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अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान सीमावर्ती क्षेत्रों और उसके बाहर बढ़ रही हिंसा आहिस्ते-आहिस्ते ही सही, पाकिस्तान को अफ़ग़ान-भंवर में अनवरत खींच रही है. कूटनीतिक चालों के साथ-साथ, पाकिस्तान और तालिबान की एक-दूसरे के खिलाफ सैन्य कार्रवाइयां भी पहले से जटिल और लगातार उलझते आपसी रिश्तों को और उलझा रही हैं. बेशक दोनों पक्ष सुलह और संघर्ष, दोनों के संकेत दे रहे हैं, लेकिन तनाव कुछ ज्य़ादा ही दिख रहा है, क्योंकि दोनों के बीच आपसी संबंधों में असुरक्षा, धोखेबाज़ी और विश्वासघात की भावना व्यापकता में दिखने लगी है. एक-दूसरे के सामने न झुकने और तनकर खड़े रहने की घरेलू सियासी मजबूरियां और पारंपरिक पंजाबी बनाम पश्तून तनाव के सतह पर आने से भी स्थिति काफी बिगड़ गई है.
कूटनीतिक चालों के साथ-साथ, पाकिस्तान और तालिबान की एक-दूसरे के खिलाफ सैन्य कार्रवाइयां भी पहले से जटिल और लगातार उलझते आपसी रिश्तों को और उलझा रही हैं.
वास्तव में, अगस्त, 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद से अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच रिश्ते खराब होते गए हैं. इसका एक बड़ा कारण दो तरह के अलगाववाद में आया उबाल है - पहला, खैबर पख्तूनख्व़ा और बलूचिस्तान के पश्तून इलाकों में तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) द्वारा, और दूसरा, बलोच इलाकों में बलोच अलगाववादियों द्वारा. पाकिस्तान ने हरसंभव कोशिश की, लेकिन हिंसा रोकने में वह नाकाम रहा है. बीते साढ़े तीन वर्षों में उसने कई तरीकों से हालात को संभालने का प्रयास किया है. मसलन, तालिबान की मदद से टीटीपी के साथ बातचीत के जरिये उसने कूटनीतिक कदम बढ़ाए, जहीन देवबंदी मौलवियों के प्रभाव का इस्तेमाल किया, अफ़ग़ानिस्तान के साथ होने वाले कारोबार को रोककर व प्रतिबंधित करके आर्थिक तंगी को बढ़ावा दिया, अफ़ग़ान शरणार्थियों को वापस जाने पर मजबूर किया, आतंकी कमांडरों की हत्या की कथित योजना बनाई, अघोषित हवाई व ड्रोन हमले किए और सीमा पार कार्रवाइयां कीं. फिर भी, पाकिस्तान में बढ़ती दहशतगर्दी रोकी नहीं जा सकी है.
साल 2017 से 2024 के बीच वारदतों के बढ़ने के साथ बढ़ा मौत का आंकड़ा

स्रोत- पाकिस्तान सिक्योरिटी रिपोर्ट, 2024, पाकिस्तान इंस्टिट्यूट ऑफ पीस स्टडीज(PIPS)
तनती बंदूकें
पिछले साल दिसंबर में, जब टीटीपी ने दक्षिणी वज़ीरिस्तान में एक सुरक्षा चौकी पर हमला किया और कम से कम 16 सैनिकों की हत्या कर दी, तब पाकिस्तानी फ़ौज को अफ़ग़ानिस्तान में अपनी कार्यनीति और रणनीति, दोनों बदलने को मजबूर होना पड़ा. तात्कालिक प्रतिक्रिया के रूप में पाकटिका सूबे के बरमल जिले में कथित तौर पर टीटीपी शिविरों और एक मीडिया सेंटर पर हवाई हमले किए गए, जिसमें बकौल पाकिस्तान, 70 टीटीपी दहशतगर्द मार गिराए गए. हालांकि, तालिबान की तरफ से जारी बयान के मुताबिक, हताहत होने वालों में ज़्यादातर आम नागरिक थे, उनके अतिवादी इस्लामी आंदोलन को इससे कोई बड़ा नुकसान नहीं पहुंचा था. बेशक, पाकिस्तान ने पहले भी सीमा पार हवाई हमले किए हैं, लेकिन इस बार जो अलग था, वह यह कि इसका ज़्यादातर प्रचार गैर-आधिकारिक चैनलों पर किया गया, वह भी पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान की शह पर. दरअसल, ये हमले उस समय किए गए थे, जब पाकिस्तान के विशेष दूत तालिबान के साथ अपने ठहरे राजनीतिक रिश्ते को फिर से गति देने काबुल में थे, जिसको लेकर कई लोगों की भौंहें तनी हुई थीं.
अतीत के विपरीत, अफ़ग़ानो ने पाकिस्तानी कार्रवाई पर चुप्पी नहीं ओढ़े रखी. उन्होंने न सिर्फ बदला लेने की घोषणा करते हुए इस पर सख्त नाराजगी जताई, बल्कि पाकिस्तानी सीमा पर मौजूद चौकियों को निशाना भी बनाया. हालांकि, दोनों पक्षों की तरफ से शक्ति-प्रदर्शन के बाद सीमा पर संघर्ष समाप्त हो गए, लेकिन वह कूटनीतिक नाकामी थी, जिसने शायद पाकिस्तान को चौंका दिया. दरअसल, अफ़ग़ानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र सहायता मिशन (यूएनएएमए) ने पाकिस्तानी हवाई हमलों पर सवाल खड़े किए और महिलाओं व बच्चों सहित दर्जनों आम नागरिकों की कथित मौतों के लिए उसकी जवाबदेही तय करने के लिए जांच की मांग कर दी. मानो पाकिस्तान के लिए इतना ही बुरा काफी नहीं था, भारत ने भी आम नागरिकों पर हमले की निंदा करते हुए बयान जारी किए और ‘अपनी नाकामी के लिए पड़ोसी देशों पर तोहमत लगाने की प्रवृत्ति’ के लिए पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा किया. हालांकि, पाकिस्तान ने तालिबान शासन के प्रति अपना आक्रामक रुख़ और तेज़ कर दिया. तालिबान को कमजोर करने की मंशा से उसने मनोवैज्ञानिक के साथ-साथ कूटनीतिक चालें चलीं.
कूटनीति और मनोवैज्ञानिक-जंग
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर, पाकिस्तानी राजनयिक अफ़ग़ानिस्तान के इस्लामिक अमीरात को दहशतगर्द का एक नया केंद्र और उभरता वैश्विक खतरा बताते आ रहे हैं. पाकिस्तानियों ने लड़कियों की शिक्षा पर एक सम्मेलन का भी आयोजन किया, ताकि तालिबान शासन को कूटनीतिक रूप से शर्मिंदा किया जा सके. इसके अलावा, पाकिस्तान ऐसा संकेत भी दे रहा है कि वह अपने हित के लिए हर जोख़िम उठाने को तैयार है. इंटर-सर्विसेज़ इंटेलिजेंस (आईएसआई) के प्रमुख मुहम्मद असीम मलिक ने ताज़िकिस्तान का दौरा किया और सुरक्षा मुद्दों, यानी अफ़ग़ानिस्तान के हालात पर उन्होंने ताजिक राष्ट्रपति सहित तमाम अधिकारियों से बातचीत की. इसके बाद पाकिस्तानी मीडिया संस्थानों ने, जिनको पाकिस्तानी फौज का मुखपत्र माना जाता है, यह घोषणा की, कि आईएसआई अब ताज़िकिस्तान में मौजूद नेशनल रेजिस्टेंस फ्रंट (एनआरएफ) जैसे अफ़ग़ान-विरोधी गुटों के साथ मिलकर काम करने जा रही है. उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में एनआरएफ और अन्य तालिबान-विरोधी गुटों की गतिविधियों में अचानक आई तेजी की ओर इशारा करते हुए यह बताने का भी प्रयास किया कि ऐसा संभवतः इसलिए हुआ है, क्योंकि पाकिस्तान ने टीटीपी का समर्थन करने वाले तालिबान के बरअक्स इन गुटों का साथ देना शुरू कर दिया है. संदिग्ध पाकिस्तानी बंदूकधारियों द्वारा जलालाबाद में अब बंद हो चुके भारतीय वाणिज्य दूतावास के एक कर्मचारी को निशाना बनाकर भी यह जताने का प्रयास किया गया कि भारत से जुड़े लोग उनके निशाने पर हैं. काबुल में भारतीय अधिकारियों पर इस तरह सीधा हमला निस्संदेह भारत और तालिबान के लिए गंभीर उकसावे वाली बात होती, क्योंकि तालिवान ने काबुल दूतावास में भारतीय कर्मियों की सुरक्षा सुनिश्चित की है. मगर, एक स्थानीय कर्मचारी को निशाना बनाकर दरअसल बिना ज्यादा भड़काए पाकिस्तान ने अपना हित साधने का प्रयास किया था, ताकि चेतावनी भी दे दी जाए और तनाव भी आगे न बढ़ सके.
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर, पाकिस्तानी राजनयिक अफ़ग़ानिस्तान के इस्लामिक अमीरात को दहशतगर्द का एक नया केंद्र और उभरता वैश्विक खतरा बताते आ रहे हैं. पाकिस्तानियों ने लड़कियों की शिक्षा पर एक सम्मेलन का भी आयोजन किया, ताकि तालिबान शासन को कूटनीतिक रूप से शर्मिंदा किया जा सके.
आईएसआई महानिदेशक (डीजी) के दुशांबे दौरे के समय, पाकिस्तानी सोशल मीडिया में तो वाख़ान गलियारे में पाकिस्तानी सैन्य कार्रवाई से जुड़ी खबरों और कहानियों की मानो बाढ़ आ गई थी, जहां तालिबान की आमद कथित तौर पर रोक दी गई थी और उसका नियंत्रण छीन लिया गया था. तालिबान ने इन दावों का खंडन किया, यहां तक कि उसने रक्षा मंत्री मुल्ला याकूब के वाख़ान दौरे की फुटेज भी जारी की, जहां उन्होंने एलान किया था कि तालिबान कभी भी किसी दूसरे को वाख़ान पर हक़ जताने की अनुमति नहीं देगा. फिर भी, पाकिस्तानी मीडिया ने न सिर्फ़ अफ़ग़ानिस्तान के वाख़ान गलियारे को लीज पर लेने के लिए चीन और पाकिस्तान के बीच अनौपचारिक बातचीत के बारे में भ्रम फैलाना जारी रखा, बल्कि यह भी दावा करने लगा कि पाकिस्तान किस तरह से अफ़ग़ानिस्तान को बांटकर ताज़िकिस्तान से जुड़ने और मध्य एशिया से सीधा संपर्क बनाने के लिए पूरी तरह से तैयार है. ज़ाहिर है, यह सिर्फ़ एक मनोवैज्ञानिक जंग थी. हकीकत में, पाकिस्तान द्वारा वाख़ान को अफ़ग़ानिस्तान से अलग करना जंग का एलान करने जैसा होगा, जिसकी पाकिस्तान सिर्फ़ चेतावनी दे सकता है, ज़मीन पर नहीं उतार सकता, क्योंकि ऐसा करने से अफ़ग़ानिस्तान से पूरी सीमा धधक उठेगी. हालांकि, यह एक सख्त़ संदेश था कि अफ़ग़ानिस्तान पर हमले करने और अफ़ग़ान की ज़मीन पर सक्रिय टीटीपी व बलोच अलगाववादियों को लगातार समर्थन देने के कारण तालिबान से भारी कीमत वसूलने के विकल्प पाकिस्तान के पास मौजूद है.
अच्छे विकल्पों का अभाव
तमाम समीकरण यही इशारा कर रहे हैं कि पाकिस्तानी नीति अब समानांतर रूप से लुभाने और दंडित करने, दोनों रास्तों पर चलने का काम करेगी. इसमें एक तरफ कूटनीतिक, आर्थिक और राजनीतिक जुड़ाव के रूप में पुरस्कार है, तो दूसरी तरफ आक्रामकता, बल प्रयोग, पाकिस्तानी क्षेत्र में आतंकी हमलों के जवाब में जवाबी सैन्य कार्रवाई रूपी दंड. यह कुछ हद तक पाकिस्तान की भारत-नीति की तरह है, जिसमें एक तरफ वह नई दिल्ली से आर्थिक और कूटनीतिक रिश्ते की इच्छा रखता है, तो दूसरी तरफ आतंकवाद का निर्यात भी करता है. हालांकि, यह नीति भले ही कागज पर लुभाती दिखे, पर दो नावों की सवारी करने पर डूबने का खतरा भी रहता है.
असलियत में, पाकिस्तान के पास ऐसा कोई पारितोषिक ही नहीं है, जिससे वह अमन-ओ-चैन खरीद सके, टीटीपी को अफ़ग़ान तालिबान से जोड़ने वाली स्वाभाविक कड़ी को तोड़ सके या उसके वैचारिक झुकाव और प्रतिबद्धताओं को बदलने के लिए मजबूर कर सके. इस तरह की नीति पूर्व में आजमाई जा चुकी है और इसके बहुत सुखद नतीजे नहीं निकल सके थे. यही कारण है कि उसे डंडे से हांकने वाली नीति अपनानी पड़ी. यह सही है कि सैन्य पहल किसी भी अन्य उपायों से बेहतर साबित हुई है, पर कई मायनों में इसमें भी उसके हाथ खाली ही रहेंगे. इस विकल्प में सबसे अच्छा यही होगा कि उसे कुछ समय मिल जाएगा, जो कुछ दिनों का भी हो सकता है और संभवतः कुछ हफ्तों का भी. इस दौरान उग्रवादी हमले कम हो जाएंगे. घरेलू स्तर पर, इससे जम्हूरियत का मुखौटा पहने पाकिस्तान की बेहद अलोकप्रिय सैन्य हुकूमत को जनता में लोकप्रिय होने के लिए कथित काम करने का मौका मिल सकता है, विशेषकर पंजाब सूबे में और अपने लिए वह कुछ राजनीतिक समर्थन फिर से पा सकती है. हालांकि, इस बात की आशंका अधिक है कि बड़े पैमाने पर होने वाले सैन्य अभियान पश्तून आबादी को अलग-थलग कर देंगे, जो पाकिस्तान के पश्चिमी हिस्से में तेज़ी से बिगड़ती कानून-व्यवस्था का खामियाज़ा भुगत रही है.
वैसे, पाकिस्तानी फ़ौज को यही यकीन है कि उसकी ताकत तालिबान को एक सुखद संदेश दे सकती है. पाकिस्तान के हिसाब से, अभी तक उसने महज़ अफ़ग़ानिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों को ही निशाना बनाया है. हालांकि, वह अफ़ग़ानिस्तान के अंदरूनी हिस्सों में अपने हमले कभी भी तेज कर सकता है और उसका दायरा बढ़ा सकता है. चूंकि अब तालिबान पहाड़ियों और गुफाओं में नहीं छिपे हैं, बल्कि शहरों व कस्बों में खुलेआम रह रहे हैं, इसलिए वे पाकिस्तान के लिए एक आसान लक्ष्य बन जाते हैं. मगर पाकिस्तान ने इस पर ध्यान नहीं दिया कि तालिबान भी जवाबी हमले करने में सक्षम है, और अगर ऐसा हुआ, तो पाकिस्तान एक ऐसे भंवर में फंस जाएगा, जिससे वह डूब भी सकता है. मौजूदा हालात में तो और भी, क्योंकि उसकी आर्थिक सेहत खराब है, राजनीति में क्षणभंगुरता है और सैन्य प्रतिष्ठान में मतभेद कायम हैं. अफ़ग़ानिस्तान पर अमेरिका और उससे पहले, सोवियत संघ ने भी हज़ारों हवाई व ज़मीनी हमले किए हैं, पर यहां पर्याप्त संख्या में अपने सैनिकों को उतारने के बावजूद उन दोनों को यह मुल्क छोड़कर भागना पड़ा था.
वैसे, पाकिस्तानी फ़ौज को यही यकीन है कि उसकी ताकत तालिबान को एक सुखद संदेश दे सकती है. पाकिस्तान के हिसाब से, अभी तक उसने महज़ अफ़ग़ानिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों को ही निशाना बनाया है.
इन दोनों महाशक्तियों के पास पाकिस्तान से बहुत ज्यादा संसाधन, सैन्य ताकत, आर्थिक शक्ति और तकनीकी श्रेष्ठता थी, फिर भी उनको अफ़ग़ानिस्तान छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. अगर अमेरिका और सोवियत संघ अफ़ग़ानिस्तान में नहीं टिक पाए, तो पाकिस्तान कैसे टिक पाएगा? पाकिस्तानी फ़ौज के उलट, तालिबान को लड़ने के लिए तमाम साजो-सामान से लैस किसी बड़ी स्थायी सेना की ज़रूरत नहीं है. वह एक हल्की पैदल सेना है, जिसे अच्छी राइफलें, रॉकेट लॉन्चर, कुछ उन्नत बंदूकें, इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (आईईडी) और मानव बम की ज़रूरत होती है, जो उसके पास भारी मात्रा में उपलब्ध हैं.
सख्त़ मुद्रा अपनाकर अपने लिए उम्मीद पालने की रणनीति तब विफल हो जाती है, जब दूसरा पक्ष ऐसी आक्रामकता की अनदेखी कर देता है, जैसा कि इस्लामिक अमीरात के मामले में होने की संभावना है. 2021 में सत्ता हासिल करने के बाद से, तालिबान ने यही संदेश दिया है कि वे अपनी मूल विचारधारा से किसी भी कीमत पर समझौता करने को तैयार नहीं हैं. साम-दाम-दंड-भेद या अनुनय-विनय का उन पर कोई असर नहीं पड़ता. इसीलिए, पाकिस्तान के दबाव में उनके झुकने की संभावना बहुत कम है. हां, वे कुछ अस्थायी सामरिक सहयोग बना सकते हैं, लेकिन किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे पर वे पाकिस्तान के सामने शायद ही हाथ जोड़ना पसंद करेंगे. पाकिस्तान में कुछ लोग संभवतः इसे समझ रहे हैं, लेकिन वहां का सत्ता प्रतिष्ठान यह जोखिम नहीं उठा सकता कि बढ़ते उग्रवाद को थामने के लिए वह कुछ नहीं करता दिखे. उसकी उलझन यही है कि अगर टीटीपी को कुचलने के लिए वह कोई कार्रवाई नहीं करता है, तो इस्लामवादी कहीं अधिक हावी हो जाएंगे और पाकिस्तान को कमजोर कर देंगे. और, अगर वह कोई सैन्य कार्रवाई करता है, तो ऐसे चक्रव्यूह में फंस जाएगा, जो पाकिस्तान की स्थिरता और सुरक्षा की भी बलि ले लेगा.
मुश्किलें तालिबान के सामने भी हैं. वह अपनी वैचारिकी और जातीय बिरादरी के खिलाफ़ काम करने का जोख़िम नहीं उठा सकता, क्योंकि इसने न केवल दुनिया की शक्तिशाली सैन्य ताकतों (अमेरिका और उसके सहयोगियों) के खिलाफ उसका साथ दिया है, बल्कि उस विश्वासघाती व गैर-भरोसेमंद पाकिस्तान के खिलाफ़ भी उसकी मदद की है, जो उन पर अपनी शर्तें थोपना चाहता है और नस्लवादी तिरस्कार को उत्सुक है. एक खतरा यह भी है कि तालिबान अगर टीटीपी पर बहुत ज्य़ादा दबाव डालता है, तो वे अपनी बंदूकें उसी पर तान सकते हैं और इस्लामिक स्टेट खुरासान जैसी गैर-तालिबानी ताकतों के साथ हाथ मिला सकते हैं, जो और भी बुरा होगा.
एक खतरा यह भी है कि तालिबान अगर टीटीपी पर बहुत ज्य़ादा दबाव डालता है, तो वे अपनी बंदूकें उसी पर तान सकते हैं और इस्लामिक स्टेट खुरासान जैसी गैर-तालिबानी ताकतों के साथ हाथ मिला सकते हैं, जो और भी बुरा होगा.
मुश्किल यह भी है कि पाकिस्तान अपने अन्य पड़ोसियों, खास तौर से भारत के साथ रिश्तों को बेहतर बनाने में भी नाकाम रहा है और हमें इसमें कोई ढील देनी भी नहीं चाहिए. उधर, अन्य देश अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए तालिबान से जुड़ना चाहेंगे और ऐसा जितना अधिक होगा, पाकिस्तान के लिए अफ़ग़ान-नीति के दुष्परिणामों को संभालना और मुश्किल होता जाएगा. जाहिर है, पाकिस्तान की अफ़ग़ान-नीति खुद उसी के लिए गले की हड्डी बन गई है.
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में वरिष्ठ फेलो हैं)
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