो ही रास्ते हैं. पहला रास्ता है कि पाकिस्तान वास्तव में मेल-मिलाप के लिए तालिबान से सख़्ती करे जिससे कि तालिबान एक अंतरिम सरकार (अगर ये संभव हो भी जाए तो भी काम करना असंभव है) के तहत सत्ता साझा करने का समझौता करने के लिए तैयार (जिसके बारे में हमने पहले ही कहा है कि कहना असान है, करना मुश्किल) हो. फिर उसके बाद अफ़ग़ानिस्तान की संवैधानिक संरचना और राजनीतिक शैली के लिए आम राय विकसित की जाए. जो पाकिस्तान ये सब अपने देश में हासिल करने में कामयाब नहीं हो पाया है, उससे अफ़ग़ानिस्तान में ये हासिल करने की उम्मीद रखना सीधे-सीधे ग़लती है. वैसे भी पाकिस्तान ऐसा करने में होशियार रहेगा क्योंकि वो नहीं चाहेगा कि तालिबान और दूसरे इस्लामिक गुटों से ज़्यादा सख़्ती बरते क्योंकि ऐसा करने पर वो पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भी हो सकते हैं. पाकिस्तान पर तालिबान और दूसरे इस्लामिक गुटों की निर्भरता पिछले एक या दो वर्षों में काफ़ी हद तक कम हो गई है और अमेरिका के चले जाने के बाद ये निर्भरता और भी कम हो जाएगी. अगर पाकिस्तान की सेना ज़्यादा सख़्ती की कोशिश करती है तो तालिबान पलटवार करेगा. तालिबान के पास तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) और उससे जुड़े संगठन और शायद दूसरे जातीय चरमपंथी समूह भी हैं जिनको पाकिस्तान के ख़िलाफ़ छोड़ दिया जाएगा.
अगर राजनीतिक समाधान और अंतरिम सरकार बेकार की बातें हैं तो ईरान, चीन, पाकिस्तान, रूस, मध्य एशियाई देशों और भारत को शामिल करके क्षेत्रीय समाधान की चर्चा न सिर्फ़ पूरी तरह से अवास्तविक है बल्कि ये त्रासदी की वजह भी बन सकता है.
पाकिस्तान के पास दूसरा विकल्प है तालिबान को सैन्य सहायता में बढ़ोतरी करना. बिल्कुल ऐसा ही पाकिस्तान ने 1990 के दशक में किया था और इसको 2020 के दशक में दोहरा सकता है. वास्तव में इस बार युद्ध में तालिबान को पाकिस्तान की मदद पहले के मुक़ाबले और भी ज़्यादा होगी क्योंकि पाकिस्तान चाहेगा कि तालिबान के विरोधी जल्दी-से-जल्दी पस्त हो जाएं. जैसा कि पहले भी कहा गया है, अफ़ग़ानिस्तान में लंबा गृह युद्ध पाकिस्तान बर्दाश्त नहीं कर सकेगा. निस्संदेह अगर अफ़ग़ान राष्ट्रीय सुरक्षा बल झुक जाता है तो पाकिस्तान दिखावा करेगा कि वो पाक साफ़ है.
तालिबान की जीत या अफ़ग़ानिस्तान में अराजकता की हालत में पाकिस्तान में तबाही होने को लेकर जो भी ख़ौफ़नाक चेतावनी दी जा रही है, वो वास्तव में पाकिस्तान के सैन्य प्रशासन को ये सोच बनाने में मदद करती है कि वो किस तरह तूफ़ान का सामना कर रहा है और उसे ज़्यादा अंतर्राष्ट्रीय सहायता की ज़रूरत है. कहने की ज़रूरत नहीं है कि वास्तव में पाकिस्तान ने तेज़ी से बढ़ रहे तूफ़ान को उभारा है और तालिबान को आगे बढ़ने से रोकने के लिए उसने कुछ नहीं किया है, को सुविधाजनक ढंग से भुला दिया गया है. किसी भी सूरत में इनमें में किसी भी चेतावनी का सैन्य प्रशासन की नीति पर कोई असर नहीं होगा. सैन्य प्रशासन ये सोचता है कि भविष्य में सब कुछ ठीक होगा.
पाकिस्तान चाहेगा कि तालिबान के विरोधी जल्दी-से-जल्दी पस्त हो जाएं. जैसा कि पहले भी कहा गया है, अफ़ग़ानिस्तान में लंबा गृह युद्ध पाकिस्तान बर्दाश्त नहीं कर सकेगा.
पाकिस्तान को लगता है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का शासन होने पर सामरिक, राजनीतिक और आर्थिक फ़ायदों के अलावा वो पश्तून इलाक़ों में अलगाववाद को भी कुचल सकेगा जिसकी अगुवाई पश्तून तहफ़्फ़ुज़ मूवमेंट कर रहा है. कूटनीतिक तौर पर देखें तो पाकिस्तान के सैन्य प्रशासन का आकलन होगा कि जब तक पश्चिमी देशों में अफ़ग़ानिस्तान से जुड़ा कोई आतंकी हमला नहीं होगा तब तक पश्चिमी देश अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम की तरफ़ देखेंगे भी नहीं. किसी भी सूरत में अफ़ग़ानिस्तान से शर्मिंदगी भरी विदाई के बाद न तो अमेरिका, न ही उसके दूसरे सहयोगी किसी जल्दबाज़ी में वहां फिर से लौटने वाले हैं. आसमान से छेड़े जाने वाले अभियान की योजना कोरी बातें हैं. आख़िर, 1,00,000 अमेरिकी सैनिक जो ज़मीन पर हासिल नहीं कर पाए वो आसमान से अभियान चलाकर कैसे हासिल करेंगे? अमेरिका ज़्यादा-से-ज़्यादा पाकिस्तान पर ‘और काम करने’ के लिए दबाव डालेगा. शायद अमेरिका कोई सैन्य अड्डा या दुश्मन पर नज़र रखने के लिए चौकी देने को पाकिस्तान की तरफ़ और झुकेगा. ऐसा होने पर पाकिस्तान धर्मसंकट में पड़ जाएगा लेकिन ये ऐसी भी स्थिति नहीं होगी जिसकी वजह से पाकिस्तान अनावश्यक रूप से चिंतित हो.
इधर-उधर- दोनों तरफ़ से खेलने में माहिर पाकिस्तान अमेरिका को सैन्य अड्डे दे सकता है लेकिन वो अमेरिका से भारी रक़म लेने, हथियार मांगने और शायद कुछ राजनीतिक और कूटनीतिक समर्थन लेने के अलावा कुछ गंभीर शर्तें भी लाद सकता है. दूसरे शब्दों में कहें तो पाकिस्तान ख़ुद को सस्ते में अमेरिका को बेचने की ग़लती नहीं दोहराएगा. ऐसा करते वक़्त पाकिस्तान तालिबान से कहेगा कि वो अमेरिका के साथ इस तरह के समझौते के ख़िलाफ़ प्रतिक्रिया न दे. तालिबान को पाकिस्तान ये कहकर लुभाएगा कि जिस तरह 20 वर्षों तक पाकिस्तान ने अमेरिका को हर तरह की सुविधा देते हुए तालिबान को भी जीत हासिल करने में मदद की, ठीक उसी तरह वो इस बार भी ये सुनिश्चित करेगा कि पाकिस्तान में अमेरिका की मौजूदगी से तालिबान के शासन को कोई गंभीर नुक़सान न हो.
आसमान से छेड़े जाने वाले अभियान की योजना कोरी बातें हैं. आख़िर, 1,00,000 अमेरिकी सैनिक जो ज़मीन पर हासिल नहीं कर पाए वो आसमान से अभियान चलाकर कैसे हासिल करेंगे
ये सभी बातें काग़ज़ों पर अच्छी लगती हैं. लेकिन भयानक ढंग से हैरान करने की अफ़ग़ानिस्तान की एक ख़राब आदत है जो बेहद सावधानी से बनाई गई योजना को भी बिगाड़ देती है. किसी भी सूरत में, पाकिस्तान का ग़लत आकलन करने का ख़राब ट्रैक रिकॉर्ड रहा है. 1990 के दशक में भी पाकिस्तान ने सोचा था कि उसने सब कुछ सोच-विचार लिया है. लेकिन उसकी योजना तेज़ी से नाकाम हो गई. क्या 2020 का दशक उससे कुछ अलग होगा? दूसरे शब्दों में कहें तो, अफ़ग़ानिस्तान में उसने जो चाहा वो मिलना और जिसके लिए उसने इतनी मेहनत की- यानी तालिबान को फिर से सत्ता में लाना- वो पाकिस्तान के लिए क्या असल त्रासदी में तब्दील हो जाएगी?
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Sushant Sareen is Senior Fellow at Observer Research Foundation. His published works include: Balochistan: Forgotten War, Forsaken People (Monograph, 2017) Corridor Calculus: China-Pakistan Economic Corridor & China’s comprador ...
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