Author : Rajiv Sinha

Published on Feb 17, 2024 Updated 0 Hours ago
पाकिस्तानी फ़ौज: एक ज़िद्दी अभिभावक

पाकिस्तान में फ़ौज को अक्सर मुल्क की बुनियाद कहा जाता है, क्योंकि एक बुरी तरह बंटे हुए घरेलू मंज़र में फ़ौज ही देश को एकजुट करने वाला संगठन है. ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो, बेनज़ीर भुट्टो और तीन बार प्रधानमंत्री रह चुके नवाज़ शरीफ़ जैसे राजनेताओं ने जब भी बेहद ताक़तवर फ़ौज पर हावी होने की कोशिश की, तो या तो उन्हें इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ी, या फिर आख़िर में उन्हें फ़ौज से समझौता करना पड़ा. हालांकि, इमरान ख़ान ने सोचा था कि वो सबसे जुदा हैं और अगर वो एक बार सत्ता में आ गए, तो फिर सारे समीकरणों को बदल सकते हैं.

जनरल क़मर जावेद बाजवा के आर्मी चीफ का पद संभालने से ठीक पहले, नवंबर 2016 में सोशल मीडिया पर अभियान चलाया गया कि उनके ख़ानदान का ताल्लुक़ अहमदिया समुदाय से है. बाद में ठीक इसी तरह मौजूदा आर्मी चीफ जनरल आसिम मुनीर के बारे में अफ़वाहें फैलाई गईं कि वो शिया हैं.

2016 में पनामा लीक्स की ख़बरें आने और नवाज़ शरीफ़ को सत्ता से बेदख़ल किए जाने के बाद से हालात बेहद उथल-पुथल भरे हो गए थे. क्योंकि, नवाज़ शरीफ़ अपनी संवैधानिक शक्ति के प्रदर्शन के चलते देश के सत्ता तंत्र के मुक़ाबले में खड़े हो गए थे. नवाज़ शरीफ़ ने ‘वोट को इज़्ज़त देने’ की मांग की, और उन्होंने सियासत में फ़ौज़ी दख़लंदाज़ी की तरफ़ इशारा करते हुए बिना नाम लिए हुए दबे ढके शब्दों में ‘ख़लायी मख़लूक’ (अदृश्य हाथ या फ़ौज) का भी नाम लिया.

इससे पहले, जनरल क़मर जावेद बाजवा के आर्मी चीफ का पद संभालने से ठीक पहले, नवंबर 2016 में सोशल मीडिया पर अभियान चलाया गया कि उनके ख़ानदान का ताल्लुक़ अहमदिया समुदाय से है. बाद में ठीक इसी तरह मौजूदा आर्मी चीफ जनरल आसिम मुनीर के बारे में अफ़वाहें फैलाई गईं कि वो शिया हैं. हालांकि उनकी पत्नी इरम ज़रूर शिया हैं. इसका मक़सद, दोनों सेनाध्यक्षों के कार्यकाल को बदनाम करना और चोट पहुंचाना था. हालांकि, ये कोशिशें फ़ौज की ताक़त को कम करने में बिल्कुल नाकाम रहीं. दोनों ही जनरल अपने ख़िलाफ़ चलाई गई इस मुहिम से और ताक़तवर होकर उभरे क्योंकि यह संस्थान पूरी ताक़त से अपने नेताओं के पीछे खड़ा हो गया था.

 

जनरल बाजवा की निगरानी मे इमरान ख़ान को अगस्त 2018 में प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठाने का हाइब्रिड प्रयोग बहुत जल्दी ही नाकाम होने लगा. इसकी बड़ी वजह नए प्रधानमंत्री का प्रशासन से जुड़े हर मामले में अहंकारी और सनकी रवैया अपनाना था. ‘सेम पेज’ का शोर बहुत जल्दी मद्धम पड़ गया क्योंकि इमरान ख़ान न केवल अपनी ताक़त दिखाने की कोशिश करने लगे, बल्कि उन्होंने फ़ौज के अंदरूनी कामकाज में भी दख़लंदाज़ी करने की कोशिश की और इस तरह उन्होंने एक लक्ष्मण रेखा लांघनी चाही. ये विडम्बना ही है कि 2019 में इमरान ख़ान ने ही प्रधानमंत्री के तौर पर जनरल बाजवा का कार्यकाल तीन साल के लिए बढ़ाया था. लेकिन, दोनों के बीच भयंकर मतभेद पैदा हो गए, जिसकी वजह से प्रतिष्ठान को एक और प्रधानमंत्री को पद से हटाना पड़ा. हालांकि, इस बार जब प्रशासन और अर्थव्यवस्था की हालत बिगड़ने लगी, तो इमरान ख़ान को अविश्वास प्रस्ताव का संवैधानिक तरीक़ा अपनाकर सत्ता से बेदख़ल किया गया. 

 

सत्ता में सेना का महत्व 

 

अप्रैल 2022 में अपनी सरकार के ख़िलाफ़ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव के बाद इमरान ख़ान ने सोशल मीडिया पर अपनी लोकप्रियता को कुछ ज़्यादा ही गंभीरता से ले लिया और उन्होंने ये मानने की भूल कर डाली कि वो सत्ता से टकराकर सही-सलामत बच निकल सकते हैं. वो फ़ौज के ख़िलाफ़ और आक्रामक होकर हमले करने लगे. इमरान ख़ान ने अफ़ग़ानिस्तान, अमेरिका और भारत को लेकर अपने देश की सुरक्षा और विदेश नीतियों पर सवाल उठाए और अपने ख़िलाफ़ खड़े जनरलों का खुलकर नाम लिया. ये बात अब तक वर्जित मानी जाती थी. सत्ता में बने रहने की बेसब्र कोशिशों में उन्होंने फ़ौजी जनरलों को ‘मीर जाफर और मीर सादिक़’ या ग़द्दार तक कह डाला और फौजियों से अपील की कि वो जनरलों का तख़्तापलट कर डालें. फ़ौज के ख़िलाफ़ अपने हमलों में इमरान ख़ान हद से आगे बढ़ गए और यहां तक कि उन्होंने अमेरिका पर भी ये इल्ज़ाम लगाया कि वो संस्था के साथ मिलकर उन्हें सत्ता से उखाड़ फेंकने की साज़िश में शामिल है; इमरान ख़ान ने एक साथ ही कई लक्ष्मण रेखाएं पार कर डाली थीं.

 

इसी दौरान जनरल बाजवा के रिटायर होने पर जनरल आसिम मुनीर को नवंबर 2022 में नया आर्मी चीफ नियुक्त किया गया. जनरल मुनीर के साथ इमरान ख़ान की पुरानी दुश्मनी थी. असल में अक्टूबर 2018 में जनरल बाजवा ने लेफ्टिनेंट जनरल आसिम मुनीर को आईएसआई का महानिदेशक नियुक्त किया गया था. लेकिन, आठ महीनों के भीतर ही उन्हें इमरान ख़ान के दबाव में हटाना पड़ा था. आरोप था कि उन्होंने इमरान ख़ान की पत्नी बुशरा बीबी उर्फ़ ‘पिंकी पीरनी’ के भ्रष्टाचार को उजागर किया था. जनरल मुनीर को इसलिए भी आईएसआई से हटा दिया गया क्योंकि इमरान ख़ान अपने क़रीबी लेफ्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद को उस पद पर बिठाना चाहते थे. उस वक़्त तक जनरल बाजवा और इमरान ख़ान के रिश्ते ठीक चल रहे थे, इसलिए बाजवा ने भी उनकी बात मान ली थी.

इमरान ख़ान जब फ़ौज पर लगातार हमले कर रहे थे, तो लोगों को हैरान करते हुए जनरल आसिम मुनीर ने ख़ामोशी अख़्तियार कर रखी थी. इसकी वजह से कई लोगों ने उनको कमज़ोर और फ़ैसला लेने में अक्षम तक बता डाला था.

इमरान ख़ान जब फ़ौज पर लगातार हमले कर रहे थे, तो लोगों को हैरान करते हुए जनरल आसिम मुनीर ने ख़ामोशी अख़्तियार कर रखी थी. इसकी वजह से कई लोगों ने उनको कमज़ोर और फ़ैसला लेने में अक्षम तक बता डाला था. लेकिन, अब ये बात यक़ीन के साथ कही जा सकती थी कि जनरल मुनीर बस सही वक़्त का इंतज़ार कर रहे थे और इमरान ख़ान को अपने ही बुने जाल में फंसने दे रहे थे. जनरल मुनीर को 9 मई 2023 को मौक़ा मिला. जब इमरान ख़ान को गिरफ़्तार किए जाने के ख़िलाफ़ नाराज़गी दिखाते हुए उनके समर्थकों ने पूरे मुल्क में फ़ौज के ठिकानों और उसकी संपत्तियों पर हमले किए, तोड़ फोड़ की. रावलपिंडी में फ़ौज के मुख्यालय से लेकर लाहौर में कोर कमांडर का घर भी इमरान समर्थकों का निशाना बने. ये वही मौक़ा था, जिसका जनरल मुनीर पूरे सब्र के साथ इंतज़ार कर रहे थे. इन हमलों के प्रति प्रतिष्ठान की प्रतिक्रिया बड़ी तेज़ और सख़्त रही. सैकड़ों लोगों को गिरफ़्तार कर लिया गया, जिनमें पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (PTI) के कई नेता भी शामिल थे. इनके ख़िलाफ़ सैन्य अदालतों में मुक़दमा चलाने का फ़ैसला किया गया.

 

आज की तारीख़ में इमरान ख़ान जेल में हैं. हालांकि, न्यायपालिका से उन्हें कुछ रियायतें ज़रूर मिल गई हैं. लेकिन, इमरान ख़ान की उन उम्मीदों पर पानी फिर गया है कि उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने से लोगों का ग़ुस्सा सड़क पर फूट पड़ेगा जिसकी वजह से संस्थान को बहुत सावधानी से क़दम उठाने को मजबूर होना पड़ेगा. सड़क पर समर्थकों का नेतृत्व करने वालों की कमी ने इस चुनौती की हवा निकाल दी. इमरान ख़ान की पार्टी PTI का लगभग सफ़ाया कर दिया गया. तहरीक-ए-इंसाफ़ के ज़्यादातर नेता या तो जेल में हैं या फिर ‘अदृश्य हाथों’ के ग़ुस्से का शिकार होने से बचने के लिए पार्टी छोड़ रहे हैं. आसिम मुनीर पूरी मज़बूती से अपने पद पर विराजमान हैं और अब उन्होंने अपनी स्थिति इतनी मज़बूत कर ली है कि उन्हें हिला पाना और भी दुश्वार हो गया है. ‘तुरंत प्रतिक्रिया न देने’ के उनके तरीक़े से इमरान ख़ान को लगा था कि वो अजेय हैं और वो देश के संरक्षकों से भी टकरा सकते हैं. उनको इस बात का एहसास शायद नहीं था कि ये तो उनका ख़ात्मा करने की रणनीति थी. पाकिस्तान के हर मामले में फ़ौज की भूमिका को तब और मज़बूती मिल गई, जब संसद ने 1952 के आर्मी एक्ट में संशोधन करने वाला बिल पारित कर दिया. इस बदलाव के बाद फ़ौज को हर उस शख़्स के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का अधिकार मिल गया है, जो ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट के तहत, देश की सुरक्षा या फिर फ़ौज के बारे में कोई संवेदनशील जानकारी सार्वजनिक करता है.

 

चुनाव में हस्तक्षेप 

 

इस क़ानून ने तहरीक-ए-इंसाफ़ के इर्द गिर्द फंदा और कस दिया है. 9 मई के उपद्रव और देश की सियासत में शामिल जनरलों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करके जनरल मुनीर ने जता दिया है कि हालात और फ़ौज दोनों ही, पूरी तरह उनके नियंत्रण में हैं. अपने पहले के सेनाध्यक्षों की तरह ही जनरल मुनीर ने भी अहम पदों पर ऐसे अफ़सरों को तैनात कर दिया है, जिन पर वो भरोसा करते हैं और उन्होंने अपने वफ़ादारों को भी आगे बढ़ाया है. वो देश के राजनीतिक और सामाजिक आर्थिक मामलों में दख़ल रखने वालों के साथ लगातार बैठकें कर रहे हैं, और विदेशी मेहमान उनसे मिलने के लिए फ़ौज के मुख्यालय पहुंच रहे हैं. जनरल मुनीर ने संयुक्त अरब अमीरात (UAE), तुर्की, ईरान, मध्य एशिया और अमेरिका समेत कई देशों के आधिकारिक दौरे भी किए हैं, ताकि वो अपने सहयोगी और दोस्त देशों को हालात क़ाबू में होने का भरोसा दे सकें. बलूचिस्तान की हवाई सीमा में ईरान की घुसपैठ के जवाब में पाकिस्तान की तरफ़ से की गई फ़ौरी कार्रवाई, हालात के एक आर्मी चीफ के नियंत्रण में होने और इस हक़ीक़त का संकेत देने वाली है कि संस्थान के भीतर ऐसी कोई दरार नहीं है, जिससे कमान और नियंत्रण की व्यवस्था में कोई गड़बड़ी आ सके. 

 

घटनाओं में अपेक्षित बदलाव के अनुरूप ब्रिटेन में रह रहे नवाज़ शरीफ़ को स्वघोषित देश निकाला ख़त्म करके वापस आने की इजाज़त दे दी गई. ये मध्यस्थता से किया गया समझौता है, जहां नवाज़ शरीफ़ को ये बता दिया गया था कि वो अपनी पुरानी ग़लतियों को न दोहराएं. लाहौर में मीनार-ए-पाकिस्तान में भीड़ को संबोधित करते हुए नवाज़ शरीफ़ ने जो भाषण दिया, वो फ़ौज की सहमति के बग़ैर मुमकिन नहीं था. लाहौर में नवाज़ शरीफ़ की तक़रीर बेहद नरमी भरी थी और इसमें उन्होंने इस बात का कोई संकेत नहीं दिया कि वो पाकिस्तान के सामने खड़ी भयंकर आर्थिक चुनौतियों को कैसे दूर करेंगे. हालांकि, नवाज़ शरीफ़ ने भारत समेत तमाम पड़ोसी देशों के साथ संबंध सुधारने की बात ज़रूर की, जो उनके मुताबिक़ विकास और तरक़्क़ी की पहली शर्त है.

पाकिस्तान में फ़ौज नियंत्रित लोकतंत्र के विकल्प को आज़माती रहेगी और वो देश के बदनाम और आसानी से नियंत्रित किए जा सकने वाले नेताओं को बारी बारी से सत्ता में बिठाती रहेगी, ताकि अपनी सर्वोच्च शक्ति को क़ायम रख सके.

नवाज़ शरीफ़ की वतन वापसी इस तथ्य को भी रेखांकित करती है कि पाकिस्तान में फौज के पास आर्थिक संकटों की वजह से पैदा हुई तमाम चुनौतियों का कोई जवाब नहीं है. तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) के उभार की वजह से सुरक्ष के लिए खड़े हुए ख़तरे (2023 में हिंसा में 57 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है), सांप्रदायिक संघर्षों, बलोच अलगाववादी राष्ट्रवाद और गिलगित बाल्टिस्तान (GB) एवं पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर (PoK) में असहज हालात जो लगभग पांच हफ़्तों से सुलग रहे हैं- और क़रीबी पड़ोसी देशों के साथ ख़राब रिश्ते या फिर सिंधियों बलूचों और पश्तूनों द्वारा पंजाब के उग्र राष्ट्रवाद के सामने झुकने से इनकार कर देने ने इन चुनौतियों को और बढ़ा दिया है. पाकिस्तान में फ़ौज नियंत्रित लोकतंत्र के विकल्प को आज़माती रहेगी और वो देश के बदनाम और आसानी से नियंत्रित किए जा सकने वाले नेताओं को बारी बारी से सत्ता में बिठाती रहेगी, ताकि अपनी सर्वोच्च शक्ति को क़ायम रख सके.

 

इन्हीं मुश्किल हालात के बीच 8 फ़रवरी को देश की संसद और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होने की संभावना है. उम्मीद यही है कि चुनाव के दौरान सुरक्षा के लिए चुनौती बनने वाली कोई बड़ी चुनौती पैदा नहीं होगी. इन चुनावों में किसी एक दल को पूर्ण बहुमत मिलने की उम्मीद नहीं है. और, न ही इमरान ख़ान की तथाकथित लोकप्रियता वोटों में तब्दील होगी. हालांकि, भागीदारी वाले लोकतंत्र का मुखौटा बनाए रखते हुए PTI को कुछ सीटें जी लेने दी जाएंगी. संभावना यही है कि पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी, हालांकि, वो अपने दम पर सरकार बना पाने की हैसियत में शायद ही हो. इसलिए, बलूचिस्तान अवामी पार्टी (BAP), मुत्तहिदा क़ौमी मूवमेंट (MQM) और बची खुची PTI पार्लियामेंटेरियंस, इस्तेहकाम ए पाकिस्तान (IPP) पार्टी और निर्दलीय सांसद किंगमेकर बनकर उभरेंगे. ऐसा लगता है कि नवाज़ शरीफ़ केंद्र में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाने के इच्छुक नहीं हैं. संभावना यही है कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (PPP) सिंध पर अपना नियंत्रण बनाए रखेगी और वो BAP के समर्थन से बलूचिस्तान की सत्ता पर भी क़ाबिज़ हो सकेगी. ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में मौलाना फज़लुर्रहमान और परवेज़ खट्टक के बीच कुर्सी की होड़ लगेगी. पंजाब में इस बात को लेकर दुविधा है कि क्या संस्थान , PML-N को केंद्र के साथ साथ पंजाब की सत्ता पर क़ाबिज़ होने की इजाज़त देगा. पाकिस्तान मुस्लिम लीग में, नवाज़ शरीफ़ चाहेंगे कि उनकी बेटी मरियम नवाज़ पंजाब सूबे की चीफ मिनिस्टर बनें. लेकिन, उनके छोटे भाई शहबाज़ शरीफ़ ने भी इस पद के लिए अपनी दावेदारी पेश कर दी है. हालांकि, शहबाज़ पर संस्थान बहुत भरोसा करता है और हो सकता है कि वो केंद्र में बनने वाली सरकार की अगुवाई करें. तोशाखाना और सिफर मामलों में इमरान ख़ान को सज़ा होने और अल क़ादिर केस में उनको पत्नी बुशरा बीबी के साथ सज़ा देकर PTI के मतदाताओं को बता दिया गया है कि इमरान ख़ान लंबे समय तक जेल से बाहर नहीं आने वाले हैं. नई संसद में हो सकता है कि PTI को दस बीस सीटें मिल जाएं.

 

आगे क्या ?

 

निकट भविष्य में पाकिस्तान में ऐसा कोई नया नेतृत्व उभरने की उम्मीद नहीं है, जिसके पास कोई नया नैरेटिव या ताज़ा नज़रिया हो. नवाज़ शरीफ़ की वापसी, किसी भी तरह की नई राजनीति के उभरते या फिर बड़े सुधारों की राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव दिखाते हैं, जो देश की आर्थिक स्थिरता के लिए ज़रूरी हैं. इसके बावजूद, अपनी विश्वसनीयता पर हमले के बाद भी पाकिस्तान में फ़ौज ही ऐसा इकलौता संस्थान है, जो अवाम के बीच वफ़ादारी का जज़्बात जगाती है. ज़मीनी स्तर पर संस्था एक ज़िद्दी अभिभावक बना हुआ है, जो मुल्क को आगे की ओर ले जा सकता है. हालांकि, इसके नतीजे ख़राब ही निकलते आए हैं.

 

दक्षिणी एशिया में पाकिस्तान के पड़ोसी देशों को इस सच्चाई को स्वीकार करके तब तक इसी से निपटना होगा, मध्यम अवधि में जब तक वहां सत्ता का कोई वैध समीकरण नहीं उभरता है. फ़ौरी भविष्य की बात करें, तो जनरल आसिम मुनीर के कार्यकाल में पाकिस्तान की विदेश और सुरक्षा नीतियों में कोई बड़ा बदलाव आने की संभावना नहीं के बराबर है. पाकिस्तान और भारत के बीच की दुविधा बनी रहेगी और जनरल मुनीर अपने पूर्ववर्ती से कहीं ज़्यादा अड़ियल साबित हो सकते हैं. दोनों देशों के मामले में जनरल बाजवा की डॉक्ट्रिन आगे भी जारी रहेगी या नहीं, ये तो तय नहीं है. लेकिन, जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान के लिए तमाम विकल्प ज़रूर खुले हुए हैं. बहुत जल्दी ही भारत में भी चुनाव का माहौल होगा और पाकिस्तान की नई सरकार कोई नया नीतिगत क़दम उठाने में दिलचस्पी नहीं लेगी, भले ही आने वाले समय में नवाज़ शरीफ़ ही फिर से प्रधानमंत्री क्यों न बन जाएं.

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